सोमवार, 30 सितंबर 2013

नंद पचीसी में सामाजिक चेतना

नंद पचीसी में सामाजिक चेतना

सभी कालों में ऐसे विचारकों ने जन्म लिया है जिन्होंने तत्कालीन समाज पर दृष्टि रखी है और उसके मूल्यों की गिरावट पर चिन्ता प्रकट की है तथा उसे वाणी दी है। किसी काल-विशेष में तो ऐसे अनेक व्यक्ति जन्म ले लेते हैं। आधुनिक पुनर्जागरण काल में भारत में ऐसे अनेक मनीषियों ने जन्म लिया और दिग्भ्रमित समाज को दिशा-बोधा दिया। इन्हीं के चरण-चिह्नों पर चलकर अनेक कवियों ने अपनी संवेदनशीलता को उद्घाटित किया। कभी-कभी समाज-सुधारक एवं कवि की भूमिका-एक ही व्यक्ति सशक्त रूप में निर्वाह कर जाता है। कवि तुलसीदास ने ऐसे दायित्व का सुन्दर निर्वाह किया था। उन्हीं के समससामयिक कवि नंदराम ने ‘नंद पचीसी’ में अपने काल के सामाजिक मूल्यों के ह्रास पर गहरी चिन्ता प्रकट की है। इस पर कृति में उनका कवि रूप सामाजिक चिन्तक रूप में तनिक दब गया है।

‘नंद पचीसी’ संवत् 1643 के कार्तिक मास में लिखी गई पांडुलिपि है। यह काल लगभग वही काल है जब तुलसी ‘रामचरित मानस’ की रचना कर चुके थे और अन्य रचनाओं के सृजन की ओर प्रवृत्त थे। मानस के विस्तृत फलक पर समाज व राज्य का जो चित्र तुलसी ने उकेरा है वह किसी आदर्श की ओर इंगित करता है। उसमें सामाजिक विद्यटन के भी चित्र हैं और समाज-पुननिर्माण की आदर्श कल्पना भी है। ‘नंद पचीसी’ का कवि यथार्थ से प्रेरित है।
‘नंद पचीसी’ का कवि नंदराम हाड़ौती क्षेत्र के आंवावत या आवां का खंडेलवाल बनियां है जिसके पिता बलराम हैं और जिसका गोत्र रावत है।
यह कवि कृष्ण भक्त भी है-
नंदराम खंडेरवाल ह आवावत को वासी।
सुत बलराम होत ह रावत, व तो क्रेसण उपासी।।
इस कृष्ण भक्त कवि की धार्मिक आस्था व्यापक है। वह ‘नंद पचीसी’ के आरम्भ में गणेश एवं शारदा माता का स्मरण करता है। उसका विश्वास है कि शारदा की दया से ही ऐसी रचना कर सकूंगा जिसे सुनकर श्रोता को सुख उत्पन्न होगा।
कछु कह्यो चाहत हूं तिहारे पुने प्रताप।
ताहे सुने सुख उपजः दया करो अब आप।।
कवि की यह रचना स्वान्तः सुखाय न होकर श्रोता-सुखाय है और रचनाकाल में वे ही इसके समक्ष रहे हैं। इससे उसकी रचना में सरलता, स्पष्टता एवं सुबोधता आई है। उसकी मान्यताएं अपने युग की मान्यताओं से भिन्न नहीं है।  ‘मानस’ के राम गो-ब्राह्मण का संकट दूर करने के लिए अवतरित हुए थे। वे स्वयं-राम रूप में आये और उन्हंे सुख उपलब्ध कराया, पर उस काल के राजाओं की वास्तविक दशा तो यह थी कि वे न पर दुःख कातर थे और न गो-ब्राह्मण-रक्ष; वे तो पर-स्त्री के साथ भोग-विलास करने वाले थे-
खट द्रसण की पुजा करते, दुखी देख दुख हरते।
गऊ वीप्र कु देख साकड़ा भूप बड़े जो अड़ते।
अब घेर गऊ वीप्र है लुटं, प्रत्रि ईं भोग विलासा।
ऐसे नरेश से किसी आदर्श राज्य-व्यवस्था की आशा नहीं की जा सकती थी। वे अपनी प्रजा का शोषण अनेक विधियों से करते थे। इसके लिए वे रुपये पैसे का वजन अपनी टकसालों में घटाते रहते थे और मूल्यों को परोक्ष रूप से प्रभावित करते रहते थे। लूट की इस सभ्य प्रणाली को नंदराम ने पहचान लिया था, जो साधारण कवि की बुद्धि की पहुंच से बाहर है। व्यवसाय से बनियां हो जाने के कारण उसकी अर्थशास्त्री दृष्टि ने उसे चिन्तित किया था-
नीत राज की उहसी होणी, दोलत कोस र लीजे।
अबे प्हसा कुमी-कुमी जुग माही, रुपीया है नो मासा।
यह धन राजा की भोग-विलास की सामग्री में व्यय होता था।
लूटने की राजा की यह नीति उसके कर्मचारियों में भी पहुंची। उनकी नियुक्ति राज-व्यवस्था को सुन्दर रीति से चलाने के लिए की जाती है। कवि ने देखा-सुना था कि पूर्व के कर्मचारी सही काम ही करते थे और सुखाकांक्षियों को सुख पहुंचाते थे, पर वे प्रबलों (दुष्टों) के प्रबल थे। अब वे अपने पूर्वगामियों से ठीक विपरीत आचरण कर रहे हैं और प्रजा को लूटते हैं-
फोजदार ऊमराव आगले स्याम काम कुं अड़ते।
मेवासी कु मार तोड़ कै, सुखवासी सुख करते।
जोर तलब को जोर पुगः, लुटत रहत कु तासा।
और जमीदार भी ‘यथा राजा तथा प्रजा’ के अनुसार आचरण कर रहे थे-
जमीदार जागीरी भोग; खेव हर का बासा।
जब राज्य की पतवार ऐसे लोगों के हाथों में होती है, जो उसके योग्य पात्र नहीं होते और, जो न तो राजा का और न प्रजा का हित सामने रखकर काम करते हैं, तब उसका सबसे पहला प्रभाव राज्य कर्मचारियों पर पड़ता है। वे नमक हराम बन जाते हैं। वे सरकारी कोष से प्रतिमास अपना वेतन तो उठाते हैं पर अपना कर्तव्य तनिक भी पालन नहीं करते हैं। उनका प्रत्येक कार्य व्यवस्था-प्रेरित न होकर स्वार्थ-प्रेरित होता है। ऐसे व्यक्ति खूब फलते-फूलते देखे गये हैं। यह सत्य वर्तमान में जितना मुखिरित हुआ है उतना ही नन्दराम ने अपने काल में घटित होते देखा है। उसने देखा कि नमक-हरामियों में सम्पन्नता प्रभूत मात्रा में है। उनके द्वारों पर घोड़ों की हिनहिनाहट निरन्तर होती रहती है, पर उन्हें आन्तरिक शान्ति यह समृद्धि नहीं दे पा रही है। आंतरिक शांति तो कवि ने नमक-हलालो मंे देखी, भले ही वे विपन्न हैं-
नीमक हलाली क मुख लाली खाल-खाल म दीसः।
नीमक हरामी क दरवाजा दन-दन घोड़ा हींसः।।
कवि का यह निरीक्षण अपने युग का निरीक्षण है। तब व्यक्ति में जीवन-मूल्यों के प्रति गहरी आस्था थी, जिन्हें अपनाकर वह ऐसे अलौकिक आत्म तोष का अनुभव करता था जो आज तो मिलता ही नहीं है। कवि का युग-सत्य शाश्वत सत्य भी है।
नंदराम का विश्वास है कि हर जाति की अपनी विशेषताएं होती है, जिन्हें  हम उनके संस्कार कह सकते हैं। जातिगत संस्कारों से व्यवसायों में विशिष्ट कौशल तो आया ही है, उनकी शारीरिक एवं मानसिक क्षमताएं भी जीन-सिद्धान्त के अनुसार पुष्ट हो गई हैं। युग या परिस्थितियों की आवश्यकतावश या अन्य किसी कारण से वंशानुगत व्यवसायों में जब परिवर्तन आया तो उसके श्रेष्ठ परिणाम सामने नहीं आये। अपने वंशानुगत व्यवसाय को नंदराम के युग में सैयद, शेख, पठान व तुरकों ने छोड़ दिया। वे शुद्ध व्यवसायी जातियां थीं जिन्होंने अपने व्यवसाय को हीन समझकर अध्ययन-अध्यापन का व्यवसाय अपना लिया। उधर जुलाहे, जो वणिग्वृत्ति के थे, अपने व्यवसाय को हीन समझकर अपनी कमर पर धनुष बांधने लग गये; अपने से उच्चतर जाति का व्यवसाय अपना लिया। इस व्यवसाय-परिवर्तन का परिणाम युद्ध-क्षेत्र में स्पष्ट दीख पड़ता रहा था, वहां वे पीठ दिखाकर भाग खड़े होते थे-
सहीद, सेख, पठाण, तुरक रून छोड़ चाकरी ब्हण।
जुलाहे धनीया बांध कमर सूं फरे चोहटै ऐठे।
जंग जुड़ै जब पीठ बतावै होत धरणी का हरसा।
उधर जाति-व्यवस्था की वंशानुक्रमता ने अपने सदस्यों को सुस्थापित जीवन-मूल्यों एवं पद्धति के प्रति उदासीन बना लिया। पहले यह ह्रास हुआ उच्च जातियों में। ब्राह्मण परम्परागत पूज्यता का लाभ उठाकर केवल ‘भोजन-भट्ट’ बन गये और अपने पेटूपन को प्रमुखता देकर भंग-व्यसनी बन गये। निमन्त्रण प्राप्ति पर संख्या-सीमा का अतिक्रमण करके उसे कुटुम्ब के भरण-पोषण का साधन बना लिया। वे अपना मूल कर्म-संध्या, तर्पण आदि भूल गये-
वीप्र भांग संु रूचि कर जीव पीव तलक तमाखु
च्यार ज नोतः तेरा आवः साथ लीई कुडमा कूं।
संधया तरपन कुं ह थोड़े, बीकता सुं बीकता सा।
यह विघटन पारिवारिक स्तर पर भी हुआ। भाई-बन्धु, सास-बहू, पति-पत्नी के सम्बन्धों में गिरावट आई। भारतीय परिवार के केन्द्र में नारी प्रतिष्ठित है। उस पर युग का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा। उसमें त्याग, ममता, माया का अभाव आया। इससे परिवार के छोटे-बड़ों का यथोचित स्वागत-सत्कार कम हुआ। बहू ने तो सास के विरूद्ध विद्रोह ही कर दिया। जो स्त्री बहू के रूप में स्थापित मूल्यों की स्वीकृति से एवं त्याग तथा श्रम के बल पर परिवार की धुरी बनी हुई थी वह सास तो बनी, पर पारिवारिक मूल्यों के उलट जाने से नौकरानी की दयनीय स्थिति में आ गई, उधर बहू ने मालकिन का पद धारण कर लिया। वह आटा पीसने लगी और बहू पलंग पर विश्राम करने लगी-
बहू पलंग पर सुख सुं सोवेः सास भापड़ी पीसः।
उसी बहु ने परिवार का विखण्डन दूसरे रूप में भी किया। जब कभी उस परिवार के भाई-बन्धु, जो कभी अतिथि-देवता की श्रेणी में आते थे, घर पर आते तो वह कलह उत्पन्न करने लगी और अपना विकराल रूप प्रदर्शित करने लगी-आक्रोश में बर्तन फोड़ने लगी-
भाई-बंध पावणों आवः, घर की कलज मांडः।
फोड़ बासन तोड़ तासन, भाव संपत कुं भाडः।।
कवि का युग धार्मिक विघटन का युग भी है तब धर्म के नाम पर पाखण्ड पनपने लगा। धर्म-ध्वजी वेश का सहारा लेकर लोगों को ठगने लगे। योगियों ने सेली, मुद्रा व क्षार (भस्म) धारणी क, पर उनमें वैराग्य उत्पन्न नहीं हुआ। अतः उनके घरों पर सुन्दर-सुन्दर रमणियां होती है-
जोगी नाव धराई म, घर म चंचल नारी।
सेली, मुदरा, छार लगावः, घर डी गंवर वास।।
कवि नंदराम ने सर्वत्र चारित्रिक पतन देखा। उसने देखा कि नैतिक आस्थाओं पर टिके व्यक्ति असफलताओं का जीवन जी रहे हैं। झूठा व्यक्ति न्याय को अपने पक्ष में करा लेता है, पर सच्चा व्यक्ति न्यायालय में हार जाता है, क्योंकि उसके साक्षी भी उतने ही भोले होते हैं। झूठे की प्रपंचमयी रसीदें सत्य भासित होने से न्याय को अपने पक्ष में करा लेती है-
सांचो जाय चोंत्र झगडः, साख मिलावः सांची।
लीख्या पढ्या म्हो आग डार्या खूब खरी सी बांची।
झूटे की जब रसीद प्होची, सांचा कुं दीया धका सा।
वर्तमान में वेतन का कार्य से सम्बन्ध टूट-सा गया है। कर्मचारी वेतन इसलिये पाता है कि उसका कार्यालय के रजिस्टर में होता है। उस रजिस्टर पर उसकी उपस्थिति वेतन प्राप्ति के लिए पर्याप्त होती है- चाहे वह कार्यालय में काम करे या न करे। यह अवस्था अपने बाल-रूप में इस कवि के काल में भी थी। उस समय भी आठ पहर (दिन-रात) नौकरी करने वाला व्यक्ति उपेक्षित रह जाता था और कामचोर, रिश्वतखोर पुरस्कृत होने लगा था-
आठ प्हर चोकरी दोडः,  ताकी कोई न बूझः।
उलटो दुसण देत सही सूं, भली बुरी न्हीं सुझः।
रसीवट देकर सांट मीलावऽ, जानी घनी दलासा।
जब समाज में मूल्यों का व्यापक विघटन हो जाता है तब प्रवाह के प्रतिकूल चलना दुस्साहस कहा जाता है। ऐसे समय में सभी की मनोवृत्ति एक समान बन जाती है और भले-बुरे का विवेक समाप्त हो जाता है। ऐसे विवेकहीन समाज में विवेकपूर्ण बातें कहना भी अपराध बन जाता है। तब विवेकी अनादृत एवं चापलूस सम्मानित होने लगते हैं।
पंडत भीतर जान न पावः, भांड बुलाई र लीजे।
भली कह तो बीख-सी लाग, खोटी चीत हुलास।।
कवि नंदराम ने अपने युग के ह्रास को वणी दी है। उसकी अनगढ़ भाषा में सहजता है और सरलता है। खड़ी बोली और हाड़ौती का मिश्रण ध्वनि-रूप-संयोजन अभिव्यक्ति को प्रभावी बनाता है। अनलंकृत वाणी में सहज उद्गारों का तीखापन है- आक्रोश है। शैली में ऋतुता है। उसकी यह पच्चीसी ‘लोककाव्य एवं अलंकृत काव्य की संधि की रचना है।

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