बुधवार, 19 सितंबर 2012


जन्म-दिन


क्षमा चतुर्वेदी की नई दुि‍नया इन्‍दौर में प्रकाि‍शत कहानी
पिछले दो दिनों से पूरे घर में चर्चा का एक ही विषय था और आज फिर बेटी मीशू ने वही जिक्र छेड़ दिया था।
‘हां, मां बताओ न, आप का जन्म-दिन कैसे मनाया जाए? क्यों पापा, इस बार तो मां का जन्म-दिन कुछ खास ही होना चाहिए न, इतने दिन हॉस्पिटल में रह कर, स्वस्थ हो कर लौटी हैं, नई जिन्दगी मिली है उन्हें।’
नई जिन्दगी! शायद सच ही कह रही है बिटिया, वसुधा के विचार-तन्त्र को फिर कोई झटका लगा था।
उधर छोटे बेटे सुवीर ने भी हां में हां मिलाई थी, फिर अपनी तरफ से जोड़ा था-
‘‘एक तो स्पेशल दावत होनी चाहिए, मैं अपने दोस्तों को भी बुलाऊंगा, क्यों पापा?’’
अब तक चुप बैठे राजेश ने फिर सोचते हुए कहा-
‘‘देखो बच्चो! मां अभी बीमारी से उठी है, बाहर होटल का खाना तो खा नहीं पाएगी, इस लिए घर पर ही... ’’
‘‘हां वही तो मैं कह रही हूं, घर पर ही बनाएंगे, बस केक और मिठाइयां बाहर से मंगवा लेंगे। और फिर मां के हाथ के दही-बड़े लाजवाब बनते हैं, खस्ता कचौड़ी और पुलाव भी। छोेले मैं बना दूंगी और पूड़ियां जमुना तल देगी, क्यों मां ठीक है ना...?’’ मीशू फिर चहकी थी।
वसुधा सोच रही थी कि अभी तो ठीेक से खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा है, आज ही थोड़ा काम किया तो इतनी थकान लग रही है, फिर....
‘‘मां! ठीक है न, और आप की बढ़िया गिफ्ट का ऑर्डर भी दे दिया है पापा ने, इस बार माइक्रोवेव ले रहे हैं, आपने कई बार कहा था ना...!’’
वसुधा फिर भी चुप थी।
‘‘बेटे! अब थोड़ी देर लेटूंगी, फिर शाम को तुम लोग तय कर लेना।’’ कहते हुए कुछ देर बाद वह उठ गई थी। सचमुच अब उसे कमजोरी लग रही थी।
‘‘हां वसु! अब तुम कमरे में जा कर आराम करो, मुझे भी चलना है और शाम को तुम ही सब तय कर लेना।’’ कहते हुए राजेश भी उठ खड़े हुए थे।
सुवीर को अपने किसी दोस्त के यहां जाना था और मीशू कमरे में जा कर पढ़ाई करने लगी।
वसुधा आ कर पलंग पर लेट गई थी, सोचा था कि दवाई लेने के बाद एक झपकी ले लेगी, पर आंखों में तो नींद का नाम ही नहीं था।
पूरे पांच दिन हो गए, अस्पताल से आए हुए, पर कमजोरी इतनी आ गई है कि थोड़ी देर खड़े रहो तो ही पांव लड़खड़ाने लगते हैं। कई बार तो नींद में ऐसा लगता है कि जैसे अभी भी अस्पताल के ही बेड पर लेटी हुई है।
अस्पताल... सचमुच अचानक ही जैसे सब कुछ हुआ। उसे तो विश्वास ही नहीं था कि उसे भी कभी हार्ट का स्ट्रॉक पड़ सकता है। अच्छी भली रोज का काम कर रही थी, बस थोड़े चक्क्र आए और गिर पड़ी थी। यह तो अच्छा हुआ कि राजेश भी उस समय घर पर ही थे, तो उन्होंने संभाल लिया। कुछ देर में होश भी आ गया था उसे। बड़ा बेटा प्रवीर भी तब घर आया हुआ था।
‘‘वसु, वसु, क्या हो गया था तुम्हें...?’’ राजेश का चिन्ताग्रस्त स्वर उसे सुनाई दिया। वह कुछ याद करने के का प्रयास कर रही थी। तभी प्रवीर की भी आवाज सुनाई दी।
‘‘पापा! मां को एक बार डॉक्टर से पूरा चैकअप करवा दो।’’ 
‘‘अरे मुझे हुआ क्या है? बस थोड़े से चक्कर आ गए थे, तो ठीक हो जाऊंगी।’’ अब वसुधा बोली थी।
‘‘नहीं मां, आप पूरे पन्द्रह मिनट तक बेहोश रहीं और ऐसा पहले तो कभी हुआ नहीं है, और फिर डॉक्टर को दिखाने में हरज ही क्या है?’’
राजेश भी सहमत हो गए थे और उसी शाम उसे अस्पताल ले जाया गया। डॉक्टर ने तत्काल सारे टेस्ट लिख दिए थे।
दूसरे दिन जब ई.सी.जी. की रिपोर्ट आई तो मालूम पड़ा कि हार्ट में कुछ ब्लाकेज है।
‘‘अरे नहीं...!’’ उसे तो अभी भी विश्वास नहीं था। पर डॉक्टर के कहने पर तुरन्त उसे भर्ती किया गया था। और भी टेस्ट होने थे। इलाज शुरू हो गया था।
यहीं पर उसे मालूम हुआ कि उस के बचपन की सहेली मंजुला भी यहीं डॉक्टर है। मंजुला भी उसे देख कर चौंक गई थी।
‘‘अरे वसुधा तू? तुझे क्या हुआ है?’’
और फिर पूरी रिपोर्ट देख कर उस का चेहरा और गम्भीर हो गया था। हार्ट में प्रॉब्लम तो है ही, ब्लड प्रेशर बहुत कम है, और साथ में डाइबिटीज भी है।
‘‘देख वसु! पिछली बार जब हम किसी समारोह में मिले थे तो तभी मैं ने तुम्हें देख कर कहा था कि तू बहुत कमजोर लग रही है। एक बार पूरे टेस्ट करवा ले, मेरे क्लिनिक में ही आ जाना। पर तू टाल गई थी।’’ मंजुला देर तक उस की रिपोर्ट देखती रही थी।
वसुधा फिर कहीं खो गई थी।
‘हां! मंजुला मिली तो थी, उन दिनों भी उसे लगता था कि थोड़ा सा काम करते ही थकान लगने लगती है। जरा सी सीढ़ियां चढ़ते ही हांफनी आ जाती है। पर इसे वह मामूली कमजोरी समझ कर टाल गई थी। तब क्या पता था कि वही लापरवाही इतनी महंगी पड़ जाएगी।’
उधर मंजुला कहे जा रही थी-
‘‘यह तो अच्छा हुआ कि राजेश समय पर तुझे यहां ले आए। अभी तो मामूली ब्लोकेज हैं, जो दवाई से ठीक हो सकते हैं, पर तुझे अब पूरी तरह अपना ध्यान रखना होगा और चैक अप भी कराती रहना ताकि आगे ऑपरेशन की नौबत न आए।’’
अपनी तरह से मंजुला सांत्वना दे रही थी पर वसुधा का भय अभी भी दूर नहीं हो पा रहा था।
क्या... क्या हार्ट अटैक था वह। क्या वह मृत्यु के इतने पास पहुंच चुकी है। अभी तो इतने अधूरे काम पड़े हुए हैं, कहीं कुछ हो जाता तो...। मन हुआ कि मंजुला और देर तक पास बैठी रहे। पर उस समय तो नहीं, हां रोजाना एक राउण्ड लगा कर वह थोड़ी देर को वसुधा के पास आती थी। और तभी एक दिन वसुधा ने अपना डर उजागर कर दिया था।
हंस पड़ी थी मंजुला।
‘‘इतनी समझदार हो कर भी कैसी बातें करती है। वैसे यह एक कटु सत्य है कि मृत्यु कभी भी किसी भी बहाने हमारे पास आ सकती है। पर यहां तो तेरी स्वयं की लापरवाही ही अधिक रही। क्यों अपना ध्यान नहीं रखा तू ने। जब कि हम लोगों को अपने स्वास्थ्य का ध्यान स्वयं ही रखना होता है। अच्छा खान-पान, व्यायाम, सभी कुछ।’’
‘‘अरे कहां मंजु! नौकरी, फिर घर गृहस्थी। बच्चे, पति, सब का ध्यान रखते हुए मैं तो अपने बारे में सोच ही नहीं पाती हूं।’’
‘‘अच्छा तो फिर क्या सोचती है? चिन्ता, तनाव, ये सब।’’ मंजुला ने फिर कुरेदा था।
‘‘अरे चिन्ता तो जिन्दगी का हिस्सा है। बच्चे बड़े हो गए हैं, उन के कैरियर, पति अगले साल रिटायर हो जाएंगे, बड़े बेटे का भी अभी तक तो जॉब नहीं है। छोटे तो दोनों हम पर आश्रित हैं ही। मीशू का इस साल भी मेडिकल में चयन नहीं हुआ है। सुवीर को तो जैसे पढ़ाई-लिखाई से दुश्मनी है।’’ पता नहीं मंजुला के स्वर में क्या था कि वसुधा सब कुछ उगल बैठी थी।
‘‘देख वसु! यह सब तो ठीक है, पर क्या तेरे चिन्ता करने से सब काम सही हो जाएंगे। बच्चे बड़े हैं, अपना भला-बुरा स्वयं सोच लेंगे और अगर तुझे ही कुछ हो जाता तो... तो...?’’
वसुधा फिर कांप गई थी।
‘‘इसी लिए कहती हूं कि चिन्ता करना छोड़ और खुश रहना सीख। अपनी रुचि का भी कुछ काम किया कर।’’
उन आठ-दस दिनों में मंजुला के सान्निध्य में रह कर वसुधा ने शायद पहली बार अपने बारे में कुछ सोचना चाहा था। उस को स्वयं की रुचि, उस के स्वयं का स्वास्थ्य। वह तो सब कुछ भूल ही बैठी थी।
याद आया कमरे के किसी कोने में धूल खाता सितार, कभी कितना शौक था संगीत का। पर शादी हो कर ससुराल में आई तो यहां किसी की रुचि इस तरफ थी ही नहीं। तो वह भी अपने शौक भूलती गई। सोचा था कि बच्चे बड़े होंगे तब खूब समय मिलेगा, पर तब क्या पता था कि घर की जिम्मेदारियां कभी खत्म होती ही नहीं हैं। बच्चे बड़े भी हो गए पर न तो कभी अपनी बनाई पुरानी पेंटिग्स देखने का समय मिला और न अपनी पसन्द की पुस्तकें पढ़ने का। बस सोचती रही घर, परिवार, अपनी नौकरी और चकरघिन्नी सी घूमती रही इन्ही सब के बीच।
अब तो याद करने पर भी याद नहीं आता है कि उस की स्वयं की पसन्द क्या थी?
आज तो ऐसा लगता है कि सुकून भरी जिन्दगी तो कभी जी ही नहीं पाई। और एक ही झटके में मौत गले लगा लेती तो...। वह फिर सिहर उठी थी।
घर आते ही तो फिर वही जिन्दगी शुरू हो गई है। मीशू ने तो शिकायत भरे लहजे में कह भी दिया था-
‘‘मां, जमुना के हाथ का बना खाना खाते-खाते तो हम लोग बोर हो गए हैं, आप कुछ अच्छा बनाओ ना..।’’ 
‘‘बेटे, अभी डॉक्टर ने छुट्टी भले ही दे दी हो पर पूरे हफ्ते आराम करने को कहा है।’’ बड़ी मुश्किल से वह कह पाई थी और सब चुप हो गए थे।
फिर भी अस्त-व्यस्त घर को देख कर वह कहां संयम रख पाई थी, कुर्सी पर बैठे-बैठे ही बाई से पूरे रसोई घर की सफाई करवाई। खाने के डिब्बे साफ करवाए। ड्राइंगरूम में सोफे के कवर बदलवाए। यह सब करते-कराते ही थकान लगने लगी थी।
और फिर याद आई थी मंजुला की नसीहत। सोने का प्रयास करने पर भी उसे नींद नहीं आ पा रही थी। रात के खाने में फिर वही जिक्र था-
‘‘मां, फिर आप ने क्या तय किया? कैसे सेलिब्रेट करना है आप का जन्मदिन। दही-बड़े की दाल और छोले के चने भिगो दिए।’’ मीशू पूछ रही थी।
राजेश और सुवीर अब ध्यान से वसुधा की तरफ देख रहे थे, शायद जानने को कि किस-किस को निमन्त्रित करना है। पर वसुधा चुप थी। देर बाद इतना ही कह पाई थी-
‘‘कल पूरा दिन मैं अकेले में गुजारना चाहती हूं, कुछ सोचना चाहती हूं, अपने स्वयं के बारे में। अपनी रुचि और अपनी खुशी के बारे में।’’
और अब सब अचम्भित हो कर उसे ताकने लगे थे।
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