शनिवार, 22 दिसंबर 2012

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गुरुवार, 27 सितंबर 2012

नन्द चतुर्वेदी

नन्द चतुर्वेदी
नन्द चतुर्वेदी लगभग साठ वर्ष से कविता की मुख्य धारा में सक्रिय रहे हैं। वे झालावाड़ से कोटा तथा कोटा से उदयपुर चले गए। प्रान्त के प्रतिष्ठित बड़े कवि हैं। ‘सुधीन्द्र’ पर उन का लिखा गया आलोचनात्मक आलेख उत्कृष्ट समीक्षा का उदाहरण है। ‘बिन्दु’ त्रैमासिक के सम्पादक रहे। ‘शब्दों की यायावरी’, ‘आलोचना तथा कविता संग्रह’, ‘यह समय मामूली नहीं’, ‘ईमानदार दुनिया के लिए’, ‘वे सोए तो नहीं होंगे’, ‘उत्सव का निर्मम समय’” गा हमारी जिन्दगी कुछ गा“ प्रकाशित कृतियाँ हैं। उन की कविता सदैव से वर्तमान में रही है। वर्तमान ही काव्य संरचना का आधार रहा है।
कविता को सदैव से उन्हों ने भूत और भविष्य से मुक्त रखा है। यही कारण है कि उन की कविता में आदर्श नहीं है, न ही स्मृतियाँ हैं, वरन् समय सन्लग्नता व समय साक्षित्व है। वहाँ आदर्श तो नहीं है, परन्तु इन्सान अपने सहज रूप में है, उस की ख़ुशहाली, उस की स्वतन्त्रता, उस का नैतिक दायित्व है। परन्तु दायित्व को वे कम्बल की तरह नहीं ओढ़ते हैं, कविता उन की पूरी तरह बाह्य दबावों से मुक्त है।
अपने रचाव में नन्द चतुर्वेदी की कविताऐं सामाजिक सरोकार से जुड़ी हैं, पर वहॉं बिखराव नहीं है। काव्य रूप सघन और सम्पूर्ण है। नन्द चतुर्वेदी हिन्दी के बुज़ुर्ग कवि हैं, लगभग पाँच-छह दशकों से कवि-कर्म कर रहे हैं। लेकिन आश्चर्य है, उन की कविता सदैव हमारे समय की मुख्य धारा की कविता रही है। नन्द चतुर्वेदी बदलाव और आदमी की बहतरी के लिए कविता लिखते हैं। इस तरह की कविता लिखना हमारे समय में फ़ैशन भी है और नई रूमानियत भी। विचार से प्रेरित, आवेश और उत्तेजना में लिखी गई ऐसी कविताऐं, जो कविताऐं कम, बयान या सामान्य कथन अधिक होती हैं, गत तीन-चार दशकों के कविता-परिदृश्य पर बहुतायत में उपलब्ध है। नन्द चतुर्वेदी की कविता इन सब के बीच हो कर भी इन से अलग है। बदलाव और बहतरी के लिए वे कविता, कविता को पूरी तरह कविता बनाए रखने की ज़िद के साथ लिखते हैं।
”नन्द चतुर्वेदी अपने को कर्म और लेखन दोनों से, ‘समाजवादी राजनीति’ का आदमी मानते हैं। कर्म से उन्हों ने इस के दुष्प्रभावों से, अपनी कविता को बचाए रखा। कविता की अपनी शर्तों के साथ अपनी राजनीतिक ज़रूरत के लिए उन्हांे ने कोई समझौता, जो हमारे समय की कविता में आम बात है, नहीं किया। हिन्दी कविता के लिए यह दुखद प्रसंग है कि लम्बे समय से प्रासंगिक और अर्थपूर्ण कविताऐं लिखने वाले इस कवि का बहुत प्रतीक्षा के बाद भी केवल एक ही काव्य-संकलन ‘यह समय मामूली नहीं’ ;(1983 ई.) प्रकाशित हो पाया है। उन की कविताओं में सर्वोपरिता ‘रोशनी से बेदखल’ आदमी के ‘रंज और असमंजस’ को मिली है। अपने समय की प्रतिकूलता से जूझते आदमी की व्यथा और संशय के कई रूप, कितनी ही तरह उन की कविताओं में आते हैं। उन की कविताओं में यह आदमी संशय और फ़रेब से मारा हुआ हो कर भी दृष्टिहीन नहीं है। वह सीलन की कँपकँपी और ग्लानि से निकल कर रोशनी के खुले मैदानों में आने के लिए बेचैन है। वह जानता है कि उस का हक़ किन लोगों के पास है और उसे पाने के लिए उसे क्या करना है? वस्तुस्थितियों की तर्क-संगति से जन्म लेता बदलाव का प्रबल विश्वास भी नन्द चतुर्वेदी की कविता में है। उन्हंे लगता है कि इस ग़ैरमामूली समय में आदमी मृत्यु और क्रूरता के अथाह जल में डूब गया है, लेकिन वह दिन दूर नहीं जब फ़रेब और संशय से मारे हुए लोग उठेंगे और बाहर की बहती हुई हवा को छुएंेगे। हमारे समय की कविता की प्राथमिकताएँ और सरोकार जिस तरह के हैं, उन में अन्तरंग और निजी होने का अवकाश बहुत ही कम है। नन्द चतुर्वेदी की कविता प्राथमिकताओं और सरोकारों में वैसी ही हो कर भी मनुष्य को उस की समग्रता में जानने-समझने और रचने की ग़रज़ से अपने लिए निजी और अन्तरंग होने का अवकाश ढूँढती है।
मानवीय अस्तित्व से जुड़े कुछ बुनियादी, निजी और अन्तरंग ऐंद्रिक राग-विराग के प्रसंगों का रचाव भी यहाँ है। यों यह उध्ेख ज़रूरी है कि उन की कविता में ऐसे अवकाश कम है। अपने रचाव में नन्द चतुर्वेदी की कविताऐं सघन और सम्पूर्ण है। ऐसी कविताऐं भी संख्या में कम ही सही, है। जहाँ रचाव की सघनता के बीच उपस्थित रहता है और सामान्य गद्य-भाषा में अपने निहितार्थ की व्याख्या या उस की ओर सप्रेत करता है।
नन्द चतुर्वेदी को अपनी कविताओं में ‘समय’ शब्द बेहद आकर्षित करता रहा है। ‘समय’ जैन दर्शन का प्रिय शब्द है। ‘समय सार’, कुन्द कुन्दाचार्य का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। ‘समय’ अपने भीतर जहाँ विराट चेतना का समानधर्मा है, वहीं मात्र ‘वर्तमान’ का भी। अतीत और भविष्य समय की सीमा रेखा से बाहर परिधि पर काल मंे समाविष्ट है। यह समय मामूली नहीं, कवि की आशप्राओं, चिन्ताओं को अभिव्यक्त करता है, हाहाकार में डूबा है। ‘हस्तिनापुर’, ‘जगो हरिजन’, ‘डूंगा का गांव’, ‘यह समय मामूली नहीं’, संग्रह की महत्व पूर्ण कविताऐं हैं। यहाँ कविता वर्तमान की सारी क्रूरताओं, निरंकुशताओं के साक्षित्व के बावजूद भी आशा और उध्ास से भरी है।
संग्रह 1983 ई. में प्रकाशित हुआ है, जो कवि की लगभग चालीस वर्षीय काव्य साधना का प्रतिफलन है। मुक्तिबोध जहाँ अँधेरे में, इस समय की क्रूरताओं से जूझते हुए, आहत हुए हैं, वे मात्र संघर्षरत लघु क़दमों को चिन्हित करते हैं, विवेक के प्रति आशान्वित हैं, वहाँ नन्द चतुर्वेदी की कविताओं में, सारी विसंगतियों के बावजूद आशा का सहज स्वर मुखरित है। यह समाजवादी सोच की अन्तर्मन पर पड़ी छाप है, जहाँ असन्तोष में भी सन्तोष पाने का आग्रह सुरक्षित है।
”कहना न होगा कि कवि अपने समय के प्रति पूरी तरह आशान्वित है तभी तो वह नकारात्मक और सकारात्मक बिम्बों के प्रड्डति सन्दर्भों से आज के समय का चरित्राप्रन करता है। वह अच्छे अर्थ में ही आज के समय को ग़ैर मामूली कहता है।“
इसी प्रसंग में रचना प्रक्रिया पर जीवन सिंह ने जो कहा है, वह विवेचनीय है:-
”लेकिन इस यथार्थ को जानते हुए भी, उस की जो शिराऐं आज की तमाम भौतिक परिस्थितियों और वर्गीय संरचना के भीतर उलझी हुई हैं, उन को जाने बिना कविता का ज़िन्दगी में जो भी हस्तक्षेप होगा, वह आधा-अधूरा होगा। ज़िन्दगी के सम्पूर्ण यथार्थ को जाने बिना कविता में एक तरह का तनावपूर्ण आवेगात्मक, और उत्तेजनात्मक सिलसिला उतनी ही जल्दी गरमाहट को ठण्डा कर देता है।“
सच है, यथार्थ अत्यन्त गत्यात्मक है, उस की अन्तर्निहित ध्वनियाँ बहुत तेज़ी से बदलती है। यहाँ गति ही सत्य है। मनुष्य की अपनी सीमा है, उस की ज्ञानात्मक सम्वेदना, उसे मात्र अंश में ही जानने की समर्थता देती है, अतः कविता से बहुत कुछ की आशा रखना व्यर्थ है। कविता ज़िन्दगी में हस्तक्षेप नहीं कर सकती, यह उस की सीमा है, कविता अभिव्यक्ति में जब पूर्णता पाती है, वह भी एक रूप में ढल जाती है। ज़िन्दगी रूप नहीं है, वहाँ अन्तर्निहित चैतन्य निरन्तर सृजनशील व गत्यात्मक है। यह उलझन सदा रहेगी। पर हाँ, अंश में जो ज्ञानोपलब्धि है, वह प्रामाणिक है, सहज स्फूर्त है, जीवन्तता में है, वही बहु मूल्य है।
नन्द चतुर्वेदी की कविता के प्रमुख लक्षण हैं, अभय,  सामाजिक सरोकार,  समय संलग्नता, , आक्रोश, अनवरत बेच्ैान मन  जहॉं  वे मनोदशाओं को एक नए  काव्य रूप में संयोजित कर  अपने पाठक तक संवेद्य कथ्य को संप्रेषित करने में सफल रहते हैं । उन्हें बेलाग अपनी बात कहनी है, वहॉं कोई संकोच नहीं है, कतिा उनके लिए बेहतर जिन्दगी जीने का एक हथियार भी है। वे उसकी मारक शक्ति का प्रयोग कुशलता के साथ करना जानते हैं।
समाजवाद मात्र एक आदर्श है, या जीवन की वास्तविकता भी है। लोहिया के उत्तराधिकारियों ने जिस प्रकार इस समता और समय के ग़ैर मामूलीपन के साथ जघन्य व्यवहार किया, उस से समाजवादी कवि का आहत होना स्वभाविक है। ‘मुक्तिबोध’ की ‘अंधेरे में यह गुस्सा’, परत-दर-परत शासक व शासन की बर्बरताओं को उलीचना, उभारना है। परन्तु यहाँ यह त्रासदी, एक शाब्दिक नाराज़गी तक रह जाती है:-
”उत्सव के बाद वे लौट जायंेगे
जहां से आए थे
अपने कांपते पैरों से चलते
डरते,
भूखे और अल्पवस्त्र।“26 ‘वे सोए तो नहीं होंगे’ पृ. 59.
उन की एक महत्व पूर्ण कविता है:-
”दुकानदार ने कहा
हमारे यहां अहिंसा भी बिकती है
आगंतुक ने पूछा- कौनसी अहिंसा
वह जो घोड़े पर बैठकर आती है
जिसे सिपाही
गाली गलौच की भाषा की तरह काम में लाते हैं।“27 ‘वे सोए तो नहीं होंगे’ पृ. 70.
यहाँ कविता सपाट बयानी का सहारा लेते हुए, विसंगतियों को चिन्हित करने में सन्लग्न होती है। नागरिक मन और कवि मन, दोनों का द्वन्द्व, आज की कविता का आधार है। नागरिक का अपना परिवार है, अपनी ज़िम्मेदारियाँ भी हैं, वह बर्दाश्त भी करता है, भीतर ही भीतर उस का आहत कवि उसे कचोटता है, बाहर और भीतर का द्वन्द्व ही वह दुख है जो कवि का अपना है। नन्द चतुर्वेदी की पूरी कविता की यही भाव भूमि है, वे निरन्तर अपनी चेतना का परिष्कार करते हुए ‘समय’ को उस के साक्षित्व में अभिव्यक्ति देने की चेष्टा में सृजनरत हैं।
 प्रान्त की ‘नई कविता’ के विकास में उन की महत्वपूर्ण देन है। उन की काव्य-वस्तु सामान्य की विशिष्टताओं से अभिप्रेरित है। सामान्य की वापसी, समय की देन है। सामन्तवाद से लोक क्षेत्र में उन के नागरिक मन ने प्रवेश दिया है। ‘लोकतन्त्र’ उत्सव है, स्वाधीनता अमृतपन है, राह की चुनौतियाँ, मामूली नहीं हैं, परन्तु नागरिक जो भी जहाँ है, वह जगा है, जागा हुआ है, उस की सजगता उन्हें वांछित है। यह मात्र एक आदर्श नहीं है। यथार्थ के सम्मुख सहज कविता का दृढ़ सप्रल्प हैं। नई कविता, समय सापेक्ष सजगता को आत्मप्रेरित है। यहाँ किसी निरूपित विचार के आधार पर यथार्थ के परीक्षण का, उस की चुनौती का, सामना करने का प्रयास नहीं है। इसी लिए जहाँ ‘प्रकाश’ महत्व पूर्ण है, जो आत्म की अद्वितीयता है तथा जो प्रकाश के आगमन की ही नहीं, उस के होने की ओर पुष्टि करता है, जो इस अन्धकार में भी, जो जागे हुए हैं, उन का अभिनन्दन भी कर रहा है।
नन्द चतुर्वेदी का काव्य संसार, उन के अपने परिवेश से जुड़ा हुआ है। स्मृतियाँ उन की अन्तर्वस्तु का उपजीव्य बन कर आती हैं, एक सम्मोहन सा वे प्रस्तुत करते हैं। दृश्य बिम्ब एक शृद्दला में चित्रात्मकता का अहसास कराने में समर्थ है, काव्य भाषा अपने ताने-बाने में जिस करुणा की बुनावट करती है, वह सामान्य जन की पीड़ा से स्पन्दित है।
‘वाद’, उन की वैचारिक पूँजी है, जिसे वे निरन्तर संस्कारित करते रहे हैं, परन्तु वे विचार धारा को ओढ़ते नहीं हैं, वरन जीते हैं। यह सही है कि सृजनात्मकता में विचार का प्रभाव, उस का दबाव काव्य संरचना को प्रदूषित करता है। परन्तु नन्द चतुर्वेदी ने इस दबाव से कविता को बचाने का भरपूर प्रयास भी किया है, परन्तु फिर भी वैचारिकता का जो दबाव है, उस के जो आग्रह हैं, यह व्याघात उन की कविता की राह से गुज़र कर स्पष्ट देखा जा सकता है।                         
उन के प्रकाशित संग्रह, ‘यह समय मामूली नहीं’, ‘एक ईमानदार दुनिया के लिए’, ‘वे सोए तो नहीं हांेगंे’ ,‘उत्सव का निर्मम समय’, में उन की सृजनात्मकता का सहज प्रवाह है। वे सामान्य जन के सुख-दुख और प्रड्डति के आलम्बन रूप को, अपनी काव्य वस्तु का आधार बनाते हैं। विषम परिस्थितियांे में वृक्ष की तरह हर बार अपने को संस्कारित करती हुई, पुराने पत्तों को छोड़ते हुए नवीन पत्ते धारण करते हुए, अपनी छाल को उतारते हुए, यह संस्कार धर्मिता, उन की अपनी निजी पहचान है। यही उन की कविता का वैशिष्ट भी है। साठ वर्ष से अधिक समय में वे अपनी कविता से निरन्तर सम्पर्कित रहे हैं। समता उन के लिए मूल्य है। जहाँ वे उसे राजनैतिक सोच में ढालते हुए समाजवाद के अधिक नज़्दीक ले जाते हैं।
वे गृहस्थ हैं, पारिवारिक हैं, अहिन्सा के पक्षधर हैं। अतः साम्यवादी पक्षधरता से दूर हैं, परम्परा से जुड़े हुए हैं परन्तु आधुनिक हैं। उन की काव्य वस्तु की उर्वरा भूमि सहज व सम्वेदन शील गृहस्थ मन है। उन की दृष्टि में उत्सुकता का भाव सहज प्रेम से स्पन्दित है। यह काव्य दृष्टि स्वतन्त्रता पूर्व के सामाजिक वातावरण से उपजी, नए आधुनिक चिन्तन से पध्वित-पुष्पित होती हुई निरन्तर विकसित होती रही है। यही कारण है कि उन का काव्य रूप गीति-काव्य की तरह संश्लिष्ट है। वहाँ बिखराव नहीं है।
 ”अब तो रोज देखता हूं तुम्हें
 अस्वस्थ, औषधियों और इंजेक्शन में
 डिब्बों से घिरे,
 रोज देखता हूं तुम्हारा धैर्य
 देखता हूं जहां से भी
 आता हो
 पाताल लोक से
 तुम्हारे जीवन का का झरना।“ ‘अपरान्ह में’
 पत्नी के प्रति यह कविता, सहज मानवीय होते हुए, अनेक कोमल भावनाओं का, यथार्थ की क्रूर विषमता में, असम्पृक्त गृहस्थ की आकांक्षाओं, पीड़ा का, साधारणीकरण कर जाती है। जहाँ वे समाज और राजनीति की ओर व्यंग्यात्मक मुद्रा अपनाते हैं, वहाँ कविता समय को रेखाप्रित तो करती है परन्तु आज के मुहावरे को पकड़ने की कोशिश में, जिस तनाव को जन्म देती है वह असहज ही रह जाता है:-

 ”दिल्ली कहां है जहां उत्सव है
 वहीं राष्ट्रपति है
 राष्ट्र्र कहां है
 उसकी आखों में सूर्य चन्द्रमा है
 खेतों पर पड़ी दुख की लम्बी छायायें
 रोटी के आकार का राष्ट्र
 बची खुुली आकांक्षाओं का उत्सव है।“ ‘उत्सव का निर्मम समय’
 नन्द जी की कविता अपने समय की परिवर्तित तेज रफ़्तार से भागते हुए समय की साक्षित्व धर्मिता है। वहाँ चितेरा दृष्य बिम्बों को कुशलता से पिरोता हुआ निरन्तर क्षरित होती हुई मानवीयता को गहरे अवसाद, करुणा की तूलिका से, प्रड्डति के केनवास पर उकेरता चला जाता है। निरन्तर संस्कारित होती हुई काव्य भाषा जिस में ब्रजभाषा के माधुर्य और गत्यात्मकता का प्रभाव है, वहीं लोक भाषा और लोक संस्कृति के प्रति आग्रह उन की अपनी पहचान है:-
     ”
 जमीन इस तरह तो प्यासी नहीं रहेगी
 इस तरह तो नहीं देखेंगे लोग
 ऋतुओं का सर्वनाश
 इस गैर मामूली समय में
 इतिहास के बंद किंवाड खुलेंगे
 पूरे के पूरे तालाब में
 सहस्त्रों कमल तैरते हुए,
 फैल जायेंगे।“
 समालोचकों ने उन्हें एक प्रतिब( कवि के रूप में स्वीकार किया है, पर वे स्वयं किसी पन्थ, किसी स्पष्ट विचार धारा की अभिव्यक्ति के वाहक नहीं बने, वे कविता को बचाए रखने की सार्थक कोशिश में सृजनरत हैं, यही श्रेयस्कर है।
” हमारी जिन्दगी कुछ गा( 2011)
 नंदजी की  यह प्रारम्भिक कविताओं का संग्रह जो छन्द ब( हैं, अपने सृजनकर्म के पचास वर्ष बाद प्रकाशित हुआ है। यह संग्रह कवि की प्रारम्भिक कतिाओं का संग्रह ही नहीं है , इसके माध्यम से हिन्दी कविता के विकास की यात्रा को समझा जा सकता है। यह इसलिए भी उल्लेखनीय है कि कवि ने ब्रज भाषा के माध्यम से ही हिन्दी की काव्यधारा में उस समय प्रवेश किया था। 
नंदजी हिन्दी नई कविता के समर्थ कवि हैं, ”नए “ शब्द की व्याख्या अज्ञेय जी ने अपने ढंग से की थी। ”देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच“, नई अभिव्यक्ति ,नई काव्य-भाषा कवियों के लिए नया पथ बनी थी। पर उस प्रचलित नई कविता के मुहावरे से नंद जी का विचलन सहज ही समझाा जासकता है।”नया“ शब्द मेरे लिए औपनिवेषिक दासता का प्रतीक था जिसे एक गहरे अर्थ में स्वतंत्रता के लिए प्राण देने वाले क्रांति-वीरों ने समझाया था। मेरे लिए नए का अर्थ था शोषण-मुक्त व्यवस्था, सामंतों के उत्पीड़न से छुट्टी, प्रेम करने की आजादी, लोकतंत्र इत्यादि।“
  नए गान होंगे नई वंदना में
  सितारो तुम्हारी चमक जा रही है
  नए चॉंद की रोशनी आ रही है,“
 प्रारम्भिक कविताओं के इस समय में नंदजी के समाजवादी मित्रों, और हाड़ौती में विकसित समाजवादी सोच का आग्रह  उनकी काव्य चेतना पर बलवती रहा।
 इस संग्रह में इसी सोच को जो साठ वर्षतक कवि की काव्यचेतना को संस्कारित करता रहा ,कुछ नई कविताएॅं भी संकलित हैं। यह स्वाभाविक ही है, जब काव्य विवेक, कवि की चेतना का परिष्कार करता है, तब कविता में समय के साथ, बाह्य दबाबांे के प्रभाव से  विचलन नहीं रहता। नंद जी कविता इस बड़े अंतराल में अपने समय के साथ मनुष्य की चिन्ताओं के साथ रूबरू कराती चलती है-

  इन ढलानो पर रुका सुनसान
  रोशनी जैसे हुई अनुमान
  आदमी क्यों होगया है बर्फ़
  आग का कोई समंदर ला
 
  धार में जिनकी चमकती छॉंव
  ऑंधियों में हों अकम्पित पॉंव
  रेत में जिनके बने हो द्वीप
  उस नदी में से नहा का आ।
      ( गा हमारी जिन्दगी कुछ गा)
 आम आदमी के भीतर क्रमशः गहराता भय का अंधेरा , उसकी कुंद पड़ती प्रतिकार की क्षमता , स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उपजी मनोव्याधि है, जो लोकतंत्र को दीमक की तरह चाट रही है। कविता उसकी इस जड़ता पर प्रहार करती है-
  फिर नहीं आ पाए यह संजोग
  या बचें  बहरे नपुंसक लोग
  इस तरफ या उस तरफ मत देख
  खोल खिड़की द्वार कुछ तो खोल
      (बोलना हो तो अभी कुछ बोल)

 नंदजी कविताओं के साथ आम आदमी का , आम श्रोता का , आम पाठक का लगाव विस्मयकारी है। आज भी वे जिस तन्मयता के साथ अपनी स्मृतियों के आधार पर कविता पाठ करते हैं, शब्द स्वतः ही सहृदय के अंतःकरण पर प्रतिबिम्बित हो जाते हैं।


 ‘

बुधवार, 19 सितंबर 2012


आज डॉ् क्षमा का जन्‍म ि‍दन है,  नई इुि‍नया इन्‍दौर में प्रकाि‍शत कहानी प्रस्‍तुत हैा


जन्म-दिन
पिछले दो दिनों से पूरे घर में चर्चा का एक ही विषय था और आज फिर बेटी मीशू ने वही जिक्र छेड़ दिया था।
‘हां, मां बताओ न, आप का जन्म-दिन कैसे मनाया जाए? क्यों पापा, इस बार तो मां का जन्म-दिन कुछ खास ही होना चाहिए न, इतने दिन हॉस्पिटल में रह कर, स्वस्थ हो कर लौटी हैं, नई जिन्दगी मिली है उन्हें।’
नई जिन्दगी! शायद सच ही कह रही है बिटिया, वसुधा के विचार-तन्त्र को फिर कोई झटका लगा था।
उधर छोटे बेटे सुवीर ने भी हां में हां मिलाई थी, फिर अपनी तरफ से जोड़ा था-
‘‘एक तो स्पेशल दावत होनी चाहिए, मैं अपने दोस्तों को भी बुलाऊंगा, क्यों पापा?’’
अब तक चुप बैठे राजेश ने फिर सोचते हुए कहा-
‘‘देखो बच्चो! मां अभी बीमारी से उठी है, बाहर होटल का खाना तो खा नहीं पाएगी, इस लिए घर पर ही... ’’
‘‘हां वही तो मैं कह रही हूं, घर पर ही बनाएंगे, बस केक और मिठाइयां बाहर से मंगवा लेंगे। और फिर मां के हाथ के दही-बड़े लाजवाब बनते हैं, खस्ता कचौड़ी और पुलाव भी। छोेले मैं बना दूंगी और पूड़ियां जमुना तल देगी, क्यों मां ठीक है ना...?’’ मीशू फिर चहकी थी।
वसुधा सोच रही थी कि अभी तो ठीेक से खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा है, आज ही थोड़ा काम किया तो इतनी थकान लग रही है, फिर....
‘‘मां! ठीक है न, और आप की बढ़िया गिफ्ट का ऑर्डर भी दे दिया है पापा ने, इस बार माइक्रोवेव ले रहे हैं, आपने कई बार कहा था ना...!’’
वसुधा फिर भी चुप थी।
‘‘बेटे! अब थोड़ी देर लेटूंगी, फिर शाम को तुम लोग तय कर लेना।’’ कहते हुए कुछ देर बाद वह उठ गई थी। सचमुच अब उसे कमजोरी लग रही थी।
‘‘हां वसु! अब तुम कमरे में जा कर आराम करो, मुझे भी चलना है और शाम को तुम ही सब तय कर लेना।’’ कहते हुए राजेश भी उठ खड़े हुए थे।
सुवीर को अपने किसी दोस्त के यहां जाना था और मीशू कमरे में जा कर पढ़ाई करने लगी।
वसुधा आ कर पलंग पर लेट गई थी, सोचा था कि दवाई लेने के बाद एक झपकी ले लेगी, पर आंखों में तो नींद का नाम ही नहीं था।
पूरे पांच दिन हो गए, अस्पताल से आए हुए, पर कमजोरी इतनी आ गई है कि थोड़ी देर खड़े रहो तो ही पांव लड़खड़ाने लगते हैं। कई बार तो नींद में ऐसा लगता है कि जैसे अभी भी अस्पताल के ही बेड पर लेटी हुई है।
अस्पताल... सचमुच अचानक ही जैसे सब कुछ हुआ। उसे तो विश्वास ही नहीं था कि उसे भी कभी हार्ट का स्ट्रॉक पड़ सकता है। अच्छी भली रोज का काम कर रही थी, बस थोड़े चक्क्र आए और गिर पड़ी थी। यह तो अच्छा हुआ कि राजेश भी उस समय घर पर ही थे, तो उन्होंने संभाल लिया। कुछ देर में होश भी आ गया था उसे। बड़ा बेटा प्रवीर भी तब घर आया हुआ था।
‘‘वसु, वसु, क्या हो गया था तुम्हें...?’’ राजेश का चिन्ताग्रस्त स्वर उसे सुनाई दिया। वह कुछ याद करने के का प्रयास कर रही थी। तभी प्रवीर की भी आवाज सुनाई दी।
‘‘पापा! मां को एक बार डॉक्टर से पूरा चैकअप करवा दो।’’ 
‘‘अरे मुझे हुआ क्या है? बस थोड़े से चक्कर आ गए थे, तो ठीक हो जाऊंगी।’’ अब वसुधा बोली थी।
‘‘नहीं मां, आप पूरे पन्द्रह मिनट तक बेहोश रहीं और ऐसा पहले तो कभी हुआ नहीं है, और फिर डॉक्टर को दिखाने में हरज ही क्या है?’’
राजेश भी सहमत हो गए थे और उसी शाम उसे अस्पताल ले जाया गया। डॉक्टर ने तत्काल सारे टेस्ट लिख दिए थे।
दूसरे दिन जब ई.सी.जी. की रिपोर्ट आई तो मालूम पड़ा कि हार्ट में कुछ ब्लाकेज है।
‘‘अरे नहीं...!’’ उसे तो अभी भी विश्वास नहीं था। पर डॉक्टर के कहने पर तुरन्त उसे भर्ती किया गया था। और भी टेस्ट होने थे। इलाज शुरू हो गया था।
यहीं पर उसे मालूम हुआ कि उस के बचपन की सहेली मंजुला भी यहीं डॉक्टर है। मंजुला भी उसे देख कर चौंक गई थी।
‘‘अरे वसुधा तू? तुझे क्या हुआ है?’’
और फिर पूरी रिपोर्ट देख कर उस का चेहरा और गम्भीर हो गया था। हार्ट में प्रॉब्लम तो है ही, ब्लड प्रेशर बहुत कम है, और साथ में डाइबिटीज भी है।
‘‘देख वसु! पिछली बार जब हम किसी समारोह में मिले थे तो तभी मैं ने तुम्हें देख कर कहा था कि तू बहुत कमजोर लग रही है। एक बार पूरे टेस्ट करवा ले, मेरे क्लिनिक में ही आ जाना। पर तू टाल गई थी।’’ मंजुला देर तक उस की रिपोर्ट देखती रही थी।
वसुधा फिर कहीं खो गई थी।
‘हां! मंजुला मिली तो थी, उन दिनों भी उसे लगता था कि थोड़ा सा काम करते ही थकान लगने लगती है। जरा सी सीढ़ियां चढ़ते ही हांफनी आ जाती है। पर इसे वह मामूली कमजोरी समझ कर टाल गई थी। तब क्या पता था कि वही लापरवाही इतनी महंगी पड़ जाएगी।’
उधर मंजुला कहे जा रही थी-
‘‘यह तो अच्छा हुआ कि राजेश समय पर तुझे यहां ले आए। अभी तो मामूली ब्लोकेज हैं, जो दवाई से ठीक हो सकते हैं, पर तुझे अब पूरी तरह अपना ध्यान रखना होगा और चैक अप भी कराती रहना ताकि आगे ऑपरेशन की नौबत न आए।’’
अपनी तरह से मंजुला सांत्वना दे रही थी पर वसुधा का भय अभी भी दूर नहीं हो पा रहा था।
क्या... क्या हार्ट अटैक था वह। क्या वह मृत्यु के इतने पास पहुंच चुकी है। अभी तो इतने अधूरे काम पड़े हुए हैं, कहीं कुछ हो जाता तो...। मन हुआ कि मंजुला और देर तक पास बैठी रहे। पर उस समय तो नहीं, हां रोजाना एक राउण्ड लगा कर वह थोड़ी देर को वसुधा के पास आती थी। और तभी एक दिन वसुधा ने अपना डर उजागर कर दिया था।
हंस पड़ी थी मंजुला।
‘‘इतनी समझदार हो कर भी कैसी बातें करती है। वैसे यह एक कटु सत्य है कि मृत्यु कभी भी किसी भी बहाने हमारे पास आ सकती है। पर यहां तो तेरी स्वयं की लापरवाही ही अधिक रही। क्यों अपना ध्यान नहीं रखा तू ने। जब कि हम लोगों को अपने स्वास्थ्य का ध्यान स्वयं ही रखना होता है। अच्छा खान-पान, व्यायाम, सभी कुछ।’’
‘‘अरे कहां मंजु! नौकरी, फिर घर गृहस्थी। बच्चे, पति, सब का ध्यान रखते हुए मैं तो अपने बारे में सोच ही नहीं पाती हूं।’’
‘‘अच्छा तो फिर क्या सोचती है? चिन्ता, तनाव, ये सब।’’ मंजुला ने फिर कुरेदा था।
‘‘अरे चिन्ता तो जिन्दगी का हिस्सा है। बच्चे बड़े हो गए हैं, उन के कैरियर, पति अगले साल रिटायर हो जाएंगे, बड़े बेटे का भी अभी तक तो जॉब नहीं है। छोटे तो दोनों हम पर आश्रित हैं ही। मीशू का इस साल भी मेडिकल में चयन नहीं हुआ है। सुवीर को तो जैसे पढ़ाई-लिखाई से दुश्मनी है।’’ पता नहीं मंजुला के स्वर में क्या था कि वसुधा सब कुछ उगल बैठी थी।
‘‘देख वसु! यह सब तो ठीक है, पर क्या तेरे चिन्ता करने से सब काम सही हो जाएंगे। बच्चे बड़े हैं, अपना भला-बुरा स्वयं सोच लेंगे और अगर तुझे ही कुछ हो जाता तो... तो...?’’
वसुधा फिर कांप गई थी।
‘‘इसी लिए कहती हूं कि चिन्ता करना छोड़ और खुश रहना सीख। अपनी रुचि का भी कुछ काम किया कर।’’
उन आठ-दस दिनों में मंजुला के सान्निध्य में रह कर वसुधा ने शायद पहली बार अपने बारे में कुछ सोचना चाहा था। उस को स्वयं की रुचि, उस के स्वयं का स्वास्थ्य। वह तो सब कुछ भूल ही बैठी थी।
याद आया कमरे के किसी कोने में धूल खाता सितार, कभी कितना शौक था संगीत का। पर शादी हो कर ससुराल में आई तो यहां किसी की रुचि इस तरफ थी ही नहीं। तो वह भी अपने शौक भूलती गई। सोचा था कि बच्चे बड़े होंगे तब खूब समय मिलेगा, पर तब क्या पता था कि घर की जिम्मेदारियां कभी खत्म होती ही नहीं हैं। बच्चे बड़े भी हो गए पर न तो कभी अपनी बनाई पुरानी पेंटिग्स देखने का समय मिला और न अपनी पसन्द की पुस्तकें पढ़ने का। बस सोचती रही घर, परिवार, अपनी नौकरी और चकरघिन्नी सी घूमती रही इन्ही सब के बीच।
अब तो याद करने पर भी याद नहीं आता है कि उस की स्वयं की पसन्द क्या थी?
आज तो ऐसा लगता है कि सुकून भरी जिन्दगी तो कभी जी ही नहीं पाई। और एक ही झटके में मौत गले लगा लेती तो...। वह फिर सिहर उठी थी।
घर आते ही तो फिर वही जिन्दगी शुरू हो गई है। मीशू ने तो शिकायत भरे लहजे में कह भी दिया था-
‘‘मां, जमुना के हाथ का बना खाना खाते-खाते तो हम लोग बोर हो गए हैं, आप कुछ अच्छा बनाओ ना..।’’ 
‘‘बेटे, अभी डॉक्टर ने छुट्टी भले ही दे दी हो पर पूरे हफ्ते आराम करने को कहा है।’’ बड़ी मुश्किल से वह कह पाई थी और सब चुप हो गए थे।
फिर भी अस्त-व्यस्त घर को देख कर वह कहां संयम रख पाई थी, कुर्सी पर बैठे-बैठे ही बाई से पूरे रसोई घर की सफाई करवाई। खाने के डिब्बे साफ करवाए। ड्राइंगरूम में सोफे के कवर बदलवाए। यह सब करते-कराते ही थकान लगने लगी थी।
और फिर याद आई थी मंजुला की नसीहत। सोने का प्रयास करने पर भी उसे नींद नहीं आ पा रही थी। रात के खाने में फिर वही जिक्र था-
‘‘मां, फिर आप ने क्या तय किया? कैसे सेलिब्रेट करना है आप का जन्मदिन। दही-बड़े की दाल और छोले के चने भिगो दिए।’’ मीशू पूछ रही थी।
राजेश और सुवीर अब ध्यान से वसुधा की तरफ देख रहे थे, शायद जानने को कि किस-किस को निमन्त्रित करना है। पर वसुधा चुप थी। देर बाद इतना ही कह पाई थी-
‘‘कल पूरा दिन मैं अकेले में गुजारना चाहती हूं, कुछ सोचना चाहती हूं, अपने स्वयं के बारे में। अपनी रुचि और अपनी खुशी के बारे में।’’
और अब सब अचम्भित हो कर उसे ताकने लगे थे।
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जन्म-दिन


क्षमा चतुर्वेदी की नई दुि‍नया इन्‍दौर में प्रकाि‍शत कहानी
पिछले दो दिनों से पूरे घर में चर्चा का एक ही विषय था और आज फिर बेटी मीशू ने वही जिक्र छेड़ दिया था।
‘हां, मां बताओ न, आप का जन्म-दिन कैसे मनाया जाए? क्यों पापा, इस बार तो मां का जन्म-दिन कुछ खास ही होना चाहिए न, इतने दिन हॉस्पिटल में रह कर, स्वस्थ हो कर लौटी हैं, नई जिन्दगी मिली है उन्हें।’
नई जिन्दगी! शायद सच ही कह रही है बिटिया, वसुधा के विचार-तन्त्र को फिर कोई झटका लगा था।
उधर छोटे बेटे सुवीर ने भी हां में हां मिलाई थी, फिर अपनी तरफ से जोड़ा था-
‘‘एक तो स्पेशल दावत होनी चाहिए, मैं अपने दोस्तों को भी बुलाऊंगा, क्यों पापा?’’
अब तक चुप बैठे राजेश ने फिर सोचते हुए कहा-
‘‘देखो बच्चो! मां अभी बीमारी से उठी है, बाहर होटल का खाना तो खा नहीं पाएगी, इस लिए घर पर ही... ’’
‘‘हां वही तो मैं कह रही हूं, घर पर ही बनाएंगे, बस केक और मिठाइयां बाहर से मंगवा लेंगे। और फिर मां के हाथ के दही-बड़े लाजवाब बनते हैं, खस्ता कचौड़ी और पुलाव भी। छोेले मैं बना दूंगी और पूड़ियां जमुना तल देगी, क्यों मां ठीक है ना...?’’ मीशू फिर चहकी थी।
वसुधा सोच रही थी कि अभी तो ठीेक से खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा है, आज ही थोड़ा काम किया तो इतनी थकान लग रही है, फिर....
‘‘मां! ठीक है न, और आप की बढ़िया गिफ्ट का ऑर्डर भी दे दिया है पापा ने, इस बार माइक्रोवेव ले रहे हैं, आपने कई बार कहा था ना...!’’
वसुधा फिर भी चुप थी।
‘‘बेटे! अब थोड़ी देर लेटूंगी, फिर शाम को तुम लोग तय कर लेना।’’ कहते हुए कुछ देर बाद वह उठ गई थी। सचमुच अब उसे कमजोरी लग रही थी।
‘‘हां वसु! अब तुम कमरे में जा कर आराम करो, मुझे भी चलना है और शाम को तुम ही सब तय कर लेना।’’ कहते हुए राजेश भी उठ खड़े हुए थे।
सुवीर को अपने किसी दोस्त के यहां जाना था और मीशू कमरे में जा कर पढ़ाई करने लगी।
वसुधा आ कर पलंग पर लेट गई थी, सोचा था कि दवाई लेने के बाद एक झपकी ले लेगी, पर आंखों में तो नींद का नाम ही नहीं था।
पूरे पांच दिन हो गए, अस्पताल से आए हुए, पर कमजोरी इतनी आ गई है कि थोड़ी देर खड़े रहो तो ही पांव लड़खड़ाने लगते हैं। कई बार तो नींद में ऐसा लगता है कि जैसे अभी भी अस्पताल के ही बेड पर लेटी हुई है।
अस्पताल... सचमुच अचानक ही जैसे सब कुछ हुआ। उसे तो विश्वास ही नहीं था कि उसे भी कभी हार्ट का स्ट्रॉक पड़ सकता है। अच्छी भली रोज का काम कर रही थी, बस थोड़े चक्क्र आए और गिर पड़ी थी। यह तो अच्छा हुआ कि राजेश भी उस समय घर पर ही थे, तो उन्होंने संभाल लिया। कुछ देर में होश भी आ गया था उसे। बड़ा बेटा प्रवीर भी तब घर आया हुआ था।
‘‘वसु, वसु, क्या हो गया था तुम्हें...?’’ राजेश का चिन्ताग्रस्त स्वर उसे सुनाई दिया। वह कुछ याद करने के का प्रयास कर रही थी। तभी प्रवीर की भी आवाज सुनाई दी।
‘‘पापा! मां को एक बार डॉक्टर से पूरा चैकअप करवा दो।’’ 
‘‘अरे मुझे हुआ क्या है? बस थोड़े से चक्कर आ गए थे, तो ठीक हो जाऊंगी।’’ अब वसुधा बोली थी।
‘‘नहीं मां, आप पूरे पन्द्रह मिनट तक बेहोश रहीं और ऐसा पहले तो कभी हुआ नहीं है, और फिर डॉक्टर को दिखाने में हरज ही क्या है?’’
राजेश भी सहमत हो गए थे और उसी शाम उसे अस्पताल ले जाया गया। डॉक्टर ने तत्काल सारे टेस्ट लिख दिए थे।
दूसरे दिन जब ई.सी.जी. की रिपोर्ट आई तो मालूम पड़ा कि हार्ट में कुछ ब्लाकेज है।
‘‘अरे नहीं...!’’ उसे तो अभी भी विश्वास नहीं था। पर डॉक्टर के कहने पर तुरन्त उसे भर्ती किया गया था। और भी टेस्ट होने थे। इलाज शुरू हो गया था।
यहीं पर उसे मालूम हुआ कि उस के बचपन की सहेली मंजुला भी यहीं डॉक्टर है। मंजुला भी उसे देख कर चौंक गई थी।
‘‘अरे वसुधा तू? तुझे क्या हुआ है?’’
और फिर पूरी रिपोर्ट देख कर उस का चेहरा और गम्भीर हो गया था। हार्ट में प्रॉब्लम तो है ही, ब्लड प्रेशर बहुत कम है, और साथ में डाइबिटीज भी है।
‘‘देख वसु! पिछली बार जब हम किसी समारोह में मिले थे तो तभी मैं ने तुम्हें देख कर कहा था कि तू बहुत कमजोर लग रही है। एक बार पूरे टेस्ट करवा ले, मेरे क्लिनिक में ही आ जाना। पर तू टाल गई थी।’’ मंजुला देर तक उस की रिपोर्ट देखती रही थी।
वसुधा फिर कहीं खो गई थी।
‘हां! मंजुला मिली तो थी, उन दिनों भी उसे लगता था कि थोड़ा सा काम करते ही थकान लगने लगती है। जरा सी सीढ़ियां चढ़ते ही हांफनी आ जाती है। पर इसे वह मामूली कमजोरी समझ कर टाल गई थी। तब क्या पता था कि वही लापरवाही इतनी महंगी पड़ जाएगी।’
उधर मंजुला कहे जा रही थी-
‘‘यह तो अच्छा हुआ कि राजेश समय पर तुझे यहां ले आए। अभी तो मामूली ब्लोकेज हैं, जो दवाई से ठीक हो सकते हैं, पर तुझे अब पूरी तरह अपना ध्यान रखना होगा और चैक अप भी कराती रहना ताकि आगे ऑपरेशन की नौबत न आए।’’
अपनी तरह से मंजुला सांत्वना दे रही थी पर वसुधा का भय अभी भी दूर नहीं हो पा रहा था।
क्या... क्या हार्ट अटैक था वह। क्या वह मृत्यु के इतने पास पहुंच चुकी है। अभी तो इतने अधूरे काम पड़े हुए हैं, कहीं कुछ हो जाता तो...। मन हुआ कि मंजुला और देर तक पास बैठी रहे। पर उस समय तो नहीं, हां रोजाना एक राउण्ड लगा कर वह थोड़ी देर को वसुधा के पास आती थी। और तभी एक दिन वसुधा ने अपना डर उजागर कर दिया था।
हंस पड़ी थी मंजुला।
‘‘इतनी समझदार हो कर भी कैसी बातें करती है। वैसे यह एक कटु सत्य है कि मृत्यु कभी भी किसी भी बहाने हमारे पास आ सकती है। पर यहां तो तेरी स्वयं की लापरवाही ही अधिक रही। क्यों अपना ध्यान नहीं रखा तू ने। जब कि हम लोगों को अपने स्वास्थ्य का ध्यान स्वयं ही रखना होता है। अच्छा खान-पान, व्यायाम, सभी कुछ।’’
‘‘अरे कहां मंजु! नौकरी, फिर घर गृहस्थी। बच्चे, पति, सब का ध्यान रखते हुए मैं तो अपने बारे में सोच ही नहीं पाती हूं।’’
‘‘अच्छा तो फिर क्या सोचती है? चिन्ता, तनाव, ये सब।’’ मंजुला ने फिर कुरेदा था।
‘‘अरे चिन्ता तो जिन्दगी का हिस्सा है। बच्चे बड़े हो गए हैं, उन के कैरियर, पति अगले साल रिटायर हो जाएंगे, बड़े बेटे का भी अभी तक तो जॉब नहीं है। छोटे तो दोनों हम पर आश्रित हैं ही। मीशू का इस साल भी मेडिकल में चयन नहीं हुआ है। सुवीर को तो जैसे पढ़ाई-लिखाई से दुश्मनी है।’’ पता नहीं मंजुला के स्वर में क्या था कि वसुधा सब कुछ उगल बैठी थी।
‘‘देख वसु! यह सब तो ठीक है, पर क्या तेरे चिन्ता करने से सब काम सही हो जाएंगे। बच्चे बड़े हैं, अपना भला-बुरा स्वयं सोच लेंगे और अगर तुझे ही कुछ हो जाता तो... तो...?’’
वसुधा फिर कांप गई थी।
‘‘इसी लिए कहती हूं कि चिन्ता करना छोड़ और खुश रहना सीख। अपनी रुचि का भी कुछ काम किया कर।’’
उन आठ-दस दिनों में मंजुला के सान्निध्य में रह कर वसुधा ने शायद पहली बार अपने बारे में कुछ सोचना चाहा था। उस को स्वयं की रुचि, उस के स्वयं का स्वास्थ्य। वह तो सब कुछ भूल ही बैठी थी।
याद आया कमरे के किसी कोने में धूल खाता सितार, कभी कितना शौक था संगीत का। पर शादी हो कर ससुराल में आई तो यहां किसी की रुचि इस तरफ थी ही नहीं। तो वह भी अपने शौक भूलती गई। सोचा था कि बच्चे बड़े होंगे तब खूब समय मिलेगा, पर तब क्या पता था कि घर की जिम्मेदारियां कभी खत्म होती ही नहीं हैं। बच्चे बड़े भी हो गए पर न तो कभी अपनी बनाई पुरानी पेंटिग्स देखने का समय मिला और न अपनी पसन्द की पुस्तकें पढ़ने का। बस सोचती रही घर, परिवार, अपनी नौकरी और चकरघिन्नी सी घूमती रही इन्ही सब के बीच।
अब तो याद करने पर भी याद नहीं आता है कि उस की स्वयं की पसन्द क्या थी?
आज तो ऐसा लगता है कि सुकून भरी जिन्दगी तो कभी जी ही नहीं पाई। और एक ही झटके में मौत गले लगा लेती तो...। वह फिर सिहर उठी थी।
घर आते ही तो फिर वही जिन्दगी शुरू हो गई है। मीशू ने तो शिकायत भरे लहजे में कह भी दिया था-
‘‘मां, जमुना के हाथ का बना खाना खाते-खाते तो हम लोग बोर हो गए हैं, आप कुछ अच्छा बनाओ ना..।’’ 
‘‘बेटे, अभी डॉक्टर ने छुट्टी भले ही दे दी हो पर पूरे हफ्ते आराम करने को कहा है।’’ बड़ी मुश्किल से वह कह पाई थी और सब चुप हो गए थे।
फिर भी अस्त-व्यस्त घर को देख कर वह कहां संयम रख पाई थी, कुर्सी पर बैठे-बैठे ही बाई से पूरे रसोई घर की सफाई करवाई। खाने के डिब्बे साफ करवाए। ड्राइंगरूम में सोफे के कवर बदलवाए। यह सब करते-कराते ही थकान लगने लगी थी।
और फिर याद आई थी मंजुला की नसीहत। सोने का प्रयास करने पर भी उसे नींद नहीं आ पा रही थी। रात के खाने में फिर वही जिक्र था-
‘‘मां, फिर आप ने क्या तय किया? कैसे सेलिब्रेट करना है आप का जन्मदिन। दही-बड़े की दाल और छोले के चने भिगो दिए।’’ मीशू पूछ रही थी।
राजेश और सुवीर अब ध्यान से वसुधा की तरफ देख रहे थे, शायद जानने को कि किस-किस को निमन्त्रित करना है। पर वसुधा चुप थी। देर बाद इतना ही कह पाई थी-
‘‘कल पूरा दिन मैं अकेले में गुजारना चाहती हूं, कुछ सोचना चाहती हूं, अपने स्वयं के बारे में। अपनी रुचि और अपनी खुशी के बारे में।’’
और अब सब अचम्भित हो कर उसे ताकने लगे थे।
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