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मेरे एक परिचित थे , उन्हें कोई आर्थिक कमी नहीं थी। वे सुखी थे , पर धंटे- दो घंटे ही सहज रह पाते थे, पार्क में घूमने गए ,वहॉं किसी परिचित नेे , उन्हें नमस्कार नहीं किया , उनका गोल चेहरा अचानक टेढ़ा हो जाता। मिलने पर कहते मैंने उसके लिए इतना किया , वह बिना नमस्कार किए ही चला गया। मैंने कहा , भाई साहब आप ही नमस्कार कर लेते , वो मुझसे ही नाराज हो उठे , कैसी बात करते हो , वह मेरे इतने अहसानो का इतनी जल्दी भूल गया।
वे डायबिटीज के पेशेंट होगए थे। सब कुछ था , पर उनका ही सोच उनके पास दुख का दरवाजा खोल गया। हम दूसरो ंके बारे में इतना सोचते है कभी अपने बारे में नहीं। पुरानी कहावत है , दूसरा ही नरक हैे। पर हम दूसरो ंके चिन्तन में मरने- मरने पर उतारू हो जाते हैं।
जाना , जिन्दगी से बड़ी कोई किताब नहीं हेै। जब भी कोई तकलीफ आए , उसे वही बांचलो , समाधान अपने आप मिल जाएगा। आपके पास आपका गुरु विवेक आपके ही पास हे। पर हम उसकी सुनना नहीं चाहते , अपने बुद्धि चातुर्य से ही जीवन जीना चाहते हैं।
सभी विद्वत जन समझाते हैं , वाक पर संयम रखें , कम बोले , कम सोचें , पर पाया वही बोलते समय इतना अधिक बोलने लग जाते हैं कि लगता है , दूसरों को प्रभाावित करना ही जीवन मूल्य बन गया है।
बौद्ध धर्म की देशना को हमेशा याद रखना चाहिए , कि संसार दुखमय है , पर मुझे स्वयं सुखी रहना है। सुख पाना ही मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। मेरा सुख मुझ पर ही निर्भर है। आप अपने अकेले पन को भी जी नहीं पाते , पूरे समय हर दूसरे के बारे में सोच- सोचकर दुखी ही होते रहते हैं, क्यों? इस सवाल का जबाब ही हमारे लिए सुख का द्वार खोल जाता है।
मेरे सुख के लिए , मेरी पत्नी , मेरा पति , मेरा पुत्र- पुत्री, पड़ौसी , मेरा एम्प्लोयर कोई जिम्मेदार नहीं हैे। में खुश रहूॅं , यह मुझ पर ही निर्भर है। मैं सुखी रहना चाहूॅं तो मुझे कोई दुखी नहीं कर सकता।
नरेन्द्र नाथ