गुरुवार, 25 जुलाई 2013

डॉ ओंकार नाथ चतुर्वेदी ने अपने जीवन की पचहतहर मधुर सन्ध्याओं की पूर्णता पर  जीवन की नई दिषा की खोज में अपना नया कदम बढ़ाया है।
मित्रों, परिजनो के बीच आपके नए व्यंग्य संग्रह व्यंग्य “ातकम का विमोचन भी हुआ, संग्रह के कुछ व्यंग्य तथा उत्सव के कुछ क्षण यहॅंा प्रस्तुत हैं।
डॉ चतुर्वेदी ने व्यंग्य विधा को एक नइ्र्र पहचान दी है। भाशा में व्यंजना का सटीक प्रयोग, तथा जीवन की विसंगतियों को उघाड़ते हुए एक स्वस्थ समाज की खोज आपके साहित्य की पहचान है।




व्यंग्य आभार सहित
डॉ. औंकारनाथ चतुर्वेदी
उस दिन अपनी 150वीं अप्रकाषित रचना लेकर पत्रिका के दरवाजे से लौट रहा था, जून की तपती
दोपहरी, खाल झुलसा देने वाली गर्मी, सम्पादक के एयरकन्डीषंड कमरे में बैठा-बैठा सुस्ताना अच्छा लग
रहा था। सम्पादक महोदय “ाीतल पेय का पान करते हुए मेरी रचना को श्रद्धाँजली दे रहे थे। अच्छा लिखते
हैं आप, खूब लिखते रहिये और हमें भेजते रहिये। मैं अपनी अस्वीकृत रचना की गुड़मुण्डी बनाकर जेब में
खोंसते हुए, भीतर से झुलसते हुए, बाहर से मुस्करा रहा था और बोला ‘‘जी, हाँ कोषिष करूँगा। आपके
स्तर के अनुरूप ढ़लने का प्रयास करूँगा।’’ कह कर बाहर निकल तो आया लेकिन खाल झुलस गयी एक
चक्कर सा आया, आँखों के सामने अन्धेरा सा छा गया, कान में किसी ने कहा ‘चल रे कलम घसीटे’ और
झटके के साथ अपने देहकारा से मुक्त हो गया। मैंने देखा कि मेरे गिरते ही पास में खडे़ चाट पकाडै ी़ बचे ने
वाले, गन्ने की चरखी चलाने वाले, पान की दुकान वाले-कुछ रिक्षे चलाने वाले दौड़कर तो आये पर किसी
ने हाथ नहीं लगाया। भीड़ में से एक नवयुवक उभरा उसने-मेरी जेब टटोली-टेम्पो यात्रा के लिए सुरक्षित
पैसे निकाले, मेरी अस्वीकृत रचना देखी और बोला-ये तो कोई कलमनवीस है, पुलिस को फोन करके आता
हूँ। सो वह भी भीड़ में खो गया। बाद की कहानी बेवजह है, क्योंकि उस मिट्टी से मेरा वास्ता छूट चुका
था। वह ‘वारिस’ और ‘लावारिस’ इन दो “ाब्दों में बीच में झूल रही थी। मैं सानन्द काले कलूटे मुखौटाधारी
यमदतू ो ं के बीच मे ं घिरा बाबुल के घर लाटै रहा था। म ंै बोला यार दषहरा, दीपावली-विषेशाकं निकलन े वाले
ह,ंै मनंै े कई रचनाये ं तयै ार की थी-भेजने के लिए, टेबिल पर धरी छोड ़ आया हँू। उसे तो भेजने देत।े काम
अधूरा छोड़कर आया हूँ। थोड़ी मोहलत तो दे दो न! लौट जाने दो न, यमदूत मुस्कराया और बोला-यार
तुम्हारे धैर्य की भी दाद देनी पड़ेगी? कितना अपमान और उपेक्षा सही है तुमने। कितना नकारा है, तुमको
ही तुम्हारे मित्रों ने, कितना बेवजह काटा है तुमको, तुम्हारे ही ‘अपनों ने’। यार तुमने एक बार भी आत्मघात
नहीं किया, सिर्फ लिखते रहे-लिखते रहे न छपने के लिए, प्रकाषकों की कोठियों के लिए। चप्पल घिसते
रहे, सम्पादकों के एयरकन्डीषंड दफ्तरों की परिक्रमा करते रहे, सब्जी-दाल के पैसे बचा-बचाकर अस्वीकृत
रचनाओं के लिए लिफाफे पर टिकट चिपकाते रहे। थका डाला न बेवजह अपने आपको? क्या मिला
झोपड़िया प्रसाद जी? अब तो लौट चले खाली हाथ हमारे साथ। न स्वर्गलोक ही भोगा न ही परलोक। अब
ले चलते हैं आपको अपनी मुफलिसी के साथ यमराज की अदालत में। वहाँ पहुँचकर देखा, यमराज की
अदालत का नजारा ही अलौकिक था। वो ‘कालाभैसा’ तो काली ‘बुलेट प्रूफ मर्सीडीज’ में बदल गया था
यमदूत मुझे ‘विजीटर्स गैलेरी’ में छोड़ गये और बोले आपका ‘परिचय पत्र’ बनवाकर लाते हैं, बैठो यहाँ थोड़ी
देर, सुस्तालो।
‘विजीटर्स गैलेरी’ खचाखच भरी पड़ी थी। कुछ लोग तो दो-तीन साल से वहाँ पड़े थे। “ाायद
किसी सुनामी लहर, भूकम्प या रेल बम विस्फोट के हादसों के षिकार थे। पूर्व में यहाँ इनके आने की कोई
तैयारी नहीं थी और वहाँ यार लोगों ने आर.डी.एक्स. का विस्फोट कर अचानक उनका टिकिट काट दिया
था। इधर भीड़ बढ़ गई थी, सारी व्यवस्था गड़बड़ा सी गई थी। क्योंकि सैकड़ों बहियों के ढे़र में डूबे चित्रगुप्त
जी ऐनक, धोती से मसल-मसल कर साफ कर रहे थे और एक-एक परची को क्रमपूर्वक निबटा रहे थे।
उन्हें सिर उठाने की फुरसत ही नहीं मिल रही थी। यमदूत ने उनके कान में कुछ कहा-तो चित्रगुप्त जी
झल्ला पडे़-‘यार सारे के सारे आज ही दफ्तर मे ं दाखिल होगं े क्या? नीचे देखो मलबे मे ं से हजारो ं लाषंे
घसीटी जा रही हैं और ऊपर बैठे हवामहल में ये लोग नजारा ले रहे हैं। अरे इन ढे़र सारे लोगों को अभी
तो वहीं ठहरना था। अब तो बरात की बरात चली आ रही है। पता नहीं ये धरती वाले रंजिषभरा, घिनौना
मजाक करना कब बन्द करेंगे? और फिर वो बोले अरे उस कलम घिसाऊ को तो तहखाने में पहुँचा दो।
ये लोग तो आदतन एकांत प्रिय होते हैं। मेरा फैसला हो चुका था।
अब मैं यमदूतों के साथ वहाँ लौट रहा था, मुझे खुषी थी कि जहाँ प्रसिद्ध सम्पादक, पत्रकार,
साहित्यकार, उपन्यासकार, नाटककार, कहानीकार, आकाषवाणी आरै दरू दषर्न क े निदष्े ाक आरै कायक्र्र म अधिकारी
( 2 )
एक साथ ही मिल जायेंगे। इनमें से कई पूर्व परिचित होंगे, परिचित नहीं भी होंगे तो क्या? मेरा नाम कहीं
न कहीं तो पढ़ा ही होगा और कुछ न सही तो ‘सखेद’ रचना लौटाने वालों से तो भेंट हो ही जायेगी। मैं
हुलसकर बोला क्यों भाई, मीरा, रसखान, सूर, तुलसी यहाँ आये थे? यमदूत धैर्यपूर्वक बोला-और कहाँ जाते?
यही तो सबकी आखिरी मन्जिल, अन्तिम पड़ाव है? मैंने पूछा तो वहाँ प्रेमचन्द, प्रसाद, निराला, महादेवी भी
होंगी? अब यमदूत के चेहरे पर खिजलाहट सी नजर आने लगी, बोला यार-तुम भी खूब हो? दो-चार लाइने
क्या लिख ली, प्रेमचन्द, प्रसाद, निराला के बगल में बैठने की जगह ढूँढने लगे। अरे भाई! वो तो वी.आईपी.
लाउन्ज में ठहराये गये थे। तुम तो अपनी बताओ। तुमने अपना भी कोई ‘अभिनन्दन छविवद्र्धन ग्रन्थ’
छपवाया था या नहीं? तुम्हारे भी कोई ‘अमृत महोत्सव’, ‘‘ाश्ठीपूर्ति-दिवस’ मनाये गये थे या नही?ं तुम्हंे
अकादमिया ंे के तिकडम़ ी, सिफारिषी पुरस्कार मिल े या नही?ं तुमन े सिफारषी विदेष यात्रा विदेषी विष्वविद्यालयों
के एक्सटेंषन लेक्चर भी दिये थे कि नहीं? तुम्हें कोई पदक पुरस्कार मिला था कि नहीं? भाई जो वहाँ झपट
लेता है, वह यहाँ भी लपक लेता है। जो ‘वहाँ’ भूल गया, यहाँ भी चूक गया। यह तो ‘यमलोक’ है,
स्वर्ग-नरक का ‘एक्सटेंषन विंग’ हम तो मात्र डाकिया हैं। चिट्ठी पर सिर्फ पता पढ़ते हैं और ऊपर नीचे की
ओर मोड़ देते हैं।
मैं बोला-प्रभु! तो फिर मुझे तहखाने में क्यों ठहराया जा रहा है? यमदूत बड़ी रहस्यमयी मुस्कराहट
के साथ बोला-डाक बंगला, सर्किट हाउस में अन्तर होता है भाई? तुम्हारी सवारी तो गेस्ट हाउस के लायक
है, गेस्ट हाउस के अतिथि कुछ दिनों यहाँ विश्राम करने के बाद जीवन धारण के लिए मृत्यु लोक भेज दिये
जाते हैं। क्योंकि अन्तिम समय तुम अपनी अस्वीकृत रचना के लिए खिझला रहे थे, लगता है अभी पृथ्वीभोग
का संस्कार बाकी है तुम्हारे मन में। यह सुनते ही मैं यमदूत से बाँह छुड़ाकर भागा और सीधे यमराज की
अदालत में बैठे चित्रगुप्त के पाँव पकड़ कर गिड़गिड़ाने लगा-प्रभु! आजीवन अस्वीकृत रचनाओं की तरह
उपेक्षित जीवन जिया ह ै मनंै े, घटिया लोगो ं से बडी़ -बडी़ सलाहे ं सुनी ह ै मनंै े, घटिया रचनाओ ं को परु स्कृत
होते हुए देखा है मैंने, मुझे सधन्यवाद की चिप्पी लगाकर वापिस मत लौटाओ प्रभु! अब मुझमें चैरासी लाख
योनियों में भटकने के बाद हिन्दी लेखक बनकर जीने की क्षमता नहीं है प्रभु। मुझे ‘आभार सहित’ ‘सहयोग
के लिए आभारी’ कहकर मत लौटाओ प्रभु! जैसा भी हूँ, तुम्हारी ही मौलिक रचना हूँ। इसे मूल रूप से
स्वीकार कर लो प्रभु।
चित्रगुप्त ने मेरी फाईल पर गोपनीय टिप्पणी लिखी और मुस्कराये। रचना मौलिक होने के कारण
मूल रूप में स्वीकृत की जाती है एवं आभार सहित विषिश्ठ अवसर पर प्रकाषित होने के लिए सुरक्षित रखी
जाती है।
मैं मन ही मन गुनगुना रहा था-‘‘अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल’’।
मैं देख रहा था अब यमदूत भी जापानी मुद्रा में सर झुका कर अभिवादन कर रहे थे।
डॉ. औंकार नाथ चतुर्वेदी,
प्रणव 130@4, षिवाजी लेन,
सिविल लाईन्स, स्टेषन रोड़, कोटा
व्यंग्य चोर जी! नमस्कार
डॉ. औंकारनाथ चतुर्वेदी
सुनते हो जी, कल रात को मेरे घर चोर आये थे, चील के घौंसले में माँस की तलाष में। हुआ यह
कि रात के दो बजे, जब सारी बस्ती निविड़ अंधकार में डूबी, पलकों पर सजी सपनों की बरात निहार रही
थी, तब मैं एक व्यंग्य लेख लिखने में व्यस्त था-लेख की समाप्ति पर ज्योंही उठा-देखा सामने जाली वाली
साइड विन्डों की दराज से दो आग्नेय आँखें मुझे घूर रही थीं। पहले तो मुझे विष्वास ही नही ं हुआ, लेि कन
जब उसने पलक झपकाई तो विनम्रता के अभ्यस्त हाथ सहज रूप से जुड़ गये। अचानक मुँह से निकल
गया-‘भीतर आइयेगा न! बाहर क्यों खड़े हैं?
वह इस स्थिति की संभावना से बिल्कुल बेखबर था “ाायद, इसलिए उस पार से गुर्राया-‘अबे तुझे
डर नहीं लगता? मैं तो चोर हूँ। मैं बोला-‘तो क्या हुआ? बाहर बेवजह भीग रहे हैं? यह घर तो होजरी सेल
का केन्द्र है, मन पसन्द सामान इकट्ठा कीजिये और ले जाइये। उसने “ाायद पीछे की जेब से कुछ टटोला।
एक खट्ट की आवाज हुई, मैंने देखा वह अब रामपुरी चाकू लहरा रहा था और उसे खिड़की के बाहर से
दिखाता हुआ बोला-‘‘जानते हो यह हाथ में क्या है? अभी चीं निकल जायेगी।’’
मैंने कहा-‘ज्यादा जोर से मत बोलिए। आपका क्या? पड़ोस वाले जग जायेंगे तो आप तो भाग
जायेंगे, मैं पकड़ा जाऊँगा, बदनाम हो जाऊँगा। चोर चिंघाड़ा-‘‘अबे हट्ट। आज जाग रहा तो क्या, फिर कभी
देखेंगे’’ वह “ाायद लौट जाना चाहता था। मैंने अनुनय-विनय की ‘बेकार में दुबारा कश्ट न करें। मैं बाहर
खड़ा हो जाता हूँ। आप भीतर आ जाइये, देखिये आप भीग रहे हैं, जुकाम हो जायेगा। उधर से आवाज
आई-बिल्कुल ही नंगा है क्या? यार तुझे मौत से भी डर नहीं लगता?’ वह फिर बुदबुदाया। मैं बोला-जो
भी हूँ, जैसा भी हूँ, अपनी आँख से देख जाइये। रही मौत की बात तो लाषों को मौत और क्या मारेगी?
‘लाषों को .....। वह चैंका, उसकी आँख में चमक आई सहृदयता की, मैंने देखा उसके हाथ की
पकड़ क्रमषः ढीली पड़ती जा रही थी। उसने अपना हाथ बाहर खींचा, चाकू को समेटा और बोला, ‘अच्छा
तो खोलिये।’
मनंै े देखा कि बगल वाले कमरे मे ं मेरी रुग्ण पत्नी नीदं की गोली खाकर खर्राट े खीचं रही थी।
‘बरे ोजगारी रागे ’ स े ग्रसित मेरे दोना ंे बेटे ‘नाकै री की तलाष’ की थकान उतार रहे थे। टटू ी खाट पर
‘लख्े ाकीय पीडा़ ’ दहेज के इन्तजार मे ं बुढिय़ ाती मेरी बेटी रुखी-सख्ू ाी रोटी के सपने बुन रही थी। मंनै े धीरे
से उसके लिए दरवाजा उड़काया और घर की सारी बत्तियाँ बुझाकर बाहर का दरवाजा खोल दिया। बारिष
थम चुकी थी। चोर जी अपन े कपड े़ निचोड ़ रहे थ।े मनंै े धीरे से कहा-‘आ जाइये।’
‘हम चार हैं!’ चोर बोला।
‘उन्हे ं भी बुला लीजिय े वे भी चाय पी लगें े।’
उसने एक हल्की-सी सीटी मुँह से बजाई। बगल के बगं ले की हेज के किनारे सटी बठै ी तीन मूतिर्य ाँ
अध्ं ोरे मे ं उभरी। कछु चलकर ठिठक कर खडी़ हो गर्इ  थी।ं चोर जी न े निदषर््े ा भरे स्वर मे ं आदेष दिया-‘अरे
आ जा। अपना आदमी ह।ै ’ मनंै े देखा कि सभी गहरे काले रगं के कपडे़ पहने थे सा े अध्ं ोरे म ंे सिर्फ  छाया मात्र
नजर आते थे। वे मेर े पीछे-पीछे ही कमरे मे ं आये। आते ही एक चोर जी ने सीटी बजाई आरै बडे ़ लापरवाह
ढगं से कर्सु ी पर पसरत े हुए बोला-‘कोर्इ  सोफा भी नही,ं कलू र भी नही ं तो फ्रिज भी नही ं होगा?’ मंनै े पछू ा-
‘क्या बहुत प्यास लगी ह?ै अभी पानी लाता हँू। चाय पीकर जाइये। हा,ँ फ्रिज वगरै ह तो नही ं ह।ै मं ै कबीर
पंथी लेखक हूँ न!’
‘क्या मतलब?’
‘मरे े पड ़ दादा कबीरदास जी जुलाहे थे, झीनी-बीनी चदरिया बनु ा करते थे। कुछ लिखते पढ़ते भी
थ,े उनक े चचाजात भाई सरू दास जी गोकुलनाथ जी के मंि दर म ें भजन गाया करते थे। मंि दर की भाजे न-
प्रसादी स े ही काम चल जाया करता था, उनक े ही चचाजात भाई तुलसीदास जी थे, असी घाट पर कथा
बाचँ ा करते थे वे भी हिन्दी मे ं कुछ लिखा-पढा़ करते थ।े उन्ही ं अकिचं नो ं की विरासत मे ं ह,ँू बस पेट के स्तर
( 2 )
पर झीनी-बीनी चदरिया बुनता हूँ।’
‘क्या आपके सार े हिन्दी के लख्े ाक, कवि, साहित्यकार, कबीरपथ्ं ाी होते ह?ंै ’ चोर जी क े चेहर े पर
जिज्ञासा झाँक रही थी। हा,ँ जलु ाहा,ंे कीर्ति नया,ंे कथावाचका ंे की भाशा ह ै न यह इसलिए इसका सवे क-‘झीनी-बीनी
चदरिया’ ही बुनता है।’
‘हाँ, कुछ इक्के-दुक्के हिन्दी लेखक मिल जायेगं े एयर कन्डीषनरो ं आरै कलू रो ं मे ं लटे े हुए मिलगें े,
उन्हे ं जात बाहर कर दिया ह ै क्योंकि वे पँजू ीपतियो ं के दलाल या सत्ता प्िर तश्ठान के भोपं ू बन गय े ह।ंै ’ मं ै देख
रहा था कि चोर जी क े चेहर े पर करुणा का सागर उमड ़ रहा था, इसी बीच पहले वाले चोर जी स्वस्थ हो
चल े थे आरै वार्तालाप की रा ै म ें ढल चले थ।े वे बोले, ‘अरे हाँ, आप कह रहे थे कि लाषो ं का े मातै क्या
डरायेगी सो म ंै अभी तक आपकी बात को लेकर उलझ रहा हँ।ू ’
‘अरे इसम ंे उलझने की क्या बात ह?ै म ंै बोला। क्या आपने टी.वी. मे ं कबीरदास की सीरियल नहीं
देखी? यो ं एक गाना परू ी सीरियल पर छाया रहता ह,ै ‘साधो ये मुर्दा ें का गाँव’ आरै आज सार े राश्ट ª के
वायुमडं ल मे ं यही गाना गँूज रहा ह।ै यहाँ जिन्दा कानै ह?ै यहाँ जाग कानै रहा ह?ै जिन्दा लाषा ें की भीड़
का े ही तो महानगर कहते ह?ंै क्या वो वास्तव मे ं जिन्दा ह?ंै सिर्फ अपना बोझा ढा े रहे ह,ंै बेवजह। धर्म आरै
आतकं के नाम पर बेगनु ाह आरै ता ें आरै बच्चा ंे का कत्ल किया जाय आरै देष प्रतिक्रियाविहीन रह जाय, मातै
सिर्फ एक खबर-तो क्या इसे जिन्दा लाषा ें का अजायबघर नही ं कहोगे?’ अन्दर स े कराहती पत्नी ने
टाके ा-‘अरे अभी तक जाग रह े हो, बीमार पड ़ जाओग?े किससे बाते ं कर रहे हो?’
मनंै े धीमे से कहा, ‘तुम सो जाओ, कुछ मिलने वाले आय े ह।ंै चोर जी ने मुझे फिर उकसाया-हाँ,
अकं ल जी आप कछु कह रहे थे!’
चारे जी के अकं ल सम्बाध्े ान न े मुझे चाकंै ाया। मनंै े पछू ा-‘क्या तुम कुछ पढे़ लिखे हो?’
‘जी हाँ, बी.ए. तक।’ और उसने सर झुका लिया।
‘तो हालत यहाँ तक पहुँच गई कि जिन पढे़-लिखे लागो ं को राश्ट्र क े निमाणर्् ा म ें हाथ बँटाना ह,ै वो
रात का अध्ं ोरा होते ही दराजो ं से दूसरे घरो ं म ंे झाँक रहे ह?ंै इसलिए तो कह रहा था-लाषो ं को मातै का
डर नही ं लगता। हाँ, बरु ा न मानो तो एक बात कहँू?’
चारो ं चोरा ें की दृि श्टयाँ मुझ पर केि न्द्रत हो गई।
‘जब चोरी, नकबजनी, लटू मार, हत्या, बलात्कार की सुविधा दिन-दहाडे ़ उपलब्ध ह,ै तो अपनी नींद
क्या ंे हराम करते हो?’
पहले वाल े चोर जी बोले ‘क्या मतलब’?
‘अरे भाई अरबो ं रुपयो ं का ‘काला धन’ राश्ट्रीय चारे ो ं की तिजोरी म ंे ही तो ह,ै जिन्होनं े दिन-दहाडे़
देष को लूटा है। “ाब्दकोश के सारे निकृश्ट “ाब्द चोर-उचक्के, करवंचक, भ्रश्ट, तस्कर, मुनाफाखोर,
रिष्वतखारे , बेईमान, लुच्चे-लफगं े, देषद्रोही, कफन खसाटै , बुर्दाफराषर््े ा, कच्चे मासँ के व्यापारी, भागे ी-विलासी
इनके कुकत्ृ यो ं के सामने बानै े पड ़ गये ह।ंै ये वा े ईमानदार ह ंै जिनकी भव्य अट्टालिकाय ंे विषालकाय कोठियाँ,
बह ु मंि जले बगं ले, इनके ही चरित्र प्रमाण-पत्र ह ंै कि इन्हानें े कितनी इर्म ानदारी से इस गरीब देष की सेवा
की है। ‘व्यक्ति विषेश’ ‘करोड़पति’, से अरबपति बन गया और सरकार दिवालिया हो गई। देष विष्व बाजार
म ें भीख माँग रहा ह ै आरै इन ‘देषभक्तो’ं , ईमानदारा ें का पसै ा-विदेषी बकंै ा ंे मे ं राश्टीª य अपमान का ‘विशपान’
कर रहा ह,ै बोलो साधो-‘ह ै न यह मुर्दो ं का गाँव? अब भामाषाह कहाँ ढढँू ा़ ेगे? तुम भी कोई ‘ईमानदार’ ढूँढ
लेते यार, कहाँ चोरी-चकारी के चक्कर में जवानी बर्बाद करते हो।’
एक चोर जी ने जिन्हानें े मुझे अकं ल जी कहा था, बोले-‘सर हर ईमानदार आदमी नाकै री तो देता
नहीं, बस एक ही काम बताता है-यह अटेची दिल्ली पहुँचा दो या यह थैला बम्बई। सर पैसा मुँह माँगा देने
का े तयै ार ह ंै पर मरने के बाद वारिसा ें को। सर म ंै जीना चाहता हँू।’ उसने जिस दर्द क े साथ अपनी बात
कही थी, उसकी टीस मनंै े भी अनुभव की थी, मनंै े उसका मन हल्का करन े के लिये कहा-‘तुम ठीक कहते
( 3 )
हा े बेटे। पाँच साल से मेर े दोनो ं बटे े बेरोजगारी के रोग से पीडित़ ह।ंै ये भी सोने के पहल े ‘मेन्ड्रेक’ की टेबलेट
खाने के पहले अपनी माँ से यही कह कर सो जात े ह ंै कि ‘‘हम जीना चाहत े ह,ंै कोर्इ  जीने तो द’े ’। यह
पीडा़ बारह कराडे ़ गेज्र ुएटो ं की ह,ै इसलिए सीने पर पबै न्द लगाकर जी रहा हँ।ू ’
अब चारा ें चोरो ं के कपडे़ सख्ू ा चले थ।े मुझ े लगा कि मन से भी अब हल्के हा े चले ह।ंै मंनै े चटु की
लेते हुए कहा, ‘हाँ यार एक बात तो बताओ’ इस गरीबखान े पर आप लागे ो ं की इनायत क्यो ं कर हुई?’ एक
चारे बोला-‘वह सर’ रद्दीवाला ह ै न, जिसको कल आपन े रद्दी बेची थी, उसी ने कहा था-माल भरा पड़ा ह।ै ’
‘माल!’ म ंै चाकंै ा-‘अरे भाई, वो मेरे जीवन भर की जा े अस्वीकृत, अप्रकाषित रचनाये ं थी,ं कल उस े ही बचे कर
सब्जी खरीदी थी। माल के नाम पर तो बक्सो ं मे ं किताबे ं भरी पडी़ ह ंै उन्ह ंे भी किसी को दान म ें भी देना चाहूँ
ता े कोर्इ  लेने वाला नही ं मिलता। सरस्वती की तिजारत तो बर्इे मानी ह ै इसलिए किताबा ंे को बक्सा ें में आरै
कपडा़ े ं को हगें र पर टाँग कर जी रहा ह।ँू तुम चाहा े तो ले जाओ लेकिन पढऩ े के बाद बेकार हा े जाआगे ।े
ख्याली पुलावो ं से पेट नही ं भरा करता। हाँ, तमु से मिलकर बडी़ खुषी हुई। दुःख ह ै तो सिर्फ इसी बात का
ह ै कि आने वाली पीढी़ इस देष क े बारे मे ं क्या साचे ेगी? तिलक आरै गाँधी ने जा े बीज बोये थे, मेरी पीढ़ी
ने उससे आजादी की फसल काटी, लेकिन बाद के राजनेताओ ं न े न जाने क्या बोया था, जिसक े विश-बीज
तुम्हारी पीढी़ काट रही ह।ै जब गावँ ो ं के बच्चे स्कलू की इमारत के लिए तरस रहे थ,े प्राइमरी स्कूला ें की
छत की पट्टियो ं के मलब े मे ं बच्चे कराह रहे थे, अस्पतालो ं की दीवारे ं ढह रही थी ं आरै मरीज दम तोड़ रहे
थ े तब य े देष के ये ‘ईमानदार’ (काले धन के स्वामी) अपन े बाथरूम मे ं इटली की टाइल्स, छत पर टागँ ने
के लिए बेि ल्जयम के झाड ़ फानूस आरै फर्ष  पर मकराने का सगं मरमर जुडव़ ाने म ें व्यस्त थे। एक वो थे
जिन्होनं े देष के भविश्य के लिए अपने वर्तमान को न्याछै ावर कर दिया था आरै तुम्हारी पीढी़ ने अपन े ही
वतर्म ान को सँवारने के लिए देष के भविश्य को ही दाँव पर लगा दिया। तभी तो तमु जसै े नवयवु क चारे ी,
तस्करी, अपहरण, हत्या के रास्ते पर भटक रहे ह।ंै अच्छा अब चलो, बहुत दरे हो गई ह।ै म ंै उठ खड़ा हअु ा।
मेरे साथ चारा ंे उठ खडे़ हुए। म ंै जब बाहर उन्हे ं पहुँचाने चला तो एक चोर जी! सारे प्रकरण मे ं गर्दन नीचे
किये था, उठा आरै चलने क े पहल े पाँव छनू े के लिए झुका। मनंै े उसे बीच म ंे ही थाम लिया आरै रोषनी में
जब उसका चेहरा देखा तो सहसा मरे े मुहँ से निकल गया-‘माधो! तुम भी?’ वह रा े पडा़ आरै बोला ‘सर
पिछले तीन साल से फैक्टरी वालों ने निकाल दिया है, कई जगह नौकरी ढूँढी, मिली नहीं, वह सुबुक पड़ा।
सिर्फ इतना ही कह सका-‘कल आ जाना, अपनी जमानत दँूगा तुम्हारे साथ म ंै भी गिड़ि गडा़ ऊँगा। किसी को
ता े दया आ ही जायेगी! जब वे चारो ं चोर निकले तो बाहर पुलिस वाला सीटी बजा रहा था। उन चोरा ें ने
उस सिपाही से हाथ मिलाया और अंधकार में खो गये।
डॉ. औंकार नाथ चतुर्वेदी,
प्रणव 130@4, षिवाजी लेन,
सिविल लाईन्स, स्टेषन रोड़, कोटा
व्यंग्य इतवार की तलाष में .....
डॉ. औंकारनाथ चतुर्वेदी
राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत रचना ‘कबीरा आप ठगाइये’ के आत्मकथ्य में मैंने जो
लिखा था, वो ही कथन मेरे सम्पूर्ण व्यंग्य लेखन का प्राक्कथन है, जिसके साथ मैं विगत चार दषकों से
लेखन के साथ जिया हूँ। ‘‘हम सभी ‘वक्त की अदालत के चष्मदीद गवाह हैं’’-तू कहता है पोथिन लेखी,
मैं कहता हूँ आँखिन देखी। ‘आँखिन देखी’ प्रमाणिकता के स्तर पर अधिक आष्वस्त करती है, इसीलिये
प्रवहमान कालखण्ड के जिस क्षण ने तिलमिलाकर रख दिया, उसके नष्तर की पैनी चुभन अन्दर तक पैठ
गयी और भीतर ही भीतर रसपान करती रही। किसी अवसर ने भावनाओं को उद्दीप्त किया, लेखनी चल पड़ी,
व्यंग्य ढ़ल गया, भाव-भाशा के लालित्य से सँवर गया, अनायास मेरे लिये और आपके लिये।
एक अहसास सा सदैव बना रहता है, अपने मन में कि हम वक्त के मात्र साझीदार और ताबेदार ही
नहीं हैं, वरन् उसके साथ हमारे मानवीय दायित्व भी हैं-संवेदना को सहेजने के, उसको बाँटने के और सही
समय पर सही रूप में अभिव्यक्त करने के। जो मुझे चुभ रहा है, वह किसी और को भी (पाठक को) बड़ी
षिद्दत के साथ चुभ रहा होगा। उसकी हल्की सी चुभन का एहसास आपको भी हुआ होगा। जब श्रेश्ठता,
उत्कृश्टता का पारा सामाजिक धरातल के पैंदे को छूने लगता है तो चैंकने और चैंकाने का अवसर आता
है और अचानक मुँह से निकल पड़ता है-यह सब क्या हो रहा है भाई! क्या हम सभी भूकम्प प्रभावित क्षेत्र
से गुजर रहे हैं? सब कुछ गड्ड-मड्ड सा हो चला है। इस अवसर को “ाब्दों में पिरोने के प्रयास को ‘सामयिक
प्रतिक्रिया’ कहकर टालना ‘षतुरमुर्गी चिन्तन’ ही कहलायेगा, जो षिकारियों द्वारा पैदा किये जा रहे अन्धड़
से बेखबर और बचने के लिये सिर्फ रेत में अपनी गर्दन घुसेड़ लेने में ही अपनी सुरक्षा का अनुभव कर रहा
है। पर कब तक! कितनी देर तक!!
साध्य और साधन के अन्तराल में जो अनैतिकता के बबूल के काँटों की राड़ (बाड़ी) उग आई है,
उसे कौन सँवारेगा? यह एक यक्ष प्रष्न अब भी मंडरा रहा है।
प्रस्तुत रचना के सम्बन्ध में-जब षिद्दत भरी चुभन, पहलू में पड़े-पड़े कई दिनों तक संवेदनाओं का
रसपान करती रहती है, विसंगतियाँ कचोटती रहती हैं, बादल घुमड़ते रहते हैं और जब प्रचुर भावानुभूति
संग्रहित हो जाती है, तो अवसर पाकर भावाभिव्यक्ति के बादल घुमड़ते ही नहीं, कभी-कभी बरस भी जाते
हैं। छिटपुट वर्शा तो बीच में ही बिखर जाती है-रचना बेजान रह जाती है। कभी-कभी तो मेरे “ाब्दों की
बारात का ‘दूल्हा’ “ाीर्शक मुस्करा पड़ता है, तो मुझे भी लगता है-यह स्वयंवर सार्थक ही रहा ह ै “ाायद! मनंै े
यही सोचकर लिखा है।
मेरी यह रचना व्यंग्य विधा की वंषधरी रचना है। कुछ रचनायें तो जल्दी ही बुढ़िया जाती हैं।
अप्रसांगिक हो जाती हैं, चर्चा से बाहर हो जाती हैं, जल्दी भुला दी जाती हैं। कुछ रचनायें सदाबहार, अक्षय
यौवन सम्पन्न होती हैं। जिन पर वक्त की धूल जमकर, बिखरती रहती है और “ाीर्शक दमक-दमक कर
चैंकाता रहता हैं। वह तब भी नयी थी, आज भी नयी है। क्योंकि इसमें छेड़े गये प्रसंग सदाबहार हैं। जिन्हें
पाठक ने भी आत्मसात किया है। लेखक के साथ पाठक को भी कुछ सोचने को, गुदगुदाने को, जो खो गया
है, उस अतीत को खोजने को, दुहराने का अवसर देती है। ऐसी ही एक रचना है-‘‘इतवार की तलाष में’’
जो अपने प्रकाषन और प्रसारण के बाद नाटकीय रूपान्तरण के साथ मंचन द्वारा बहुचर्चित रही है। मेरे आठ
संकलनों में प्रकाषित व्यंग्य साहित्य इस रचना के बाद के हैं। आज भी सभा गोश्ठियों में हम लोग मिलते
हैं-साहित्यिक मित्र याद दिलाते हैं, यार! वास्तव में ‘‘इतवार की तलाष में’’ भटक रहे हैं। इस रचना का
केनवास मेरा है, पर रंग आपने भरे हैं। इस रचना में हर पाठक के कुछ खो जाने की पीड़ा है। आज
अल्पविकसित-विकसित महानगरों में अल्प अथवा प्रचुर लोकप्रियता की त्रासदी भोग रहे, हर पाठक का चित्र
है यह रचना। अब यह रचना मेरी ही कृति का “ाीर्शक बन गई है। इतवार की तलाष में ......... अब आपका
ही चित्र आपको सादर समर्पित।
डॉ. औंकार नाथ चतुर्वेदी,
प्रणव 130@4, षिवाजी लेन,
सिविल लाईन्स, स्टेषन रोड़, कोटा

गुरुवार, 11 जुलाई 2013

क्षमा चतुर्वेदी


क्षमा चतुर्वेदी

क्षमा चतुर्वेदी को साहित्यिक सेवाओं के लिए राजस्थान साहित्य अकादमी ने दिनांक 23 जून को 51 हजार का विशिष्ट पुरस्कार प्रदान किया।
डॉ  क्षमा चतुर्वेदी के आठ कहानी संग्रह, दो उपन्यास तथा बीस बाल कहानियों के संग्रह प्रकाशित हो चुके है।

प्रकाशित कहानी संग्रह हैं-

सूरज डूबने से पहले’  1981
‘एक और आकाश’, ;1987
मुट्ठी भर धूप’, ;1995
‘चुनौती’;1996
‘अपनी ही जमीन पर’;2001
‘अनाम रिश्ते’;2004
स्वयं सिद्धा ;2009
ख्वाइशें ;2011
तथा दो उपन्यास ‘अपराजिता’ ;2000 एवं ‘छाया मत छूना मन’ ;2002 में प्रकाशित हुए।

गत चालीस वर्षों से भारत की सभी पत्र- पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन।

भारतेन्दु समिति कोटा, अखिल भारतीय सांस्कृतिक जनवादी मोर्चा ‘विकल्प’ से ‘प्रेमचंद साहित्य सम्मान ।

राजस्थान साहित्यअकादमी ;उदयपुर द्वारा वर्ष 2012 के लिए साहित्य सम्मान ;51000 की राशि से पुरस्कृत।

बारह कथा संग्रह प्रकाशितः-  ‘खरगोश के सींग’, ‘गधे की अक्ल’, ‘मुनमुन के पटाखे’, ‘जंगल में मंगल’, ‘समय का मूल्य’ ‘म्याऊं की खीर’, ‘टिंकू का स्कूल’, ‘चुपके-चुपके, खेल-खेल में, ‘बया की दावत’, ‘खोमचे वाला’, ‘बड़ा कौन’

क्षमा के कथा साहित्य पर एक लघु प्रबन्ध , तथा दो एम. फिल  प्रबन्ध तथा एक शोध प्रबन्ध कोटा विश्वविद्यालय स्वीकृत।   

क्षमा चतुर्वेदी ने अपने लेखन के बारे में कहा है-

अपनी बात

आजकल की भाषा में स्त्री विमर्श एक लोकप्रिय विषय हो गया है। दरअसल इसके पीछे स्त्री के सुख-दुख, उसकी आत्मनिर्भरता और उसके अस्तित्व के बुनियादी सवाल नहीं है, वरन किस प्रकार वह अमेरिकन या यूरोपियन औरत की भांति एक उत्तेजक सैक्स सिम्बल बन सकती है इसकी अधिक चर्चा है।

स्त्री को किस प्रकार उसकी निजी शक्सियत, उसके मातृत्व, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि और उसकी सांस्कृतिक गरिमा से छीनकर एक बिकाऊ कमोडिटी में बदल दिया जाय इसकी अधिक चिंता है। देखते ही देखते गत बीस वर्षों में साहित्य का परिदृश्य बदल सा गया है, प्रगतिशील संपादक और स्त्री लेखन से जुड़े साहित्यकारों ने स्त्री को उसकी देह तक ही सीमित कर दिया है।

‘नारी विमर्श’ को लेकर जो महिला कथाकार या कहानियां चर्चित होने लगी हैं, उनकी पहली विशेषता यही हो गई है कि किस प्रकार कहानी में स्त्री देह अपने तन-मन के गोपन रहस्यों को पुरूष पाठकों के लिए किस सीमा तक अनावतृत करती चली जाती है। आज भारत की सामान्य औरत की समस्या औरत के भीतर औरत होने की समस्या है। वह अपने स्त्री होने की दैहिक और मानसिक कमजोरियों को समझकर उससे बाहर निकलने की अनवरत जिजीविषा में संलग्न है। यहां औरत की मुक्ति उसकी देह में ढलकर एक बिकाऊ कमोडिटी बनकर अधिक से अधिक अनावृत होते जाने में नहीं है।

भारतीय परिदृश्य में हजार वर्ष पहले भी स्त्री सामान्य सुविधाओं को पाने के लिए अपनी देह को बेचती आ रही है। परन्तु तब उसकी देह का उतना महिमामंडन नहीं था, आज फिल्म जगत हो या छोटे पर्दे का टेलीविजन या इंटरनेट हो, नारी विमर्श के लिए जिस स्त्री देह को परोसा जा रहा है, वह उसका सम्मान नहीं है। लगता है जैसे कि पैसा कमाना ही जीवन का सबसे बड़ा मूल्य बन गया है।
महिला जगत की अपनी समस्याएं हैं, चाहे निरक्षर खेतीहर मजदूर स्त्री की समस्या हो या कामकाजी महिला, या फिर स्कूल जाती छोटी लड़की हो या वृ( महिला, एक पूरी औरत को उसके दैहिक, मानसिक और सामाजिक परिदृश्य में लिखने वाली महिला कथाकारों की संख्या बहुत बढ़ी है, वे इन समस्याओं से जूझती हैं और लिख रहीं हैं। महिलाओं की बेशुमार समस्याएं हैं और इन महिलाओं के लिए मात्र दैहिक स्वतंत्रता ही एक बहुत बड़ी समस्या नहीं है।

जबकि मूल समस्या है स्त्री को अपने अस्तित्व की, अपनी चेतना के परिष्कार की और अपनी जागृति की, औरत को अपनी कमजोरियों पर विजय पानी है और अपनी स्वयं की पहचान बनानी है, पर यह पहचान मात्र उसकी दैहिक स्वतंत्रता तक ही नहीं है। यह हमला एक सोची, समझी साजिश की भांति हुआ है जहां हमारे नारीवादी संगठन अचानक बाजारवादी ताकतों के दबाव में आकर स्त्री को मात्र एक सैक्स सिंबल की भांति रह जाने के लिए अपनी सहमति देते नजर आ रहे हैं। बीस वर्ष पूर्व फैशन शब्द आधुनिकता का प्रतीक बनकर आया था। आज फैशन शब्द नग्नता या यौनिकता का प्रतीक बन गया है और यह स्त्री विमर्श का हिस्सा नहीं है, यह तो स्त्री को उसके अस्तित्व से, उसकी अस्मिता से नकारते हुए उसे बाजार की एक कमोडिटी बनाने की गलत कोशिश है।

यह सत्य है कि समाज में स्त्री को लेकर जो परिवर्तन हुए हैं वे एक विकासधारा के अनुसार ही हुए हैं किसी नारी आंदोलन ने इस धारा को प्रभावित नहीं किया। साड़ी से शलवार कुर्ते तक कि यात्रा आवश्यकतानुसार पैदा हुई। यह यात्रा परंपरा से आधुनिक जीवन से जुड़ने की एक कोशिश थी जो अपने समय की गति से पैदा हुई थी, यह सही है कि तब समाज के बदलने की गति बहुत धीमी थी। स्त्री की मानसिकता में परिवर्तन बहुत धीमी गति से होता है।

आज की दुनियां में भी जहां टी.वी. पर आधुनिक टैक्नोलॉजी फैशन और नई औरत की सूचना मिलती है, वहीं ज्योतिषियों, तांत्रिकों और बाबाओं की भीड़ भी नजर आती है। समाज में परिवर्तन इन्हीं कारणों से कठिन संघर्ष के बाद धीमी गति से होता है। पहले मानसिकता में परिवर्तन आता है, फिर व्यवहार में।

 मैंने अपने जीवन में और साहित्य में इस परिवर्तन को महसूस किया और कहानियाँ तथा उपन्यासों में इस परिवर्तन को अभिव्यक्ति देने का प्रयास भी किया है। इसी कारण मेरा अधिकांश कथा लेखन स्त्री की स्त्री होने की पहचान, उसकी अस्मिता तथा स्वाभिमान से जुडा़ है। परन्तु जिस रूप में स्त्री विमर्श को ध्वनित किया जा रहा है, मेरा रचना कर्म उससे कहीं बाहर रहकर स्त्री की सार्थक भूमिका तलाश करने में सृजनरत है।

मैं जिस रूप में आज नारी विमर्श की चर्चा होती है उस रूप में स्त्री को संवेदित करने में विश्वास नहीं करती, स्त्री विमर्श मात्र सैक्स फ्रीडम नहीं है, इस रूप में मैं वैज्ञानिक बोध और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से सन्निहित उस स्त्री के पक्ष में अपने-आपको खड़ा पाती हूं जो अपनी अस्मिता और विवेक के आधार पर अपनी राह चुन सकती हो जो पुरूष के मिथ्या अहंकार का विरोध, थोपी गई स्वामित्व की भावना का विरोध और झूठी अहमियता का विरोध करने का साहस जुटा सकती है। इसीलिए मैं स्त्री की सकारात्मक अस्मिता की पक्षधर रही हूं।
ख्वाइशें संग्रह की सभी कहानियाँ देश की विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। उनके बारे में सहृदय पाठक ही अधिक जानते हैं। पूर्व में मेरे सात कहानी संग्रह तथा दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं, उसी क्रम में यह संग्रह भी प्रस्तुत है। आशा है, बदलते हुए सामाजिक परिप्रेक्ष्य में स्त्री के सामने जो चुनौतियाँ उपस्थित हुई हैं, उनसे रूबरू कराने में ये कहानियाँ सार्थक रहेंगी।

ख्वाहिशें
        यहॉं क्षमा जी की कहानी दी जारही है-
हां, मैं पीपल का एक बूढ़ा हो चुका पेड़ ही हूं। आज जब में अपने बचपन की याद करने चला हूं तो यही याद आता है कि जब छोटा-सा पौधा था तो घर के अंदर आंगन मेें ही था। कैसे उग आया याद नहीं, पर इसी आंगन में मेरे पास अमरूद और नींबू के पौधे भी थे, और घर की अम्माजी उन पौधों के साथ ही साथ मुझे भी प्यार से निहारतीं, सहलातीं, पानी देकर सींचती थीं। तब तो इस घर में बड़ा-सा परिवार हुआ करता था, अम्माजी के चार बेटे, बहुएं, बच्चे, दादाजी, वैसे इस घर में तो बड़े बेटे के परिवार के साथ अम्मा और दादाजी रहते थे, पर बाकी तीनों बेटों के परिवार भी अक्सर यहीं जमे रहते, यहीं बच्चों के जन्मदिन तीजत्यौहार, शादीब्याह सब होते तो खूब रौनक रहती।
फिर अमरूद और नींबू के पेड़ बड़े हुए तो उनमें फल आने लगे थे, बच्चे कच्चे-पके अमरूदों पर झूमा करते, तोड़ते, गिराते, यहीं कच्चे आंगन में रात को सबकी खाटें बिछतीं, खूब हंसी मजाक ओर बातचीत से घर  गुलजार रहता। फिर शाम को इसी आंगन में खाना बनता, बड़ी-सी पत्थर के कोयले की अंगीठी सुलगाई जाती, बारी-बारी से अम्माजी की बहुएं खाना बनाती और हंसी मजाक ठिठोली चलती रहती थी।
भरा-पूरा घर कितना सुखदायी होता है, मैं भी सोचने लगता था...
बड़ा तो अब मैं भी होने लगा था, फिर पता नहीं किसने दादाजी से कह दिया कि अंदर घर में पीपल का पेड़ शुभ नहीं होता है तो दादाजी नहीं माने तो मुझे अंदर से उखाड़कर बाहर के अहाते में लगा दिया गया। मुझे तो रोना आ रहा था कि मुझे क्यों घर से बाहर निकाल दिया गया, मेरे दोस्त अमरूद और नींबू के पेड़ भी मुझसे बिछुड़ गए थे, जिनसे मैं रातदिन बतियाता रहता था।
पर अम्माजी अभी भी मुझे बहुत प्यार करती थीं। मेरे आसपास उन्होंने मिट्टी का एक छोटा-सा चबूतरा लीप दिया था, पूजा करके आती तो मुझे भी जल चढ़ातीं। रात को एक जलता दिया भी मेरे पास रख जातीं, मैं सोचता कि पूरे घर में बस एक अम्माजी ही तो हैं, जो मुझेे बेटे की तरह प्यार करती हैं।
इसके बाद तो मैंने जाने कितने वसंत और पतझड़ देखे, धीरे-धीरे ये संयुक्त परिवार भी तो बिखरने लगा था, अम्माजी रही नहीं, दादाजी छोटे बेटे के पास चले गए, वहीं फिर उन का निधन हो गया। बेटे भी अलग-अलग घर बसा चुके थे। यहां रह गया था बड़े भाईसाहब का परिवार। मैं धीरे-धीरे और बड़ा होता जा रहा था। भाईसाहब ने अब मेरे चारों तरफ पक्का चबूतरा भी बनवा दिया था, आस पड़ौस की औरतें भी कभी-कभार व्रत त्योहार पर आतीं, मुझे जल चढ़ाकर पता नहीं क्या-क्या मन्नातें मांगतीं, पुए-पुड़ी का भोग लगातीं।
फिर धीरे-धीरे बड़े भाईसाहब के परिवार में से भी उनके बेटे का परिवार बचा था, उनकी तीन बेटियां और एक भाई... पर मुझे ये तीनों बेटियां बहुत प्यार करतीं... ये यहीं तो पली बढ़ी थीं... तीनों बड़की, मझली और छोटी मुझ से ही चिपटी रहती थीं... करीब-करीब इनका पूरा दिन ही मेरे इर्द-गिर्द गुजरता... यहीं बैठकर पढ़तीं, नाश्ता करतीं, गुड़िया खेलतीं... और मेरी डालियों पर झूला झूलतीं...
वैसे भाई छोटू भी यदा-कदा मेरे आस-पास बॉल और गिल्ली डंडा खेलता था, परर उससे तो मेरे तने पर चोट ही पहुंचती थी, पर बेटियां जब आतीं तो सटकर मेरे पास बैठ जातीं, बतियातीं, गातीं, हंसती और मैं भी झूम-झूमकर उनकी बचकानी बातें सुनता रहता था। मुझे ये तीनों अपनी बेटियों-सी ही लगतीं।
इन के इम्तहान आते तो दौड़कर आतीं-
‘पीपल बाबा, हमें आशीर्वाद दो, हमारा पर्चा बढ़िया हो...।’ बड़की हाथ जोड़कर कहती।
उधर मझली किसी प्रतियोगिता में जीत की कामना करती हुई खड़ी रहती।
मैं डालियां झुकाकर आशीर्वाद की मुद्रा में आ जाता।
फिर ये तीनों बेटियां धीरे-धीरे बड़ी होने लगी थीं। बड़की के तो रिश्ते की बात चलने लगी थी, पर कहीं विवाह सम्बन्ध तय नहीं हो पा रहा था। कहीं जन्मपत्री नहीं मिलती तो कहीं दहेज की समस्या आड़े आ जाती। माता-पिता परेशान थे। उधर मैंने क्या देखा कि मझली चुपचाप किसी से प्रेम करने लगी थी, था तो पड़ौस का ही कोई युवक विनय। देखने में सुंदर, सजीला, जवान। आता तो मझली के साथ यहीं एकांत देखकर चबूतरे पर बैठ जाता, दोनों देर तक प्रेम की बातें करते रहते। मैं सुनता पर सोचता कि मझली का घरवालों से छिपकर प्रेम करना उचित है क्या?
और तो और मेरी बेचैनी तब और बढ़ गई जब देखता कि मझली के साथ छुटकी भी अब यहीं विनय के साथ चबूतरे पर बैठने लगी है और तीनों न जाने क्या-क्या बातें करते रहते हैं। यह भांपते भी मुझे देर नहीं लगी थी कि मन ही मन यह छुटकी भी इसी विनय को चाहने लगी है।
हे भगवान इस त्रिकोण का क्या हश्र होगा? मैं समझ नहीं पा रहा था।
इधर बड़की अब कुछ अलग-थलग पड़ गई थी और काफी गंभीर हो चली थी। वह चुपचाप कभी अकेले में आती-
‘बाबा, मेरी शादी कब होगी बताओ?’
उसके बुदबुदाते होठ देखकर मैं चुप रहता, क्या कहता।
इधर मझली अब रात-दिन मेरे पास आकर हाथ जोड़कर खड़ी हो जाती-
‘बाबा, आपने मेरी बहुत-सी इच्छाएं पूरी की हैं, अब जल्दी ही मेरी विनय से शादी करादो। मैं जानती हूं कि इस घर के लोग कभी इस बात के लिए तैयार नहीं होंगे, पर मैं इस दमघोंटू वातावरण से दूर भाग जाना चाहती हूं। आप तो मेरे मन की बात समझ रहे हैं न बाबा...!’
मैं सोचता कि इसे समझाऊं कि बेटी तुम तो इतनी प्रतिभावान हो, पढ़ाई-लिखाई में मन लगाओ, अपना कैरियर बनाओ...। क्यों अभी से शादी की बात सोचने लगी हो? पर मैं मूक वृक्ष, क्या कहता, क्या समझाता और मेरी बात सुनता कौन?
हुआ वही, जिसकी मुझे आशंका थी, मझली ने घरवालों की इच्छा के विरु( उसी विनय से शादी कर ली।
घर का वातावरण अब और बोझिल हो गया था। छुटकी जिद करके बाहर पढ़ने चली गई थी। घर में  रह गए थे, बड़की, छोटू और उनके माता-पिता।
फिर तो उन्होंने जी-तोड़ प्रयास करके बड़की का भी रिश्ता तय कर दिया। अच्छा परिवार मिला बड़की को, अमीर लोग थे। मैंने भी सोचा कि चलो अब यह भी खुश रहेगी।
अब इन बेटियों का मेरे पास आना भी कम हो चला था। पर जब भी आतीं, पहले मेरे पास ही आकर बैठतीं और अक्सर अकेले में अपनी कोई न कोई इच्छा जरूर बतातीं।
अब तो खैर मैं भी बूढ़ा हो चला था, पर इन बेटियों को देखकर मन खुश हो जाता। अभी भी मुझे ये निरी बच्चियां ही लगतीं थीं। बड़की के पास ऐशो-आराम  की कमी नहीं थी। बच्चे भी अब उसके व्यवस्थित हो चले थे, पर अब वह स्वयं बीमार रहने लगी थी और जब भी आती अपनी किसी बीमारी के बारे में ही बातें करती रहती थी।
इधर मझली ने प्रेमविवाह तो कर लिया था, पर पति से अधिक बनती नहीं थी। बच्चे भी कहीं व्यवस्थित नहीं हो पा रहे थे। धन का अभाव था ही। स्वयं का घर तक नहीं बना पाई थी। छुटकी तो अब बाहर कहीं नौकरी कर रही थी तो उसका इधर आना कम ही हो पाता था।
इधर घर में अब तक एक नई चर्चा शुरू होगई थी। छोटू ने यह घर बेचने का फैसला कर लिया था, एक नया फ्लेट लिया था पास की कॉलोनी में, तो उसी के गृह-प्रवेश की चर्चा थी। तीनों बेटियां भी इसीलिए आई हुई थीं। उनकी आपसी चर्चा सुनकर मैं भी सहम गया था। बड़की कह रही थी-
‘भैया यह घर बेच देगा, पर हमारे पीपल बाबा का क्या होगा? वह ठेकेदार तो इसे कटवा देने की बात कर रहा था।’
तब तक मझली बोली-
‘हां, कह तो रहा था कि बड़े-से अहाते के बीच ही उगा है यह बड़ा-सा पीपल, इतनी सारी जमीन घेर रखी है, इसे तो कटवाना ही पड़ेगा।’
‘ओह! हमारे पीपल बाबा...’। छुटकी तो आकर मेरे पास ही बैठ गई थी।
मैं सोच रहा था कि अब बूढ़ा तो हो ही गया हूं, एक न एक दिन इस संसार से विदा जब लेनी ही है तो इस ठेकेदार के हाथ ही सही...। अच्छे-बुरे इतने वर्ष देख चुका हूं इस जिंदगी के...।
उसी शाम बड़की चुपचाप अंधेरे में मेरे चबूतरे पर दिया रखने आई थी-
‘बाबा, अब हम कल नए घर में चले जाएंगे, सदा के लिए यह घर छोड़कर, तो आखिरी आशीर्वाद मुझे और देते जाओ... दादा इस जिंदगी से में तंग आगई हूं। पहला सुख तो निरोगी काया होती है और वही मेरे नसीब में नहीं है। सब कुछ होते हुए भी न अच्छा खा सकी, न जी सकी। सबके ऊपर भार ही बनी रही। मुझसे तो अच्छी छुटकी की जिंदगी रही, अकेली स्वतंत्र, अच्छा स्वास्थ्य, मन माफिक जिंदगी, न कोई दायित्व, न कोई बोझ। खूब घूमो, जो जी चाहे करो, मेरी तो अब यही विनती है कि अगले जन्म में मुझे छुटकी जैसी जिंदगी मिले, उसके जैसा आशीर्वाद दो मुझे।’
मैं चुप था, सोच रहा था कि क्या वास्तव में छुटकी इतनी सुखी है? और सचमुच कुछ देर बाद ही छुटकी आई थी, शायद घर में कोई पूजा हुई थी तो उसका प्रसाद रखने। उसके बुदबुदाते होठ तो कुछ और ही कह रहे थे-
‘बाबा, इस जन्म में तो मैं ताउम्र कुंवारी ही रही, ऐसा क्या पाप किया था मैंने, मुझसे तो अच्छी मझली रही, मन लायक जीवन साथी पा लिया। किसी को अगर चाहा हुआ प्यार मिल जाए तो और क्या चाहिए? चाहा तो मैंने भी विनय को था, पर मेरी किस्मत...!’
मझली का प्यार... मैं घोर असमंजस में था और रात भर इसी बात पर विचार करता रहा। सुबह तड़के ही मझली आकर मेरे चबूतरे पर बैठ गई थी-
‘बाबा, जा रहे हैं हम इस घर से, पर आपको मैं भूल नहीं पाऊंगी, आप ही तो थे जिनसे मनकी हर बात कह देती थी और आप हंसकर हर अच्छी-बुरी मुराद पूरी भी कर देते थे...। बाबा, अब आखिरी बार एक चीज आपसे और मांगती हूं कि अब अगले जन्म में यह गरीबी-सी जिंदगी मुझे मत देना, जहां हर छोटी-बड़ी चीज के लिए मन तरसता रहे, उसी धन की कमी के कारण आज हम इतनी खींचतान में जी रहे हैं, बच्चों को भी ढंग से पढ़ा नहीं सके, न व्यवस्थित कर सके। मुझसे तो अच्छी बड़की रही, मां पापा का कहना माना तो उनका प्यार मिला, आशीर्वाद मिला साथ ही बच्चों का खुशहाल भविष्य भी...। मुझे..., मुझे क्या मिला...?’ सचमुच वह तो सिसक ही पड़ी थी।
और मैं... मैं सोच रहा था उन ख्वाहिशों के बारे में जो पूरी होकर भी कभी पूरी नहीं होती हैं।
-------------