सोमवार, 28 सितंबर 2015

भूले बिसरे चित्र डॉ.शांति भारद्वाज ”राकेश“


भूले बिसरे चित्र डॉ.शांति भारद्वाज ”राकेश“

कोटा का साहित्यिक परिदृश्य तीन भागांे में बॅंटा हुआ हें कोटा जंक्शन , पुराना कोटा तथा नया कोटा। कोटा जंक्शन पर साहित्यिक जगत एक परिवार की तरह  रह रहा है। 1948 के आसपास मासिक ”कामना“ पत्रिका यहॉं से निकलती थी। राजेन्द्र सक्सैना, जगदीश वोरा संपादक मंडल में थे। इसकी एक प्रति मेरे पास थी।

बाद के वर्षोमें नगेन्द्रकुमार सक्सैना,  शांति भारद्वाज , इस क्षेत्र की साहित्यिक चर्चाके केन्द्र में रहे। अभी भी , हिन्दी और बृज भाषा की गोष्ठियॉं अधिकतर जंक्शन क्षेत्र में होती रहती हैं। शांति भारद्वाज राजस्थान में अपने साहित्यिक योगदान के लिए महत्वपूर्ण रहे। आप वर्षों अकादमी की मधुमती पत्रिका के संपादक रहे। राजस्थानी अकादमी  बीकानेर के अध्यक्ष रहे। आपके उपन्यास ”उड़जा रे सुआ“ पर आपको केन्द्रीय साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। आपने ”राग दरबारी  का राजस्थानी में अनुवाद किया।

पर आज में उनकी याद एक कटु अनुभव के साथ कर रहा हूॅं।  उनका परिवार हरवर्ष उनकी याद में उनकी जन्मतिथि पर साहित्यकारों को सम्मानित करता है। समारोह करता है। राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर ने उनकी स्मृति में मानोग्राफ भी निकाला हैं।

पर रचनाकार के लिए उसके जीवन काल में उसकी कृतियों का समयक मूल्यांकन अधिक महत्वपूर्ण रहता है।
वे कवि थे, उपन्यासकार थे, अनुवादक थे, पर उन सबसे बहुत आगे, वे एक सहृदय बड़े भाई थे। उनका प्रेम, इस अंचल के हर साहित्यकार  पर जीवन के अंत समय तक रहा।

 मित्रो, हमारे अंचल की विशेषता है, कि हम हर बड़े इन्सान की  छोटी सी कमजोरी को पाकर , खुश हो जाते हैं, उसे अपनी स्मृतियों से बाहर धकेल आते हें। इस हीनता ग्रंथि ने हमें बहुत नुकसान पहुंचाया  है। जीवन के उत्तरार्ध में आपका काव्य संग्रह ,”द्वार खुले हैं“ तथा उपन्यास ”एक  और यात्रा (2006) प्रकाशित हुए थे। उन्होने बड़े संकोच के साथ कहा था , मित्रों ने इस पर चर्चा तक नहीं की। यह सच है कि  कोटा की किसी साहित्यिक गोष्ठी में इन पुस्तकों पर चर्चा तक नहीं हुर्इ्र।

तब मैं हाड़ौती हिन्दी पद्य और गद्य की परंपरा पर कार्य कर रहा था। बीसवीं शताब्दी का यह साहित्य का इतिहास था। आप बीमार थे, पर कार्य कैसा हो रहा हे। पूरा ध्यान रखते थे।

 कहीं ऐसा तो नहीं है, परपरागत मानसिकता के कारण हमारा ही कोर्इ्र मित्र , हममें थेाड़ा बड़ा होजाता है, तो वह हम लोगों  की सामूहिक ईर्ष्या का शिकार बन जाता है। हिन्दी साहित्य समाज से मिली उपेक्षा से वे कालांतर में राजस्थानी में अनुवाद के क्षेत्र में चले गए।

रचनाकार एक बड़े परिवार को बनाता है, जहॉं वह सांस लेता है। उसकी प्राण वायु अपने सहृदय साहित्यकारों के सानिध्य से ही पल्लवित होती है। उनका चिन्तन , उनकी रचनाओं का आस्वादन हमें ही संस्कारित करता है,। चलिए आज  उनके साथ , उनकी साहित्यिक यात्रा पर चलंे , भारद्वाजजी की कविता और कथा -यात्रा के हम सहयात्री बनें।

  ‘द्वार खुले हं’ै ;(1999) भारद्वाज जी की नई कविताओ का संग्रह है।

कवि ने लगभग चालीस वर्ष की अपनी काव्य यात्रा में लौटकर आया आज में द्वार पर....... इस उक्ति को अपनी ‘अनुभूत्यात्मक संवेदना ’ से व्यंजित किया है।  अनजाने में भूमिका में कवि ने ... ‘यों कहें कि एक ही गन्तव्य है।’’ ‘ऑंगन  के पार द्वार’, तथा ‘कितनी नावों में कितनी बार’.... के प्रतीक   ‘स्वीकृति’, को रेखांकित कर दिया है।

यहां पर आकर कवि की संवेदना पारदर्शी तथा जो बूंुूद सहसा .उछली . थी, वह मटमैली न होकर.निरंतर अध्यवसाय तथा गहन काव्य साधना से परिष्कृत होती हुई उज्जवल होती चली गई है। सजगता काव्य चेतना का आधार है.... परन्तु वह अब शांत है, ‘अनुभव को शब्द देना कितना कठिन है, इसका अनुभव भी इसी यात्रा में सर्वाधिक हुआ।’

अंतर्मुखता की वापसी, शब्द को असंग व निसंग कर जाती है, वहीं जो ध्वनित होता है, वह मात्र अनुगूंज ही होती है।

‘‘  और तब
उभर आते हो तुम’
परत झड़ते ही जैसे
प्रज्वलित हो पाती है यज्ञ की अग्नि !
तुम हो और मैं हंू
कहॉं है इतना एकान्त ?

यह मन की सहजता जहां अनुभव मौन निर्वाक मै अभिव्यक्ति ढूढंता है,.... यहां शब्द पश्यंती के द्वार पर दस्तक देते है.ं.. भाषा की यह संस्कार धर्मिता विरल है, राजस्थान के अन्य कवियों में नंद किशोर आचार्य के यहां यह है।

‘‘प्रतीक्षा रत भी तो नहीं था मै-
फिर क्यों जगा दिया ऐसा उन्माद?
उठा दिया एक प्रश्न
किसकी प्रतीक्षा है मुझे ?’’

द्वार ... शब्द अनेक व्यूहों में खुलता है... हर बार एक नई भंगिमा है। यहां योग सूत्र के कोषों. का. खुलना  नहीं है, बंद कुहासे से ,धूमिल चेतना का नवीन परिष्कार होने की सृचना है,’’

‘‘जागा रहता है दिया
तुम्हारे लिए
द्वार
इसीलिए तो खुले  हैं ’
पृष्ठ  19

‘अब तो लौट लौटकर
वहीं फन पटकता हैं
समय का सांप।
बार बार थपेड़ा जाकर भी
बंद द्वार नही छोड़ता’
            पृष्ठ 33
‘इधर मुझे खट ख्टाते हैं द्वार
अंधेरी सुरंग के
वर्जनाओं का पांव धरते हुए।
दौड़ना है।
नई पगडंडी रेखांकित करते हुए
अकेले ही ।’

साहित्यकार के जीवन की व्यथा , यही है, जब वह अंत में घर लौटता है, तो पाता हे, वह अकेला रह गया है एक जमाने की भरी हुई मुट्ठी अंत में खाली रह जाती है।

यह अकेलेपन की त्रासदी हर मन की व्यथा है। भाग्यवान रहता हैे कवि,  जब साथ के संगी भी साथ छोड़ जाते हैं, रिश्तों में दूरियॅंा कम होने का नाम नहीं लेती है।   तब उसकी कविता  ही उस के साथ चलती है। कविता कवि का अपना संस्कार है इसीलिए कवि को शास्त्र ने ईश्वर के समीप माना है, वह बात दूसरी है, उसे उसके निजि स्वरूप की विस्मृति हो गई है।

”द्वार खुले हैं , प्रांत के महत्वपूर्ण काव्य संग्रहो में एक हें यह बात दूसरी है, हम गुटबंदी में इतने डूब गए हें कि कविता की पहचान और परख खो बैठे हैं। आज की दुनिया में हम अपने अलावा अन्य को पहचानने से भी मना करजाते हें युग ”सैल्फी“ का होगया है।

 ”एक और यात्रा“,(2006) भारद्वाज जी का ‘‘सूर्यास्त’’ के बाद यह दूसरा उपन्यास है। ‘यहां स्वतंत्रता पूर्व पैदा हुए ‘सूरज प्रकाश’ की कथा है, जो स्वतंत्र भारत में अपना विस्तार पाती है।

आंचलिक परिवेश है, ... ग्रामीण भारत जो ‘कस्बाई संस्कृति में विकसित हो रहा था, ... जहां ट्रेन से परिचय प्रारंभ हुआ है, ... डाकघर आया है, स्कूल खुले हैं, ... ‘समय’ को चिन्हित करते हुए उसे यथोचित परिलक्षित करने का भाव यहां केन्द्रित है। पिता आदर्शवादी है, ... वे शिक्षक हैं, ... तथा बाद में उनका सेवा कार्य ‘विजय सिंह पथिक’ की तरह बहुआयामी हो जाता है। वे पुत्र की पढ़ाई के प्रति चिंतित हैं, ... पर अपने पारिवारिक दायित्व के प्रति उदासीन भी हैं।

‘सूरज प्रकाश’ की पढ़ाई, छोटे कस्बे से, ... शहर तक आती है। वह स्कूल से कॉलेज तक की यात्रा करता है। तत्कालीन शैक्षणिक माहौल तथा समाज की सभी धाराओं का जो क्षीण गलियों से गुजरती हुई नगर के मैदान तक आती है, ... उन्हें चित्रित करते हुए विश्लेषित करने का आग्रह है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह जिस रूप में राजनीति में अपना चेहरा बदला था, उसके महीन धागों को परीक्षित भी किया गया है। अराजकीय क्षैक्षणिक प्रबंधन में लेखक का परिचय गहन रहा है। उसकी प्रतिध्वनि यहां पर है। सूरज प्रकाश, सरकारी नौकरी में न जाकर, ... निजी शैक्षणिक प्रबंधन में कार्य करना उचित समझता है।

कायस्थ परिवार की कन्या के प्रति वह आकर्षित है। उसके पिता उसके पूर्व के शिक्षक रहे हैं। टूटता मध्यवर्ग, ... तथा उसका चारित्रिक पतन यहां चित्रित है।

चीन के हमले ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था को पहली बार झिंझोड़ दिया था। राजनीति में विरोधी स्वर भी प्रबल होने लगे थे। उपन्यास में चित्रित कथा संसार में तत्कालीन राजनैतिक सामाजिक घटनाओं को समेटने का आग्रह तो है, पर सूक्ष्म विश्लेषण जहां सामाजिक विघटन का बीजारोपण परिदृश्य में उभर रहा था, ... उसका अभाव सा है। इस अंचल की बदलती सामाजिक चेतना का यह एक जीवन्त दस्तावेज है।

 व्यक्ति केन्द्रित सामाजिक उपन्यास, तथा आंचलिक उपन्यास की संरचना में मौलिक भेद रहता है। आंचलिक उपन्यास की संरचना में, ... व्यक्ति सत्य का चित्रण हल्का होता है, ... वे महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व नहीं रखते, हां, परिप्रेक्ष्य की सजीवता, अंचल का मानवीकरण यहां प्रमुखता ले लेता है। व्यक्ति कन्द्रित, उपन्यास में व्यक्तित्व का विकास, ... नैतिक या अनैतिक हो यह महत्वपूर्ण नहीं होता, ... यथार्थ के ताने-बाने से वह प्राणवान होता हैं पात्र जितना जीवन्त होता है, ... उसका निरुपण कथा को उतना ही सहज व सरस बनाता जाता है।

 यह सही है, यहाँ ‘व्यक्ति प्रधान’ यह उपन्यास ‘सूरज प्रकाश’ के चरित्र के साथ न्याय नहीं कर पाता है। उसके जन्म से विवाह तक की कथा में, ... जो मानसिक व बौद्धिक विकास के पहलू हैं वे जगह नहीं ले पाए हैं परन्तु अंचल को सजीवता देने के लिए कथा-संयोजन में पर्याप्त कुशलता बरती गई है। शिल्प की दृष्टि से यह संयोजन कठिन कर्म है।

भारद्वाज की इन दोनो कृतियों को इसलिए याद किया गया है कि उनकी पहचान मात्र हाड़ौती के राजस्थानी कथाकार के रूप में ही नहीं रहे।   वे प्रांत के  महत्वपूर्ण  कवि एवं कथाकार थे,  कोटा नगर को उन्होंने बहुत कुछ दिया, कम से कम हाड़ौती के रचनाकार इस ”सैल्फी“युग में अपनी परंपरा से परिचित तो हो सकें।

डॉ  नरेन्द्र चतुर्वेदी


शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

भूले बिसरे चित्र नगेन्द्र कुमार सक्सेना -

भूले बिसरे चित्र
नगेन्द्र कुमार सक्सेना -

1971  में मेरी  पहली आलोचना की पुस्तक ”गत दो दशक के काव्य में राष्ट्रीय चेतना प्रकाशित हुई थी। तब श्री नंदन जी के साथ सक्सेना जी से मिलने गया था। यह आपसे मेरी पहली मुलाकात थ। आप तब महात्मा गांधी हायर सैकंडरी स्कूल रामपुरा में प्रिंसपिल पद पर कार्य कर रहे थे। आपका साहित्य के प्रति प्रेम आपकी बातचीत से लगाा था। बाद में मैं बाहर सेवारत रहा।

 1997 में जब कोटा आया था, तब आपसे दुबारा संबंध नवीनीकृत हुआ। आप सेवानिवृत्ति के बाद सक्रिय रूप से साहित्य में सक्रिय हो चुके थे। आपके  कविता संग्रहों की बाढ़ सी आ गई्र थी।ं आपने बहुत लिखा, शांति भारद्वाज कहा करते थे, आपका गद्य , आपकी कविताओं से बेहतर हैं आप अच्छे वक्ता थे, संगीत में रुचि थी। आपने अपनी पत्नी के सहयोग से संगीत की सेवा  के लिए , एक संस्था  बनाई थी। जिसमे आप संगीतकारों के सम्मान के साथ , साहित्यकारों का सम्मान किया करते थे। आपके घर पर नियमिज काव्य गोष्ठियॉं हुआ करती थीं। आप स्वयं फोन करके , दूरभाष पर निमंत्रित किया करते थे। कोटा जंक्शन पर आपकी साहित्यिक सक्रियता मूल्यवान थी। आपका निवास साहित्य का केन्द्र बन गया था। जीवन के अंतिम समय में आप पुत्र के साथ उदयपुर चले गए थे। वहीं से ही सूचना आपके महाप्रयाण की मिली थी। समय का चक्र बहुत तेजी से चलता है। मुझे याद नहीं , उनके जाने के बाद किसी गोष्ठी में आपको हमने याद भी किया हो। वे बहुत बड़े कवि नहीं थे, निबंध कार नहीं थे। पर सहृदय पाठक थें । निरंतर अपनी उपस्थिति का अहसास हर साहित्यिक कार्यक्रम  में बनाए रखते थे। उनकी साहित्य और संगीत के प्रति  तीव्र अभिरुचि उन्हें ं सांस्कृतिक चेतना के वाहक के रूप में स्मृति में बनाए रखती है।

अनुभूति’, ‘सत्यमेव जयते’, ‘जीने की सरगम’, ‘समय के स्वर’, ‘शब्दसृष्टि’, ‘दशानन’, ‘स्वांतसुखाय’, ‘नीलगगन के तले’, ‘अदर्शन का दर्शन’, ‘अस्तित्व का प्रवाह’, ‘आनंद स्रोत, ‘अंतःस्वर’, ‘नए सूरज की किरण’ तथा ‘अंतर्प्रवाह’ आप के महत्वपूर्ण काव्य संग्रह हैं। आप के अठारह के आस-पास काव्य-ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं।

नगेन्द्र कुमार सक्सेना के 1.राष्ट्रीय एकता के सांस्ड्डतिक सूत्र 1988 ई. 2. लोकमान्य से लोकनायक तक 1994 ई., 3. आदि से अन्त तक 1995 ई., 4. भारतीय सांस्कृतिक चेतना 1999 ई., 5. भारतीय लोकतन्त्र की अर्र्द्ध शताब्दी 2001 ई., 6. सुखी जीवन के सूत्र 2002 ई. 7. जीवन मूल्य 2003 ई., 8. सफल जीवन की पूर्णता ;2003 ई., तथा 9. शाश्वत सत्य 2005 ई.  नौ  आलेख संग्रह प्रकाशित हुए हैं।

नगेन्द्र कुमार सक्सेना की सनातनी धार्मिक दृष्टि है, जो संस्कारित है। वे अपनी विचारधार्मिता को स्पष्टता से लिए हुए हैं, उन के चिन्तन केन्द्र में, परिवार में विकसित होता हुआ व्यक्ति है, जो मनुष्यत्व को पाना चाहता है। एक दृष्टि में उन की आध्यात्मिकता तथा सांस्कृतिक-चेतना सम्पन्न दृष्टि, उन की विचार धारा को जहाँ पल्लवित करती है, वहीं विकसित भी करती है।

‘लोकमान्य से लोकनायक तक’, ग्यारह निबन्धों में, राष्ट्रीय चेतना के उन्नायक राष्ट्र नेताओं का स्मरण है।
‘सुखी जीवन के सूत्र’, ‘सफल जीवन की पूर्णता’, ‘जीवन मूल्य’, ड्डतियों के निबन्धों में नगेन्द्र कुमार सक्सेना की पारिवारिक मूल्यों के विघटन से चितिन्त एक पथिक की वेदना की दस्तावेज़ हैं।
‘शाश्वत सत्य’, बारह निबन्धों का संग्रह है। ये विचारात्मक निबन्ध हैं। ‘ईश्वर की अवधारणा’ तथा ‘आनन्दानुभूति’ एक साधक की यात्रा का साक्षित्व है।  यही नगेन्द्र कुमार सक्सेना की अपनी विशिष्टता है। आपका गद्य लेखन पठनीय है। उसका एक विशिष्ठ पाठक वर्ग  है।

उनका कवि मन छायावादोत्तर काव्य प्रभावों से विकसित हुआ हैं

”छा गयी, काली घटायें
पलक पर पावन बसा है, मौन स्वर निर्घोष करते।

समर्पित किया है, तुम्हें जबसे मैंने
मेरे रात और दिन महकने लगे हैं ।
मन के विपिन में विचरते जो पंछी
मलय गंध पाकर चहकने लगे हैं।“

आप की कविताएँ, समसामयिक परिस्थितियों से आहत एक नागरिक की मनोव्यथा है। आक्रोश उन के कवि-मन को सदा बेचैन करता रहा है। समय के स्वर की यही विवशता है। समसामयिकता का दबाव आप की कविताओं की प्रारम्भिक अन्तर्वस्तु है। ‘दशानन’ भी इसी प्रवृत्ति का ही विकास है। परन्तु कवि मन जहाँ सामान्य नागरिक की भूमिका में समसामयिकता की मातृ-भूमि को अंगीकार करता है, वहीं उन की अन्तर्मुखता उन्हंे रहस्य की ओर ले जाने का प्रयास करती है। यह द्वन्द्व कवि नगेन्द्र की कविताओं का प्रमुख स्थान है। वे बाह्य के दबावों से पीड़ित होते हुए भी अपने ‘स्व’ की सार्वभौमिक रसात्मकता को नहीं छोड़ पाते हैं। उन का मन, अन्तःसलिला में पुनः पुनः लौट कर रसानुभूति की मधुरम फुहारों को, शरद के लौटते हुए मेघों की तरह अनायास बरसा कर चला जाता है। यही कारण है कि ‘जीने की सरगम’ में पुनः वे छयावादोत्तर काव्य सम्वेदना से जुड़ जाते हैं। उन का रहस्य के प्रति सम्मान और उस से प्राप्त अन्तर्मुखता उन की काव्य सम्वेदना को क्रमशः परिमार्जित करती रही है।
समसामयिकता का दबाव जहाँ उन की अभिव्यक्ति को कहीं-कहीं अत्यधिक स्थूल व सपाट बयानी तक पहुँचा देता है, वहीं उन की अन्तर्मुखी अभिव्यक्ति, परिष्कृत काव्य भाषा और अन्तर्मन पर कार्य व्यवहारों का सूक्ष्म चित्रात्मक अप्रन सहज ही सौंप जाती है।
अन्तःप्रवाह में आप ने इसी अन्तर्यात्रा के विभिन्ना अनुभवों को अभिव्यक्ति दी हैः-
”अंतःप्रवाह जो उमड़ता वेगवान गति से साकार
तट के मल विक्षेप आवरण पा जाते शुद्ध संस्कार।’
यहां पर कवि का मन उस अतीद्रिय आलोक में विमुग्ध हो उठता है जब वाणी ‘वैखरी’ से ‘मध्यमा’ को पार करती हुई ‘पश्यन्ति’ के द्वार पर साधक में मन को चुपचाप दस्तक दे जाती है।
‘अब लगता है जीवन सार्थक है,
वे मेरे है और मैं उनका हूँ।
वाणी विचार तनमन में गहराए,
एकाकार हो गए, रस बरसा कर।’
कवि नगेन्द्र ने जीवन के उत्तरार्द्ध में लिखना तथा प्रकाशित कराना प्रारम्भ किया था।  कालान्तर में उन की कृतियाँ काव्य सौन्दर्य से हटती दिखाई पड़ती हैं। कविता उन के लिए एक लयात्मक सम्वाद ही बन कर रह गई थी। दयाकृष्ण विजय के बाद सर्वाधिक काव्य संग्रह आप के ही प्रकाशित हुए हैं।
संख्या की दृष्टि से कवि नगेन्द्र के कविता संग्रह अपने आप में जहाँ अभूतपूर्व हैं, वहीं सहृदय सुधी पाठकों के लिए आदर योग्य हैं। उन्हों ने कविता के प्रति प्रेम, एक शिक्षक की तरह अपने आस-पास, हमेशा काव्य संग्रहों को पाठकों को भेंट में देने में सँजोए रखा। वे एक सुसंस्कृत उदात्त  सहृदय गृहस्थ थे। कविता के लिए उसके आराधक कवि की सम्ृति ही सबसे बड़ी प्रार्थना है।

मंगलवार, 20 जनवरी 2015

भूले बिसरे चित्र रमेश चन्द गुप्त

भूले बिसरे चित्र

रमेश चन्द गुप्त

मैं जब सेवानिवृत्ति के बाद जब कोटा आया था, तब किसी कवि गोष्ठी में पहलीबार गुप्ताजी से मिलना हुआ था। अत्यधिक विनम्र तथा संवेदनशील कवि थें उन्होंने ही बताया था कि वे सेवानिवृत्ति के बाद ही काव्यजगत में आए थे। उनका कंठ मधुर था। वे तन्मयता से गीत पढ़ते थे। अस्वस्थ रहते थे। हर बार यही कहते थे, ईश्वर की कृपा हुई तो फिर मिलना होगा।
उनकी सरलता और गीतात्मक अभिव्यक्ति का मुझ पर प्रभाव था, जब वे कविता पाठ करते थे, तब मैं उनके शब्दों के साथ उनके भावजगत में खो जाता था। मैं उनके जाने के बाद उनको भूल ही गया था कि कोटा में प्रेस क्लब में जब नंद बाबू को श्रद्धांजलि दी जारही थी , तब इन्द्र बिहारी जी ने अवगत कराया था कि आज जल्दी जाना है, जंक्शन पर गुप्ता जी की पुण्य तिथि मनाई जा रही है, अचानक गुप्ताजी की स्मृतियॉं समीप आगई्रं।
कोटा के साहित्यप्रेमी तो उनसे परिचित थे , पर बाहर भी मित्र उनकी कविताओं से परिचित हो सकें , यही आशा  है। आपके दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए थे। आपके निवास पर अक्सर कवि गोष्ठियॉं होती थीं, जहॉं जंक्शन पर मित्रों से मिलना हो जाता था।
‘गीत जाह्नवी’ (2002 ई.) रमेश चन्द गुप्त की कविताओं का संग्रह है। रमेश चन्द गुप्त सांस्ड्डतिक काव्य धारा के कवि हैं। वे सुमधुर गीतकार हैं, तन्मयता से गीत गाते हैं। उन की भाषा सरल, सहज व प्रभावोत्पादक है। छन्द वैशिष्ट्य उन का अपना है। राग, छन्दों में समादृत हो कर स्वतः विस्तृत होती है। भाषा आम जन की है, पर शब्दार्थ की रमणीयता उन की विशिष्टता है।
यहाँ जन, मनुष्यता  की  पीर  का  वाहक  है। वह  ‘स्वयं’  सेवार्थी  है। यहाँ  करुणा  मात्र  सम्वेदना  की  वाहक नहीं है,  वह  ‘कर्मरत जीवन’  को  समर्पण  के  लिए प्रेरित करती है:-
”चुन सको तो चुनो, बन्धु ऐसी डगर
जो निहारा करे नित्य गन्तव्य को,
जहां कर्म का लक्ष्य निर्मल नहीं
निरर्थक हुआ हाय, जीवन मरण।
अत्यन्त  संक्षिप्तता  में, काव्य भाषा सूत्रात्मक हो जाती है। ‘शब्द’ स्वतः सहज गेयता मंे, अपने लक्ष्य को सम्वेदित करने में समर्थ हैं। पर यह सपाट बयानी नहीं है।
”स्नेह और बन्धुत्व भूमिगत
जीवन के विश्वास खो गए
मर्यादाएं शिष्ट आचरण
अब तो बस इतिहास हो गए।
‘भूमिगत’  शब्द, व्यंजना में, आज की भौतिकवादी सामाजिक संरचना के समस्त विद्रूप को सरलता से पर्त-दर-पर्त खोलता जाता है।
”शोषक औ शोषित का शाश्वत
वैरभाव चलता आया,
नेह नहीं हो सकता भोली
मछली का मछुआरों से।“
वर्ग वैषम्य की आधार शिला और उस के द्वन्द्व को, जहाँ जनवाद प्रतिवाद, प्रतिकार, प्रतिशोध की भाषा सौंपता है, वहाँ रमेश चन्द गुप्त, विवेक की भूमि पर, सामर्थ्य का सदुपयोग कर के, कर्मरत जीवन को वरेण्यता सौंपते हैं। रमेश चन्द गुप्त, ? मैथिली शरण गुप्त की विस्मृत काव्य धारा, शब्दावली व रूप विधान का आभास, याद दिला जाते हैं। जो गेयता के कारण ‘जन काव्य’ बन गई थी।
‘मुट्ठी भर मधुमास (2006 ई.), गीतकार रमेश चन्द गुप्त का दूसरा काव्य संग्रह है।
रमेश चन्द गुप्त, सांस्कृतिक काव्य धारा के कवि हैं। उन के ‘काव्य रूप’ तथा ‘काव्य वस्तु’ अपनी ज़मीन की उपज हैं। वे जहाँ ‘मनोजगत’ में अपने शब्दों का आधार तलाश करते हैं, वही बाह्य जगत की विसंगतियों से आहत हो कर, उस पीड़ा को सार्वकालिक व सार्वभौमिक बनाने का प्रयास भी करते हैं:-
”पन्थ है अवसाद बोझिल
और घायल है चरण।
कामना के कल्प तरु का
पर नहीं बन्ध्याकरण।“
‘कामना का कल्प तरु’, पृ. 37.
यहाँ व्यक्ति-मन की पीर, अचानक जब निर्वसना हो जाती है तब ‘व्यक्ति मन’, ‘समष्टि मन’ में परिवर्तित हो जाता है:-
”सभ्य जगत में मर्यादा का
बजता रहा सदा इकतारा
लोकतंत्र के गलियारों से
पर संयम-संकेत खो गए।“1 ‘बुनते-बुनते’, पृ. 94.
रमेश चन्द गुप्त की ‘काव्य भाषा’ प्रसाद मयी है, इस में लालित्य है। छन्द में एक स्वाभाविक गति है। यहाँ शब्द क्षिप्र गति से प्रवाहित नदी की शान्त लहरों की तरह तट को छूते हैं। सहज स्वभाविकता, तथा मन्थर गति, उन की काव्य रचना की अपनी विशिष्ट पहचान है। अनुकरण तथा अनुकरण से दूर कवि गुप्त की कविता में जहाँ अनुभूतियों का विरल संगुफन है, वहीं अभिव्यक्ति के स्तर पर मधुरतम सूत्रात्मक भाषा की खोज, उन की कविता का अपना सौन्दर्य है।

आज कवि गोश्यिों में कृत्रिम अट्टहास तथा ”अपना पढ़ा और चुपचाप चलते बने“ की परंपरा विकसित होगर्इ्र है, वहॉं  रमेशचंद्र गुपत की स्मृतियॉं एक सुगध मय हवा का स्पर्श करा जाती हेैं ।

गुरुवार, 15 जनवरी 2015

भूल बिसरे चित्र अरूण सैदवाल


भूल बिसरे चित्र


अरूण सैदवाल 

अरुण सैदवाल झालावाड़ जिले के रहने वाले थे। वे भारतीय प्रशासनिक सेवा की सहयोगी  सेवा डिफेंस एकाउन्ट्स में चयनित होकर देहली चले गए थे। वे अर्थशास्त्र में प्रारम्भिक वर्षों  में प्राध्यापक भी रहे थे। मेरे मित्र प्रीतम चोयल के पुत्र से उनकी बेटी का विवाह हुआ था। उस विवाह में ही उनसे मेरा परिचय पहली बार हुआ था। वे सेवानिवृत्ति के बाद कोटा आगए थे। विकल्प की काव्य गोष्ठियों में उनके कवि रूप से परिचय मिला था। वे उच्च प्रशासनिक सेवा से आए थे , पर वे इसका अहसास किसी को होने नहीं देते थे उन्होंने प्रेमजी प्रेम की राजस्थानी कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया था। बच्चों के लिए एक विज्ञान कथा भी लिखी थी , जो चिल्डरन बुक हाउस से प्रकाशित हुई्र थी। वे जीवन के अतिम दिनो में हाड़ौती शब्द कोश पर कार्य कर रहे थे। उनका प्रोजेक्ट मैसूर की किसी संस्था से स्वीकृत हुआ था। उन्होंने कोटा में एक कार्यशाला भी आयोजित की थी। विकल्प संस्था की ओर से प्रकाशित अभिव्यक्ति के अंक में हितेष व्यास ने उन पर आलेख लिखा था।


अरूण सैदवाल के अविकल्प (1979) तथा करवट लेता समय (2003) प्रकाशित हुए हैं। उनकी कविताओं की एक काव्य पुस्तिका भी विकल्प ने प्रकाशित की थी। जिसका संपादन अंबिका दत्त ने किया था।
 

सैदवाल, की कविता, महानगर में अपनी पहचान तलाशते उस नागरिक की व्यथा-कथा है जो संपूर्ण जिम्मेदारियों के वहन करने के बावजूद पाता है कि वह अपनी अस्मिता को, खोता जा रहा है,... झील में डूबते हुए... उस व्यक्ति की छटपटाहट जो हर तिनके को सहारा पाकर, तट पर आना चाहता हैं... शायद थोड़ा सुकून वह पा जाए,... मार्मिक मनः स्थितियां तथा पारदर्शी भाषा, ... हर पल तेजी से कैनवास पर बिखरते रंगों से संगफझन की चाहत में उपजते दृश्य बिम्ब, उनकी कविता की अपनी विशेषताएं है-

‘‘ अब मैं चुपचाप उनकी
साजिशों में शामिल होने लग गया हंू।
दोस्त ठीक ही कहते हैं
अब मेरे पेट की चर्बी 
और चेहरे की चमक बढ़ने लगी है...
‘काम का आदमी’ पृ.11

झटका या हलाल
दोनों में से किसी एक मौत को
चुनने की
मुझे पूरी आजादी है
यह विकल्प भी है
मेरे ऊपर की गई
कितनी बड़ी मेहरबानी है
(विकल्प)

डॉ. गंगा प्रसाद विमल ने ‘करवट लेता समय’ के पुरोवाक में उनकी काव्य प्रक्रिया पर जो टिप्पणियां दी है, वह विवेचनीय है- ‘वे साधारण-सी स्थितियांे को अपने अनुभव-संसार का हिस्सा बनाते हैं और फिर उसे एक सार्वजनिक से अनुभव में डाल देते हैं। ‘स्व’ से ‘एकदम’ पर की दुनिया की प्रतीती शब्दों के स्तर पर नहीं हो सकती।... परन्तु ‘सैदवाल’ एक सहज सृजन कर्मी की तरह उसका सजग और संयत इस्तेमाल करते हैं।

डॉ. कलानाथ शास्त्री ने, कृति की समीक्षा में (मधुमती जून 2004) कहा है कि -“संकलन, करवट लेता समय’- जिस एक शब्द से भी परिभाषित किया जा सकता है, वह शब्द है, ‘वैविध्यमय’। इसमें कथ्य और शिल्प की विविधता तो है ही भाषा वैविध्यमयी है... साधारण सी साधरण स्थिति भी कवि की व्यंजना का स्पर्श पाकर, जिस दृश्य बिम्ब को सघनता में अभिव्यंजित कर देती है,... वह भाषा गत योजना कवि की अपनी है ।”

“देखिएगा
कुछ बरसों बाद
पहले आएगी खबर,
बाद में होगी घटना
वह दिन दूर नहीं
जब इंटरनेट पर देख लूंगा
मैं अपनी मृत्यु का समाचार
और अगले दिन पाएंगे
लोग मुझे मुरदा।” (समाचार-पृ. 70

तमिल के उपन्यासकार मुरुगन ने यही तो किया हें इंटरनेट पर लिखा है, उपन्यासकार मुरुगन नहीं रहे , शिक्षक मुरुगन जीवित है। साहित्यकार की इसी व्यथा को सैदवाल ने अपने शब्द दिए थे।

...वह साधारण सी स्थित का चयन करता है... वह उसकी अनुभति का स्पर्श पाकर,... एक वृहद आयाम को सौंप जाती है... काव्य भाषा में यह सांकेतिकता.. संक्षिप्तता तथा तरलता यहां दृष्टव्य है-
‘मेरे पास है सिर्फ़
एक आवाज
हो सकता है
तुम्हारे काम आए।

सैदवाल कविता प्रेमी थे। अंग्रेजी , हिन्दी , हाड़ौती पर उनका अधिकार था। पता नहीं क्यों हम अपने सीमित दायरे से बाहर नहीं झांक पाते। वे केन्द्रिय प्रशासनिक सेवा से वर्षों बाहर सेवारत रहकर अपने घर आए थे,  वे अपने आपको कविता को समर्पित करने के बाद भी मित्रों से दूर ही समझते रहे। प्रेमजी प्रेम की हाड़ौती  कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद उनका अंचल के प्रति प्रेम था। पता नहीं क्यों , हम जो अभी- अभी हमारे बीच से उठकर गया है, इतनी जल्दी उसे भूल जाते है।