भूले बिसरे चित्र
नगेन्द्र कुमार सक्सेना -
1971 में मेरी पहली आलोचना की पुस्तक ”गत दो दशक के काव्य में राष्ट्रीय चेतना प्रकाशित हुई थी। तब श्री नंदन जी के साथ सक्सेना जी से मिलने गया था। यह आपसे मेरी पहली मुलाकात थ। आप तब महात्मा गांधी हायर सैकंडरी स्कूल रामपुरा में प्रिंसपिल पद पर कार्य कर रहे थे। आपका साहित्य के प्रति प्रेम आपकी बातचीत से लगाा था। बाद में मैं बाहर सेवारत रहा।
1997 में जब कोटा आया था, तब आपसे दुबारा संबंध नवीनीकृत हुआ। आप सेवानिवृत्ति के बाद सक्रिय रूप से साहित्य में सक्रिय हो चुके थे। आपके कविता संग्रहों की बाढ़ सी आ गई्र थी।ं आपने बहुत लिखा, शांति भारद्वाज कहा करते थे, आपका गद्य , आपकी कविताओं से बेहतर हैं आप अच्छे वक्ता थे, संगीत में रुचि थी। आपने अपनी पत्नी के सहयोग से संगीत की सेवा के लिए , एक संस्था बनाई थी। जिसमे आप संगीतकारों के सम्मान के साथ , साहित्यकारों का सम्मान किया करते थे। आपके घर पर नियमिज काव्य गोष्ठियॉं हुआ करती थीं। आप स्वयं फोन करके , दूरभाष पर निमंत्रित किया करते थे। कोटा जंक्शन पर आपकी साहित्यिक सक्रियता मूल्यवान थी। आपका निवास साहित्य का केन्द्र बन गया था। जीवन के अंतिम समय में आप पुत्र के साथ उदयपुर चले गए थे। वहीं से ही सूचना आपके महाप्रयाण की मिली थी। समय का चक्र बहुत तेजी से चलता है। मुझे याद नहीं , उनके जाने के बाद किसी गोष्ठी में आपको हमने याद भी किया हो। वे बहुत बड़े कवि नहीं थे, निबंध कार नहीं थे। पर सहृदय पाठक थें । निरंतर अपनी उपस्थिति का अहसास हर साहित्यिक कार्यक्रम में बनाए रखते थे। उनकी साहित्य और संगीत के प्रति तीव्र अभिरुचि उन्हें ं सांस्कृतिक चेतना के वाहक के रूप में स्मृति में बनाए रखती है।
अनुभूति’, ‘सत्यमेव जयते’, ‘जीने की सरगम’, ‘समय के स्वर’, ‘शब्दसृष्टि’, ‘दशानन’, ‘स्वांतसुखाय’, ‘नीलगगन के तले’, ‘अदर्शन का दर्शन’, ‘अस्तित्व का प्रवाह’, ‘आनंद स्रोत, ‘अंतःस्वर’, ‘नए सूरज की किरण’ तथा ‘अंतर्प्रवाह’ आप के महत्वपूर्ण काव्य संग्रह हैं। आप के अठारह के आस-पास काव्य-ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं।
नगेन्द्र कुमार सक्सेना के 1.राष्ट्रीय एकता के सांस्ड्डतिक सूत्र 1988 ई. 2. लोकमान्य से लोकनायक तक 1994 ई., 3. आदि से अन्त तक 1995 ई., 4. भारतीय सांस्कृतिक चेतना 1999 ई., 5. भारतीय लोकतन्त्र की अर्र्द्ध शताब्दी 2001 ई., 6. सुखी जीवन के सूत्र 2002 ई. 7. जीवन मूल्य 2003 ई., 8. सफल जीवन की पूर्णता ;2003 ई., तथा 9. शाश्वत सत्य 2005 ई. नौ आलेख संग्रह प्रकाशित हुए हैं।
नगेन्द्र कुमार सक्सेना की सनातनी धार्मिक दृष्टि है, जो संस्कारित है। वे अपनी विचारधार्मिता को स्पष्टता से लिए हुए हैं, उन के चिन्तन केन्द्र में, परिवार में विकसित होता हुआ व्यक्ति है, जो मनुष्यत्व को पाना चाहता है। एक दृष्टि में उन की आध्यात्मिकता तथा सांस्कृतिक-चेतना सम्पन्न दृष्टि, उन की विचार धारा को जहाँ पल्लवित करती है, वहीं विकसित भी करती है।
‘लोकमान्य से लोकनायक तक’, ग्यारह निबन्धों में, राष्ट्रीय चेतना के उन्नायक राष्ट्र नेताओं का स्मरण है।
‘सुखी जीवन के सूत्र’, ‘सफल जीवन की पूर्णता’, ‘जीवन मूल्य’, ड्डतियों के निबन्धों में नगेन्द्र कुमार सक्सेना की पारिवारिक मूल्यों के विघटन से चितिन्त एक पथिक की वेदना की दस्तावेज़ हैं।
‘शाश्वत सत्य’, बारह निबन्धों का संग्रह है। ये विचारात्मक निबन्ध हैं। ‘ईश्वर की अवधारणा’ तथा ‘आनन्दानुभूति’ एक साधक की यात्रा का साक्षित्व है। यही नगेन्द्र कुमार सक्सेना की अपनी विशिष्टता है। आपका गद्य लेखन पठनीय है। उसका एक विशिष्ठ पाठक वर्ग है।
उनका कवि मन छायावादोत्तर काव्य प्रभावों से विकसित हुआ हैं
”छा गयी, काली घटायें
पलक पर पावन बसा है, मौन स्वर निर्घोष करते।
समर्पित किया है, तुम्हें जबसे मैंने
मेरे रात और दिन महकने लगे हैं ।
मन के विपिन में विचरते जो पंछी
मलय गंध पाकर चहकने लगे हैं।“
आप की कविताएँ, समसामयिक परिस्थितियों से आहत एक नागरिक की मनोव्यथा है। आक्रोश उन के कवि-मन को सदा बेचैन करता रहा है। समय के स्वर की यही विवशता है। समसामयिकता का दबाव आप की कविताओं की प्रारम्भिक अन्तर्वस्तु है। ‘दशानन’ भी इसी प्रवृत्ति का ही विकास है। परन्तु कवि मन जहाँ सामान्य नागरिक की भूमिका में समसामयिकता की मातृ-भूमि को अंगीकार करता है, वहीं उन की अन्तर्मुखता उन्हंे रहस्य की ओर ले जाने का प्रयास करती है। यह द्वन्द्व कवि नगेन्द्र की कविताओं का प्रमुख स्थान है। वे बाह्य के दबावों से पीड़ित होते हुए भी अपने ‘स्व’ की सार्वभौमिक रसात्मकता को नहीं छोड़ पाते हैं। उन का मन, अन्तःसलिला में पुनः पुनः लौट कर रसानुभूति की मधुरम फुहारों को, शरद के लौटते हुए मेघों की तरह अनायास बरसा कर चला जाता है। यही कारण है कि ‘जीने की सरगम’ में पुनः वे छयावादोत्तर काव्य सम्वेदना से जुड़ जाते हैं। उन का रहस्य के प्रति सम्मान और उस से प्राप्त अन्तर्मुखता उन की काव्य सम्वेदना को क्रमशः परिमार्जित करती रही है।
समसामयिकता का दबाव जहाँ उन की अभिव्यक्ति को कहीं-कहीं अत्यधिक स्थूल व सपाट बयानी तक पहुँचा देता है, वहीं उन की अन्तर्मुखी अभिव्यक्ति, परिष्कृत काव्य भाषा और अन्तर्मन पर कार्य व्यवहारों का सूक्ष्म चित्रात्मक अप्रन सहज ही सौंप जाती है।
अन्तःप्रवाह में आप ने इसी अन्तर्यात्रा के विभिन्ना अनुभवों को अभिव्यक्ति दी हैः-
”अंतःप्रवाह जो उमड़ता वेगवान गति से साकार
तट के मल विक्षेप आवरण पा जाते शुद्ध संस्कार।’
यहां पर कवि का मन उस अतीद्रिय आलोक में विमुग्ध हो उठता है जब वाणी ‘वैखरी’ से ‘मध्यमा’ को पार करती हुई ‘पश्यन्ति’ के द्वार पर साधक में मन को चुपचाप दस्तक दे जाती है।
‘अब लगता है जीवन सार्थक है,
वे मेरे है और मैं उनका हूँ।
वाणी विचार तनमन में गहराए,
एकाकार हो गए, रस बरसा कर।’
कवि नगेन्द्र ने जीवन के उत्तरार्द्ध में लिखना तथा प्रकाशित कराना प्रारम्भ किया था। कालान्तर में उन की कृतियाँ काव्य सौन्दर्य से हटती दिखाई पड़ती हैं। कविता उन के लिए एक लयात्मक सम्वाद ही बन कर रह गई थी। दयाकृष्ण विजय के बाद सर्वाधिक काव्य संग्रह आप के ही प्रकाशित हुए हैं।
संख्या की दृष्टि से कवि नगेन्द्र के कविता संग्रह अपने आप में जहाँ अभूतपूर्व हैं, वहीं सहृदय सुधी पाठकों के लिए आदर योग्य हैं। उन्हों ने कविता के प्रति प्रेम, एक शिक्षक की तरह अपने आस-पास, हमेशा काव्य संग्रहों को पाठकों को भेंट में देने में सँजोए रखा। वे एक सुसंस्कृत उदात्त सहृदय गृहस्थ थे। कविता के लिए उसके आराधक कवि की सम्ृति ही सबसे बड़ी प्रार्थना है।
नगेन्द्र कुमार सक्सेना -
1971 में मेरी पहली आलोचना की पुस्तक ”गत दो दशक के काव्य में राष्ट्रीय चेतना प्रकाशित हुई थी। तब श्री नंदन जी के साथ सक्सेना जी से मिलने गया था। यह आपसे मेरी पहली मुलाकात थ। आप तब महात्मा गांधी हायर सैकंडरी स्कूल रामपुरा में प्रिंसपिल पद पर कार्य कर रहे थे। आपका साहित्य के प्रति प्रेम आपकी बातचीत से लगाा था। बाद में मैं बाहर सेवारत रहा।
1997 में जब कोटा आया था, तब आपसे दुबारा संबंध नवीनीकृत हुआ। आप सेवानिवृत्ति के बाद सक्रिय रूप से साहित्य में सक्रिय हो चुके थे। आपके कविता संग्रहों की बाढ़ सी आ गई्र थी।ं आपने बहुत लिखा, शांति भारद्वाज कहा करते थे, आपका गद्य , आपकी कविताओं से बेहतर हैं आप अच्छे वक्ता थे, संगीत में रुचि थी। आपने अपनी पत्नी के सहयोग से संगीत की सेवा के लिए , एक संस्था बनाई थी। जिसमे आप संगीतकारों के सम्मान के साथ , साहित्यकारों का सम्मान किया करते थे। आपके घर पर नियमिज काव्य गोष्ठियॉं हुआ करती थीं। आप स्वयं फोन करके , दूरभाष पर निमंत्रित किया करते थे। कोटा जंक्शन पर आपकी साहित्यिक सक्रियता मूल्यवान थी। आपका निवास साहित्य का केन्द्र बन गया था। जीवन के अंतिम समय में आप पुत्र के साथ उदयपुर चले गए थे। वहीं से ही सूचना आपके महाप्रयाण की मिली थी। समय का चक्र बहुत तेजी से चलता है। मुझे याद नहीं , उनके जाने के बाद किसी गोष्ठी में आपको हमने याद भी किया हो। वे बहुत बड़े कवि नहीं थे, निबंध कार नहीं थे। पर सहृदय पाठक थें । निरंतर अपनी उपस्थिति का अहसास हर साहित्यिक कार्यक्रम में बनाए रखते थे। उनकी साहित्य और संगीत के प्रति तीव्र अभिरुचि उन्हें ं सांस्कृतिक चेतना के वाहक के रूप में स्मृति में बनाए रखती है।
अनुभूति’, ‘सत्यमेव जयते’, ‘जीने की सरगम’, ‘समय के स्वर’, ‘शब्दसृष्टि’, ‘दशानन’, ‘स्वांतसुखाय’, ‘नीलगगन के तले’, ‘अदर्शन का दर्शन’, ‘अस्तित्व का प्रवाह’, ‘आनंद स्रोत, ‘अंतःस्वर’, ‘नए सूरज की किरण’ तथा ‘अंतर्प्रवाह’ आप के महत्वपूर्ण काव्य संग्रह हैं। आप के अठारह के आस-पास काव्य-ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं।
नगेन्द्र कुमार सक्सेना के 1.राष्ट्रीय एकता के सांस्ड्डतिक सूत्र 1988 ई. 2. लोकमान्य से लोकनायक तक 1994 ई., 3. आदि से अन्त तक 1995 ई., 4. भारतीय सांस्कृतिक चेतना 1999 ई., 5. भारतीय लोकतन्त्र की अर्र्द्ध शताब्दी 2001 ई., 6. सुखी जीवन के सूत्र 2002 ई. 7. जीवन मूल्य 2003 ई., 8. सफल जीवन की पूर्णता ;2003 ई., तथा 9. शाश्वत सत्य 2005 ई. नौ आलेख संग्रह प्रकाशित हुए हैं।
नगेन्द्र कुमार सक्सेना की सनातनी धार्मिक दृष्टि है, जो संस्कारित है। वे अपनी विचारधार्मिता को स्पष्टता से लिए हुए हैं, उन के चिन्तन केन्द्र में, परिवार में विकसित होता हुआ व्यक्ति है, जो मनुष्यत्व को पाना चाहता है। एक दृष्टि में उन की आध्यात्मिकता तथा सांस्कृतिक-चेतना सम्पन्न दृष्टि, उन की विचार धारा को जहाँ पल्लवित करती है, वहीं विकसित भी करती है।
‘लोकमान्य से लोकनायक तक’, ग्यारह निबन्धों में, राष्ट्रीय चेतना के उन्नायक राष्ट्र नेताओं का स्मरण है।
‘सुखी जीवन के सूत्र’, ‘सफल जीवन की पूर्णता’, ‘जीवन मूल्य’, ड्डतियों के निबन्धों में नगेन्द्र कुमार सक्सेना की पारिवारिक मूल्यों के विघटन से चितिन्त एक पथिक की वेदना की दस्तावेज़ हैं।
‘शाश्वत सत्य’, बारह निबन्धों का संग्रह है। ये विचारात्मक निबन्ध हैं। ‘ईश्वर की अवधारणा’ तथा ‘आनन्दानुभूति’ एक साधक की यात्रा का साक्षित्व है। यही नगेन्द्र कुमार सक्सेना की अपनी विशिष्टता है। आपका गद्य लेखन पठनीय है। उसका एक विशिष्ठ पाठक वर्ग है।
उनका कवि मन छायावादोत्तर काव्य प्रभावों से विकसित हुआ हैं
”छा गयी, काली घटायें
पलक पर पावन बसा है, मौन स्वर निर्घोष करते।
समर्पित किया है, तुम्हें जबसे मैंने
मेरे रात और दिन महकने लगे हैं ।
मन के विपिन में विचरते जो पंछी
मलय गंध पाकर चहकने लगे हैं।“
आप की कविताएँ, समसामयिक परिस्थितियों से आहत एक नागरिक की मनोव्यथा है। आक्रोश उन के कवि-मन को सदा बेचैन करता रहा है। समय के स्वर की यही विवशता है। समसामयिकता का दबाव आप की कविताओं की प्रारम्भिक अन्तर्वस्तु है। ‘दशानन’ भी इसी प्रवृत्ति का ही विकास है। परन्तु कवि मन जहाँ सामान्य नागरिक की भूमिका में समसामयिकता की मातृ-भूमि को अंगीकार करता है, वहीं उन की अन्तर्मुखता उन्हंे रहस्य की ओर ले जाने का प्रयास करती है। यह द्वन्द्व कवि नगेन्द्र की कविताओं का प्रमुख स्थान है। वे बाह्य के दबावों से पीड़ित होते हुए भी अपने ‘स्व’ की सार्वभौमिक रसात्मकता को नहीं छोड़ पाते हैं। उन का मन, अन्तःसलिला में पुनः पुनः लौट कर रसानुभूति की मधुरम फुहारों को, शरद के लौटते हुए मेघों की तरह अनायास बरसा कर चला जाता है। यही कारण है कि ‘जीने की सरगम’ में पुनः वे छयावादोत्तर काव्य सम्वेदना से जुड़ जाते हैं। उन का रहस्य के प्रति सम्मान और उस से प्राप्त अन्तर्मुखता उन की काव्य सम्वेदना को क्रमशः परिमार्जित करती रही है।
समसामयिकता का दबाव जहाँ उन की अभिव्यक्ति को कहीं-कहीं अत्यधिक स्थूल व सपाट बयानी तक पहुँचा देता है, वहीं उन की अन्तर्मुखी अभिव्यक्ति, परिष्कृत काव्य भाषा और अन्तर्मन पर कार्य व्यवहारों का सूक्ष्म चित्रात्मक अप्रन सहज ही सौंप जाती है।
अन्तःप्रवाह में आप ने इसी अन्तर्यात्रा के विभिन्ना अनुभवों को अभिव्यक्ति दी हैः-
”अंतःप्रवाह जो उमड़ता वेगवान गति से साकार
तट के मल विक्षेप आवरण पा जाते शुद्ध संस्कार।’
यहां पर कवि का मन उस अतीद्रिय आलोक में विमुग्ध हो उठता है जब वाणी ‘वैखरी’ से ‘मध्यमा’ को पार करती हुई ‘पश्यन्ति’ के द्वार पर साधक में मन को चुपचाप दस्तक दे जाती है।
‘अब लगता है जीवन सार्थक है,
वे मेरे है और मैं उनका हूँ।
वाणी विचार तनमन में गहराए,
एकाकार हो गए, रस बरसा कर।’
कवि नगेन्द्र ने जीवन के उत्तरार्द्ध में लिखना तथा प्रकाशित कराना प्रारम्भ किया था। कालान्तर में उन की कृतियाँ काव्य सौन्दर्य से हटती दिखाई पड़ती हैं। कविता उन के लिए एक लयात्मक सम्वाद ही बन कर रह गई थी। दयाकृष्ण विजय के बाद सर्वाधिक काव्य संग्रह आप के ही प्रकाशित हुए हैं।
संख्या की दृष्टि से कवि नगेन्द्र के कविता संग्रह अपने आप में जहाँ अभूतपूर्व हैं, वहीं सहृदय सुधी पाठकों के लिए आदर योग्य हैं। उन्हों ने कविता के प्रति प्रेम, एक शिक्षक की तरह अपने आस-पास, हमेशा काव्य संग्रहों को पाठकों को भेंट में देने में सँजोए रखा। वे एक सुसंस्कृत उदात्त सहृदय गृहस्थ थे। कविता के लिए उसके आराधक कवि की सम्ृति ही सबसे बड़ी प्रार्थना है।