सोमवार, 15 अप्रैल 2019

हमारे पुरोधा
ब्रह्मलीन परम संत पं. मदनमोहन जी चतुर्वेदी
पं. मदनमोहन जी चतुर्वेदी ऐसे भागवत् पुरुष थे जिनके दर्शनमात्र से भागवत चेतना का संचार हो उठता था। उनकी शांत, धीर, गम्भीर आकृति को देखकर, अशांत व्यक्ति भी शांत हो उठते थे। ब्रज संस्कृति का माधुर्य, सनातन धर्म की पूत साधनशीलता व माथुर चतुर्वेदियों की समस्त श्रेष्ठ विशिष्टताएं आपके व्यक्तित्व में मूर्तिमान थी। राज्य शासन के उच्च पदों पर रहने पर भी, आपकी कार्यनिष्ठा व ईमानदरी विख्यात थी और इसीलिए आपका सदा आदर होता रहा।
जन्म और बालपन - आपका जन्म सम्वत् 194 (सन् 1901) की मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी को मथुरा में हुआ। आपके पितामह पं. केशवदेव जी तत्कालीन माथुर कुलीन समाज में गणमान्य थे। वे फतेहपुर के सेठ के यहां हैड मुनीम थे आपने मथुरा में दो हवेलियां बनवाई। अपनी पुत्रियों के बड़े घरों में सम्बन्ध किये। इनकी एक पुत्री होलीपुरा के डि. सा. स्वर्गीय श्री राधेलाल जी को ब्याही थी। श्री केशवदेव जी के बड़े पुत्र जानकीदास जी श्री मदनमोहन जी के जनक थे। श्री जानकी दास जी के दो पुत्र व छह पुत्रियां हुई। इनमें एक देहरादून के डिप्टी साहिब रामचन्द्र जी पाठक व दूसरी कोटा के दीवान स्वर्गीय श्री विशम्भरनाथ जी को ब्याही थी।
आपका बचपन मथुरा में ही बीता। आपका श्याम सलौना मुख इतना सुन्दर था कि ब्रज की प्रथा के अनुसार सबने इन्हें छैया कहना प्रारम्भ कर दिया। मथुरा के मस्ती भरे जीवन में पढ़ाई का क्या काम। एक बार आपकी बड़ी बहिन (डिप्टी साहिब रामचन्द्र जी की पत्नि) मथुरा आई। भाई की पढ़ाई को बिगड़ता देखकर आप इन्हंे अपने साथ ले गई। डिप्टी सा0 का स्थानान्तरण होता रहता था अतः आपके स्कूल भी बदलते रहे। आपने 1923 में मैट्रिक की परीक्षा पास की।
 उन दिनों देशी रियासतों मे अग्रेजी पढ़े लिखे कर्मचारियों की बड़ी मांग थी। आप अपनी दूसरी बड़ी बहन के पास कोटा चले आये। आपके जीजा स्वर्गीय पं. विशम्भरनाथ जी उन दिनों कोटा रियासत में प्राइम मिनिस्टर थे। अतः 1924 में आप कोटा रियासत में कस्टम विभाग में इन्सपैक्टर हो गये। धीरे-धीरे अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा व बेहद ईमानदारी के साथ तरक्की करते-करते 1947 में राजस्थान में एक्साइज के असि. कमिश्नर के पद से निवर्तमान हुए। 1940-1944 के द्वितीय विश्व युद्ध काल में आप जिला रसद अधिकारी का भी काम करते थे। वे उपभोक्ता मालों की भारी, तंगी व भ्रष्टाचार के युग थे व पर आपने एक पैसा भी रिश्वत लेना हराम समझा व सरलता से तंगी में जीवनयापन करते रहे। रिटायर होने के बाद आपने कुछ वर्ष मैनेजर, कोर्ट ऑफ वाड्स का भी काम किया और 1956 तक इस पद पर बने रहे।
आपका विवाह उस समय की प्रथा के अनुसार गुणावती जी गिन्दोजी से होलीपुरा हो गया था। आपके आठ पुत्र व तीन पुत्रियां हुई। आपके बड़े भाई रामदास जी का जल्दी ही देहान्त हो गया। अतः आप पर इतने बड़े परिवार के लालन पालन का भार था साथ ही छहों बहिनों के भी बड़े बड़े परिवार थे। प्रतिवर्ष आपको भात भरना पड़ता था। ईमानदार इतने थे कि वेतन के सिवाय एक पैसा कबूल नहीं करते थे।
सरकारी नौकरी के काल में भी नित्य प्रति चार घन्टे सुबह व एक घन्टे शाम को भजन पूजा करते थे। घर पर साधुओ और भक्तों का जमघट होता था। प्रति सप्ताह कीर्तन कराते थे- अतः आपको धनाभाव हमेशा बना रहता था। यद्यपि हमारी माताजी  आपको पूरा सहयोग देती थी, फिर भी घर के खर्च तो विशाल ही थे, पर यह आपका पुण्य प्रताप ही है, आज आपके सभी पुत्र उच्च राजकीय पदों पर कार्यरत रहे। जैसे भारतीय प्रशसनिक सेवा में, प्रोफेसर, जॉइन्ट लेबर कमिश्नर,   पत्रकार,, लॉ आफीसर , अनुभाग अधिकारी, आदि पदों पर कार्यरत रहे।
 आपके पौत्र तथा पौत्र बधंुएॅं, भी महत्वपूर्ण पदों पर अभी भी कार्यरत हैं। यह तथ्य इसलिए दृष्टव्य है, क्योंकि आपने अपने किसी भी पुत्र के लिए किसी से सिफारिश नहीं की, न प्रार्थना की, प्रार्थना की तो अपने गोविन्द से, जिनके आप अनन्य भक्त थे, और इसी का परिणाम है कि आपकी सभी संताने समाज में श्रेष्ठ स्थानों पर विद्यमान हैं। आपकी चौथी पीढ़ी आज देश विदेश में महत्वपूर्ण पदों पर कार्यरत है।
वृद्धावस्था- भगवद् भक्ति के बीज आपमें जन्म से ही विद्यमान थे। आपकी मां व बहिन (डिप्टी सा. रामचन्द्र जी की पत्नि) परम भक्त थी। बहिन तो इतनी भक्त थी, कि जब उन्हें भाव या हाल आता था तो वे अड़तालीस घंटे तक निरन्तर रोती रहती व पद गाती रहती। प्रेमाश्रु बहते रहते। न खाने की चिन्ता न प्यास की परवाह। इसी प्रकार आप भी परम भक्त थे। आपका मन संसार में नहीं लगता था। घर में कथा वार्तएं होती रहती थी व वल्लभ कुल के सभी उत्सव मनाये जाते थे।
नौकरी से निवर्तमान होते ही, आप वृन्दावन रहने लगे। बाहर वर्ष आपने वृन्दावन वास किया। चतुर्वेदी होने के कारण किसी के हाथ का बनाया भोजन नहीं करते थे। आपकी पत्नि जब वहां रहती तो वे बनाती अन्यथा अपने हाथ से बनाते खाते व सारा दिन कथा कीर्तन में लगाते। वृन्दावन के भक्त मण्डल में विख्यात हो गये थे। सन् 1968 में हमारी माताजी  का देहान्त हुआ।  पर मृत्यु तक आपकी चेतना व भजन भाव निरन्तर बना रहा।
यह एक साधारण सद्गृहस्थ का जीवनवृत है। इसमें राजनीतिों व जनरलों के जीवन जैसे उतार-चढ़ाव नहीं पर विशेषता यह है कि किस प्रकार एक निष्ठावान व्यक्ति इतने बड़े परिवार के लालन-पालन का भार लेकर भी, अपनी निष्ठा व ईमानदारी को बनाये रख सकता है, यह आज के युग में अनुकरणीय है। आपकी मधुर वाणी, आप के द्वारा मधुर कंठ से गाये गये सूरदास व मीरा के पद , जब भी स्मृति में गूंजते हैं तो मन सहज श्रद्धा से अभिभूत हो उठता है किस प्रकार एक महापुरुष ने अपने महत्ता के अहं जताये बगैर ही चुपके से संसार से चला गया। जैसे प्रातः की पहन हमें छूकर निकल जाती है। वास्तव में उन्होंने ज्यों की त्यों चदरियां धरदी और अपने गोविन्द के धाम को चले गये।
आपको भी निरन्तर कूपनल के खेंचने से आंत की बीमारी हो गई अतः 1972 में आपको कोटा आना पड़ा। आपरेशन से कमजोर थे कि फिसल गये, कूल्हे की हड्डी टूट गई। शरीर अस्वस्थ रहने लगा पर भजन भाव वैसा ही बना रहा। इस काल में अपने पुत्रों के साथ रहे।

आप कोटा नयापुरा में भाईसाहब अयोध्यानाथ  जी के पास, फिर भाई साहब प्रेमनाथ जी के पास तथा वहां से आप सिरोही 1981 में आ गए थे। आपका जो चित्र यहां लिया गया है, वह तभी का है, आपकी हड्डी भी जुड  गई थी तथा आपके नए जूते आ गए थे। आपने पैदल चलना शुरू कर लिया था। मैं वहां पर एस.डी एम. के पद पर था, आप शाम को स्वयं बैंत तेकर  पार्क का चक्कर लगा आते थे। उस समय तत्कालीन सभी सरकारी अधिकारी आपसे मिलने आते थे। आप भूरे रंग का सूट पहनते थे, तथा मफलर लपेटकर सोफे पर बैंठना पसंद करते थे।
मैं उनका आठवां पुत्र हॅंू, वे कहते थे, तुम्हारी पढ़ाई  पर मैंने ध्यान दिया, तुम बाबू के पास (बड़े) पुत्र के पास चले गए थे, पर तुमने गोविन्द जी की कृपा से आर ए एस. कर ही लिया, एक दिन आई.एस. हो जाओंगे। वहां से हम लोग सीकर आए थे।
यहां मेरी पदोन्नति ए.डी.एम. के पद पर हुई थी, मेरे पास  कॉपरेटिवभंडार , नगर पािषद का भी चार्ज था, पिताजी ने सेवा के लिए सेवक की जरूरत थी। नगरपरिषद  का एक कर्मचारी बहुत ही योग्य था, वह चाहता भी था, पढ़ा लिखा था, धार्मिक था, एक दिन वह घर आया हुआ था, वह पिताजी से मिला।
‘बस, न जाने उसे क्या हुआ, वह उनके पास रह गया।
‘मैंने कुछ कहना चाहा, पर उन्होंने रोक दिया।
कर्मकांडी पिता, जो महान गायत्री साधक थे, अब जाति-पांति की बातों से बहुत दूर जा चुके थे।
‘उन्होंने उसका नाम शर्मा कर दिया था, पंडित जी  कहा करते थे, उसका उन्होंने उसका यज्ञोपवीत भी कर दिया था, वह दलित बालक उनकी   सेवा में लगा रहा।
हम लोग प्रायः अपने पिता को हमेशा पूजारत देखते थे, जो सनातन धर्म का कड़ाई से पालन कर रहे थे, पर उनके भीतर हुए मौलिक परिवर्तन को भांप नहीं पाए थे।
सन् 1985 की गर्मियों में आम चुनाव हुए, मेरा तबादला जयपुर तथावहां से बारां हो गया।
पिताजी प्रसन्न थे, बोले, बारां में तुम पैदा हुए हो, घर वहीं है, जहां पुराना कस्टम का दफ्तर  था, वहीं हम रहे भी है। बारां में चार माह ही रह पाया। वहां से भीलवाड़ा तबादला हो गया। तभी बड़े भाई साहब कोटा से बारां आ गए थे। बोले, पिताजी अब कोटा में ही रहेंगे। पिता फिर बड़े भाई औंकारनाथ जी के   पास रहे। ,भाई साहब तब रघुनाथ हॉस्टल में वार्डन थे। भाई साहब के यहॉं पूरा परिवार उनकी सेवा में लगा रहा।
आप गायत्री के परम उपासक थे। सुबह शाम पूजा करना उनका स्वाभाविक क्रम था। हर प्रकार की पारिवारिक राजनीति से वे कोसों दूर थे। सहज प्रेम के धनी थे। उनके भानजे- भानजियॉं अपने मामा से आजीवन जुडे़ रहे। उनके पास सभी के लिए अपार स्नेह था।
ं24 दिसम्बर 1985 में, आप अपनी पूजा पाठ के बाद बाहर बैठे हुए थे , तभी अपनी आराध्या ललित किशोरी जी कर स्मरण करते हुए ,  निर्वाण को प्राप्त हो गए। उनके गले में रोग हो गया था, खाने-पीने में तकलीफ रहती थी। पर वे शांत, एवं पूर्ण तृप्त महामानव की तरह अपनी अंतिम देहलीज को समेटते चले गए।मृत्यु तक आपकी चेतना व भजन भाव निरन्तर बना रहा।
हमें ईश्वर की ओर से यह कृपा प्राप्त है , हमें उन महामानव की विरासत प्राप्त है , जिनका जीवन ईश्वर को पूरी तरह समर्पित रहा। इतने बड़े परिवार का मार्गदर्शन करना , आजीवन सहजता और सरलता से अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना उनकी सहृदय कुशलता का ही सूचक रहा।