डाॅ़ त्रिभुवन चतुर्वेदी का काव्य संस्कार स्मृति-शेष
त्रिभुवन चतुर्वेदी अपने समय की कविता के साथ निरन्तर प्रभावित करते रहे हैं। ‘कल्पना’, माध्यम’, ‘ज्ञानोदय’ और उस समय की चर्चित नए भाव-बोध की पत्रिकाओं में वे समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं। मूलतः व्यंग्यकार त्रिभुवन चतुर्वेदी अपने समाजवादी आग्रह से ‘कविता’ को प्रभावित करने का तो प्रयास करते रहे, परन्तु वे अपने समय की तथाकथित प्रगतिवादी सोच से दूर ही रहे। राम मनोहर लाहिया का आप पर प्रभाव था। आघ्यात्मिक सोच उन्हें कर्मकांडीय रुझान से दूर रखती रही। संस्कृति और प्रकृति का समन्वय आपकी विचारधारा का केन्द्र रहा। विवेकानंद आपके आदर्श रहे। सामाजिक मूल्यों का नैतिकता के धरातल पर निर्वहन आपकी जीवन प(ति का वह मूल्य बना, जो आपके साहित्य में आधार बन पाया।
यही कारण है कि आप के काव्य में ‘जन वादी’ दृष्टि न पा कर, ‘जन वादी समीक्षक’ उन से विरत रहे। वहीं ‘नई कविता के सुधी कलावादी समीक्षक’ उन के समाज वादी दृष्टिकोणों से प्रभावित हो कर उन्हें अपने दायरेे से दूर रखते रहे। सन साठ के बाद समीक्षा एवं काव्य प्रवृत्तियों को बने बनाए ढाँचे में धकेलने का आग्रह बलवती रहा। प्रांत में राष्ट्रीय सांस्कृतिक पक्षधरता का भी समय-समय पर बाहुल्य रहा। पर वे भी त्रिभुवनजी की प्रगतिशील आग्रह के प्रति गंभीरता से उनसे दूरी ही बनाए रखे रहे। जिस का ख़मियाज़ा स्वयं‘कवि’ एवं ‘कविता’ को बहुत उठाना पड़ा। राजस्थान में प्रकाशित नई कविता के महत्व पूर्ण प्रारम्भिक कविता संग्रहों में आपकी ‘सुरभि के चरण’ उध्ेखनीय कृति है। आपके चार काव्यसंग्रह सुरभि के चरण ;(1968) उपार्जित क्षण (1985), लहर लहर सागर (2007) तथा साक्षात्कार से पहले (2012)प्रकाशित हुए हैं। ब्रज भाषा में ”कित्ते भोले हैं लोग“ उल्ल्ेखनीय काव्य कृति है।
सामाजिक सरोकार तथा आम आदमी का द्वन्द्व तथा तनाव, परेशानियों से जद्दोजहद करते हुए, बाहर आने की उत्सुकता व तीव्र छटपटाहट, उन की कविताओं का रचना संसार है। गहरी आध्यात्मिक छटपटाहट के साथ, मनुष्यत्व की सार्थक खोज वे कविता के पृथक स्वतन्त्र ढाँचे से तलाश करना चाहते हैं। उन का व्यंग्यकार, उन की कविता की सीमा भी है, जहाँ वे परिवेशगत संर्घर्ष को अनावृत कर के, प्याज़ के छिलके की तरह जन व्यथा के कारक चिन्हों को परत दर परत उधेड़ते रहने के सम्मोहन को छोड़ नहीं पाते हंै। फिर भी उन की जनापेक्षी सुविचारिता अतिरन्जन से बची रहती है। प्रसाद मयी भाषा तथा उदात्तता उन की कविता की अपनी विशिष्ट पहचान है।
त्रिभुवन चतुर्वेदी का ‘सुरभि के चरण’ (1968 ई.) राजस्थान में नई कविता की महत्व पूर्ण उपलब्धि माना गया है। जुगमिन्दर तायल ने ‘स्वातन्त्र्योत्तर राजस्थान का हिन्दी साहित्य’ में अपने आलेख में इस कृति को नई कविता के उत्कर्ष काल की कृति के रूप में स्वीकार किया है। उन के शब्दों में:-
”त्रिभुवन चतुर्वेदी प्रसन्न तथा रम्य अनुभूतियों के कवि है। नयी कविता में प्रकृति का चित्रण परम्परागत ढंग से न हो कर आधुनिक भाव बोध के आधार पर है। प्रकृति का उद्दीपन भाव यहाँ नहीं है, साहचर्य की भावना है। अप्रस्तुत विधान का प्रयोग यहाँ सहज है।“
एक कुसुमित बकुल की सी डाल
सहसा छू गई मुझ को,
लगा, गन्धिनी अंजुरियों में
फूल भर नहला गई मुझको,
आज मुझको जी गए दो
गन्ध प्लावित क्षण।“ सुरभि के चाण पृ11
यहाँ बिम्ब योजना, प्रकृति के साहचर्य से ‘प्रेम की अनुभूतियों’ को सहज स्पर्श करा रही है। प्रड्डति चित्रण का नई कविता में ऐसा काव्य रूप विरल है:-
”कार्तिक की भोर लली
सरसिज की पांख खुली,
शबनम की चितवन में सुकुमारी झांक गई,
तुलसी को पूज प्रात,
वंशीधर की गोपी
सद्य स्नात अलकों से मोती कुछ झार गई।“32 ‘भोर लली’, पृ. 22.
वृद्धा’ का दृश्य चित्र, ‘फाल्गुनी संध्या’ का रूप चित्र, इस अÚुत ‘सादृश्य दृश्य बिम्बों की संयोजना’ में मूर्त हो उठा है:-
”उल्लासित
सांझ फाल्गुन की
पश्चिम में पीत आतप स्वर्ण जाल,
धनवती,
अती सुख दुखी
वृद्धा सिहर
मुस्कराए
ओढ़कर जरतार शाल।“ ‘फाल्गुनी संध्या’, पृ. 26.
त्रिभुवन चतुर्वेदी की काव्य भाषा प्रसाद मयी है। यहाँ जीवन जो मधुरम है, वह प्रकृति का अवदान है। प्रेम, आनन्द, सभी मनोभाव प्रकृति के सौन्दर्य से ही जन्म पाते हैं, वहीं उन का विश्राम है:-
”हो रही है रजत की बरसात
नभ सरसि में खिल रहे हैं तारकों के फूल
और विधु की बाहु में यामा रही है झूल
हंस शिशु से उड़ रहे हैं अभ्रदल सुकुमार
श्वेत चूनर ओढ़कर मुसका रही है रात .. वही पृ28
रजत की बरसात, नभ सरसि, विधु की बाहु, यामा रही है झूल, हंस शिशु, श्वेत चूनर, सादृश्य बिम्बों की अनवरत शृद्दला है। पूरी कविता सान्द्र बिम्ब का सुन्दरतम रूप है। ‘नई कविता’ में प्रकृति चित्रण का अपूर्व उदाहरण इस संग्रह की कविताऐं हैं।
सामान्य की पहचान तथा उन के प्रति सहज रागानुराग, उस की अस्मिता का सम्मान प्रगतिशील कविता का आधार है। त्रिभुवन चतुर्वेदी समता के कविता हैं। वे लोहिया से प्रभावित रहे हैं। सामान्य जन की पीड़ा और उस की जिजीविषा के प्रति उन का सम्मान, यथार्थ के प्रति उन के वस्तुपरक चिन्तन की अभिव्यक्ति है:-
”कितनी सुखी है यह,
सदा फूली
नहीं सही उतनी श्रीमयी, सुषमा मयी
पर अपनी निष्ठा के रंग में रंगी हुई,
आतप में, वर्षा में
समरस, हंसती हुयी
अपने अमृत को पी
जीती, खिलती हुई
कितनी सुखी सुखी।“35 पृ. 36.
यहाँ कवि क्रमशः गुलाब की रूपवती पंखुरियों, सत्वहीनता के बोझ से दबे बोगेनबिलिया, नागफनी के क्रूर सैनिक से शर, यथार्थ की उत्प्रेरित परतों का साक्षित्व ग्रहण करते हुए, ‘सदा फूली’ की निष्ठा पर समर्पित होता है। कविता में शोर, तेज़ाबी भाषा, असम्बन्ध, आक्रामक बिम्ब योजना, जो हल्के से ताप से विस्मृत हो जाती है, वह यहाँ नहीं है। इसी लिए अपने समकालीनों में, जहाँ समीक्षक-आलोचक, तेज़ाबी भाषा, औद्योगिक परिवेश की असम्बद्ध प्रतीक योजना को, जो उन का जीवनानुभव ही नहीं थी, बल पूर्वक कविता में दख़्ल दिलवा कर नवीनता प्रकट कर रहे थे, वहाँ त्रिभुवन चतुर्वेदी अपने समय के साथ ही रहे। औद्योगिक आर्थिक परिवर्तन से उत्पन्ना यथार्थ को विश्लेषित करते हुए, अपनी काव्य सम्वेदना का परिष्कार करते हुए, अपनी कविता में इस गत्यात्मक परिवर्तन को समेटने व सहेजने की कोशिश में, ईमानदारी से सन्लग्न रहे। कविता की भूमिका सीमित है, वह इस विराट के महा परिवर्तन की साक्षी है। यथार्थ को सब से पहले चिन्हित करने का उपक्रम करती है, परन्तु वह ज़िन्दगी में, उस के परिवर्तन में, हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। उस का दायरा सीमित है।
”झागों में डूब रहे
ऊँचे मस्तूल,ऐसी कुछ हवा चली
डगमगा गई तरी,
मुक्ता अन्वेषण को निकले जो सागर पर,
कौड़ियों पर फिसल गये
सभी लक्ष्य भूल
विद्रुम के तट पर
मरी मत्स्य गंध फैल रही
हाय! हाय! स्वर्ण तटी
कागज की नाव बनी डूब रही
सीख गये युधिष्ठिर
शकुनी की चालों को
होरी की आशाऐं हो रही धूल।“ ‘दुर्भाग्य’, पृ. 69.
चालीस वर्ष पूर्व लिखी यह कविता, समकालीनता में सच को ही नहीं, हो रहे परिवर्तन और उस की दशा व दिशा को सही रेखाप्रित कर रही है। ‘स्वर्ण की नौका’, कागज की नाव की तरह डूब रही है। क्यों कि युधिष्ठिर, शकुनी की चालों को सीख गए हैं। मुक्ता अन्वेषण को जो गए थे, वे कौड़ियों को पा कर लक्ष्य भूल गए हैं। बु(िजीवियों के मुखौटे की पीछे छिपे रूप की यहाँ स्पष्ट पहचान है। कविता यहाँ सहज रेखाप्रित कर रही है कि यथार्थ जो हल्का-हल्का उभर रहा था, लोक तन्त्र में जीवन-मूल्य, भोग तन्त्र में पर्यवसित हो रहे थे, यह उस की पहचान है।
‘इस समय’ में, ‘समय’ की सहज व सटीक पहचान है। ‘उपार्जित क्षण’, ;1985 ई.द्ध की भूमिका में डाॅ. मनोहर प्रभाकर ने लिखा है:-
”‘उपार्जित क्षण’ में संगृहीत उन की रचनाओं में कहीं अनुरागी मन की कोमल अनुभूतियाँ व्यक्त हुई हैं, तो कहीं उनकी वैचारिकता समसामयिक विसंगतियों और विडम्बनाओं पर प्रहार करती हुई उन्हें आज के सार्थक मानवीय सरोकारों से जोड़ती है।“
”इसलिए हे मित्र!
जब तक हैं नहीं ईमानदारी और एका
और नही है न्याय की चिन्ता हमें खुद
और पैसा है बना भगवान सबका,
उस समय तक
हम भले कुछ भी करें
किन्तु जूठी पत्तलों को चाट,
धक्के खा, पैसे मांगकर
और सर्दी से ठिठुरकर
आदमी योें ही सदा मरता रहेगा,
मौत कुत्ते की। ‘मौत कुत्ते की’, पृ. 96.
‘उपार्जित क्षण’ संग्रह समय की गम्भीरता तथा बदलाव को पकड़ने की चाहत में है। यहाँ काव्य भाषा, सहज है, परन्तु प्रतीक मात्र व्यंग्यात्मक ही नहीं हैं, ‘सामान्य’ की दुर्दशा, यहाँ आन्तरिक पीड़ा को कुरेदती है तथा आक्रोश, क्रमशः गहराई में एक चुभन छोड़ता चला जाता है:-
”प्रश्न यह उठता अचानक
आज मानव और कुत्ते में रहा क्या फर्क
देश तो आजाद है।“
यहाँ कविता, यथार्थ की समाज शास्त्रीय व्याख्या में नहीं जाती। वह स्वाधीनता, लोक तन्त्र, में जन की भूमिका का विश्लेषण करते हुए, सामान्य के उत्तरदायित्व का मान करती है:-
”जिन्दगी तो वह तपन है,
जो कि थप्पड़ मौत के मुंह पर लगाती है।“
तथा जन ही अपनी सार्थक मौजूदगी में, नियन्ता हो सकता है, समता व सामाजिक सोच की जो अन्विति है, वह यहाँ रूपायित होती है।
‘गंध का विस्तार’, शीर्षक से संचयित कविताऐं काव्य भाषा और स्व अर्जित शिल्प के अनुपम उदाहरण हंै। यहाँ काव्य रूप सहज है। शब्द और उस की ध्वनि, साथ ही गति, रूपकांे की आवृतियाँ, जिस काव्य रूप की सर्जना करती हंै, वह अनायास है। कविता की अपनी लय है, गति है, और प्रकृति अपने सहज रूप में व्यष्ति है। बिम्ब जो हंै, अपने आप में पूर्ण हैं। दृश्य बिम्ब की शृद्दलाऐं हैं, भाषा में चित्रात्मकता है। काव्य रूप संश्लिष्ट हैं। कालान्तर में उत्तर छायावादी काव्य संस्कारों से पोषित काव्य सम्वेदना, कवि के माक्र्स वादी चिन्तन से गुज़र कर जन सापेक्षता में ढल गई।
‘सुरभि के चरण’ से, ‘उपार्जित क्षण तक’ की कविता यात्रा, कवि कीे काव्य चेतना के पुनः पुनः संस्कारित होने की क्षमता की सूचना है।
”हम वैसे ही रहे
कुछ अनुभूति हुई थी मन में
कह न सके, सह गए
स्वप्न बस स्वप्न रहे,
दुख-सुख आतप वर्षा के दिन
तपे, घुमड़ कर बीत गए
हम वैसे ही रहे अगति के बन्धन में।“ ‘हम वैसे ही रहे’
त्रिभुवन चतुर्वेदी व्यंग्य कार हैं, शब्द चयन उन की अपनी विशेषता है। यही कारण है कि उन की कविता सम्वेदना से जो ‘रूप’ करती है, उस में सहज ही शिल्प संगुफित हो कर, सघन प्रभावान्विति में रूपायित हो जाता है। रूप और वस्तु एक सघन इकाई मंे संयोजित हो जाते हैं। यही कवि की वह विशेषता है जो इन के कवि कर्म को आदर देती है।
‘लहर लहर सागर’ (2008 ई.) त्रिभुवन चतुर्वेदी का तीसरा काव्य संग्रह है। वे गत साठ वर्षों से निरन्तर सृजनरत हैं। अपनी काव्य प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए उन्हों ने कहा है:-
”यह तो सही है कि कविता का उद्देश्य वह सहज है, जो कवि के भाव में कविता रूपी शतदल बनकर खिलता है, पर यह भी सही है कवि मन एक सामाजिक जीवन की घुमड़ती समस्याओं से अनाहत नहीं रह सकता।“
संग्रह की कविताऐं, ‘छन्द बद्ध’ व ‘छन्द मुक्त’ दोनों ही शिल्प में हैं। उन का कथन है:-
”आधुनिक जीवन और उससे प्रेरित भाव बोध इतना संश्लिष्ट और व्यापक है कि उसकी अनुभूति के प्राकट्य को किसी छन्द सीमा में बाँधा नहीं जा सकता। उस अनुभूति की अभिव्यक्ति छन्द सीमा को तोड़कर बह निकलती है, सावधानी यही रहती है कि काव्य लय न टूटे, कविता, कविता बने व लगे, गद्य न बन जाये।“
उन की कविताएंे, अन्तर्जगत में व्याप्त अनन्त जिज्ञासा की खोज हैं:-
”और मैं थका यात्री
अपनी थककर चूर हुई पिण्डलियों को टटोलता हूं
अपने व्यथित अन्तर से पूछता हूं,
क्या मुझे जीवन भर इसी भांति चलना है?
जीवन, क्या चलते ही रहना है?
क्या सत्य से अधिक,
तेजाबी होती है
सत्य की जिज्ञासा! ‘सत्य की जिज्ञासा’, पृ. 3.
यह जिज्ञासा कवि मन की है, संस्कृत मन की भी है, आम जन की भी है। वह उत्तर भी पाता है, चाहता है बाँटना जो उस नेे जाना है। प्रड्डति, कविता के लिए जहाँ आलम्बन का भाव रही है, वहाँ कवि मन का स्वतः सहज बिम्बात्मकता मयी काव्याभिव्यक्ति में ढलते जाना स्वाभाविक ही है। यहाँ अधिकांश कविताओं में कविता, प्रकृति के प्रति आन्तरिक एकात्मकता में सहज ही रूपायित हुई है। जिसे ‘सहज’ कहा जाता है, उस की व्याख्या यही है कि वह ‘अकृत्रिम’ है।
”साक्षात्कार से पहले“ 2012 आपका अन्तिम काव्य संग्रह आपके देहावसान के बाद हाल ही में प्रकाशित है। कविताओं का चयन आपने ही किया था। आपके जीवन की, और इस संग्रह की अंतिम कविता है-
”आराधना तब मुक्दिा बन जाएगी
श्वाॅंस हर दम गाएंगे जब नाम तेरा
प्राण का पंछी चुगेगा विरह के अंगार
नयन से अविरल बहेंगे अश्रु बनकर प्यार
पुतलियों में बस हॅंसेगा हृदय का प्यारा चितेरा।
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तभी तुम मेरे हृदय में प्राण बन बस जाओगे
और मेरे नयन में बन लालिमा छा जाओगे
मुक्ति का खग मिलन के उस नीड़ में लेगा बसेरा।18 सितम्बर 1928 को कोटा में जन्मे त्रिभुवनजी ने अपनी जीवन की यात्रा 23 जून 2012 को समाप्त करदी। वे अपने बारे में आश्वस्त थे। वे अंतिम कृति की तैयारी के साथ उसे मुद्रित भी देखना चाह रहे थे, उन्होने प्रकाशक से आग्रह कर दिया था, जून के अंतिम सप्ताह तक दे देना, किन्ही कारणों से विलंब होगया। संग्रह की कविताएॅं कविता के माध्यम से कवि की अपनी पहचान से रूबरू कराती हैं।
जीवन की निशा-बेला में कवि की चिन्ता मूर्त हो उठती है-
कभी- कभी मैं सोचता हूॅं
क्या वह मेरा स्वप्न व्यर्थ था
जिसके लिए मैं कल जिया
आज मर रहा हूूॅं।
मेरा कोई नहीं सुनता पृ113
कविता ही कवि को वह कुछ दे जाती है, जो साठ साल की काव्य साधना में उसने पाया है।
ऐ! डूबते सूरज बता, तू तो चला जाएगा घर
इस अस्ति का क्या प्रयोजन, किया यत्न, लक्ष्य पाए नहीं,
मैंने कहा दिल से बता, हम क्यों हुए ,ऐसे हुए
दिल ने कहा, डूबो मुझी मंे, अनज्ञ रह पाओगे नहीं।
कैसी कटी यह जिन्दगी पृ126
त्रिभुवन जी तो अब नहीं है। पर यह सच है, प्रान्त में नई कविता की पहचान और परख के लिए, उनका योगदान महत्वपूर्ण है। यह इसलिए भी उल्लेखनीय है कि गुटबाजी और घेरे बंदी से जकड़ी हिन्दी कविता और उसकी आलोचना के बीच, समस्त उपेक्षाओं के बावजूद वे साठ साल साल तक कविता में अपनी सक्रियता बनाए रखने में समर्थ रहे। राजस्थान साहित्य अकदमी ने आपके जीवन और साहित्य पर मोनोग्राफ निकाला था। अकादमी उसके लिए साधुवाद की पात्र है।
त्रिभुवन चतुर्वेदी अपने समय की कविता के साथ निरन्तर प्रभावित करते रहे हैं। ‘कल्पना’, माध्यम’, ‘ज्ञानोदय’ और उस समय की चर्चित नए भाव-बोध की पत्रिकाओं में वे समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं। मूलतः व्यंग्यकार त्रिभुवन चतुर्वेदी अपने समाजवादी आग्रह से ‘कविता’ को प्रभावित करने का तो प्रयास करते रहे, परन्तु वे अपने समय की तथाकथित प्रगतिवादी सोच से दूर ही रहे। राम मनोहर लाहिया का आप पर प्रभाव था। आघ्यात्मिक सोच उन्हें कर्मकांडीय रुझान से दूर रखती रही। संस्कृति और प्रकृति का समन्वय आपकी विचारधारा का केन्द्र रहा। विवेकानंद आपके आदर्श रहे। सामाजिक मूल्यों का नैतिकता के धरातल पर निर्वहन आपकी जीवन प(ति का वह मूल्य बना, जो आपके साहित्य में आधार बन पाया।
यही कारण है कि आप के काव्य में ‘जन वादी’ दृष्टि न पा कर, ‘जन वादी समीक्षक’ उन से विरत रहे। वहीं ‘नई कविता के सुधी कलावादी समीक्षक’ उन के समाज वादी दृष्टिकोणों से प्रभावित हो कर उन्हें अपने दायरेे से दूर रखते रहे। सन साठ के बाद समीक्षा एवं काव्य प्रवृत्तियों को बने बनाए ढाँचे में धकेलने का आग्रह बलवती रहा। प्रांत में राष्ट्रीय सांस्कृतिक पक्षधरता का भी समय-समय पर बाहुल्य रहा। पर वे भी त्रिभुवनजी की प्रगतिशील आग्रह के प्रति गंभीरता से उनसे दूरी ही बनाए रखे रहे। जिस का ख़मियाज़ा स्वयं‘कवि’ एवं ‘कविता’ को बहुत उठाना पड़ा। राजस्थान में प्रकाशित नई कविता के महत्व पूर्ण प्रारम्भिक कविता संग्रहों में आपकी ‘सुरभि के चरण’ उध्ेखनीय कृति है। आपके चार काव्यसंग्रह सुरभि के चरण ;(1968) उपार्जित क्षण (1985), लहर लहर सागर (2007) तथा साक्षात्कार से पहले (2012)प्रकाशित हुए हैं। ब्रज भाषा में ”कित्ते भोले हैं लोग“ उल्ल्ेखनीय काव्य कृति है।
सामाजिक सरोकार तथा आम आदमी का द्वन्द्व तथा तनाव, परेशानियों से जद्दोजहद करते हुए, बाहर आने की उत्सुकता व तीव्र छटपटाहट, उन की कविताओं का रचना संसार है। गहरी आध्यात्मिक छटपटाहट के साथ, मनुष्यत्व की सार्थक खोज वे कविता के पृथक स्वतन्त्र ढाँचे से तलाश करना चाहते हैं। उन का व्यंग्यकार, उन की कविता की सीमा भी है, जहाँ वे परिवेशगत संर्घर्ष को अनावृत कर के, प्याज़ के छिलके की तरह जन व्यथा के कारक चिन्हों को परत दर परत उधेड़ते रहने के सम्मोहन को छोड़ नहीं पाते हंै। फिर भी उन की जनापेक्षी सुविचारिता अतिरन्जन से बची रहती है। प्रसाद मयी भाषा तथा उदात्तता उन की कविता की अपनी विशिष्ट पहचान है।
त्रिभुवन चतुर्वेदी का ‘सुरभि के चरण’ (1968 ई.) राजस्थान में नई कविता की महत्व पूर्ण उपलब्धि माना गया है। जुगमिन्दर तायल ने ‘स्वातन्त्र्योत्तर राजस्थान का हिन्दी साहित्य’ में अपने आलेख में इस कृति को नई कविता के उत्कर्ष काल की कृति के रूप में स्वीकार किया है। उन के शब्दों में:-
”त्रिभुवन चतुर्वेदी प्रसन्न तथा रम्य अनुभूतियों के कवि है। नयी कविता में प्रकृति का चित्रण परम्परागत ढंग से न हो कर आधुनिक भाव बोध के आधार पर है। प्रकृति का उद्दीपन भाव यहाँ नहीं है, साहचर्य की भावना है। अप्रस्तुत विधान का प्रयोग यहाँ सहज है।“
एक कुसुमित बकुल की सी डाल
सहसा छू गई मुझ को,
लगा, गन्धिनी अंजुरियों में
फूल भर नहला गई मुझको,
आज मुझको जी गए दो
गन्ध प्लावित क्षण।“ सुरभि के चाण पृ11
यहाँ बिम्ब योजना, प्रकृति के साहचर्य से ‘प्रेम की अनुभूतियों’ को सहज स्पर्श करा रही है। प्रड्डति चित्रण का नई कविता में ऐसा काव्य रूप विरल है:-
”कार्तिक की भोर लली
सरसिज की पांख खुली,
शबनम की चितवन में सुकुमारी झांक गई,
तुलसी को पूज प्रात,
वंशीधर की गोपी
सद्य स्नात अलकों से मोती कुछ झार गई।“32 ‘भोर लली’, पृ. 22.
वृद्धा’ का दृश्य चित्र, ‘फाल्गुनी संध्या’ का रूप चित्र, इस अÚुत ‘सादृश्य दृश्य बिम्बों की संयोजना’ में मूर्त हो उठा है:-
”उल्लासित
सांझ फाल्गुन की
पश्चिम में पीत आतप स्वर्ण जाल,
धनवती,
अती सुख दुखी
वृद्धा सिहर
मुस्कराए
ओढ़कर जरतार शाल।“ ‘फाल्गुनी संध्या’, पृ. 26.
त्रिभुवन चतुर्वेदी की काव्य भाषा प्रसाद मयी है। यहाँ जीवन जो मधुरम है, वह प्रकृति का अवदान है। प्रेम, आनन्द, सभी मनोभाव प्रकृति के सौन्दर्य से ही जन्म पाते हैं, वहीं उन का विश्राम है:-
”हो रही है रजत की बरसात
नभ सरसि में खिल रहे हैं तारकों के फूल
और विधु की बाहु में यामा रही है झूल
हंस शिशु से उड़ रहे हैं अभ्रदल सुकुमार
श्वेत चूनर ओढ़कर मुसका रही है रात .. वही पृ28
रजत की बरसात, नभ सरसि, विधु की बाहु, यामा रही है झूल, हंस शिशु, श्वेत चूनर, सादृश्य बिम्बों की अनवरत शृद्दला है। पूरी कविता सान्द्र बिम्ब का सुन्दरतम रूप है। ‘नई कविता’ में प्रकृति चित्रण का अपूर्व उदाहरण इस संग्रह की कविताऐं हैं।
सामान्य की पहचान तथा उन के प्रति सहज रागानुराग, उस की अस्मिता का सम्मान प्रगतिशील कविता का आधार है। त्रिभुवन चतुर्वेदी समता के कविता हैं। वे लोहिया से प्रभावित रहे हैं। सामान्य जन की पीड़ा और उस की जिजीविषा के प्रति उन का सम्मान, यथार्थ के प्रति उन के वस्तुपरक चिन्तन की अभिव्यक्ति है:-
”कितनी सुखी है यह,
सदा फूली
नहीं सही उतनी श्रीमयी, सुषमा मयी
पर अपनी निष्ठा के रंग में रंगी हुई,
आतप में, वर्षा में
समरस, हंसती हुयी
अपने अमृत को पी
जीती, खिलती हुई
कितनी सुखी सुखी।“35 पृ. 36.
यहाँ कवि क्रमशः गुलाब की रूपवती पंखुरियों, सत्वहीनता के बोझ से दबे बोगेनबिलिया, नागफनी के क्रूर सैनिक से शर, यथार्थ की उत्प्रेरित परतों का साक्षित्व ग्रहण करते हुए, ‘सदा फूली’ की निष्ठा पर समर्पित होता है। कविता में शोर, तेज़ाबी भाषा, असम्बन्ध, आक्रामक बिम्ब योजना, जो हल्के से ताप से विस्मृत हो जाती है, वह यहाँ नहीं है। इसी लिए अपने समकालीनों में, जहाँ समीक्षक-आलोचक, तेज़ाबी भाषा, औद्योगिक परिवेश की असम्बद्ध प्रतीक योजना को, जो उन का जीवनानुभव ही नहीं थी, बल पूर्वक कविता में दख़्ल दिलवा कर नवीनता प्रकट कर रहे थे, वहाँ त्रिभुवन चतुर्वेदी अपने समय के साथ ही रहे। औद्योगिक आर्थिक परिवर्तन से उत्पन्ना यथार्थ को विश्लेषित करते हुए, अपनी काव्य सम्वेदना का परिष्कार करते हुए, अपनी कविता में इस गत्यात्मक परिवर्तन को समेटने व सहेजने की कोशिश में, ईमानदारी से सन्लग्न रहे। कविता की भूमिका सीमित है, वह इस विराट के महा परिवर्तन की साक्षी है। यथार्थ को सब से पहले चिन्हित करने का उपक्रम करती है, परन्तु वह ज़िन्दगी में, उस के परिवर्तन में, हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। उस का दायरा सीमित है।
”झागों में डूब रहे
ऊँचे मस्तूल,ऐसी कुछ हवा चली
डगमगा गई तरी,
मुक्ता अन्वेषण को निकले जो सागर पर,
कौड़ियों पर फिसल गये
सभी लक्ष्य भूल
विद्रुम के तट पर
मरी मत्स्य गंध फैल रही
हाय! हाय! स्वर्ण तटी
कागज की नाव बनी डूब रही
सीख गये युधिष्ठिर
शकुनी की चालों को
होरी की आशाऐं हो रही धूल।“ ‘दुर्भाग्य’, पृ. 69.
चालीस वर्ष पूर्व लिखी यह कविता, समकालीनता में सच को ही नहीं, हो रहे परिवर्तन और उस की दशा व दिशा को सही रेखाप्रित कर रही है। ‘स्वर्ण की नौका’, कागज की नाव की तरह डूब रही है। क्यों कि युधिष्ठिर, शकुनी की चालों को सीख गए हैं। मुक्ता अन्वेषण को जो गए थे, वे कौड़ियों को पा कर लक्ष्य भूल गए हैं। बु(िजीवियों के मुखौटे की पीछे छिपे रूप की यहाँ स्पष्ट पहचान है। कविता यहाँ सहज रेखाप्रित कर रही है कि यथार्थ जो हल्का-हल्का उभर रहा था, लोक तन्त्र में जीवन-मूल्य, भोग तन्त्र में पर्यवसित हो रहे थे, यह उस की पहचान है।
‘इस समय’ में, ‘समय’ की सहज व सटीक पहचान है। ‘उपार्जित क्षण’, ;1985 ई.द्ध की भूमिका में डाॅ. मनोहर प्रभाकर ने लिखा है:-
”‘उपार्जित क्षण’ में संगृहीत उन की रचनाओं में कहीं अनुरागी मन की कोमल अनुभूतियाँ व्यक्त हुई हैं, तो कहीं उनकी वैचारिकता समसामयिक विसंगतियों और विडम्बनाओं पर प्रहार करती हुई उन्हें आज के सार्थक मानवीय सरोकारों से जोड़ती है।“
”इसलिए हे मित्र!
जब तक हैं नहीं ईमानदारी और एका
और नही है न्याय की चिन्ता हमें खुद
और पैसा है बना भगवान सबका,
उस समय तक
हम भले कुछ भी करें
किन्तु जूठी पत्तलों को चाट,
धक्के खा, पैसे मांगकर
और सर्दी से ठिठुरकर
आदमी योें ही सदा मरता रहेगा,
मौत कुत्ते की। ‘मौत कुत्ते की’, पृ. 96.
‘उपार्जित क्षण’ संग्रह समय की गम्भीरता तथा बदलाव को पकड़ने की चाहत में है। यहाँ काव्य भाषा, सहज है, परन्तु प्रतीक मात्र व्यंग्यात्मक ही नहीं हैं, ‘सामान्य’ की दुर्दशा, यहाँ आन्तरिक पीड़ा को कुरेदती है तथा आक्रोश, क्रमशः गहराई में एक चुभन छोड़ता चला जाता है:-
”प्रश्न यह उठता अचानक
आज मानव और कुत्ते में रहा क्या फर्क
देश तो आजाद है।“
यहाँ कविता, यथार्थ की समाज शास्त्रीय व्याख्या में नहीं जाती। वह स्वाधीनता, लोक तन्त्र, में जन की भूमिका का विश्लेषण करते हुए, सामान्य के उत्तरदायित्व का मान करती है:-
”जिन्दगी तो वह तपन है,
जो कि थप्पड़ मौत के मुंह पर लगाती है।“
तथा जन ही अपनी सार्थक मौजूदगी में, नियन्ता हो सकता है, समता व सामाजिक सोच की जो अन्विति है, वह यहाँ रूपायित होती है।
‘गंध का विस्तार’, शीर्षक से संचयित कविताऐं काव्य भाषा और स्व अर्जित शिल्प के अनुपम उदाहरण हंै। यहाँ काव्य रूप सहज है। शब्द और उस की ध्वनि, साथ ही गति, रूपकांे की आवृतियाँ, जिस काव्य रूप की सर्जना करती हंै, वह अनायास है। कविता की अपनी लय है, गति है, और प्रकृति अपने सहज रूप में व्यष्ति है। बिम्ब जो हंै, अपने आप में पूर्ण हैं। दृश्य बिम्ब की शृद्दलाऐं हैं, भाषा में चित्रात्मकता है। काव्य रूप संश्लिष्ट हैं। कालान्तर में उत्तर छायावादी काव्य संस्कारों से पोषित काव्य सम्वेदना, कवि के माक्र्स वादी चिन्तन से गुज़र कर जन सापेक्षता में ढल गई।
‘सुरभि के चरण’ से, ‘उपार्जित क्षण तक’ की कविता यात्रा, कवि कीे काव्य चेतना के पुनः पुनः संस्कारित होने की क्षमता की सूचना है।
”हम वैसे ही रहे
कुछ अनुभूति हुई थी मन में
कह न सके, सह गए
स्वप्न बस स्वप्न रहे,
दुख-सुख आतप वर्षा के दिन
तपे, घुमड़ कर बीत गए
हम वैसे ही रहे अगति के बन्धन में।“ ‘हम वैसे ही रहे’
त्रिभुवन चतुर्वेदी व्यंग्य कार हैं, शब्द चयन उन की अपनी विशेषता है। यही कारण है कि उन की कविता सम्वेदना से जो ‘रूप’ करती है, उस में सहज ही शिल्प संगुफित हो कर, सघन प्रभावान्विति में रूपायित हो जाता है। रूप और वस्तु एक सघन इकाई मंे संयोजित हो जाते हैं। यही कवि की वह विशेषता है जो इन के कवि कर्म को आदर देती है।
‘लहर लहर सागर’ (2008 ई.) त्रिभुवन चतुर्वेदी का तीसरा काव्य संग्रह है। वे गत साठ वर्षों से निरन्तर सृजनरत हैं। अपनी काव्य प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए उन्हों ने कहा है:-
”यह तो सही है कि कविता का उद्देश्य वह सहज है, जो कवि के भाव में कविता रूपी शतदल बनकर खिलता है, पर यह भी सही है कवि मन एक सामाजिक जीवन की घुमड़ती समस्याओं से अनाहत नहीं रह सकता।“
संग्रह की कविताऐं, ‘छन्द बद्ध’ व ‘छन्द मुक्त’ दोनों ही शिल्प में हैं। उन का कथन है:-
”आधुनिक जीवन और उससे प्रेरित भाव बोध इतना संश्लिष्ट और व्यापक है कि उसकी अनुभूति के प्राकट्य को किसी छन्द सीमा में बाँधा नहीं जा सकता। उस अनुभूति की अभिव्यक्ति छन्द सीमा को तोड़कर बह निकलती है, सावधानी यही रहती है कि काव्य लय न टूटे, कविता, कविता बने व लगे, गद्य न बन जाये।“
उन की कविताएंे, अन्तर्जगत में व्याप्त अनन्त जिज्ञासा की खोज हैं:-
”और मैं थका यात्री
अपनी थककर चूर हुई पिण्डलियों को टटोलता हूं
अपने व्यथित अन्तर से पूछता हूं,
क्या मुझे जीवन भर इसी भांति चलना है?
जीवन, क्या चलते ही रहना है?
क्या सत्य से अधिक,
तेजाबी होती है
सत्य की जिज्ञासा! ‘सत्य की जिज्ञासा’, पृ. 3.
यह जिज्ञासा कवि मन की है, संस्कृत मन की भी है, आम जन की भी है। वह उत्तर भी पाता है, चाहता है बाँटना जो उस नेे जाना है। प्रड्डति, कविता के लिए जहाँ आलम्बन का भाव रही है, वहाँ कवि मन का स्वतः सहज बिम्बात्मकता मयी काव्याभिव्यक्ति में ढलते जाना स्वाभाविक ही है। यहाँ अधिकांश कविताओं में कविता, प्रकृति के प्रति आन्तरिक एकात्मकता में सहज ही रूपायित हुई है। जिसे ‘सहज’ कहा जाता है, उस की व्याख्या यही है कि वह ‘अकृत्रिम’ है।
”साक्षात्कार से पहले“ 2012 आपका अन्तिम काव्य संग्रह आपके देहावसान के बाद हाल ही में प्रकाशित है। कविताओं का चयन आपने ही किया था। आपके जीवन की, और इस संग्रह की अंतिम कविता है-
”आराधना तब मुक्दिा बन जाएगी
श्वाॅंस हर दम गाएंगे जब नाम तेरा
प्राण का पंछी चुगेगा विरह के अंगार
नयन से अविरल बहेंगे अश्रु बनकर प्यार
पुतलियों में बस हॅंसेगा हृदय का प्यारा चितेरा।
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तभी तुम मेरे हृदय में प्राण बन बस जाओगे
और मेरे नयन में बन लालिमा छा जाओगे
मुक्ति का खग मिलन के उस नीड़ में लेगा बसेरा।18 सितम्बर 1928 को कोटा में जन्मे त्रिभुवनजी ने अपनी जीवन की यात्रा 23 जून 2012 को समाप्त करदी। वे अपने बारे में आश्वस्त थे। वे अंतिम कृति की तैयारी के साथ उसे मुद्रित भी देखना चाह रहे थे, उन्होने प्रकाशक से आग्रह कर दिया था, जून के अंतिम सप्ताह तक दे देना, किन्ही कारणों से विलंब होगया। संग्रह की कविताएॅं कविता के माध्यम से कवि की अपनी पहचान से रूबरू कराती हैं।
जीवन की निशा-बेला में कवि की चिन्ता मूर्त हो उठती है-
कभी- कभी मैं सोचता हूॅं
क्या वह मेरा स्वप्न व्यर्थ था
जिसके लिए मैं कल जिया
आज मर रहा हूूॅं।
मेरा कोई नहीं सुनता पृ113
कविता ही कवि को वह कुछ दे जाती है, जो साठ साल की काव्य साधना में उसने पाया है।
ऐ! डूबते सूरज बता, तू तो चला जाएगा घर
इस अस्ति का क्या प्रयोजन, किया यत्न, लक्ष्य पाए नहीं,
मैंने कहा दिल से बता, हम क्यों हुए ,ऐसे हुए
दिल ने कहा, डूबो मुझी मंे, अनज्ञ रह पाओगे नहीं।
कैसी कटी यह जिन्दगी पृ126
त्रिभुवन जी तो अब नहीं है। पर यह सच है, प्रान्त में नई कविता की पहचान और परख के लिए, उनका योगदान महत्वपूर्ण है। यह इसलिए भी उल्लेखनीय है कि गुटबाजी और घेरे बंदी से जकड़ी हिन्दी कविता और उसकी आलोचना के बीच, समस्त उपेक्षाओं के बावजूद वे साठ साल साल तक कविता में अपनी सक्रियता बनाए रखने में समर्थ रहे। राजस्थान साहित्य अकदमी ने आपके जीवन और साहित्य पर मोनोग्राफ निकाला था। अकादमी उसके लिए साधुवाद की पात्र है।