क्षमा चतुर्वेदी
क्षमा चतुर्वेदी को साहित्यिक सेवाओं के लिए राजस्थान साहित्य अकादमी ने दिनांक 23 जून को 51 हजार का विशिष्ट पुरस्कार प्रदान किया।
डॉ क्षमा चतुर्वेदी के आठ कहानी संग्रह, दो उपन्यास तथा बीस बाल कहानियों के संग्रह प्रकाशित हो चुके है।
प्रकाशित कहानी संग्रह हैं-
सूरज डूबने से पहले’ 1981
‘एक और आकाश’, ;1987
मुट्ठी भर धूप’, ;1995
‘चुनौती’;1996
‘अपनी ही जमीन पर’;2001
‘अनाम रिश्ते’;2004
स्वयं सिद्धा ;2009
ख्वाइशें ;2011
तथा दो उपन्यास ‘अपराजिता’ ;2000 एवं ‘छाया मत छूना मन’ ;2002 में प्रकाशित हुए।
गत चालीस वर्षों से भारत की सभी पत्र- पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन।
भारतेन्दु समिति कोटा, अखिल भारतीय सांस्कृतिक जनवादी मोर्चा ‘विकल्प’ से ‘प्रेमचंद साहित्य सम्मान ।
राजस्थान साहित्यअकादमी ;उदयपुर द्वारा वर्ष 2012 के लिए साहित्य सम्मान ;51000 की राशि से पुरस्कृत।
बारह कथा संग्रह प्रकाशितः- ‘खरगोश के सींग’, ‘गधे की अक्ल’, ‘मुनमुन के पटाखे’, ‘जंगल में मंगल’, ‘समय का मूल्य’ ‘म्याऊं की खीर’, ‘टिंकू का स्कूल’, ‘चुपके-चुपके, खेल-खेल में, ‘बया की दावत’, ‘खोमचे वाला’, ‘बड़ा कौन’
क्षमा के कथा साहित्य पर एक लघु प्रबन्ध , तथा दो एम. फिल प्रबन्ध तथा एक शोध प्रबन्ध कोटा विश्वविद्यालय स्वीकृत।
क्षमा चतुर्वेदी ने अपने लेखन के बारे में कहा है-
अपनी बात
आजकल की भाषा में स्त्री विमर्श एक लोकप्रिय विषय हो गया है। दरअसल इसके पीछे स्त्री के सुख-दुख, उसकी आत्मनिर्भरता और उसके अस्तित्व के बुनियादी सवाल नहीं है, वरन किस प्रकार वह अमेरिकन या यूरोपियन औरत की भांति एक उत्तेजक सैक्स सिम्बल बन सकती है इसकी अधिक चर्चा है।
स्त्री को किस प्रकार उसकी निजी शक्सियत, उसके मातृत्व, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि और उसकी सांस्कृतिक गरिमा से छीनकर एक बिकाऊ कमोडिटी में बदल दिया जाय इसकी अधिक चिंता है। देखते ही देखते गत बीस वर्षों में साहित्य का परिदृश्य बदल सा गया है, प्रगतिशील संपादक और स्त्री लेखन से जुड़े साहित्यकारों ने स्त्री को उसकी देह तक ही सीमित कर दिया है।
‘नारी विमर्श’ को लेकर जो महिला कथाकार या कहानियां चर्चित होने लगी हैं, उनकी पहली विशेषता यही हो गई है कि किस प्रकार कहानी में स्त्री देह अपने तन-मन के गोपन रहस्यों को पुरूष पाठकों के लिए किस सीमा तक अनावतृत करती चली जाती है। आज भारत की सामान्य औरत की समस्या औरत के भीतर औरत होने की समस्या है। वह अपने स्त्री होने की दैहिक और मानसिक कमजोरियों को समझकर उससे बाहर निकलने की अनवरत जिजीविषा में संलग्न है। यहां औरत की मुक्ति उसकी देह में ढलकर एक बिकाऊ कमोडिटी बनकर अधिक से अधिक अनावृत होते जाने में नहीं है।
भारतीय परिदृश्य में हजार वर्ष पहले भी स्त्री सामान्य सुविधाओं को पाने के लिए अपनी देह को बेचती आ रही है। परन्तु तब उसकी देह का उतना महिमामंडन नहीं था, आज फिल्म जगत हो या छोटे पर्दे का टेलीविजन या इंटरनेट हो, नारी विमर्श के लिए जिस स्त्री देह को परोसा जा रहा है, वह उसका सम्मान नहीं है। लगता है जैसे कि पैसा कमाना ही जीवन का सबसे बड़ा मूल्य बन गया है।
महिला जगत की अपनी समस्याएं हैं, चाहे निरक्षर खेतीहर मजदूर स्त्री की समस्या हो या कामकाजी महिला, या फिर स्कूल जाती छोटी लड़की हो या वृ( महिला, एक पूरी औरत को उसके दैहिक, मानसिक और सामाजिक परिदृश्य में लिखने वाली महिला कथाकारों की संख्या बहुत बढ़ी है, वे इन समस्याओं से जूझती हैं और लिख रहीं हैं। महिलाओं की बेशुमार समस्याएं हैं और इन महिलाओं के लिए मात्र दैहिक स्वतंत्रता ही एक बहुत बड़ी समस्या नहीं है।
जबकि मूल समस्या है स्त्री को अपने अस्तित्व की, अपनी चेतना के परिष्कार की और अपनी जागृति की, औरत को अपनी कमजोरियों पर विजय पानी है और अपनी स्वयं की पहचान बनानी है, पर यह पहचान मात्र उसकी दैहिक स्वतंत्रता तक ही नहीं है। यह हमला एक सोची, समझी साजिश की भांति हुआ है जहां हमारे नारीवादी संगठन अचानक बाजारवादी ताकतों के दबाव में आकर स्त्री को मात्र एक सैक्स सिंबल की भांति रह जाने के लिए अपनी सहमति देते नजर आ रहे हैं। बीस वर्ष पूर्व फैशन शब्द आधुनिकता का प्रतीक बनकर आया था। आज फैशन शब्द नग्नता या यौनिकता का प्रतीक बन गया है और यह स्त्री विमर्श का हिस्सा नहीं है, यह तो स्त्री को उसके अस्तित्व से, उसकी अस्मिता से नकारते हुए उसे बाजार की एक कमोडिटी बनाने की गलत कोशिश है।
यह सत्य है कि समाज में स्त्री को लेकर जो परिवर्तन हुए हैं वे एक विकासधारा के अनुसार ही हुए हैं किसी नारी आंदोलन ने इस धारा को प्रभावित नहीं किया। साड़ी से शलवार कुर्ते तक कि यात्रा आवश्यकतानुसार पैदा हुई। यह यात्रा परंपरा से आधुनिक जीवन से जुड़ने की एक कोशिश थी जो अपने समय की गति से पैदा हुई थी, यह सही है कि तब समाज के बदलने की गति बहुत धीमी थी। स्त्री की मानसिकता में परिवर्तन बहुत धीमी गति से होता है।
आज की दुनियां में भी जहां टी.वी. पर आधुनिक टैक्नोलॉजी फैशन और नई औरत की सूचना मिलती है, वहीं ज्योतिषियों, तांत्रिकों और बाबाओं की भीड़ भी नजर आती है। समाज में परिवर्तन इन्हीं कारणों से कठिन संघर्ष के बाद धीमी गति से होता है। पहले मानसिकता में परिवर्तन आता है, फिर व्यवहार में।
मैंने अपने जीवन में और साहित्य में इस परिवर्तन को महसूस किया और कहानियाँ तथा उपन्यासों में इस परिवर्तन को अभिव्यक्ति देने का प्रयास भी किया है। इसी कारण मेरा अधिकांश कथा लेखन स्त्री की स्त्री होने की पहचान, उसकी अस्मिता तथा स्वाभिमान से जुडा़ है। परन्तु जिस रूप में स्त्री विमर्श को ध्वनित किया जा रहा है, मेरा रचना कर्म उससे कहीं बाहर रहकर स्त्री की सार्थक भूमिका तलाश करने में सृजनरत है।
मैं जिस रूप में आज नारी विमर्श की चर्चा होती है उस रूप में स्त्री को संवेदित करने में विश्वास नहीं करती, स्त्री विमर्श मात्र सैक्स फ्रीडम नहीं है, इस रूप में मैं वैज्ञानिक बोध और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से सन्निहित उस स्त्री के पक्ष में अपने-आपको खड़ा पाती हूं जो अपनी अस्मिता और विवेक के आधार पर अपनी राह चुन सकती हो जो पुरूष के मिथ्या अहंकार का विरोध, थोपी गई स्वामित्व की भावना का विरोध और झूठी अहमियता का विरोध करने का साहस जुटा सकती है। इसीलिए मैं स्त्री की सकारात्मक अस्मिता की पक्षधर रही हूं।
ख्वाइशें संग्रह की सभी कहानियाँ देश की विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। उनके बारे में सहृदय पाठक ही अधिक जानते हैं। पूर्व में मेरे सात कहानी संग्रह तथा दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं, उसी क्रम में यह संग्रह भी प्रस्तुत है। आशा है, बदलते हुए सामाजिक परिप्रेक्ष्य में स्त्री के सामने जो चुनौतियाँ उपस्थित हुई हैं, उनसे रूबरू कराने में ये कहानियाँ सार्थक रहेंगी।
ख्वाहिशें
यहॉं क्षमा जी की कहानी दी जारही है-
हां, मैं पीपल का एक बूढ़ा हो चुका पेड़ ही हूं। आज जब में अपने बचपन की याद करने चला हूं तो यही याद आता है कि जब छोटा-सा पौधा था तो घर के अंदर आंगन मेें ही था। कैसे उग आया याद नहीं, पर इसी आंगन में मेरे पास अमरूद और नींबू के पौधे भी थे, और घर की अम्माजी उन पौधों के साथ ही साथ मुझे भी प्यार से निहारतीं, सहलातीं, पानी देकर सींचती थीं। तब तो इस घर में बड़ा-सा परिवार हुआ करता था, अम्माजी के चार बेटे, बहुएं, बच्चे, दादाजी, वैसे इस घर में तो बड़े बेटे के परिवार के साथ अम्मा और दादाजी रहते थे, पर बाकी तीनों बेटों के परिवार भी अक्सर यहीं जमे रहते, यहीं बच्चों के जन्मदिन तीजत्यौहार, शादीब्याह सब होते तो खूब रौनक रहती।
फिर अमरूद और नींबू के पेड़ बड़े हुए तो उनमें फल आने लगे थे, बच्चे कच्चे-पके अमरूदों पर झूमा करते, तोड़ते, गिराते, यहीं कच्चे आंगन में रात को सबकी खाटें बिछतीं, खूब हंसी मजाक ओर बातचीत से घर गुलजार रहता। फिर शाम को इसी आंगन में खाना बनता, बड़ी-सी पत्थर के कोयले की अंगीठी सुलगाई जाती, बारी-बारी से अम्माजी की बहुएं खाना बनाती और हंसी मजाक ठिठोली चलती रहती थी।
भरा-पूरा घर कितना सुखदायी होता है, मैं भी सोचने लगता था...
बड़ा तो अब मैं भी होने लगा था, फिर पता नहीं किसने दादाजी से कह दिया कि अंदर घर में पीपल का पेड़ शुभ नहीं होता है तो दादाजी नहीं माने तो मुझे अंदर से उखाड़कर बाहर के अहाते में लगा दिया गया। मुझे तो रोना आ रहा था कि मुझे क्यों घर से बाहर निकाल दिया गया, मेरे दोस्त अमरूद और नींबू के पेड़ भी मुझसे बिछुड़ गए थे, जिनसे मैं रातदिन बतियाता रहता था।
पर अम्माजी अभी भी मुझे बहुत प्यार करती थीं। मेरे आसपास उन्होंने मिट्टी का एक छोटा-सा चबूतरा लीप दिया था, पूजा करके आती तो मुझे भी जल चढ़ातीं। रात को एक जलता दिया भी मेरे पास रख जातीं, मैं सोचता कि पूरे घर में बस एक अम्माजी ही तो हैं, जो मुझेे बेटे की तरह प्यार करती हैं।
इसके बाद तो मैंने जाने कितने वसंत और पतझड़ देखे, धीरे-धीरे ये संयुक्त परिवार भी तो बिखरने लगा था, अम्माजी रही नहीं, दादाजी छोटे बेटे के पास चले गए, वहीं फिर उन का निधन हो गया। बेटे भी अलग-अलग घर बसा चुके थे। यहां रह गया था बड़े भाईसाहब का परिवार। मैं धीरे-धीरे और बड़ा होता जा रहा था। भाईसाहब ने अब मेरे चारों तरफ पक्का चबूतरा भी बनवा दिया था, आस पड़ौस की औरतें भी कभी-कभार व्रत त्योहार पर आतीं, मुझे जल चढ़ाकर पता नहीं क्या-क्या मन्नातें मांगतीं, पुए-पुड़ी का भोग लगातीं।
फिर धीरे-धीरे बड़े भाईसाहब के परिवार में से भी उनके बेटे का परिवार बचा था, उनकी तीन बेटियां और एक भाई... पर मुझे ये तीनों बेटियां बहुत प्यार करतीं... ये यहीं तो पली बढ़ी थीं... तीनों बड़की, मझली और छोटी मुझ से ही चिपटी रहती थीं... करीब-करीब इनका पूरा दिन ही मेरे इर्द-गिर्द गुजरता... यहीं बैठकर पढ़तीं, नाश्ता करतीं, गुड़िया खेलतीं... और मेरी डालियों पर झूला झूलतीं...
वैसे भाई छोटू भी यदा-कदा मेरे आस-पास बॉल और गिल्ली डंडा खेलता था, परर उससे तो मेरे तने पर चोट ही पहुंचती थी, पर बेटियां जब आतीं तो सटकर मेरे पास बैठ जातीं, बतियातीं, गातीं, हंसती और मैं भी झूम-झूमकर उनकी बचकानी बातें सुनता रहता था। मुझे ये तीनों अपनी बेटियों-सी ही लगतीं।
इन के इम्तहान आते तो दौड़कर आतीं-
‘पीपल बाबा, हमें आशीर्वाद दो, हमारा पर्चा बढ़िया हो...।’ बड़की हाथ जोड़कर कहती।
उधर मझली किसी प्रतियोगिता में जीत की कामना करती हुई खड़ी रहती।
मैं डालियां झुकाकर आशीर्वाद की मुद्रा में आ जाता।
फिर ये तीनों बेटियां धीरे-धीरे बड़ी होने लगी थीं। बड़की के तो रिश्ते की बात चलने लगी थी, पर कहीं विवाह सम्बन्ध तय नहीं हो पा रहा था। कहीं जन्मपत्री नहीं मिलती तो कहीं दहेज की समस्या आड़े आ जाती। माता-पिता परेशान थे। उधर मैंने क्या देखा कि मझली चुपचाप किसी से प्रेम करने लगी थी, था तो पड़ौस का ही कोई युवक विनय। देखने में सुंदर, सजीला, जवान। आता तो मझली के साथ यहीं एकांत देखकर चबूतरे पर बैठ जाता, दोनों देर तक प्रेम की बातें करते रहते। मैं सुनता पर सोचता कि मझली का घरवालों से छिपकर प्रेम करना उचित है क्या?
और तो और मेरी बेचैनी तब और बढ़ गई जब देखता कि मझली के साथ छुटकी भी अब यहीं विनय के साथ चबूतरे पर बैठने लगी है और तीनों न जाने क्या-क्या बातें करते रहते हैं। यह भांपते भी मुझे देर नहीं लगी थी कि मन ही मन यह छुटकी भी इसी विनय को चाहने लगी है।
हे भगवान इस त्रिकोण का क्या हश्र होगा? मैं समझ नहीं पा रहा था।
इधर बड़की अब कुछ अलग-थलग पड़ गई थी और काफी गंभीर हो चली थी। वह चुपचाप कभी अकेले में आती-
‘बाबा, मेरी शादी कब होगी बताओ?’
उसके बुदबुदाते होठ देखकर मैं चुप रहता, क्या कहता।
इधर मझली अब रात-दिन मेरे पास आकर हाथ जोड़कर खड़ी हो जाती-
‘बाबा, आपने मेरी बहुत-सी इच्छाएं पूरी की हैं, अब जल्दी ही मेरी विनय से शादी करादो। मैं जानती हूं कि इस घर के लोग कभी इस बात के लिए तैयार नहीं होंगे, पर मैं इस दमघोंटू वातावरण से दूर भाग जाना चाहती हूं। आप तो मेरे मन की बात समझ रहे हैं न बाबा...!’
मैं सोचता कि इसे समझाऊं कि बेटी तुम तो इतनी प्रतिभावान हो, पढ़ाई-लिखाई में मन लगाओ, अपना कैरियर बनाओ...। क्यों अभी से शादी की बात सोचने लगी हो? पर मैं मूक वृक्ष, क्या कहता, क्या समझाता और मेरी बात सुनता कौन?
हुआ वही, जिसकी मुझे आशंका थी, मझली ने घरवालों की इच्छा के विरु( उसी विनय से शादी कर ली।
घर का वातावरण अब और बोझिल हो गया था। छुटकी जिद करके बाहर पढ़ने चली गई थी। घर में रह गए थे, बड़की, छोटू और उनके माता-पिता।
फिर तो उन्होंने जी-तोड़ प्रयास करके बड़की का भी रिश्ता तय कर दिया। अच्छा परिवार मिला बड़की को, अमीर लोग थे। मैंने भी सोचा कि चलो अब यह भी खुश रहेगी।
अब इन बेटियों का मेरे पास आना भी कम हो चला था। पर जब भी आतीं, पहले मेरे पास ही आकर बैठतीं और अक्सर अकेले में अपनी कोई न कोई इच्छा जरूर बतातीं।
अब तो खैर मैं भी बूढ़ा हो चला था, पर इन बेटियों को देखकर मन खुश हो जाता। अभी भी मुझे ये निरी बच्चियां ही लगतीं थीं। बड़की के पास ऐशो-आराम की कमी नहीं थी। बच्चे भी अब उसके व्यवस्थित हो चले थे, पर अब वह स्वयं बीमार रहने लगी थी और जब भी आती अपनी किसी बीमारी के बारे में ही बातें करती रहती थी।
इधर मझली ने प्रेमविवाह तो कर लिया था, पर पति से अधिक बनती नहीं थी। बच्चे भी कहीं व्यवस्थित नहीं हो पा रहे थे। धन का अभाव था ही। स्वयं का घर तक नहीं बना पाई थी। छुटकी तो अब बाहर कहीं नौकरी कर रही थी तो उसका इधर आना कम ही हो पाता था।
इधर घर में अब तक एक नई चर्चा शुरू होगई थी। छोटू ने यह घर बेचने का फैसला कर लिया था, एक नया फ्लेट लिया था पास की कॉलोनी में, तो उसी के गृह-प्रवेश की चर्चा थी। तीनों बेटियां भी इसीलिए आई हुई थीं। उनकी आपसी चर्चा सुनकर मैं भी सहम गया था। बड़की कह रही थी-
‘भैया यह घर बेच देगा, पर हमारे पीपल बाबा का क्या होगा? वह ठेकेदार तो इसे कटवा देने की बात कर रहा था।’
तब तक मझली बोली-
‘हां, कह तो रहा था कि बड़े-से अहाते के बीच ही उगा है यह बड़ा-सा पीपल, इतनी सारी जमीन घेर रखी है, इसे तो कटवाना ही पड़ेगा।’
‘ओह! हमारे पीपल बाबा...’। छुटकी तो आकर मेरे पास ही बैठ गई थी।
मैं सोच रहा था कि अब बूढ़ा तो हो ही गया हूं, एक न एक दिन इस संसार से विदा जब लेनी ही है तो इस ठेकेदार के हाथ ही सही...। अच्छे-बुरे इतने वर्ष देख चुका हूं इस जिंदगी के...।
उसी शाम बड़की चुपचाप अंधेरे में मेरे चबूतरे पर दिया रखने आई थी-
‘बाबा, अब हम कल नए घर में चले जाएंगे, सदा के लिए यह घर छोड़कर, तो आखिरी आशीर्वाद मुझे और देते जाओ... दादा इस जिंदगी से में तंग आगई हूं। पहला सुख तो निरोगी काया होती है और वही मेरे नसीब में नहीं है। सब कुछ होते हुए भी न अच्छा खा सकी, न जी सकी। सबके ऊपर भार ही बनी रही। मुझसे तो अच्छी छुटकी की जिंदगी रही, अकेली स्वतंत्र, अच्छा स्वास्थ्य, मन माफिक जिंदगी, न कोई दायित्व, न कोई बोझ। खूब घूमो, जो जी चाहे करो, मेरी तो अब यही विनती है कि अगले जन्म में मुझे छुटकी जैसी जिंदगी मिले, उसके जैसा आशीर्वाद दो मुझे।’
मैं चुप था, सोच रहा था कि क्या वास्तव में छुटकी इतनी सुखी है? और सचमुच कुछ देर बाद ही छुटकी आई थी, शायद घर में कोई पूजा हुई थी तो उसका प्रसाद रखने। उसके बुदबुदाते होठ तो कुछ और ही कह रहे थे-
‘बाबा, इस जन्म में तो मैं ताउम्र कुंवारी ही रही, ऐसा क्या पाप किया था मैंने, मुझसे तो अच्छी मझली रही, मन लायक जीवन साथी पा लिया। किसी को अगर चाहा हुआ प्यार मिल जाए तो और क्या चाहिए? चाहा तो मैंने भी विनय को था, पर मेरी किस्मत...!’
मझली का प्यार... मैं घोर असमंजस में था और रात भर इसी बात पर विचार करता रहा। सुबह तड़के ही मझली आकर मेरे चबूतरे पर बैठ गई थी-
‘बाबा, जा रहे हैं हम इस घर से, पर आपको मैं भूल नहीं पाऊंगी, आप ही तो थे जिनसे मनकी हर बात कह देती थी और आप हंसकर हर अच्छी-बुरी मुराद पूरी भी कर देते थे...। बाबा, अब आखिरी बार एक चीज आपसे और मांगती हूं कि अब अगले जन्म में यह गरीबी-सी जिंदगी मुझे मत देना, जहां हर छोटी-बड़ी चीज के लिए मन तरसता रहे, उसी धन की कमी के कारण आज हम इतनी खींचतान में जी रहे हैं, बच्चों को भी ढंग से पढ़ा नहीं सके, न व्यवस्थित कर सके। मुझसे तो अच्छी बड़की रही, मां पापा का कहना माना तो उनका प्यार मिला, आशीर्वाद मिला साथ ही बच्चों का खुशहाल भविष्य भी...। मुझे..., मुझे क्या मिला...?’ सचमुच वह तो सिसक ही पड़ी थी।
और मैं... मैं सोच रहा था उन ख्वाहिशों के बारे में जो पूरी होकर भी कभी पूरी नहीं होती हैं।
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