गुरुवार, 13 नवंबर 2014

मन वृन्दावन

         मन वृन्दावन

माँ, नदी थी, तट था और था मैं,  दिख रहा था दूर से
डूबता सूरज, पृथ्वी का मिलन आकाश से
तुमने कहा था कुछ नहीं
बस उठी थी वह भुजा हाथ में जिसके था खड़ग
और पांव के नीचे दबा था वह असुर,
सिंह वाहिनी....उस सिंह से भयभीत ‘‘मैं’’ था सोचता,
क्या असुर वध के लिए था जरूरी सिंह का होना....?

रूप तेरा, लपलपाती जीभ,हाथ में खप्पर,
रक्त में स्नान कर आ गई हो...

उस क्षितिज के पार, तट कालिंदी किनारे
दौड़ती रंभाती फिर रहीं गायें
हाथ में बंशी लिए वह ‘‘कान्ह’’
माँ,... ढूंढ़ता तुझको,
जो सहारे कदंब के नीचे थी खड़ी
आरक्त पद नख से धरती को टिकाए...वह गोपिका,

रोम रोम स्पंदित तन-मन ,गूंज रहा था नाद
कुंकुमी आकाश, मांग मानो भर गई हो,
या उड़ चला आकाश, होलिका दहन की आग,
उस शीतल आग में, वस्त्र मानों जल गए हों,

क्या रहा था शेष, जब कषायों से सजी यह देह
हो चुकी निःशेष, रंगों से नहायी
थी सखी ललिता, कर रही थी नृत्य चिन्मय,
शब्द... खो गए आधार, अर्थ...बस बेबस
वाक्, पार अपरा के, परा की कोख में हो मौन।

मात्र सौरभ, जल उठा उपवन
आम्र मंजरियों के अचानक जागने से या खिल उठी चंपा या मालती
कुछ ना असंभव उस छोर पर
गंध ने दे दिया सब कुछ

वाक् ने चुपचाप लिया और पी लियावह रस,
दृष्टि का जो भेद था, रंग का रूप का कुल गोत्र का जाति का
नहीं था शेष।

सखी ललिता थी वहां, और नहीं था कुछ
हवा चुप थी, जो साथ था ,वह मौन था,
और था वहां वह कुछ जो था अरूप....।

उतरा शीश से ले साथ अलकनंदा, भगीरथ चाह को
हिमालय रौंदती वह बह चली, अपनी डगर पर
कुछ मांगती ,कुछ छोड़ती शिव धाम को, स्पर्शित-
जगत की कामना और थी वह चाह ,पार जाने की जगत से,
था वहां पर जगत अपनी सार्थकता ले,
वहाँ उतरी ,वह वेग, मानो सब बह गया हो।

त्रिनेत्र था, वह जो जगा, पर शांत था
नहीं था ‘‘पर’’ वहाँ ,वहां मात्र वह था,
मात्र वह ,जो वह एक था,

माँ...  सचमुच तुम वहां थीं, तुम वहाँ थीं
मुझमें समायी, दूर मुझसे
बात करती और हँसती ,पास रहती दूर जाती,
मैं जो चला था वह नहीं था, वह कुछ और था।

और दिखा था दृश्य वह माँ नहाती तुम
और सागर की उफनती उद्दाम लहरें
वक्ष को छू रही थीं, स्तंभित दिशाऐं
उठती थीं भुजाऐं इस ओर से उस ओर तक
था दिखा वह पथ ,जहाँ से सृष्टि जगती और सोती
माँ, सिर्फ तुम वहां थीं,

तुमने दिखाया वह, आना और जाना
सखी ललिता का
आकाश से उतरी गई, आकाश में ,आकाश...
उसके सिवा था कुछ नहीं ,जो बचा आकाश
जो रहा आकाश,  आकाश में आकाश था
आकाश से आकाश था, आकाश में था,  मैं,  जो पात्र था
सखी ललिता भी, जो हँस रही थी, दोष था मेरा
मेरे वसन का, मेरे गात का, कल्मष उसी को दे दिया था
वह नहायी और सजकर उस गात से, जो कि मेरा था,

और दिखा वह धाम
जब शब्द वीणा से हुआ गंुजार भ्रमर नाल पर
बैठे थे पितामह और देखा वे तुम्हें करते नमन थे, तुम उन्हें,
यह दृश्य मैं भूला नहीं था,
हाँ, ‘‘अहम्’’ ही था कमलदल
जहां पितामह रच रहे संकल्प थे
ब्रह्म नाभि से उपजा वह ‘‘अहम्’’
ले प्राण का आधार, ब्रह्माण्ड को पुलकित किए
था दे रहा था गान, मधुर गुंजार, अनहद नाद,
जो निरंतर हो रही निस्सृत चिन्मयी वाद्य से
 जो निरंतर है, जो गति है,

चाक ब्रह्मा का निरंतर घूमता
उससे ही उपजा यह जगत, उसी में लीन होती
घूमना था चाक को, गति ही तो ब्रह्मा है, गति ही प्राण है,
जो खिल रहा था बीज, दो कोंपल लिए
मन, प्राण का, यह योग ही तो है जगत का बीज,
और थीं माँ तुम, लिए गर्भ में उस बीज को
मुझको, मेरे इस गात को
सृष्टि में निरंतर भटकती इस देह को...

कहा था, यही उसने ,
जो हिमालय की कृपा को, साथ ले सती, या उमा को
कर रहा था वास, बाघम्बर लपेटे, हाथ में डमरू
अपार्थिव नृत्य था वह जब हुआ था,
कांपती धरती पर वह चुप
अधरों पर समेटे ‘‘हास’’ धरती का
लिए कंठ में विष धरती का
वह कुछ कह गया था-
पार मेेरे ही जाना है तुझे
है वहीं पर धाम माँ का,
जो खड़ी है सामने तेरे , दूर नदी तट पर
दिखाती है जगत को, जगत के पार को
फिर जगत जिसका हुआ है जन्म, होना लीन,
उसकी भी नियति यह , वहाँ पर बस ‘‘चिदाकाश’’ है
वही पथ है ,जो महेश्वर धाम है।
जा... सब भूल जा
दुःख और सुख के बीच का यह रास्ता
हाँ, यह पीना है गरल तुझको ,रहना चुप नहीं
पूरा आनन्दित  ,तभी तू जा सकेगा
इस घाट से उस घाट तक।

वहां पर है रखा वह पात्र, जिसका मुख ढका
स्वर्ण से, ले उठा
दो पग, पर ध्यान रख
हिरण्यमय यह पात्र
जिसके लिए जानकर भी ‘‘राम’’
चल पड़े थे ले धनुष स्वर्ण मृग संधान करने,
जानती सीता, सब कुछ
कर गयीं वे पार, रेखा खींचकर जो गए लक्ष्मण
तभी तो ‘‘अहम्’’ का स्तूप, रावण छल गया।

स्वर्ण का यह पात्र, छलता ही रहा है
तथागत को भी मिला था, इसका आमंत्रण,
पर चले थे, वे यह सोचकर
वैभव राजसी दे न पाएगा, कभी संतोष,
छल या छलना इस जगत की, भरमा रही सबको सदा से
तभी तो महावीर ने जाना,
दे निर्मम यातना इस देह को,
पा सकें वह, जो कि उनका है
जो वे स्वयं है, मुक्ति का यह पर्व
मुक्ति उससेे भरमाया जिसनै जीवन को
कषाय का यह वलय,
‘‘अध्यवसाय’’ को घेरे में लिए ,संवर साधना से
कट सकेगा, सार पाया, श्रमण ने वेराग्य में...

यह जो वेला है, यह विद्या और अविद्या की संधि रेखा है
मधु यामिनी, मधु कलष लो खुल गया है
मधु वह जो सार है इस जगत का,
क्या जगत यह व्यर्थ है, निःस्सार है,
 माँ, बैठी, शेष शैया पर प्रभु पद दबाती, जो लक्ष्मी रूपा है,
क्या असंगत, मात्र कल्पना की चित्रशाला है?

हाँ, माँ, लक्ष्मी रूपा खो गए नारद जिसके मोह में
मांग बैठे, हरिरूप स्वयं ‘‘हरि’’ से,
और फिर जब वरमाला प्रभु को
कर समर्पित लक्ष्मी रूपा हँस पड़ी,
तो हो कुपित ,प्रभु से ले शाप ,स्वर्ण के इस पात्र से मोहित
पद रत छोड़, विभ्रम का ले दुपट्टा
तमस की गहरी अमावस रात में गए खो...यही तो सार है।

इस धरा का, यह धरा जो है वृन्दावन
सजी, सी चिन्मय, दिव्याकाश में
जहां नहीं है गंध ,न है रूप , न है शब्द ,न है कामना
वहीं पर है चिन्मय कालिंदी
जहाँ है गोपियाँ, सखी ललिता भी,
वैणु है रखी श्यामल देह के रक्ताभ अधरों पर ,
पीताम्बर पट,
दे सहारा बाँह का श्री राधा को, चिन्मयी माँ प्रृ्रकृति को
हो रहा नित्य नर्तन चिर स्पंदन मात्र गति है, मात्र गति,
अहर्निश रास, अधर कोमल, सिहरता गात
स्पंदन ही सजगता और बेसुध तन, लौटता लहरों से आता पवन
तट के सहारे छोड़ता हाँ, हाँ यही तो था...वहाँ...
भागवत का गीत प्रेमिल,
‘‘चैतन्य’’ का वह चिन्मय नृत्य
घुंघरू बांधकर नाची वह श्यामल रंग में,
तोड़कर वह पात्र का ढक्कन जो रखा था, स्वर्ण के घट पर
सिंहासन की परिधि को लांघकर,
‘‘रैदास’’ भक्ता वह,
कह रही थी भाषा उस ‘‘दरद’’ की...

सूर की गोपी अजानी
बरसते थे नेत्र जिसके देखकर काली घटाऐं
श्यामल रंग को,
‘‘कबीरा’’ का वह बेसुध मन
जो खुमारी में रहा था डूबता, जागता
सजगता में ‘‘परा’’ को बेखरी पर बांधता हँसता, हँसता...
अपनी फकीरी में रहा खुद को लगाता।

हाँ, वह गोरख, जो चला था योग की धूनी लगाए
कह गया था, साथ उसके वह रहेगा, जो जगा है
जो जगा है, सदा निशदिन, वही रहता, साथ उसके
जो सदा ही जगा रहता।

यह घड़ी भी माँ तुम्हारे, सहज स्नेहिल स्पर्श की
कि मैं जगा था, देखता
तुमको, नदी को, तट को और सबको
माँ, सब छूटता, यह गात, यह जात, यह देह का आधार
वह जो बीज था, अब खुल गया था
उठ रहा था ज्वार , कभी बाहर का आमंत्रण
कभी भीतर की अकुलाहट
माँ, यह सब दिखाया , उस स्पर्श ने
जो रह रह कर उठा था, जब जगा था।

माँ, पहली बार धरती पर माँ की कोख में,
वह पुलक, वह सिहरता गात, जब स्पर्श पाया देह ने
तब हुआ स्पंदित, यह तन यह मन, वही सिहरन,
जो उठी थी नाभि से, हो गई थी व्याप्त नस नस में
हां, माँ वही, वही तो था
वही, लौट आया शिशु मेरा जो खो गया था।

जगत की,  इस ज्ञान की, इस सूचना की ,इस शास्त्र की
प्रचारित कर्दमी जड़ बेला में,
जहां प्रस्तर खंड पूजित, शब्द अर्चित, चिन्मय अपमानित,
स्वर्ण घट की प्रतीक्षा में खड़े सब
इस देह में यंत्र मानव से,
शास्त्र को चादर सा लपेटे, बैखरी धुन पर नचते
नट विद्याा ही सीखे, दे रहे जग को प्रलोभन
जगत की मिथ्यात्व की घोषणा का पाठ दोहराते,
स्वयं भीतर जग की दासता में लिप्त, स्वर्ण घट की कामना में हो रहे बूढ़े
बूढ़े ही थे जन्मे,
इस चिन्मयी वृन्दावनी रस भूमि पर
जिनका शैशव जन्म से ही खो गया था,

हाँ जगा माँ वह, गोरख ने कहा था
आधी रात में है एक बालक बोलता,
माँ, वह बालक
वह जगा था, खोकर सब कुछ
कुल, जाति, धारण जो किया था मात्र बालक
वह बटुक भैरव, माँ वह मेरा, काल भैरव
जो ममेतर था रहा कल तलक था, वह  भी विदा अब ले  गया,...

कह रहा था वह पखेरू, बैठा वृक्ष पर, फल कुतरता
और था जो देखता था, वह अचानक ही बचा था
चखते चखते पंख उसके जो जले थे,
वह अचानक कह गया था
वह चखना भूलकर के अब, बस देखता है
देखता है जो वही तो है बटुक, बटुक भैरव
वह मिला था, और थी ललिता
जो सदा से साथ थी
उतरी आकाश में, आकाश में ही मिली थी देह में,
देख ले-
वृन्दावनी चिन्मयी धरा पर, ले हाथ में वंशी,
न ले, चाह तेरी, बांध ले घुंघरू
जगत यह पाप है अब नहीं, लीला भूमि है यह कान्ह की
जो बटुक है, वही तो मुक्त है
स्वर्ण तट की प्रतीक्षा है नहीं अब
सर्प और स्वर्ण का नहीं है भेद
यह बटुक हंसता, हंसाता
अभी तो जन्मा यही है
हाँ, माँ, मैं खड़ा था, नदी तट पर साथ तेरे,

बटुक ही तो सार है, सार्थकता यात्रा की, जो हुयी है ज्ञात
ऋषियों से, मुनियों और गुरुओं से,
पर ही न जाने क्यों, हम बटुक को छोड़कर
वृद्ध को ही साथ रखते हैं सदा।

हां, तभी तो भूमि वृन्दावन जहाँ भक्ति, नवयौवना के पुत्र
थककर क्लांत थे जो गिरे
और नारद विस्मय का छोड़ पीताम्बर, गए थे पूछने,
प्रश्न पितामह से- ‘क्या ‘भागवत’’ का बीज ही हैे यह,
या कथा श्री राम की
जहां मिलना मारूति का श्रीराम से
पाना खोई सीता, शांति श्रीराम की
विवेक का जागरण ही अंतिम गीत है।

प्राप्त होता, जो मिला इस जीव को जग में
उसी धारणा से, जो स्वधर्म है
सामर्थ्य का सुदपयोग ही तो धर्म है
जो खोलता है द्वार ,लेकर साथ विवेकी मन
उस धाम का चिर चिन्मय लीला भूमि का।

तब चिदाकाश में ,उड़ता वह पखेरू
जो चख रहा था, पंखों को जलाकर
पाकर अपनापन कि वह अब देखता है,
उड़ चला है ,चिदाकाश में
उसके पंख उजले, शुभ्र, ज्योतित
विवेक और वैराग्य के, जो छूटता था, और था जिसे जाना
वह अब जा चुका है, था जिसे आना
वह अब आ चुका है।

जो शिशु जन्मा, वह कान्ह हो यीशु, वह भी बटुक था
उसका ही आना, आगमन का गीत है
जो जगा है, वह बटुक है
जो बटुक है, वह जगा है।

है नहीं यहा पर धूल, पारस और अमृत की
नहीं है स्वर्ग का सुख
नहीं है भय की चादर ,
नहीं घृणा की बहती नदी है
हिमालय से निकली भगीरथी का जन्म है यह, जो मिली है
‘‘शिव’’ की जटा पर आज आकर, चंद्रमा है खिला
कंठ में लपेटे, सर्प विषधर
बाघम्बर लपेटे शांत है वह, वह ‘‘शिवम्’’ है,
कल्याण की इच्छा संजोए
नाद डमरू में भाषा छन्द लेकर,
नृत्य की भंगिमा हो, या ज्ञान वेदों का,
आगम, निगम की संधि रेखा,, तंत्र की आधार भूमि
चिर कैलाश की चिर भाव भूमि, यहीं तो है।

यहीं पर जन्मे हैं, ‘‘गणेश’’
जो स्वयं पशु का शीष रखकर, बुद्धि का आगार हैं,े
 वे दे रहे आधार सबको,
नाभि अपनी करते उजागर, मोदक भोग लेते
क्या नहीं असहज रूप उनका।

हां, शीश ही तो सार दुख का है
हो गया निरंतर विकास इसका,
हृदय तक अब चेतना का द्वार कुंठित
जा नहीं सकती, वह यह दासत्व खोकर
जो कि पाया ,सभ्यता के विस्तार से उसने यहां पर
शक्ति मन की हो या प्राण की, दोनों एक हैं
वास उसका नाभि,, आना है यहां
जो कि अब हो गयी है कैद घर मस्तिष्क में
जहां से जाता पथ जगत की लालसा का।

कह गया था वह- लोभ मत कर
संपत्ति यह किसी की है नहीं
त्याग से ही भोग का पथ है
और वास ईशा का जगत में
है, जगत से वह परे भी है।

लोभ का यह पथ, कषायों का बना है सिलसिला
तथागत की, विषभरी तृष्णा की नीली धार है यह
छोड़ जिसको वे गये, पा गए महावीर पथ वैराग्य को ले साथ....।

यह उपजती शीश पर, जितने केश हों उतनी ही तृष्णा जान
करते लुंचन केश का, और वे ‘‘मुंडक’’ के अनुयायी
‘‘अग्नि’’ को जगाते शीश पर, केश अर्पित कर
भगवा पहन, जग में चल पड़े।

कहते गणपति, पशुता तुम्हारी शीश पर बसती
भले ही तुम मनुज हो,, मनुज का वास तो नीचे हृदय में है
कंठ, जहां शिव ने, गरल को है रखा
इसी द्वार के नीचे रहती तितिक्षा है,
वहाँ खुला आकाश है, भाषा बैखरी से मध्यमा,
मध्यमा से होकर पश्चंती... ढूंढ़ती है पथ,  परा में डूबना
जहां जगता ‘‘सोम’’, वही मधुमय सोम,
मन और प्राण का आधार बनता,‘‘अन्न’’ से उपजा
खोता आपको, दे मन-प्राण को आधार।

यह वह भूमि है, जो बनी वृन्दावन
जहाँ तमस के पार कालिंदी, जहाँ है खड़े श्री कान्ह
ले माधुर्य, जो बस प्रेम है
जिसको पाकर कह उठा था ‘‘जायसी’’
इसके सिवा यह देह सचमुच व्यर्थ है।

यही है वह धाम ,जहाँ है देश हंसों का
जो उड़ते हैं चिदाकाश में, यही है सार्थकता
मानव देह की, होना बस मनुज
कर दूर सारे आवरण, जो ढंके हैं
चेतना को लिए इस स्वर्ण घट पर
हाँ, उठा ढक्कन, अब होगी...अब यहीं पर
चेतन निस्सृत सजग, वह नाम उसका दे सको तो दे ही देना
नाम ही तो है मनुज की आकांक्षाओं का द्वार
इसके सिवा वह जा नहीं सकता
कभी निज के पार।

अर्हत भूमि का आस्वाद है यह, उतरना छिलके कांदे के
जो मिला है, अंत में वह क्या...
क्या अस्तित्व है सहज, भाषा होती मूर्त जहां हो व्यक्त करना,
संज्ञा और विशेषण पर,
पर जहां मात्र लहरें हों और लहरों से परे जो गर्भ है
जहाँ नहीं है कुछ, जो हो सके रूपायित कहीं पर
वहाँ तो बस दिगम्बर है।

खोज उसकी क्यों करो, संधान संज्ञा का
पर वह है, वहाँ तो मात्र वंशी नाद है,
जो गति है जन्म देती...और रखती और कर देती विदा
यह क्यों? है नहीं माया
यह लीला भूमि है कान्ह की जो है योग निन्द्रा में
महासागर नीली लहरों बीच ,शैया शेष नाग
 हाँ, है वहां पर माँ,
लीला सहचरी, निरंतर जागृत चिन्मय,
उसका लास्य ही तो है सौंदर्य इस धरा पर।

उसकी ही हँसी, जो है मुदित नीले आकाश में
यह जल, थल, अग्नि, पावक सब वही हैं
है, वही जो मात्र गति है और था मैं, मैं मनुज, बटुक भैरव
था छूटता था ज्ञान प्रौढ़ पन की जो सूचना थी, जग गया था वह शिशु
या जागरण का गीत, था उस पार,
घाटी पर दिख रहा  था, जगत, ‘‘जोगी महल’’ सा, जहां है मात्र खंडहर
अतीत के जड़ संवाहक भविष्योन्मुखी डूबते मस्तूल के वे खंड,
जहां  असुरक्षित है मनुज है
जो मात्र पशु है,
और उसका होना पशु सनातन कर्म है ,जो पशु है वही होगा
यहां पशु आहार, यही अभ्यारण्य है।


वह शिशु बटुक भैरव,  यहीं था जन्मा ,गणपति, सानिध्य ही
जागरण की ,नव मनुज की
नव सूर्य के आगमन की सूचना थी।


पौ फटी थी, बरसते बादलों के बीच उस कालिमा में
हल्की सी झांकती, खिले गुलाब सी वह लालिमा थी
 आगत का संदेश...था उसमें,
जो जगा है, आज, थिर हो नहीं सकता
छाया तेरी कालिमा से है बनी,
संग तेरे ही चली है, जन्म से ही ,साथ तेरे वह रहेगी
होना तुझको है सहज, सजगता ही सार जीवन है।

हां, नदी तट पर लिखा था...यह
सुवासित कमल दल बीज,
मेरे और तेरे बीच , बहता प्राण था
छन्द गायत्री, वह सविता, माँ, ले ‘‘सोम’’ का आधार
मन और प्राण होकर एक  मुझमें लीन, मुझसे मुझको छीन
नव शिशु का हुआ था जन्म,
प्रणव सहचर, नहीं था शून्य, नहीं था दैन्य
तट कालिंदी वृन्दावन रज,
खड़ा था ‘‘वह’’ बटुक, बना वंशी ,सखी ललिता साथ
कहाँ थी वह, कहाँ था वह
दोनों एक,  क्षण वह एक
कल की  रंभाती गाय, धेनु भी अब चुप
कदंब की महकती थी  गंध।

माँ, तेरे कान्ह के अधरों पर, रखी वंशी
प्रणव सहचर, मधुरिमा में रहा था जग
अरूणाई ही अरूणाई
दिशाऐं थी दिगम्बर सी
कहतीं रूप ही तेरा, तुझी को कर अलग, रहता अलग,
यही छाया है, जो तमस है.....तू नहीं  है वह।