बुधवार, 6 अप्रैल 2022

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मंगलवार, 1 मार्च 2022

 28

मेरे एक परिचित थे , उन्हें कोई आर्थिक कमी नहीं थी। वे सुखी थे , पर धंटे- दो घंटे ही सहज रह पाते थे, पार्क में घूमने गए ,वहॉं किसी परिचित नेे , उन्हें नमस्कार नहीं किया , उनका गोल चेहरा अचानक टेढ़ा हो जाता। मिलने पर कहते मैंने उसके लिए इतना किया , वह बिना नमस्कार किए ही चला गया। मैंने कहा , भाई साहब आप ही नमस्कार कर लेते , वो मुझसे ही नाराज हो उठे , कैसी बात करते हो , वह मेरे इतने अहसानो का इतनी जल्दी भूल गया। 

वे डायबिटीज के पेशेंट होगए थे। सब कुछ था , पर उनका ही सोच उनके पास दुख का दरवाजा खोल गया। हम दूसरो ंके बारे में इतना सोचते है कभी अपने बारे में नहीं। पुरानी कहावत है , दूसरा ही नरक हैे। पर हम दूसरो ंके चिन्तन में मरने- मरने पर उतारू हो जाते हैं। 


जाना , जिन्दगी से बड़ी कोई किताब नहीं हेै। जब भी कोई तकलीफ आए , उसे वही बांचलो , समाधान अपने आप मिल जाएगा। आपके पास आपका गुरु विवेक आपके ही पास हे। पर हम उसकी सुनना नहीं चाहते , अपने बुद्धि चातुर्य से ही जीवन जीना चाहते हैं।

सभी विद्वत जन समझाते हैं , वाक पर संयम रखें , कम बोले , कम सोचें , पर पाया वही बोलते समय इतना अधिक बोलने लग जाते हैं कि लगता है , दूसरों को प्रभाावित करना ही जीवन मूल्य बन गया है।   

बौद्ध धर्म की देशना को हमेशा याद रखना चाहिए , कि संसार दुखमय है , पर मुझे स्वयं सुखी रहना है। सुख पाना ही मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। मेरा सुख मुझ पर ही निर्भर है। आप अपने अकेले पन को भी जी नहीं पाते , पूरे समय हर दूसरे के बारे में सोच- सोचकर दुखी ही होते रहते हैं, क्यों? इस सवाल का जबाब ही हमारे लिए सुख का द्वार खोल जाता है। 


मेरे सुख के लिए , मेरी पत्नी , मेरा पति , मेरा पुत्र- पुत्री, पड़ौसी , मेरा एम्प्लोयर कोई जिम्मेदार नहीं हैे। में खुश रहूॅं , यह मुझ पर ही निर्भर है। मैं सुखी रहना चाहूॅं तो मुझे कोई दुखी नहीं कर सकता। 

नरेन्द्र नाथ


गुरुवार, 2 दिसंबर 2021

 पाठ 1

सांख्य दर्शन के आने के बाद प्रकृति का अध्ययन हुआ। गीता में प्रकृति को त्रिगुणात्मक माना हे। पदार्थ भी त्रिगुणात्मक हे। इन तीन तत्वो ंसे ही सारी सृष्टि का पसारा हे। आज का विज्ञान भी वरमाणु के तीन यही विभाजन करता हे। हिन्दू परम्परा में , ब्रह्या सृष्टि के जन्मदाता है , विष्णु पालक हैं तथा शिव संहारक हे। इन तीन गुणों के आधार पर ही ये तीन देवता आगए। 


स्वामीजी समझााते थे , यह नाद श्रवण ही साधन मार्ग था। यही प्रणव साधना है। बाद में ओम का जप आगया । फिर ये तीन देवता आगए। ये तीन देवता प्रकृति के सूक्ष्म विभाजन , सत , रज ,तम के प्रतीक हैं। बाद में पुराण आए। नए-नए देवता कल्पित किए जाते रहें , यह परंपरा आज भी चल रही हेैै।सनातन धर्म की गत्यात्मक परंपरा है, जहाॅं प्रणव ही मूल है कालांतर अपनी अपनी परंपरा में हिन्दू धर्म , बौद्ध धर्म , जैन धर्म और सिक्ख धर्म इसीसे विकसित हुए। सनातन धर्म का कोई एक प्रवर्तक नहीं हेै। नहीं कोई एक ग्रंथ है। यहाॅं धर्म का शाश्वत अर्थ परम का विज्ञान हे। चेतना का विज्ञान है। उसे ही ब्रह्यविज्ञान कहा जाता हैे। इसी साधना के महान ऋषि इस परंपरा में संत गुरुनानक देव हुए हैं।  


गुरुनानक देव ने अपनी साधना का प्रारम्भ इसी आंकार  साधना से किया। यह उनके आगमन से पूर्व गोरखनाथ की साधना का प्र आधार था। परन्तु यह साधना उनके यहाॅं योग साधन से जुड़ गई थी। उनके बाद तांत्रिको के हाथ में आकर इस साधना ने विकृत रूप ले लिया था। गुरु नानक देव ने इस साधन को भक्ति से जोड़कर एक नया ही पथ सौंपा जो आम जन के लिए श्रेयस्कर था। 


शनिवार, 15 मई 2021

प्रेम पंथ ऐसो कठिन 1

 प्रेम पंथ ऐसो कठिन 1


साहित्य मेरी अभिरुचि का बचपन से ही आकर्षण रहा है।साहित्यकारों के प्रति प्रेम , उनका सम्मान जीवन की एक सहज परंपरा ही बन गइ्र्र। बचपन में संत कवि रहीमके दोहे पढ़ेे थे , पर बाद में न जाने क्यों ,जो महत्वपूर्ण है , वही  हमारे पठन- पाठन से दूर होता चला जाता हेैं।बचपन में देखा , बड़े भाई त्रिभुवन जी कवि थे। अलवर में उनके पास रहा। परिवार का माहौल ही साहित्यिक था। उन दिनो अलवर साहित्य का समृद्ध के न्द्र बन चुका  था।

 

सन साठ के आसपास का समय जो लगभग बीस साल चला , पूरे प्रांत में ही नहीं ,देश में साहित्य और साहित्य सृजन का उल्लेखनीय काल था। बीकानेर , अजमेर , अलवर , कोटा , उदयपुर , जोधपुर साहित्यकारों के नामों से अपनी पहचान बना रहे थै। 

हाड़ौती की अपनी ही पहचान थी। पूरे प्रांत में उन दिनो , सुधीन्द्र , कमलाकर , नंद चतुर्वेदी , भोलाशेकर व्यास , रामचरणमहेन्द्र , कन्हैयालाल शर्मा ,दयाकृष्ण विजय , बशीर अहमद मयूख , त्रिभुवन चतुर्वेदी की अपनी पहचान से यह अंचल अपनी पहचान स्थाापित कर रहा था।

झालावाड़ में रघुराजसिेह हाड़ा की अपनी पहचान थी , बूंदी में सूर्यमल्ल मीसण के बाद , मदन मदिर , घनश्याम लाड़ला , , लक्ष्मीशंकर दाधीच की अपनी पहचान थी। यह अंचल अपनी सामाजिक पृष्ठभूमिे में तब राजनेताओं की अपेक्षा रचनाकर्मियों से अपनी पहचान प्रदर्शित करता था। 

।   

, बचपन में रामपुराबाजार में उन दिनो नगरपालिका का भवन था। वहाॅं महाराव भीमसिंह पुस्तकालय था। वहाॅं उन दिनो बच्चों को भी पुस्तकालय का सदस्य बना लिया जाकता था। गर्मी के इन्हीं दिनो में वहाॅं बैठकर किताबें पढ़ने का अपना ही आनंद था। घर का माहौल साहित्यिक था। बड़े भाई त्रिभुवन जी स्वयं कवि और व्यंग्यकार थे। भाई साहब अयोध्यानाथ जी भारतेन्दु समिति सक्रिय थे। घर पर उन दिनो पत्र- पत्रिकएॅ, नियमित आती थीं। मुझे अपने भाटापाड़ा के प्राथमिक  स्कूल के हिन्दी अध्यापक मदनलाल जी पंवार की अब तक यादें सुरक्षित हें । वे हमें अन्त्याक्षरी बोलना सिखाते थे । बचपन में याद रही झांसी की रानी की कविताएॅं अब तक स्मृतियों में हैं । मैं भी स्कूल की टीम में थां । हम लोग तब पाटनपोल के किसी स्कूल में गए थे। वहाॅं से विजयी होकर लौटे थे। 


बाद के दिनो में जब मैं प्रशासनिक सेवा में झालावाड़ में था , तब एक दोपहर एक युवक मेरे कक्ष में आया था , उसने कहा मंडाना के पास किसी कुएॅं के पास मदनलाल पंवार रहते है। वे अक्सर मेरी बातें करते हे। कि मैं उनका शिष्य था , वे बीमार हैं , उन्होंने मुझ ेयाद किया हे। मैंने तुरंत ड्राइवर को बुलाया , उसे पता समझने को कहा , कुछ ही दिन बाद हमारी कोटा में मीटिंग थी , मैंने कहा मैं आउंगा , उनसे मिलूंगा। 


मैं उनसे मिलने गया , इस प्रसंग की चर्चा में बाद में ही करना चाहूंगा। यह मेरी हिन्दी के साहित्यकार से बचपन में पहला परिचय था। 


प्राथमिक शाला के बाद ही मैं अलवर अपने बड़े भाई साहब के पास पढ़ने चला गया था। वहाॅं उन दिनो हिन्दी कविता के नए आंदोलन का जोर था। हमारे स्कूल के ही भागीरथ भार्गव एक नई कविता की पत्रिका निकालते थे। स्कूल से ही वे उसे डिस्पैच करते थे। भाई साहब भी कवि थे , उनकी कविताएॅं और व्यंग्य तब विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में छप रहे थे। उन दिनो छुट्टियों में जब कोटा आना होता तो भारतेन्दु समिति में जाना होता था। वह घर के पास ही थी। आज तो बहुत बड़ा भवन बन गया हे। व्यवसायिक घरानो ंके पास सुरक्षित हेै। उन दिनो बाहर खुला मैदान थां एक कमरा था , सभी नीचे ही बैठते थे।  वहीं उन दिनो , हरिबल्लभ हरि, रामचरण महेन्द्र , दयाकृष्ण विजय , गजेन्द्र सिंह सोलंकी , दादा लीलाधर भारद्वाज , नाथूलाल जैन , महावीरप्रसादजी , आदि अनेक लोगों से मिलना हुआ था। शांति भारद्वाज राकेश भी तब किसी कवि गोष्ठी में वहाॅं आए थे। कवि श्रीनारायण वर्मा ,उमानंदन चतुर्वेदी आदि अनेक नाम हैं , जिनकी स्मृतियाॅं अचानक आजाती हें।  अब जब भी कभी रामपुरा जाना होता है , तो अचानक मन यादों के इस संग्रहालय में उतर जाता हे। वे दिन गए , यह व्हाट्अप का जमाना है। तकनीक हावी होती जा रही है। अब तो एक घर में भी पति- पत्नी मोबाइल पर मैसेज देदेते हें। 


संवादहीनता के इस युग में, अपनी यादों को किस जगह से शुरु करूॅं , तय करना सरल नहीं हे। 

आज कोराना वायरस के संक्रमण ने हमारी सामाजिकता और संवाद बहुलता की प्रवृत्ति पर मानो रोक ही लगादी हेै। शायद आगामी कई महिनो तक अब साहित्यिक समारोह की कल्पना ही कठिन हो।  


उन दिनो जब विद्याार्थी थे , तब कोटा कविसम्म्ेलन में पहली बार बशीरअहमद मयूख और रधुराज सिेह हाड़ा को सुना था। मयूख अभी अपने स्नेह से आशीर्वाद देरहे हें कुछ दिन पूर्व उनकी कृति ”शब्दरागी मयूख “, उन्होंने भेजी थी। 

जब झालावाड़ में पहली बार हिनदी प्राध्यापक के पद पर कार्य करने गया। तब हाड़ा साहब से मिलना हुआ था। उनकी बेटी मंजू मेरी छात्रा थी। बाद में झालावाड़ में ही प्रशासनिक सेवा में रहा। हाड़ा साहब हमेशा , मुझे अपना अनुुज ही मानते रहे। 

ऐसा ही प्रेम बूंदी में मिला , वहाॅं प्रशासनिक अधिकारी रहा। मदन मदिर का अटूट प्रेम वहाॅं मिला। वे भी अपना अनुज ही मानते थे। 


भाई गौरीशेर कमलेश से विद्यार्थी काल में भारतेनद ुसमिति में लिना हुआ था। जब मेैं बाहर पदस्थापित रहा। उस दौरान उनका देहावसान होगया। बाद में कोब में जब स्थनांतरित होकर आया , तब भाभीजी कमला कमलेश मिली थी। वे अब पूरी तरह हाडा़ैती भाषा के उन्नयन में लग गईं थीं। अपने पति , अपने मार्ग दर्शक के प्रति यही प्रेम  मुझे उस मौम ेंके तुरंग की ओर खंीच कर ले गया। उन्होने अपने कार्यक्रम में मुझे बुलाया। सम्मानित किया। वे यही पूछती थीं , में आपको क्या कहूॅं? आप भाई हैं , देवर हैं, , साहित्यकार हेैं प्रशासनिक अफसर हैं।  में यही कहता था , आप कुछ नहीं कहें , बस आपका स्नेह मिलता रहे। 

दुख है , इस कारेाना के संकट में ही आदरणीय हाड़ा साहब , श्रीमती कमला कमलेश चली गईं। उस दुख में भी उनके  सामीप्य को समय ने छीन लिया। हम उनके अंतिम समय भी बस शब्दों से अपनी संवेदना भेजते रहे। 

जब हाउ़ा साहब कोटा में अपने बेटे परदान के वास थे , तब मिलना हुआ था। 

रचनाकर्म , रहीम के दोहे की तरह ही है,ें रचनाकार मोम के घेाड़े  पर बैठकर ही समय की धारा के प्रतिकूल चलता है। वह समाज का ही हित देखता है , सोचता है , समकालीन राजनीति में निरंतर उपेक्षा पाकर भी  अपने स्वाभिमान को बनाए रखता हेै हाड़ा साहब के साथ रहकर मेैंने यही पाया। मैं झालावाड़ में प्रशासनिक अधिकारी था , हाड़ा साहब और बहिन शंकुतला जी उसी प्रेम और गरिमा को लिए आते थे । हम अपने भाई के पास जा रहे हें। क्या वह आत्मीयता अब मिलनी सहज है?


राजनीति और साहित्य की धारा का यही भेद है। रहीमदास ने कहा है, 


रहिमन मैन तुरंग चढ़ि , चलिबो पावक माहिं

प्रेम पंथ ऐसो कठिन , सब कोउ निबहत नाहिं। 

साहित्यकार की जीवन की कमाई उसके अपने जीए कुछ शब्द ही होते हेंैं, , जो उसके प्राणों की उर्जा पाकर ही संत कबीर के सबद बन जाते हेंैं।ैं उसका रचनाकर्म , उसका जीवन ही है , जहाॅं उसके प्राणों में सचित हुआ सौंदर्यकर्म ही प्रवाहित और प्रसारित रहता हे। 

उस जमाने की अपनी स्मृतियों का आलेखन उस रस सिक्त हृदय की खोज ही है , जहाॅं अपने अग्रजोें ं, मित्रों , और अनुजां के साथ रसमय समय की तलाश में अंतस ने यात्राही तो की हेंै।


यह कृति , न आलोचना ग्रंथ है , ने संस्मरण हैं , न समीक्षा कर्म है, वरन् समय की मार से मनुष्यत्व के सूखते रस सरोवर की तलाश ही हेैं । 

आजादी के बाद साहित्यिक कर्म कितने ही पडावों से गुजरा हें । पर एक बात निरंतरता में रही, वह रचनाकार के  भीतर उस अगम्य स्रोत की खोेज जो कभी नहीं रीतता हेंैं वही उसके भीतर उपजा प्रेम है , वह किसी भी वेचारिक प्रभावों से अपने आपको मंडित कर लेता है , पर उसका रचना कर्म उसे  भी अपने पीछे ही छोड़ देता हे।ैं 


अपने सभी अग्रजो का , मित्रों का आभार जो अपने लेखन से , अपनी सृजनात्मक पहल से गत पचास वर्ष से मुझे लाभान्वित करते  रहे।

 

यह कृति मेरी अपनी ही यात्रा है। भारतीय परंपरा में कवि को ऋषि कहा हेंै। रचनाकार जाने- अनजाने अपने रचनाकर्म में अपनी बुद्धि की सीमा का अतिक्रमण कर विवेक के द्वार खोल देता हेै, जहाॅं उसका हृदय सरोवर अचानक र्कािर्तक की पूर्णिमा की उजासळारी रात की तरह  सुगंधों से आपूरित होकर छलछला उठता हे, वहीं रचना उपजती है। उन्हीं आनंदमयी क्षणों की खोज में यह यात्रा हें 


इसी क्रम में ,  हाड़ैती के रचना कर्म  पर कुछ लिखूॅ। बीसवीं शताब्दी के गद्य और पद्य पर दो ग्रंथ आगए , पर लगा बहुत कुछ कहना छूट गया है। विस्मृति की धूल  न जाने क्यों , अंतस के रस को मरुस्थल में बदलती जा रही है , इस तकनीकी युग में होना चाहिए था , परस्पर जुड़ते , पर न जाने क्यों , अहंकार की सूक्ष्म काया चारों दिशाओं से एक अंधड़ की तरह आरही है , लगता है , साहित्य ही है , जहाॅं संवेदनाओं का सागर है , जो जीवन्ता को बनाए रखने में समर्थ है। जो थोड़ी बहुत आत्मीयता बची उसे कोराना वायरस के  भय विस्मृत कर दिया हेैं




नरेन्द्र नाथ

रविवार, 12 मई 2019


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सोमवार, 15 अप्रैल 2019

हमारे पुरोधा
ब्रह्मलीन परम संत पं. मदनमोहन जी चतुर्वेदी
पं. मदनमोहन जी चतुर्वेदी ऐसे भागवत् पुरुष थे जिनके दर्शनमात्र से भागवत चेतना का संचार हो उठता था। उनकी शांत, धीर, गम्भीर आकृति को देखकर, अशांत व्यक्ति भी शांत हो उठते थे। ब्रज संस्कृति का माधुर्य, सनातन धर्म की पूत साधनशीलता व माथुर चतुर्वेदियों की समस्त श्रेष्ठ विशिष्टताएं आपके व्यक्तित्व में मूर्तिमान थी। राज्य शासन के उच्च पदों पर रहने पर भी, आपकी कार्यनिष्ठा व ईमानदरी विख्यात थी और इसीलिए आपका सदा आदर होता रहा।
जन्म और बालपन - आपका जन्म सम्वत् 194 (सन् 1901) की मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी को मथुरा में हुआ। आपके पितामह पं. केशवदेव जी तत्कालीन माथुर कुलीन समाज में गणमान्य थे। वे फतेहपुर के सेठ के यहां हैड मुनीम थे आपने मथुरा में दो हवेलियां बनवाई। अपनी पुत्रियों के बड़े घरों में सम्बन्ध किये। इनकी एक पुत्री होलीपुरा के डि. सा. स्वर्गीय श्री राधेलाल जी को ब्याही थी। श्री केशवदेव जी के बड़े पुत्र जानकीदास जी श्री मदनमोहन जी के जनक थे। श्री जानकी दास जी के दो पुत्र व छह पुत्रियां हुई। इनमें एक देहरादून के डिप्टी साहिब रामचन्द्र जी पाठक व दूसरी कोटा के दीवान स्वर्गीय श्री विशम्भरनाथ जी को ब्याही थी।
आपका बचपन मथुरा में ही बीता। आपका श्याम सलौना मुख इतना सुन्दर था कि ब्रज की प्रथा के अनुसार सबने इन्हें छैया कहना प्रारम्भ कर दिया। मथुरा के मस्ती भरे जीवन में पढ़ाई का क्या काम। एक बार आपकी बड़ी बहिन (डिप्टी साहिब रामचन्द्र जी की पत्नि) मथुरा आई। भाई की पढ़ाई को बिगड़ता देखकर आप इन्हंे अपने साथ ले गई। डिप्टी सा0 का स्थानान्तरण होता रहता था अतः आपके स्कूल भी बदलते रहे। आपने 1923 में मैट्रिक की परीक्षा पास की।
 उन दिनों देशी रियासतों मे अग्रेजी पढ़े लिखे कर्मचारियों की बड़ी मांग थी। आप अपनी दूसरी बड़ी बहन के पास कोटा चले आये। आपके जीजा स्वर्गीय पं. विशम्भरनाथ जी उन दिनों कोटा रियासत में प्राइम मिनिस्टर थे। अतः 1924 में आप कोटा रियासत में कस्टम विभाग में इन्सपैक्टर हो गये। धीरे-धीरे अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा व बेहद ईमानदारी के साथ तरक्की करते-करते 1947 में राजस्थान में एक्साइज के असि. कमिश्नर के पद से निवर्तमान हुए। 1940-1944 के द्वितीय विश्व युद्ध काल में आप जिला रसद अधिकारी का भी काम करते थे। वे उपभोक्ता मालों की भारी, तंगी व भ्रष्टाचार के युग थे व पर आपने एक पैसा भी रिश्वत लेना हराम समझा व सरलता से तंगी में जीवनयापन करते रहे। रिटायर होने के बाद आपने कुछ वर्ष मैनेजर, कोर्ट ऑफ वाड्स का भी काम किया और 1956 तक इस पद पर बने रहे।
आपका विवाह उस समय की प्रथा के अनुसार गुणावती जी गिन्दोजी से होलीपुरा हो गया था। आपके आठ पुत्र व तीन पुत्रियां हुई। आपके बड़े भाई रामदास जी का जल्दी ही देहान्त हो गया। अतः आप पर इतने बड़े परिवार के लालन पालन का भार था साथ ही छहों बहिनों के भी बड़े बड़े परिवार थे। प्रतिवर्ष आपको भात भरना पड़ता था। ईमानदार इतने थे कि वेतन के सिवाय एक पैसा कबूल नहीं करते थे।
सरकारी नौकरी के काल में भी नित्य प्रति चार घन्टे सुबह व एक घन्टे शाम को भजन पूजा करते थे। घर पर साधुओ और भक्तों का जमघट होता था। प्रति सप्ताह कीर्तन कराते थे- अतः आपको धनाभाव हमेशा बना रहता था। यद्यपि हमारी माताजी  आपको पूरा सहयोग देती थी, फिर भी घर के खर्च तो विशाल ही थे, पर यह आपका पुण्य प्रताप ही है, आज आपके सभी पुत्र उच्च राजकीय पदों पर कार्यरत रहे। जैसे भारतीय प्रशसनिक सेवा में, प्रोफेसर, जॉइन्ट लेबर कमिश्नर,   पत्रकार,, लॉ आफीसर , अनुभाग अधिकारी, आदि पदों पर कार्यरत रहे।
 आपके पौत्र तथा पौत्र बधंुएॅं, भी महत्वपूर्ण पदों पर अभी भी कार्यरत हैं। यह तथ्य इसलिए दृष्टव्य है, क्योंकि आपने अपने किसी भी पुत्र के लिए किसी से सिफारिश नहीं की, न प्रार्थना की, प्रार्थना की तो अपने गोविन्द से, जिनके आप अनन्य भक्त थे, और इसी का परिणाम है कि आपकी सभी संताने समाज में श्रेष्ठ स्थानों पर विद्यमान हैं। आपकी चौथी पीढ़ी आज देश विदेश में महत्वपूर्ण पदों पर कार्यरत है।
वृद्धावस्था- भगवद् भक्ति के बीज आपमें जन्म से ही विद्यमान थे। आपकी मां व बहिन (डिप्टी सा. रामचन्द्र जी की पत्नि) परम भक्त थी। बहिन तो इतनी भक्त थी, कि जब उन्हें भाव या हाल आता था तो वे अड़तालीस घंटे तक निरन्तर रोती रहती व पद गाती रहती। प्रेमाश्रु बहते रहते। न खाने की चिन्ता न प्यास की परवाह। इसी प्रकार आप भी परम भक्त थे। आपका मन संसार में नहीं लगता था। घर में कथा वार्तएं होती रहती थी व वल्लभ कुल के सभी उत्सव मनाये जाते थे।
नौकरी से निवर्तमान होते ही, आप वृन्दावन रहने लगे। बाहर वर्ष आपने वृन्दावन वास किया। चतुर्वेदी होने के कारण किसी के हाथ का बनाया भोजन नहीं करते थे। आपकी पत्नि जब वहां रहती तो वे बनाती अन्यथा अपने हाथ से बनाते खाते व सारा दिन कथा कीर्तन में लगाते। वृन्दावन के भक्त मण्डल में विख्यात हो गये थे। सन् 1968 में हमारी माताजी  का देहान्त हुआ।  पर मृत्यु तक आपकी चेतना व भजन भाव निरन्तर बना रहा।
यह एक साधारण सद्गृहस्थ का जीवनवृत है। इसमें राजनीतिों व जनरलों के जीवन जैसे उतार-चढ़ाव नहीं पर विशेषता यह है कि किस प्रकार एक निष्ठावान व्यक्ति इतने बड़े परिवार के लालन-पालन का भार लेकर भी, अपनी निष्ठा व ईमानदारी को बनाये रख सकता है, यह आज के युग में अनुकरणीय है। आपकी मधुर वाणी, आप के द्वारा मधुर कंठ से गाये गये सूरदास व मीरा के पद , जब भी स्मृति में गूंजते हैं तो मन सहज श्रद्धा से अभिभूत हो उठता है किस प्रकार एक महापुरुष ने अपने महत्ता के अहं जताये बगैर ही चुपके से संसार से चला गया। जैसे प्रातः की पहन हमें छूकर निकल जाती है। वास्तव में उन्होंने ज्यों की त्यों चदरियां धरदी और अपने गोविन्द के धाम को चले गये।
आपको भी निरन्तर कूपनल के खेंचने से आंत की बीमारी हो गई अतः 1972 में आपको कोटा आना पड़ा। आपरेशन से कमजोर थे कि फिसल गये, कूल्हे की हड्डी टूट गई। शरीर अस्वस्थ रहने लगा पर भजन भाव वैसा ही बना रहा। इस काल में अपने पुत्रों के साथ रहे।

आप कोटा नयापुरा में भाईसाहब अयोध्यानाथ  जी के पास, फिर भाई साहब प्रेमनाथ जी के पास तथा वहां से आप सिरोही 1981 में आ गए थे। आपका जो चित्र यहां लिया गया है, वह तभी का है, आपकी हड्डी भी जुड  गई थी तथा आपके नए जूते आ गए थे। आपने पैदल चलना शुरू कर लिया था। मैं वहां पर एस.डी एम. के पद पर था, आप शाम को स्वयं बैंत तेकर  पार्क का चक्कर लगा आते थे। उस समय तत्कालीन सभी सरकारी अधिकारी आपसे मिलने आते थे। आप भूरे रंग का सूट पहनते थे, तथा मफलर लपेटकर सोफे पर बैंठना पसंद करते थे।
मैं उनका आठवां पुत्र हॅंू, वे कहते थे, तुम्हारी पढ़ाई  पर मैंने ध्यान दिया, तुम बाबू के पास (बड़े) पुत्र के पास चले गए थे, पर तुमने गोविन्द जी की कृपा से आर ए एस. कर ही लिया, एक दिन आई.एस. हो जाओंगे। वहां से हम लोग सीकर आए थे।
यहां मेरी पदोन्नति ए.डी.एम. के पद पर हुई थी, मेरे पास  कॉपरेटिवभंडार , नगर पािषद का भी चार्ज था, पिताजी ने सेवा के लिए सेवक की जरूरत थी। नगरपरिषद  का एक कर्मचारी बहुत ही योग्य था, वह चाहता भी था, पढ़ा लिखा था, धार्मिक था, एक दिन वह घर आया हुआ था, वह पिताजी से मिला।
‘बस, न जाने उसे क्या हुआ, वह उनके पास रह गया।
‘मैंने कुछ कहना चाहा, पर उन्होंने रोक दिया।
कर्मकांडी पिता, जो महान गायत्री साधक थे, अब जाति-पांति की बातों से बहुत दूर जा चुके थे।
‘उन्होंने उसका नाम शर्मा कर दिया था, पंडित जी  कहा करते थे, उसका उन्होंने उसका यज्ञोपवीत भी कर दिया था, वह दलित बालक उनकी   सेवा में लगा रहा।
हम लोग प्रायः अपने पिता को हमेशा पूजारत देखते थे, जो सनातन धर्म का कड़ाई से पालन कर रहे थे, पर उनके भीतर हुए मौलिक परिवर्तन को भांप नहीं पाए थे।
सन् 1985 की गर्मियों में आम चुनाव हुए, मेरा तबादला जयपुर तथावहां से बारां हो गया।
पिताजी प्रसन्न थे, बोले, बारां में तुम पैदा हुए हो, घर वहीं है, जहां पुराना कस्टम का दफ्तर  था, वहीं हम रहे भी है। बारां में चार माह ही रह पाया। वहां से भीलवाड़ा तबादला हो गया। तभी बड़े भाई साहब कोटा से बारां आ गए थे। बोले, पिताजी अब कोटा में ही रहेंगे। पिता फिर बड़े भाई औंकारनाथ जी के   पास रहे। ,भाई साहब तब रघुनाथ हॉस्टल में वार्डन थे। भाई साहब के यहॉं पूरा परिवार उनकी सेवा में लगा रहा।
आप गायत्री के परम उपासक थे। सुबह शाम पूजा करना उनका स्वाभाविक क्रम था। हर प्रकार की पारिवारिक राजनीति से वे कोसों दूर थे। सहज प्रेम के धनी थे। उनके भानजे- भानजियॉं अपने मामा से आजीवन जुडे़ रहे। उनके पास सभी के लिए अपार स्नेह था।
ं24 दिसम्बर 1985 में, आप अपनी पूजा पाठ के बाद बाहर बैठे हुए थे , तभी अपनी आराध्या ललित किशोरी जी कर स्मरण करते हुए ,  निर्वाण को प्राप्त हो गए। उनके गले में रोग हो गया था, खाने-पीने में तकलीफ रहती थी। पर वे शांत, एवं पूर्ण तृप्त महामानव की तरह अपनी अंतिम देहलीज को समेटते चले गए।मृत्यु तक आपकी चेतना व भजन भाव निरन्तर बना रहा।
हमें ईश्वर की ओर से यह कृपा प्राप्त है , हमें उन महामानव की विरासत प्राप्त है , जिनका जीवन ईश्वर को पूरी तरह समर्पित रहा। इतने बड़े परिवार का मार्गदर्शन करना , आजीवन सहजता और सरलता से अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना उनकी सहृदय कुशलता का ही सूचक रहा।