सोमवार, 28 सितंबर 2015

भूले बिसरे चित्र डॉ.शांति भारद्वाज ”राकेश“


भूले बिसरे चित्र डॉ.शांति भारद्वाज ”राकेश“

कोटा का साहित्यिक परिदृश्य तीन भागांे में बॅंटा हुआ हें कोटा जंक्शन , पुराना कोटा तथा नया कोटा। कोटा जंक्शन पर साहित्यिक जगत एक परिवार की तरह  रह रहा है। 1948 के आसपास मासिक ”कामना“ पत्रिका यहॉं से निकलती थी। राजेन्द्र सक्सैना, जगदीश वोरा संपादक मंडल में थे। इसकी एक प्रति मेरे पास थी।

बाद के वर्षोमें नगेन्द्रकुमार सक्सैना,  शांति भारद्वाज , इस क्षेत्र की साहित्यिक चर्चाके केन्द्र में रहे। अभी भी , हिन्दी और बृज भाषा की गोष्ठियॉं अधिकतर जंक्शन क्षेत्र में होती रहती हैं। शांति भारद्वाज राजस्थान में अपने साहित्यिक योगदान के लिए महत्वपूर्ण रहे। आप वर्षों अकादमी की मधुमती पत्रिका के संपादक रहे। राजस्थानी अकादमी  बीकानेर के अध्यक्ष रहे। आपके उपन्यास ”उड़जा रे सुआ“ पर आपको केन्द्रीय साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। आपने ”राग दरबारी  का राजस्थानी में अनुवाद किया।

पर आज में उनकी याद एक कटु अनुभव के साथ कर रहा हूॅं।  उनका परिवार हरवर्ष उनकी याद में उनकी जन्मतिथि पर साहित्यकारों को सम्मानित करता है। समारोह करता है। राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर ने उनकी स्मृति में मानोग्राफ भी निकाला हैं।

पर रचनाकार के लिए उसके जीवन काल में उसकी कृतियों का समयक मूल्यांकन अधिक महत्वपूर्ण रहता है।
वे कवि थे, उपन्यासकार थे, अनुवादक थे, पर उन सबसे बहुत आगे, वे एक सहृदय बड़े भाई थे। उनका प्रेम, इस अंचल के हर साहित्यकार  पर जीवन के अंत समय तक रहा।

 मित्रो, हमारे अंचल की विशेषता है, कि हम हर बड़े इन्सान की  छोटी सी कमजोरी को पाकर , खुश हो जाते हैं, उसे अपनी स्मृतियों से बाहर धकेल आते हें। इस हीनता ग्रंथि ने हमें बहुत नुकसान पहुंचाया  है। जीवन के उत्तरार्ध में आपका काव्य संग्रह ,”द्वार खुले हैं“ तथा उपन्यास ”एक  और यात्रा (2006) प्रकाशित हुए थे। उन्होने बड़े संकोच के साथ कहा था , मित्रों ने इस पर चर्चा तक नहीं की। यह सच है कि  कोटा की किसी साहित्यिक गोष्ठी में इन पुस्तकों पर चर्चा तक नहीं हुर्इ्र।

तब मैं हाड़ौती हिन्दी पद्य और गद्य की परंपरा पर कार्य कर रहा था। बीसवीं शताब्दी का यह साहित्य का इतिहास था। आप बीमार थे, पर कार्य कैसा हो रहा हे। पूरा ध्यान रखते थे।

 कहीं ऐसा तो नहीं है, परपरागत मानसिकता के कारण हमारा ही कोर्इ्र मित्र , हममें थेाड़ा बड़ा होजाता है, तो वह हम लोगों  की सामूहिक ईर्ष्या का शिकार बन जाता है। हिन्दी साहित्य समाज से मिली उपेक्षा से वे कालांतर में राजस्थानी में अनुवाद के क्षेत्र में चले गए।

रचनाकार एक बड़े परिवार को बनाता है, जहॉं वह सांस लेता है। उसकी प्राण वायु अपने सहृदय साहित्यकारों के सानिध्य से ही पल्लवित होती है। उनका चिन्तन , उनकी रचनाओं का आस्वादन हमें ही संस्कारित करता है,। चलिए आज  उनके साथ , उनकी साहित्यिक यात्रा पर चलंे , भारद्वाजजी की कविता और कथा -यात्रा के हम सहयात्री बनें।

  ‘द्वार खुले हं’ै ;(1999) भारद्वाज जी की नई कविताओ का संग्रह है।

कवि ने लगभग चालीस वर्ष की अपनी काव्य यात्रा में लौटकर आया आज में द्वार पर....... इस उक्ति को अपनी ‘अनुभूत्यात्मक संवेदना ’ से व्यंजित किया है।  अनजाने में भूमिका में कवि ने ... ‘यों कहें कि एक ही गन्तव्य है।’’ ‘ऑंगन  के पार द्वार’, तथा ‘कितनी नावों में कितनी बार’.... के प्रतीक   ‘स्वीकृति’, को रेखांकित कर दिया है।

यहां पर आकर कवि की संवेदना पारदर्शी तथा जो बूंुूद सहसा .उछली . थी, वह मटमैली न होकर.निरंतर अध्यवसाय तथा गहन काव्य साधना से परिष्कृत होती हुई उज्जवल होती चली गई है। सजगता काव्य चेतना का आधार है.... परन्तु वह अब शांत है, ‘अनुभव को शब्द देना कितना कठिन है, इसका अनुभव भी इसी यात्रा में सर्वाधिक हुआ।’

अंतर्मुखता की वापसी, शब्द को असंग व निसंग कर जाती है, वहीं जो ध्वनित होता है, वह मात्र अनुगूंज ही होती है।

‘‘  और तब
उभर आते हो तुम’
परत झड़ते ही जैसे
प्रज्वलित हो पाती है यज्ञ की अग्नि !
तुम हो और मैं हंू
कहॉं है इतना एकान्त ?

यह मन की सहजता जहां अनुभव मौन निर्वाक मै अभिव्यक्ति ढूढंता है,.... यहां शब्द पश्यंती के द्वार पर दस्तक देते है.ं.. भाषा की यह संस्कार धर्मिता विरल है, राजस्थान के अन्य कवियों में नंद किशोर आचार्य के यहां यह है।

‘‘प्रतीक्षा रत भी तो नहीं था मै-
फिर क्यों जगा दिया ऐसा उन्माद?
उठा दिया एक प्रश्न
किसकी प्रतीक्षा है मुझे ?’’

द्वार ... शब्द अनेक व्यूहों में खुलता है... हर बार एक नई भंगिमा है। यहां योग सूत्र के कोषों. का. खुलना  नहीं है, बंद कुहासे से ,धूमिल चेतना का नवीन परिष्कार होने की सृचना है,’’

‘‘जागा रहता है दिया
तुम्हारे लिए
द्वार
इसीलिए तो खुले  हैं ’
पृष्ठ  19

‘अब तो लौट लौटकर
वहीं फन पटकता हैं
समय का सांप।
बार बार थपेड़ा जाकर भी
बंद द्वार नही छोड़ता’
            पृष्ठ 33
‘इधर मुझे खट ख्टाते हैं द्वार
अंधेरी सुरंग के
वर्जनाओं का पांव धरते हुए।
दौड़ना है।
नई पगडंडी रेखांकित करते हुए
अकेले ही ।’

साहित्यकार के जीवन की व्यथा , यही है, जब वह अंत में घर लौटता है, तो पाता हे, वह अकेला रह गया है एक जमाने की भरी हुई मुट्ठी अंत में खाली रह जाती है।

यह अकेलेपन की त्रासदी हर मन की व्यथा है। भाग्यवान रहता हैे कवि,  जब साथ के संगी भी साथ छोड़ जाते हैं, रिश्तों में दूरियॅंा कम होने का नाम नहीं लेती है।   तब उसकी कविता  ही उस के साथ चलती है। कविता कवि का अपना संस्कार है इसीलिए कवि को शास्त्र ने ईश्वर के समीप माना है, वह बात दूसरी है, उसे उसके निजि स्वरूप की विस्मृति हो गई है।

”द्वार खुले हैं , प्रांत के महत्वपूर्ण काव्य संग्रहो में एक हें यह बात दूसरी है, हम गुटबंदी में इतने डूब गए हें कि कविता की पहचान और परख खो बैठे हैं। आज की दुनिया में हम अपने अलावा अन्य को पहचानने से भी मना करजाते हें युग ”सैल्फी“ का होगया है।

 ”एक और यात्रा“,(2006) भारद्वाज जी का ‘‘सूर्यास्त’’ के बाद यह दूसरा उपन्यास है। ‘यहां स्वतंत्रता पूर्व पैदा हुए ‘सूरज प्रकाश’ की कथा है, जो स्वतंत्र भारत में अपना विस्तार पाती है।

आंचलिक परिवेश है, ... ग्रामीण भारत जो ‘कस्बाई संस्कृति में विकसित हो रहा था, ... जहां ट्रेन से परिचय प्रारंभ हुआ है, ... डाकघर आया है, स्कूल खुले हैं, ... ‘समय’ को चिन्हित करते हुए उसे यथोचित परिलक्षित करने का भाव यहां केन्द्रित है। पिता आदर्शवादी है, ... वे शिक्षक हैं, ... तथा बाद में उनका सेवा कार्य ‘विजय सिंह पथिक’ की तरह बहुआयामी हो जाता है। वे पुत्र की पढ़ाई के प्रति चिंतित हैं, ... पर अपने पारिवारिक दायित्व के प्रति उदासीन भी हैं।

‘सूरज प्रकाश’ की पढ़ाई, छोटे कस्बे से, ... शहर तक आती है। वह स्कूल से कॉलेज तक की यात्रा करता है। तत्कालीन शैक्षणिक माहौल तथा समाज की सभी धाराओं का जो क्षीण गलियों से गुजरती हुई नगर के मैदान तक आती है, ... उन्हें चित्रित करते हुए विश्लेषित करने का आग्रह है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह जिस रूप में राजनीति में अपना चेहरा बदला था, उसके महीन धागों को परीक्षित भी किया गया है। अराजकीय क्षैक्षणिक प्रबंधन में लेखक का परिचय गहन रहा है। उसकी प्रतिध्वनि यहां पर है। सूरज प्रकाश, सरकारी नौकरी में न जाकर, ... निजी शैक्षणिक प्रबंधन में कार्य करना उचित समझता है।

कायस्थ परिवार की कन्या के प्रति वह आकर्षित है। उसके पिता उसके पूर्व के शिक्षक रहे हैं। टूटता मध्यवर्ग, ... तथा उसका चारित्रिक पतन यहां चित्रित है।

चीन के हमले ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था को पहली बार झिंझोड़ दिया था। राजनीति में विरोधी स्वर भी प्रबल होने लगे थे। उपन्यास में चित्रित कथा संसार में तत्कालीन राजनैतिक सामाजिक घटनाओं को समेटने का आग्रह तो है, पर सूक्ष्म विश्लेषण जहां सामाजिक विघटन का बीजारोपण परिदृश्य में उभर रहा था, ... उसका अभाव सा है। इस अंचल की बदलती सामाजिक चेतना का यह एक जीवन्त दस्तावेज है।

 व्यक्ति केन्द्रित सामाजिक उपन्यास, तथा आंचलिक उपन्यास की संरचना में मौलिक भेद रहता है। आंचलिक उपन्यास की संरचना में, ... व्यक्ति सत्य का चित्रण हल्का होता है, ... वे महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व नहीं रखते, हां, परिप्रेक्ष्य की सजीवता, अंचल का मानवीकरण यहां प्रमुखता ले लेता है। व्यक्ति कन्द्रित, उपन्यास में व्यक्तित्व का विकास, ... नैतिक या अनैतिक हो यह महत्वपूर्ण नहीं होता, ... यथार्थ के ताने-बाने से वह प्राणवान होता हैं पात्र जितना जीवन्त होता है, ... उसका निरुपण कथा को उतना ही सहज व सरस बनाता जाता है।

 यह सही है, यहाँ ‘व्यक्ति प्रधान’ यह उपन्यास ‘सूरज प्रकाश’ के चरित्र के साथ न्याय नहीं कर पाता है। उसके जन्म से विवाह तक की कथा में, ... जो मानसिक व बौद्धिक विकास के पहलू हैं वे जगह नहीं ले पाए हैं परन्तु अंचल को सजीवता देने के लिए कथा-संयोजन में पर्याप्त कुशलता बरती गई है। शिल्प की दृष्टि से यह संयोजन कठिन कर्म है।

भारद्वाज की इन दोनो कृतियों को इसलिए याद किया गया है कि उनकी पहचान मात्र हाड़ौती के राजस्थानी कथाकार के रूप में ही नहीं रहे।   वे प्रांत के  महत्वपूर्ण  कवि एवं कथाकार थे,  कोटा नगर को उन्होंने बहुत कुछ दिया, कम से कम हाड़ौती के रचनाकार इस ”सैल्फी“युग में अपनी परंपरा से परिचित तो हो सकें।

डॉ  नरेन्द्र चतुर्वेदी