मानव धर्म की भूमिका
धर्म हमारे समाज में सदा से ही बहुमूल्य रहा है। आचार्यों ने इसकी अनेकों प्रकार से परिभाषा की हैं आज हमारा समाज इसी प्रश्न को लेकर सबसे अधिक चिंतित है। शताब्दी हुयी जब बंग भूमि से यह संदेश सारी दुनिया में प्रसारित हुआ था कि सभी धर्मो का सार तत्व एक ही है। वह है परमात्मा की प्राप्ति और वह भी इसी जीवन में ही संभव हैं।
परमहंस रामकृष्णदेव ने धर्म की समन्वयवादी धारा दुनिया को देते हुए मानव धर्म को समस्त संसार में प्रतिपादित किया था।
आज पशुओं के समाज की तो हम पहचान करते हैं, परन्तु जब मनुष्य के बारे में चर्चा होती है तो लगता है, मनुष्य का धर्म, उसका स्वभाव ही कहीं खो गया है। मनुष्य या तो हिन्दू हैं, या मुसलमान है, या ईसाई है, या जैन है, या बौद्ध है, भूगोल के आधार पर कहीं वह अमेरिकी है, कहीं वह रूसी है। कहीं वह अमीर है, कहीं वह गरीब है, कहीं वह कांग्रेसी हैं, तो कहीं कम्युनिस्ट हैं।
स्वामी विवेकानंदजी आधुनिक हिन्दू धर्म के महान प्रवक्ता थे हिन्दू धर्म पर अपने आलेख में आपने कहा है-
”हिन्दू लोग अपना धर्म प्राचीन वेदों पर आधारित करते हैं, जिनका नाम ‘जानना’ अर्थ देने वाली विद् धातु से बना है। वे एक ऐसी ग्रंथमाला हैं, जिनमें हमारे विचार से, सभी धर्मों का सार-तत्त्व सन्निहित है, पर हम ऐसा नहीं मानते कि सत्य केवल उनमें ही है। ग्रन्थ हमें आत्मा के अमरत्व की शिक्षा देते हैं। हर देश में और हर मानव-हृदय में एक दृढ़ सन्तुलन खोज निकालने की प्राकृतिक चाह है- कुछ ऐसा खोजने की चाह, जो कभी बदलता न हो। हम ऐसी वस्तु प्रकृति में नहीं पा सकते, क्योंकि यह समस्त विश्व अनंद परिवर्तनों का एक समूह मात्र ही तो है। किन्तु इससे यह परिणाम निकालना कि अपरिवर्तनशील कुछ है ही नहीं, दाक्षिणात्य बौद्धों और चार्वाकवादियों की ही भूल में पड़ना है। इनमें चार्वाकवादी विश्वास करते हैं कि जड़ पदाथ्र ही सब कुछ है और मनस्तत्त्व कुछ भी नहीं, तथा धर्म केवल मात्र धोखा है और नैतिकता तथा साधुता बेकार के अंधविश्वास मात्र हैं। वेदांत दर्शन हमें सिखाता है कि मनुष्य अपनी पाँच इन्द्रियों से बँधा नहीं है। वे केवल वर्तमान को जानते हैं, भविष्य या भूत को नहीं, किन्तु चूँकि वर्तमान में भूत और भविष्य भी निहित होते हैं तथा तीनों ही केवल समय के विभाजन मात्र हैं, वर्तमान भी अज्ञात होता, यदि कुछ ऐसी वस्तु न होती, जो इन्द्रियों से परे है, जो समय से स्वतंत्र हैं, तथा जो भूत और भविष्य को मिलाकर वर्तमान में एकीभूत कर देती है।$$$$$ वेद कहते हैं,समस्तसंसार स्वतंत्रता और परतंत्रता का , मुक्ति और बंधन का मिश्रण हैं, किन्तु इन सबके माध्यम से स्वतं?,अमर,शुद्ध, पूर्ण और पवित्र आत्मा देदीप्यमान है। भाग1 पृ259
वेदों के श्रुुति आधार को सपष्ट करते हुए आपने कहा था-
”वेदों का अर्थ है, भिन्न भिन्न कालों में भिन्न भिन्न व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष। जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त मनुष्यों के पता लगने के पूर्व से ही अपना काम करता चला आया था और आज यदि मनुष्य-जाति उसे भूल भी जाय, तो भी वह नियम अपना काम करता ही रहेगा, ठीक वही बात आध्यात्मिक जगत् का शासन करने वाले नियमों के सम्बन्ध में भी है। एक आत्मा का दूसरे आत्मा के साथ और जीवात्मा का आत्माओं के परम पिता के साथ जो नैतिक तथा आध्यात्मिक सम्बन्ध हैं, वे उनके आविष्कार के पूर्व भी थे, और हम यदि उन्हें भूल भी जायँ, तो भी बने रहेंगे।“ हिन्दू धर्म पर निबन्ध भाग1 पृ8
हम विभिन्नताओं में, सार तत्व की खोज करना चाह रहे हें धर्म ही जीवन का सार तत्व हे। ईश्वरानुभूति ही लक्ष्य हे। सथी नदियॉं , जल प्रपात उसी महारसागर की दिशा में जा रहे है। कर्म कांड का ही मतभेद हे। यह भेद किताबों का, धर्म गुरुओं का है,विधि का हें परमतत्व एक ही है। उसके नाम , उसकी संज्ञा अनेक हो सकती हैं।
स्वामी विवेेकानंद जी के शब्दों में ,” जिस सर्वोच्च लक्ष्य की कल्पना सभी धर्म कर सकते हैं, वह है एक आध्यात्मिक सत्ता की। अतः कोई भी धर्म उससे परे की शिक्षा नहीं दे सकता, हर धर्म में एक सारभूत सत्य होता है, और उस रत्न को धारण करने वाली एक गौण मंजूषा होती है।“ भाग1 पृ283
आज धर्म और उसका स्वरूप ही कहीं खो गया है। मनुष्य अपनी पहचान अपने आपसे ही खो बैठा हैं। धातु की पहचान की उसका स्वभाव है। वही उसका धर्म है। पशु की पहचान उसका स्वभाव है। वह उसका धर्म है। परन्तु मनुष्य का धर्म, मनुष्य अपने मनुष्यत्व को ही खो बैठा है। परमहंस का आहृान इसी धरती पर मनुष्यत्व की स्थापना का था। उन्होंने नाना पंथों की आध्यात्मिक धारा के अनुभव की ज्ञानगंगा से होकर ही यह सत्य पाया था।
कालान्तर में उनका भव्य राज मार्ग भी संकीर्ण होता चला गया। वहां भी एक पंथ हो गया। अन्य पंथ आये व खंडन मण्डन में चले गये आध्यात्म की भूमि भारत है तथा पदार्थ जन्य ज्ञान की भूमि अमेरिका है यूरोप है। दोनों ही ज्ञान के बिना मनुष्य अधूरा है। मात्रा जड़ पदार्थ ही नहीं हैं, वह चेतना का समवाय भी है। जिनकी चेतना की पहचान ही आत्मसाक्षात्कार है। यही उसका स्वभाव है वह खो गया है जिसे उसे पाना है।
धर्म महासभा में अपने हिन्दू धर्म पर निबंध में स्वामीविेकानंदजी ने कहा था,-”
वहाँ भारत में एक के बाद एक न जाने कितने समप्रदायों का उदय हुआ और उन्होंने वैदिक धर्म को जड़ से हिला सा दिया; किन्तु भयंकर भूकम्प के समय समुद्र-तट के जल के समान वह कुछ समय पश्चात् हजार गुना बलशाली होकर सर्वग्रासी आप्लावन के रूप में पुनः लौटने के लिए पीछे हट गया; और जब यह सारा कोलाहल शान्त हो गया, तब इन समस्त धर्म-सम्प्रदायों को उनकी धर्म-माता (हिंदू धर्म) की विराट् काया ने चूस लिया, आत्मसात कर लिया और अपने में पचा डाला।
वह संसार की अवहेलना नहीं कर सकता है। यह ठीक है, यह माया है, परन्तु इसकी भी व्यवहारिक सत्ता है। कर्म से मनुष्य बच नहीं सकता है। कर्म ही कर्म से सन्यास दिला सकता है मनुष्य जीवन का उद्देश्य पूर्णता को पाना है,शारीरिक, आर्थिक, मानसिक, बौद्धिक जो भी शक्तियां प्राकृतिक विधान से पायी गयी हैं, उनका पूर्ण विकास कर उस सामर्थ्य का सदुपयोग करना ही मनुष्य की भौतिक यात्रा का उद्देश्य है। श्रुति ने स्पष्ट निर्देश दिया है ”त्येन त्यकेन भुंजीथा” त्याग करते हुए भोग करो यह सम्पत्ति किसी की भी नहीं है। यह तो ईश्वरीय विभूति है। इसका सम्पादन होना ही जन्म मृत्यु का कारण है।
यह मात्र भोग भूमि ही नहीं हैं, यह तो लीला भूमि भी है। लीला भूमि में सारा कर्म खेल है। नट नटी का खेल है। जो कुशलता से खेला जाता है। अपना खेल भी खेलते रहो, आगे यह ध्यान रहे कि किसी का खेल हमारे कारण से बिगड़ने नहीं पाये, यही परोपकार कहलाता है। तब मनुष्य पाता है, सुख इन्द्रिय जन्य है। शांति अनुभव जन्य है, सुख का भोक्ता शरीर है। शांति मन के करण से संपादित होती है। और अहर्निश शांति में रहने से जब मन, मन से पार चला जाता है वहां मात्रा रह जाता है, आनन्द।
यही तो पूर्ण मनुष्य का स्वभावव है। जिसकी प्रवृत्ति मात्रा अहिंसा है। जिसका सौन्दर्य मात्रा प्रेम है। जो वर्णना से रहित है। जो मात्रा मनुष्यत्व की सुगंध हैं।
हिन्दू धर्म पर निबन्ध में आपने भारतीय चिन्तन की महानतम देन को स्पष्ट करते हुए कहा था-
उन्होंने कहा है कि मनुष्य को इस संसार में पद्यपत्र की तरह रहना चाहिए। पद्यपत्र जैसे पानी में रहकर भी उससे नहीं भीगता, उसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में रहना चाहिए- उसका हृदय ईश्वर में लगा रहे और उसके हाथ कर्म करने में लगे रहें। भाग1 पृ13
इसी संसार में रहते हुए मनुष्य अपनी आध्यात्मिक यात्रा के सर्वोच्च लक्ष्य परमात्मा शक्ति का अनुभव प्राप्त कर जीवन को समाज, परिवार व व्यक्ति के विकास के लिए किस प्रकार समर्पित कर सकता है, यही पाना मनुष्य का लक्ष्य है। हम जब प्रकृति में दो पत्तियों एक जैसा नहीं पाते, तब सबके लिण् एक ही धर्म किा प्रकार चाह सकते हैं।
इस विभ्न्निता को संकेतित करते हुए भारत में ईसाई धर्म नामक आलेख में विवेकानेदजी ने कहा था-
”मनुष्य भिन्न होते हैं। यदि वे ऐसे न होते, तो विश्व-मनोवृत्ति का पतन हो जाता। यदि विभिन्न धर्म न होते, तो कोई धर्म जीवित न रहता। ईसाई को अपने धर्म की आवश्यकता है, हिन्दू को अपने धर्म की। सभी धर्म एक दूसरे से वर्षों से संघर्ष कर चुके हैं। जो धर्म किसी ग्रंथ के आधार पर संस्थापित हुए हैं, वे अभी भी टिके हुए हैं। ईसाई यहूदियों का धर्म-परिवर्तन क्यों नहीं कर सके? क्योंकि वे पारसियों को ईसाई नहीं बना सके? क्यो वे मुसलमानों को धर्मान्तरित नहीं कर सके? चीन और जापान पर कोई प्रभाव क्यों नहीं डाला जा सका?
प्रथम मिशनरी, धर्म, बौद्ध धर्म में धर्म परिवर्तितों की संख्या, किसी अन्य धर्म में परिवर्तित जनों की संख्या से दूनी है और उन्होंने तलवार का प्रयोग नहीं किया। मुसलमानों ने सबसे अधिक हिंसा का प्रयोग किया। तीनों महान् मिशनरी धर्मों में उनकी संध्या सबसे कम है। मुसलामनों का समय बीत चुका है। हर दिन तुम ईसाई राष्ट्रों का रक्तपात से भूमि पर अधिकार करने की बात पढ़ते हो।
धर्म-प्रचारक इसके विरूद्ध क्या उपदेश देते हैं। सर्वाधिक रक्तपिपासु राष्ट्र, उस कथित धर्म पर, जो ईसा का धर्म नहीं है, क्यों गर्व करें? यहूदी और अरब ईसाई धर्म के पिता थे और ईसाइयों द्वारा उन्हें कैसा पीड़ित किया गया! भारत में ईसाइयों को कसौटी पर कसा गया है और वे खोटे सिद्ध हुए हैं। मेरा आशय निर्दय होने का नहीं है, पर मैं ईसाईयों को दिखाना चाहता हूं कि दूसरे उन्हे कैसे देखते हैं। जो धर्म-प्रचारक नरक के अग्निमय गर्त का भय दिखाकर उपदेश देते हैं, उन्हें आतंक से देखा जाता है। मुसलमानों की लहरों पर लहरें तलवार झुमाते हुए भारत में गिरी और आज वे कहाँ हैं? भाग1पृ 283
हम एक नए धर्म की चर्चा कर धर्म परिवर्तन और सांप्रदायिक आग्रह का निषेध करते हे। विवेकानंद जी मानव धर्म की खोज में थे, तहॉं मनुष्य इसी जीवन में स्वतंत्रता पा सके। हर महापुरुष ने उसकी मुक्ति की चाह
रखी है, इस्लामिक साधना में रूह का पवित्र होते हुए अंत में फ़ना हो जाना सार तत्व हे। सूफ़ी परम्परा भक्ति की परमावस्था है।
आज विश्व समुदाय उस पथ की खोज में हैं जो मनुष्यता को उजागर कर सके। जो समाज को सुख शांति दे सके। जहां पूंजीवाद आज सम्पूर्ण समाज पर, विश्व पर अपनी मनोहारी, आत्मघाती प्रवंचकी मुद्रा से भादों की काली घटा की तरह छाता चला जा रहा है। वहीं साम्यवाद ”मागृधः कस्य स्वित् धनम् के सूत्र के साथ लिए यह संपत्ति किसी की भी नही है। कहता हुआ, आचरण में उत्कट भोग और हिंसा का गठजोड़ देखकर हताश है।पर उसका वट वृक्ष उखड़ गया है। पूंजीवाद इसमें अपनी विजय देख रहा है। परन्तु पूंजीवाद मनुष्यत्व के शोषण का अनन्यतम प्रयास है। यह मात्रा मनुष्य को एक उपभोक्ता सामग्री में ही बदल रहा है। यहां मानवीयता नहीं है। मात्रा जड़ता है।
इस धरती का संदेश जहां जितना पुराना रहा है, वहीं उतना ही अधुनातन भी रहा है, यह सम्पति किसी की भी नहीं है, यह सच है, परन्तु ईशा का वास, जड़ चेतन सभी में हैं। यह ऋषि का अनुभव गम्य जयघोष था अधूरे चिंतन पर कोई इमारत खड़ी नही हो सकती। भारत का भविष्य संपूर्ण विश्व का भविष्य है।
भारत को आज अपनी पहचान तलाश करनी है। उसका मार्ग न पूंजीवादी व्यवस्था में हैं, नहीं साम्यवादी जमीन पर है। भारत के भविष्य दृष्टा, मानवीयता की तलाश में वादों की भूलभूलैया में कैद होते चले गये हैं।
हम हिन्दू हैं, धार्मिक है, शरीर का और जीवन का उद्देश्य जानते है। इसी जीवन में ईश्वरानुभूति के मार्ग पर अग्रसर हैं। हम मानते हैं, धर्म हमारा प्राण है।
हमारे धर्म की सामान्य सार बातों पर चर्चा करना उचित मानते हैं।
धर्म के जगत में यहां मात्र शब्द ही महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण आचरण है। भारतीय चिंतन सुख के विरोध में नहीं है। सुख की खोज ही मनुष्य की यात्रा का प्रथम पड़ाव रहा है। यही पूंजीवादी विचारधारा की आकर्षक भूमि है। औपनिषदिक धारा सुख के विरोध में नहीं है। तपस्या का अर्थ शरीर को यातना देना नहीं है। भौतिक वाद की अवहेलना कर, आज मनुष्य जी नहीं सकता है। आज तथा कथित संप्रदाय जो भारतीयता का जयघोष कर पुष्पित व पल्लवित हो रहे हैं। वे यूरोप व अमरीका जाकर वहां से मात्र संपत्ति ही बटोर कर ला रहे हैं। न इधर के रहे न उधर के रहे।
विदूषकों की जमात खड़ी हो गई है। शब्द बासी भोजन की तरह हो गये हैं। और यही कारण है कि संपूर्ण विश्व में भारत की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। स्पष्ट चिंतन, अभय की जमीन पर खड़ा होता है। जब आत्मलीन हंस, मान सरोवर से जुड़ता है, जिसका एक पंख अभय का है, तथा दूसरा विवेक का है, तभी चिंतन के कण ज्योतित होते हैं।जिसको प्रचार की आकांक्षा है, पंथ की आकांक्षा हो, धर्म को राजनीति में जोड़कर प्रभुत्व प्राप्ति का लक्ष्य हो, वह भारतीय आर्ष चिंतन से कोसों दूर हैं। हमें भौतिकवाद को उसका सही स्थान देना होगा। और वह माया ही नहीं, लीला है, यह आधार भूमि है। नाटक है। एक बहुत बड़ा खेल है। स्वप्न तो इसलिए मिथ्या है कि उसमें निरन्तरता नही है। परन्तु जो जाग्रत में भासता है क्या वह भी निरन्तरता में रह पाता है ? यह भी तो उसी तरह निरन्तर गत्यात्मकता में हैं।
परन्तु उसका अर्थ यह नहीं है कि कार्य ही नहीं किया जावें। लीला में कर्म मात्र खेल है। यह तो प्रभु की लीला है। चिरंतन नृत्य है। बूंद के साथ मटमैलापन भी है। धीरे धीरे मटमैलापन कम हो जाये। और वह उज्जवल शुभ हो जावे ताकि ज्योति उसके पारदर्शी तल को ज्योतितं कर जावे, यही साधना रहस्य है।
यही कारण है जो नई राह बनाते हैं, वे परंपरा का अवदान तो होते हैं, परन्तु वे परम्परा के बीच से स्वतः ही हटते जाते हैं। वे मात्र अनुकरण कर्ता नहीं होते, वे मात्रा मौलिक होते हैं। सृजनात्मकता वहीं जन्मती है, जहां पुराना अवदान अपना आशीष देकर स्वतः ही पतझड़ के पत्तों की तरह खामोश विदा ले पाता है। और परम्परा सदा गत्यात्मक होती है, है, परन्तु रूढ़ियाँ जड़ होती है। ये नदी के प्रवाह पको रोकती है। सृजनात्मकता का जन्म इन परम्पराओं के अंतिम छोर पर होता है, जहां परम्परा अपना अवदान सौंपकर स्वतः सन्यासोन्मुख हो जाती है। परम्परा का यहां निर्वाह नहीं होता वरन् गत्यात्मकता प्रयोगी की नई राह सौंपती है। जहां तक पथ है वहां पर परम्परा है। परम्परा में पद चिन्ह होते हैं। परन्तु जो परम्परा को धन्यवाद देकर गतिशील होते हैं। वहां चरण सुरक्षित नहीं रहते हैं। यही पथ विहिन पथ है। जो पथ पर ही हैं, वहां मौलिकता की संभावना तो है, परन्तु सृजनात्मकता अभी गर्म में ही है।
हमारी दृष्टि में , यह सच है, आधुनिकता कभी ओढ़ी नहीं जाती है। आधुनिकता वही जन्मती है, जहां चित्त इतना संवेदनशील हो जाता है कि उसकी समस्त अवधारणाएं चली जाती है। यह चित्त की वह विशेष अवस्था है जहां पतझड़ की तरह सब वासनाएं झड़ जाती है। रह जाता है मात्रा एक खालीपन एक खुला आकाश उसी में आनन्द उपजता है। यही मौलिकता पैदा होती है। यही सृजनशीलता है।यही धार्मिकता है।
स्वतंत्रता जहॉं हर प्रकार का दासत्व चला जाता है।
स्वामी विवेकानंदजी ने कहा था, हिन्दू धर्म में सभी के लिए सारतत्व है, हम सझने का प्रयास करें-
”ईसाई धर्म जैसे सभी धर्मों का दोष यह है कि उनमें सभी के लिए एक ही नियमावली है। किन्तु हिन्दू धर्म सभी प्रकार की धार्मिक अभीप्सा अैर प्रगति की सभी कोटियों के लिए उपयुक्त है। उसमें सभी आदर्श अपने पूर्ण रूप में है। उदाहरण के लिए शांत या परमानन्द का आदर्श वशिष्ठ में मिलता है, प्रेम का कृष्ण में, कर्तव्य का राम और सीता में बुद्धि का शुक्रदेव में। इन और अन्य आदर्श पुरुष के चरित्रों का अध्ययन करो। ऐसे एक को ग्रहण करो, जो तुमको सर्वाधिक अनुकूल लगा हो। स्फुट विचार भाग1 पृ303
आज पश्चिम जिस आधुनिकता की चर्चा करता है, वह उसी प्रकार से है, नीले रंग को छोड़कर हरे रंग के कपड़े पहन लेना। कपड़े कपड़े ही है। कपड़ों के बदलने से रूपान्तरण नहीं आता इसीलिए महावीर ने ”दिगम्बर” की चर्चा की थी। परन्तु जो नंगे हो गये, वे भी परम्परा का अवदान तिरस्कृत कर रूढ़ियों के जाल में चले गए। यहां दिगम्बरता आधुनिकता में परिवर्तित नहीं हो पायी। आधुनिकता सभी अवधारणाओं के व्यापक दबाव से मुक्त मन में उपजती है। जो आधुनिक है, वही मुक्त है। जो मुक्त है वही आधुनिक है। और वास्तव में वही धार्मिक है।
परमहंस ”होमा” पक्षी का उदाहरण दिया करते थे। जो आकाश में ही जन्म लेता और अचानक ही आकाश में इस भय से कि कहीं नीचे आकर मर नहीं जाए वह उड़ने लग जाता। ”होमा” पक्षी का उदाहरण इस मौलिक परिवर्तन की सूचना है। जहां जो घटता है, वह अचानक घटता है। सतत प्रक्रिया उसके अंडज तक होने की है। परन्तु जो मौलिक परिवर्तन उसमें आता है, जहां उसके पंख निकल आते हैं, वह उड़ने लग जाता है। यही मुक्ति पर्व है।
सामान्य हिन्दू भी सांप्रदायिक नहीं होता, वह मस्जिद के सामने से जब गुजरता है, हाथ जोड़ देता है। वह ताकजण् के नीचे से गुजरना चाहता है, उसका विश्वास है, इससे उसका भला होता हे। मानव धर्म वहीं है , जो हर मनुष्य के अभ्युदय और निश्रेयस की कामना रखता है।
धार्मिक वह है जो प्रयोगशील है। जो सत पथ का अन्वेषी है। परन्तु यही नहीं होता है, हम मात्र अनुकरण के पुतले होकर रह जाते हैं। यही विवशता है। जो सत्य पथ का अन्वेषी है, वह कहीं रूकता नहीं है। मात्रा चरेवैति यही पथ रहता है। वहां पर भी रूक गए तो मोह होगा, आत्म मुग्धता सबसे अधिक भयानक है। निज का निज पर जो सम्मोहन होता है, वह आत्मघाती होता है। इस दासता विकारी के साथ ले आता है।
इसलिए भागों मत, सामना करो। संसार में ऐसा कोई अरण्य नहीं हैं, जहां समस्याएं नहीं होगी, दुख नहीं होगा अशान्ति नहीं होगी। यह तो प्राकृतिक घटनाएं हैं। जहां भी तुम हो वहीं रहना सीखो, खूंटियां भी है, धागे भी हैं, पर अब बंधने वाला सजग हो उठा है। तब राग द्वेष के लिए जगह नहीं मिलती है।
21 फरवरी 1894 को डिट्रायट में सवामीजी ने हिन्दू और ईसाई विषय पर भाषण दिया था। मुख्य बात है, हम तब पराधीन थे। 120वर्ष पूर्व के भारत की कल्पना करनी कठिन है, ईसाइयों का शासन था। लगभग सात सौ साल तक इस्लाम शासन कर चुका था। तब हिन्दू धर्म के सार तत्व की बात करना साहसी काम था। हिन्दू धर्म का सार तत्व यहॉं से ग्रहण किया जा सकता है।
स्वामीजी ने कहा था- ”तुम अपने धर्म को आक्रामक धर्म कहते हो। तुम आक्रामक हो, पर तुमने कितने को पाया है? संसार में हर छठवाँ व्यक्ति चीनी प्रजा है अर्थात् बौद्ध है; और तब जापान, तिब्बत, रूस और साइबेरिया और बरमा और श्याम है; और यह चाहे अच्छा न लगे, किन्तु यह ईसाई नैतिकता, यह कैथोलिक सम्प्रदाय सब उन्हीं से निःसृत है। अच्छा, तो यह कैसे किया गया? बिना रक्त की एक बूँद भी बहाये हुए। अपने दम्भ और आत्मश्लाघा के बावजूद, बिना तलवार के ईसाइयत कहाँ सफल हुई है? संपूर्ण विश्व में मुझे एक स्थान दिखाओ। केवल एक, मैं कहता हूँ, ईसाइ धर्म के संपूर्ण इतिहास में एक मुझे दिखाओ; केवल एक, मैं दो नहीं चाहता। मैं जानता हूँ, तुम्हारे पूर्वजों का किस प्रकार धर्म-परिवर्तन किया गया। उनके सामने दो मार्ग थे, धर्म-परिवर्तन करें या मारे जायँ, बस, यही। तुम अपने समस्त दंभ के बावजूद इस्लाम धर्म से क्या अच्छा कर सकते हो। ‘‘बस हमीं है! और क्यों? ‘‘क्योंकि हम दूसरों को मार सकते हैं।’’ अरबों ने यह कहा और उन्होंने दंभ किया। पर आज अरब कहाँ है? वे गृहहीन हैं। रोमन ऐसा कहा करते थे और आज वे कहाँ है? शांति लाने वाले ही धन्य हैं, पृथ्वी उन्हीं की होगी! ऐसी वस्तुएँ, भूमिसात् हो जाती हैं, वे रेत पर बनीं होती है। वह बहुत समय तक नहीं टिक सकतीं। भाग1 पृ278
हिन्दू धर्म जिसमें अनेक संप्रदाय हैं, हिन्सा के आधारप , प्रलोज्ञन के आधार पर धर्म परिवर्तन नहीं चाहतंे।जैन धर्म , सिक्ख र्ध्म, बौद्ध धर्म अपने विचारो ंका प्रसार -प्रचार करते है। यहॉं धर्म परिवर्तन का आग्रह नहीं हे। आप को जो उचित लगे करते रहें। यहॉं तक पति अग्रवाल हिन्दू है, उसकी पत्नी जैन हे। किसी प्रकार का किसी पर कोई दबाब नहीं है।
मुक्ष्य बात है, धर्म का जीवन जीने की कला बन जाना। यहॉं धर्म ही जीवन का प्राण हे। साधना के बिना जीवन अधूरा हे। जैन मंदिर जाता है। हिन्दू मंदिर जाता है। मुसलमान नमाज पढ़ता हे। सिक्ख गुरुद्वारे जाता हे। धर्म का सार तत्व ईश्वरानुभूति पाना हे। सब के लिए सब बराबर हैं। यही मानव धर्म का आधार है।
कर्मकांड पहली पाठशाला है, इसे उपरांत सब के पास अपनं-अपनं पुराण हे। यह यात्रा बहिर्मुखी है। इसके बाद वह अपने भीतर सत्य की तलाश करता हे। यही आध्यात्मिकता है। यहॉं बाह्य का अनुशासन ढीला पड़ जाता हे। यहीं धर्म का सरतत्व उपस्थित होता है।
एकाग्रता के उपसय औा ध्यान सीखना मनुष्य चाहता हे। मन की शांति , शक्ति की चाहत , अनेको संप्रदायों के आचार्यों को जन्म दे जाती है।
सारतत्व साधना का मिलता है- ”पवित्र बनो। अंधविश्वास छोड़ो और प्रकृति के आश्चर्यजनक समन्वय का दर्शन करो। अंधविश्वास धर्म के अधिकांश को मिटाता है। सभी धर्म अच्छे हैं, क्योंकि सारभूत बातें समान है। प्रत्यक मनुष्य को अपने पूर्ण व्यक्तित्व का उपयोग करना चाहिए, परन्तु इन व्यक्तित्वों से एक पूर्णत्व की सृष्टि होती है। यह अद्भुत अवस्था पहले से वर्तमान है। इस आश्चर्यजनक ढाँचे की संरचना में प्रत्येक धर्म का कुछ न कुछ योगदान है। भाग 1 पृ284
और तब वर्तमान में रहने का क्षण उपस्थित हो जाता है। वर्तमान तो काल खंड से मुक्त क्षण है। जब तक अतीत है, भविष्य है, और वह मनोवैज्ञानिक जगत में उपस्थित है, वहां वर्तमान नहीं होता है, वहां राग व द्वेष अपनी संपूर्णता में उपस्थित रहते हैं। वर्तमान में रहने की पहली उपसंपदा यही प्राप्त होती है, बाधएं उसी तरह से उपस्थित रहती है, पर परिवर्तन अपने भीतर आने लगता है। बाह्य अपनी तीव्रता से प्रभावित नहीं कर पाता है। तब चित्त एक विशेष प्रकार की कोमलता को पाता है, जिसकी उपसंपदा है, परोपकारी वृत्ति। यहां राग नहीं होता है, खूंटियों पर अटकने वाला धागा क्षीण हो जाता है, वहां चित्त में स्वतः ही उदारता प्रवेश कर जाती है। यही परोपकारी वृत्ति है। यहां आकर पर का सहारा छूट जाता है। जहां तक वर्तमान में रहने का अभ्यास रहेगा पराश्रय नहीं होगा। दूसरे का सहारा दूसरे की आवश्यकता के हटते ही छूट जाता है।
यह स्थिति शब्दों से वर्णन नहीं की जा सकती है। क्योंकि हमारा सारा जीवन दूसरों पर आश्रित है। दूसरों का सहारा दूसरे की आवश्यकता के हटते ही छूट जाता है। यह स्थिति सही नहीं पाती। कहीं कोई सहारा नहीं मिलतर। सब तरफ जैसे रास्ते ही मानो खो गए हों। कुछ नजर नहीं आता, असफलता बाहर हर मोर्चे पर मिलती है। सब जगह लगता है, रास्ते बन्द हो गए हों। जैसे चूहा पिंजड़े में बन्द हो गया हो। बिल्कुल वैसा ही घट जाता है। साथ के संगी भी हट जाते हैं। पुरानी बाधांएँ रहती हैं। भगवान राम भी बनवास में सीता हरण के बाद ऐसे ही निराश्रित होकर रह गए थे। राजा रानी द्रोपदी को भगवान कृष्ण के लिए पात्रा में चावल का एक दाना मिला था। यही वह स्थिति है, जो साधक के जीवन में घटती है जब प्राकृतिक विधान से परमात्मा की कृपा होती है, तभी हमारे सारे सहारे छूट जाते हैं। ब्रहृानिष्ठ गुरू देने को संसार की सारी सुविधाएं दे सकते हैं। योग क्षे वहाम्यम, परन्तु वे जिन्हें सचमुच देना चाहते हैं, उन्हें बहुमूल्य स्वाश्रय सौंपते हैं।
पराश्रय नहीं। पराधीनता नहीं। तभी लगता है साथी संगी सभी छूट गए हैं आप मात्रा अकेले रह गए हैं। इस खतरे को समझना सरल नहीं है। जब किसी का एक सहारा छूटता है तो जीवन में अंधेरा आ जाता है। जब सारे सहारे छूट जावें , सारे आश्रय चले जाते हैं, तब अचानक जो घट जाता है उसकी कल्पना नहीं होती है। यहीं सन्यास का अनुभव होता है। सारी अवधारणाओं, सारी मान्यताओं से अचानक छूट जाना पर धीरे धीरे यह भी मात्र रूढ़ि होकर रह गई। सन्यास का सौंदर्य चला जाता है। वहां मुक्तता नहीं रही, बंधन रह गया है। जड़ता आ गई । सन्यास इसी स्वाश्रय का दूसरा नाम है। यही आत्मकृपा का अवदान होता है।
यहां कपड़े बदले का आग्रह नहीं है। नही संसार का परित्याग है। वरन् अपने अंतस में उस अभूतपूर्व परिवर्तन का अहसास होना है, जहां मात्र रूपांतरण अभी अभी हुआ है।
स्वामीजी ने कहा था,- ”कितनी ही बार मुझसे कहा गया हैकि अतहत की ओर नजर डालने से मन की अवनति होतह है।इससे कोई फल नहीं होता, अतः हमें भविष्य की ओर दृष्टि रखनी चाहिए। यह सच है।
यह अवधारणा साधारण नहीं होती है। जब किसी साधक के जीवन में ऐसा घटता है, तब उसके भीतर आग लग जाती है। आग, शवदाह मुर्दे जल उठते हैं। रूढ़ियों को शव की तरह लादे विक्रमादित्य घूमता ही रहता है। जो आश्रय है, वे मात्रा शव ही है। अतीत के पिटारे हैं, खुलते हैं। और जलने लग जाते हैं। अब जो बचता है, वह तो राख ही है। वही राख शिवजी ने लगा रखी है। यही भभूत का रहस्य है।
शिव और शव का भेद यही है। जो आश्रयों के सहारे टिका है, वह शव है। उसकी शक्ति का केन्द्र बाहर है। जो अपनी शक्ति के सहारे है, वही शिव है। यहीं से वैराग्य आरम्भ होता है। वैराग्य घर से भाग कर जंगल में जाना नहीं हैं। वहां भी राग रहता है। अंतस के बदलाव के बिना कोई परिवर्तन नहीं आता है। यह सामान्य सा प्रकृति का नियम है। फिरकनी को बाहर से कितना बल लगाओ, जब तक बल रहेगा, फिरकनी घूती रहेगी बल हटा, फिरकनी रूक जावेगी। वैराग्य है, सारे आश्रयों के छूट जाने से उत्पन्न चित्त की सरलता। अगर चित्त प्रभावित है तो राग है। चित्त अप्रभावित है, अविचलित है, तो शांत है। यदि शांत है। तो वैराग्य है।
संसार तो आश्रय की बुनियाद पर ही भविष्य की इमारत तैयार करता है। आश्रय के हिलते ही सुरक्षा की इमारते गिरने लग जाती है। रह जाता है, मात्रा एक खालीपन यही भय आता है। जब तक कहीं ना कहीं आश्रय है, हम भय की ओर से पीठ कर लेते हैं। परन्तु आश्रय के हटते ही चारों तरफ से भय ही भय घेर लेता है। यह भय मृत्यु से बड़ा होता है। मृत्यु के बाद तो सब समाप्त हो जाता है। परन्तु यहां तो जीवित रहते हुए भी सब कुछ को करते हुए देखना है। सारी आसक्तियों को सारी अवधारणाओं को सारी कटुताओं को उस द्धेष को जिसे हम सहेजकर अपने अंतस में रखते चले आए हैं। उनका मर जाना, मिट जाना, क्या बर्दाश्त हो पाता है। होलिका दहन है। अब सब जलेगा। और लौ उठेगी। सन्यासी गैरिक वस्त्र पहनतें हैं। आग की तरह। यह रंग सब राख हो जाने पर उत्पन्न प्रकाश का है। जो उज्जवल है। मात्रा गैरिक है, तब जो शेष रह जाता है, वह मात्रा विश्वास है। होलिका जल जाती है।
घृणा जल जाती है। पशुता जल जाती है। प्रहलाद बच जाता है। मात्र विश्वास बच जाता है। यही तो सन्यासी का गीत है। उसका सौंदर्य है। पर आज जो सन्यासी है, वह तो सबसे ज्यादा असुरक्षित तथा भयभीत है। पूर्वग्रहो से जकड़ा हुआ है।
क्योंकि वह भीतर से अभी राख नहीं हुआ है। उसके अंतस में अभी होलिका नहीं जली है। उसका प्रहलाद अभी परतंत्र है। उसके पास आत्मविश्वास नहीं है।
और यह विश्वास प्राप्त होता है, स्वाश्रय की जमीन पर। जब वह पूरी तरह निराश्रय हो जाता है। तभी उसके भीतर अन्तर्मुखता का प्रवाह जन्मता है। तब उस प्रवाह में उसके भीतर जो अंतर्मन है, जो स्व है, यह प्रकट हो जाता हैं
वही तो अपना आश्रय होता है। वही स्व है। उसका अनुगमन स्वधर्म हैं जिससे न तो देशकाल की दूरी होतर है, और न ही फिर जिसकी प्राप्ति के बाद उससे कभी अलगाव हो पाता है। जहां, अपना आश्रय है, उसका नाम कुछ भी दिया जा सकता है।
यह यात्रा अहम् से आत्म तक की है। जो अहम् है, वह स्थूल होता है, स्थूल को परिभाषित कर सकते हैं, परन्तु जो आत्म है, वहां अहम् है ही नहीं। और जहां कुछ भी नहीं है, उसकी परिभाषा नहीं होती है। उसके लिए जगत ही आत्मवत हो जाता है। श्रुति ने बार बार कहा है सर्व भूतेषु सर्वभूतेषु हिते रतः यही अंतिम अवस्था है। जहां जगत के समस्त प्राणी आत्मवत है। पृथकता का नाम मात्र का अंकन तक नहीं है। यही संस्कृति जन्मती है। जिसकी धरती पर धर्म का वृक्ष खड़ा होता है। इस संस्कृति की बुनियाद व्यवहार है। आचरण है।
यहां बाहुबल नहीं हैं, यहां धन बल नहीं है, यहां मात्र ज्ञान है। ज्ञान, श्रुति स्मृति पर आधारित कोई बड़ी बातें नहीं है। ज्ञान तो हमारा व्यवहार है। हमारा आचरण होता है। तब जो कुछ जाना गया है, वही व्यवहार हो जाता है। यही ज्ञान का आरम्भ है। ज्ञान किसी पाठशाला में नहीं मिलता। न ही सिखाया जाता है। यह तो आचरण की बात है। हमारा व्यवहार ही ज्ञान की परख को बताता है। किताबी बातों को ज्ञान नहीं कहते हैं।
सभी का सार तत्व यही है कि मनुष्य को वर्तमान में रहने की कला आनी चाहिए। और यह प्राप्त होती है मात्रा आत्म कृपा से। तब शरीर और मन और प्राण की धारा एकोन्मुख हो जाती है। इसके लिए किसी ब्राहृाप्रयास की आवश्यकता नहीं है। यहां जो कुछ भी होता है, अंतस में होना है: यही सच्ची धार्मिकता होती है। हमें इसी जीवन में ही विश्व का संचालन करने वाली इस महान शक्ति का अनुभव प्राप्त करना है। और यही तभी होता है जब हम सारे आश्रयों से मुक्त हो जावें, तभी बाहृयमन निष्क्रिय होता जाता है। यह होना एक निरंतरता है, परन्तु जो अचानक घटता है, वह यह है कि अन्तर्मन जो जाग्रत तो था, परन्तु उसका अहसास नहीं था, उसका अहसास जग जाता है यही जागृति है।
परन्तु यही नहीं होता है, हम कितनी भी शास्त्र चर्चा करें, कितना ही बाहृा प्रयास करें, ये सब बाहृा मन को सक्रिय ही करते हैं। चित्त में तो वैसे ही प्रर्याप्त संग्रह था, हम और संग्रह करते जाते हैं, साधना के नाम पर असाधन ही करते हैं। यही माया है। हाँ, जो वर्तमान में हैं, वही इस चक्र से बाहर जा सकता है। चित्त में संग्रह होता है, निरंतर खूटियां पकड़ने से ये खूंटिया होती है, राग -द्वेष की।। राग- द्वेष के संग्रह से यहां भी भीड़ जमा होती रहती है, सुख व दुख का कारण तलाश करने की आदत से। इससे निरंतर भटकाव बना रहता है। पराश्रय कायम रहता है। ये दोनों एक दूसरे के सहयोग है। पूरक हैं। एक कम होता है, दूसरा अपने आप कम होता जाता है।
स्वामीविवेकानंद जी ने दीवान साहब श्री हरिदासजी को 29 जनवरी 1894 के पत्र में लिखा था-
”
”हम केवल सब धर्मों के प्रति सहिष्णुता ही नहीं रखते ,वरन् एन्हें स्वीकार भी करते हैं, एवं प्रभु की सहायता से सारे संसार में इसका प्रचार करने का प्रयत्न भी मैं कर रहा हूॅं।
प्रत्येक मनुष्य और ंएवं प्रत्येक राष्ट्र को महान बनाने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं।-
1 सदाचार की शक्ति में विश्वास
2 ईर्ष्या और सन्देह का परित्याग
3 जो सत् बनने या सत् करने के लिए यत्नवान हों, उनकी सहायता करना।
क्या कारण है हिन्दू राष्ट्र अपनी अद्भुद बुद्धि एवं अन्यान्य गुणों के रहते हुए भी टुकड़े- टुकड़े हो गया।? मेरा उत्तर होगा- ईर्ष्या। कभी भी कोई जाति इस मन्द भाग्य हिन्दू जाति की तरह इतनी नीचता के साथ एक दूसरे से ईर्ष्या करने वाली, एक दूसरे के सुयश से ऐसी डाह करने वाली नहीं हुई, और यदि आप कभी पश्चिमी देशों में आएॅ, तो पश्चिमी राष्ट्रों में इसके अभाव का अनुभव सबसे पहले करेंगे।“ भाग2 पृ325
इस दबाव से तभी मुक्त हुआ जा सकता है, जब इस चक्र को सहज विकास क्रम के अन्तर्गत स्वीकार किया जाता है। विष्णु के चक्र का यही रहस्य है। यही बोधिसत्व का चक्र है। इस चक्र से मात्रासमझ के द्वारा ही स्वतन्त्रता पाई जा सकती है। अन्यता यहां तो मात्रा बंधन ही है। जहां तक अहम है वहां तक जड़ता है। बंधन है। जहां अहम का अभाव होगा, वहां मात्र मुक्तता होगी। और उसकी न तो कोई विशेष पहचान होगी, न कोई विशेषता होगी। यहां जो बच जाती है, वही मात्रा तितिक्षा है। तितिक्षा सहनशीलता नही है यहां तो जो घटता जा रहा है, उससे अप्रभावित होने की क्षमता है। अभी मनोजगत तुरन्त विचलित हो जाता है। मात्र एक आवेग, एक संकेत, एक सहारा ही बहाव के लिए पर्याप्त होता है। परन्तु तितिक्षा धीरे धीरे इस बहाव की गति पर रोक लगाती जाती है। तब प्राप्त होती है, आश्रयहीनता। एक ऐसी अवस्था जहां मात्रा ऊसर जमीन रह जाती है। खूंटियों का अभाव हो जाता है।
रेगिस्तान का भी अपना सौंदर्य है। डूबते हुए सूरज का जो अक्स रेत के टोलों पर पड़ता है, वही शेष रह जाता है, इतना स्पष्ट है कि पद चिन्ह भी साफ साफ दिख जाते हैं। बहाव के प्रति इतनी संवेदनशीलता सतकर्ता से प्राप्त होती है सतर्कता की बच जाती है। जो सजगता में ढलना चाहती है यहीं जो शेष बचता है वही दिगम्बरत्व है। दिगम्बर कपड़ों का खोल देना नहीं हैं। यह तो परम सौंदर्य की उपलब्धि है। यहां तो अंतस का घट रीत गया है। एक अजीब सा खालीपन। वहां रिक्तता भी नहीं हैं। भरा भरा सा है। कुछ छलक जाने को है। खूंटियां नहीं है। बाहृा का दबाव नहीं हैं बन्धन नहीं हैं। खाली भी हुआ है पर भर भी गया है। क्या सचमुच यहां प्रेम नहीं होता ? प्रेम न स्थान घेरता है, न उसकी कोई आकृति है, न कोई छाप होती है। वह तो स्वयं पूर्ण होता है और दिया भी पूरा जाता है जिसे मिलता है वह पूर्ण है जिसके पास रह गया है, वह भी पूर्ण है। यही जो भी व्यक्ति आ रहा है मात्रा एक निमिष में अपने आपको भरा हुआ पा रहा है घट तो उसका ही है, यहां तो मात्रा एक प्रवाह है अंनत प्रवाह, निमिष में ही पात्रा भर जाता है, पात्र फूटा है, और स्वयं ही गले तक भरा हुआ है तो बात दूसरी है, अन्यथा यहां तो देना मात्रा एक छटांक भर है, और पाना मन भर होता है यहीं स्वाश्रय की उपलब्धि होती है। यही आत्मकृपा है। तभी आत्मविश्वास पैदा होता है। तभी विवेक जगता है।
स्वाश्रय ही आत्म कृपा पैदा करता है। आत्म कृपा, साधक को अभय प्रदान करती है। अभय और विवेक यहीं की उप संपदाऐं हैं।
यह कथन मात्रा शाब्दिक नहीं हैं, आज आध्यात्मिक जगत में सबसे अधिक नगण्य मनुष्य हो गया है। उससे उसकी निजता छीन ली गई है। धर्म, शब्द आज इतना विकृत हो चला है कि वह बाहुबल का ही पर्याय हो चला है। सनातन धर्म अपनी गत्यात्म्क यात्रा को खोता हुआ, मनुष्यत्व की स्थापना को छोड़ता हुआ मात्रा विशिष्ट प्रकार के व्यक्ति के निर्माण में ही मानो संलग्न हो गया है।
धर्म के केन्द्र में मनुष्य है । उसका मनुष्यत्व है। उपासना गृह नहीं हैं। जड़ इमारतें नहीं हैं। आज इमारतें महत्वपूर्ण हो गई है। प्रस्तर खंड महत्वपूर्ण है। परन्तु परम चैतन्य मनुष्य उपेक्षित हो गया है। यहां जो यात्रा है, वह मनुष्यत्व की है। आत्मकृपा शब्द बहुमूल्य हैं
जहां तक मंदिर है, उपासना हैं, कर्मकाण्ड है, अर्चना है, वहां दूसरा है, वहां तक पराश्रय है। शक्ति का आश्रय बाहर है। जहां तक आश्रय बाहर है, वहां तक बर्हिमुखता रहेगी। बहाव रहेगा। मन खूंटियों में जकड़ा रहेगा। वह अपने आपसे जुड़ नहीं पाएगा। वह अतीत और भविष्य के संक्रमण में रहेगा। परन्तु जब वह अपने आप से जुड़ने लगता हैं और जितना वह वर्तमान में रहने लगता है, उतना ही उसका मन जो चक्रकार गति से बाहर बहता है वह एकोन्मुखता पाकर अन्तर्मुखी होने लगता है। प्राण मात्रा श्वास ही नहीं हैं। श्वास तो मात्रा सहायक है। मन में गति है। परन्तु प्राण में सृजन करने की क्षमता है। शशु जब गर्भ में होता है तब ले, लेकर उसकी अंतिम यात्रा तक पोषण करने वाली शक्ति ही प्राण है।
विपश्यना साधना आज जिस रूप में प्रचलित है, वह वृक्ष के पत्तों का बाहृा रूपान्तरण है। बिना पतझड़ की प्रतीक्षा लिए नई कोपलें नहीं आती है। एक बार तो निर्वसन होना ही होगा। स्वाश्रय की गन्ध जब देह वृक्ष से निसृत होती है, तब जो कोपले इस वृक्ष से फुटती है, वहां विपश्यना स्वतः उपलब्ध हो जाती है।
विशिष्ट भी है, विपरीत भी है। यह पराश्रय से स्वाश्रय की यात्रा है। बिना स्वाश्रय पाए, आत्मकृपा नहीं आती है इसी भाव भूमि पर ही विपश्यना का संगीत उभरता है। सावित्राी सत्यवान और यम, भारतीय चिन्तन का अद्भुत उदाहरण है। सावित्राी रहस्य प्राण साधना ही है। यह प्राण अब स्वतः ही जो उर्ध्वाकार रहा था। मन की आत्मा कृपा को भाव भूमि पर, जितना वह वर्तमान को उपलब्ध होता जाता है उससे संयुक्त होने लग जाता है। यही योग है। यह युक्ति ही मुक्त मनुष्य की उपसंपदा है। क्योंकि जब स्वतः ही उस मनुष्य के भीतर उसे विवेक की उपलब्धि प्राप्त होती है। यही ब्रहृा निष्ठ गुरू की प्राप्ति का रहस्य है। गुरूत्व स्वतः ही समर्पित होता है। यहां यात्रा अहम् से आत्म की है। आत्म तत्व ही उसका उद्धार कर सकता है। उसे होना है तो अपने आपके प्रति समर्पित होना है।
यहीं तो हृदय की मुक्तावस्था होती है। साधारणी करण में ही आनंद भाव पैदा होता है। हृदय की मुक्तावस्था में ही आनंद उपजता है। और यह मुक्तावस्था ही स्वाश्रय की भूमिका है। यही तो आत्मकृपा है। बिना यहां आए क्या रसेश्वरी से साक्षात्कार संभव है। हृदय की मुक्तावस्था ही श्री राधिका रहस्य है। यहीं आत्मकृपा है। उसकी उपसंपदा प्रेम है। प्रेम का मानवीकरण ही तो श्री कृष्ण है। यही प्रेम है। यहां मात्रा आकर्षण है। अपार्थिक सतत चेतन्य का नृत्य है। जो चिरंतन हो रहा है। इस नृत्य में, इस रास में शरीक होना हो तो हर गोपिका का धर्म है, उसकी जीवेच्छा है। हर बूंद जो सहसा उछली है, और मटमैली हो गई, वह अपना मटमैलापन दूर करके उज्जवल हो पाए, तभी तो सागर में विलीन हो पाती है। पर बूंद कहीं सागर से अलग है। वह तो उसकी अपनी ही है, उसके साथ भी है और अलग भी है। ससाथ तो पहले भी थी, पर पहचान नहीं थी। आज पहचान जो मिल गई है। पहचान होते ही गुण धर्म गया। स्वभाव बन गया। वह अब गोपिका हो गई। और चिरंतन रास में शरीक हो गई। यह महारास चिरंतन है। और इसकी प्राप्ति है, मात्रा प्रेम जिसकी न तो कोई परिभाषा है, न कोई पहचान है।
साधना के नाम पर अतिरिक्त कुछ नहीं करना है, मात्रा वर्तमान में रहना है। जिस भी कार्य में हो, वहां पूरी समग्रता में रहो। मन को वहीं रखो किंचित मात्रा भी विपरीत मत जाने दो।
जब कार्य सम्मुख नहीं हो तब अवलोकन की सहायता से विचारों की श्रंखला को कम करो। यहीं साधन सामग्री सतर्कता है। जो अन्त में सजगता में ढल जाती है। जो जीवन प्राप्त हुआ है वह बहुमूल्य है। उसे पूरी समग्रता में जीना है। सम्पूर्णता में जीना है। यही सुख का रहस्य है। सुख की अवहेलना में समाज जी नहीं सकता है। स्थायी सुख ही शान्ति का भाव है। वर्तमान में रहने से लाभ यह होता है कि व्यक्ति को वह संतुलन प्राप्त हो जाता है कि वह सुख भी पाता है और शांति भी पाता है। और शांति का भोक्ता जो मन है, वह अगर अहर्निश इसी स्थिति में रहने लग जाता है तब वह क्रमशः निष्क्रिय होता हुआ अन्तर्मन में विलीन होने लग जाता है।
यही रास है। वृन्दावन, अंतःकरण है। जहां यह लीला नित्य हो रही है। ”गो” इन्द्रियां हैं। जहां देह वेणुगीत से संयुक्त है। देह जब वांसुरी बन जाती है। जब पराश्रय चला जाता है तब चीर हरण हो जाता है। तब आता है, निराश्रय, फिर स्वाश्रय आता है। और उसी भाव भूमि मंे आत्मकृपा आती है। आत्मकृपा ही रसेश्वरी है। जब दूसरा जो था, वह अप्रासंगिक हो गया, अर्थहीन हो गया, गोपिका जो थ्ज्ञी, वह नृत्योम्मुख हो गई। पूर्णिमा की यह रात है, चारों और सुगंध है, वेणुगीत अंतःकरण मानों उलोच रहा है, एक ऐसा खालीपन जो पहले कभी जाना नहीं था-जो था, वह बाहर आ रहा है, आंखें, आंसुओं से भरी है-पर अब व्यथा नहीं है। दुख भी सहन नहीं हो पा रहा है। भीतर का जब कवंल खिलता है, तब मन गुजार करता हुआ भ्रमर बन जाता है। मानो सारा रस आज ही पी जाएगा। डूबते हुए सूरज को देखा है। कभी कभी आसमान इतना सुनहरी हो जाता है कि मानों रंग बिखर गये हों। यही तो धमाल है। रंग बिखर गए हैं। अंतस भीगा भीगा सा है। उस अंतःकरण में ही आत्मकृपा उपजती है और तब जो शेष रह जाता है, वह आनंद ही है। आनंद की अभिव्यक्ति ही प्रेम है। यहां प्रेम ही साधना है, प्रेम ही साध्य है।
और प्रेम ही मनुष्य की सबसे बड़ी पूंजी है। यही भारतीय चिंतना की बड़ी देन है। पश्चिमी आंख पदार्थ, जन्य ज्ञान को देखती है। उसका आग्रह भौतिकता में हैं। संपत्ति के अधिक से अधिक संग्रह में हैं। विकासशील देश, विकासशील समाज वही है, जहां अधिक से अधिक धन हैं। संपत्ति ही विकास का मानक है। परन्तु इसके विपरीत भारत की आंख, भारत की दृष्टि इसके विपरीत है।
जो त्याग में ही, भारतीयता देखते हैं, वह भी अधूरापन है। यहां तो ”त्येन त्यक्तेन भुंजी था” लक्ष्य रहा यहां मार्ग सामर्थ्य के सदुपयोग का रहा। यह सदुपयोग ही है जो दुरूपयोग को रोक देता है। तब जो जगत है, न तो उसके प्रति लोभ व भोग रहता है, नही उससे पलायन रहता है, वरन् उसके प्रति कर्तव्य बोध जग जाता है। यह कर्तव्य भूमि है, यहां, कुछ भी छोड़ना नहीं है, जिसे छूटना होगा वह स्वयं छूटता जाता है, होना तो यही है, मात्रा वर्तमान में रहने का अधिक से अधिक अभ्यास होना है। जो जीवन प्राप्त हुआ है वह बहुमूल्य है। उसे पूरी समग्रता से जीना है। संपूर्णता में लेना है। यही सहज मार्ग है।
धर्म मनुष्य को उसकी पहचान सौंपता है। उसका नया जन्म होता है। यही द्विज की भूमिका है। अब नया जन्म अन्तर्मुखता की दहलीज पर होता है। जहां पर कृपा छूट जाती है। पराश्रय चला जाता है। वर्तमान रहने का प्रारम्भ यही होता है। अब मन का भूत और भविष्य से संचरण कम होता जाता है अवधारणाएं रहती तो है पर अब उनसे प्रभावित होने की क्षमता कम होती चली जाती है।
आज धार्मिक जगत अवधारणाओं के दासत्व में सोया हुआ है। धार्मिक जन व सामान्य जन में कोई अन्तर नहीं रहा है वे नन्हें शिशुओं की तरह अपने गुड्डे व गुड़ियों को ही श्रेष्ठ मानकर मात्रा बहस ही नहीं करते, वरन् मनुष्य जाति का ही संहार कर रहे हैं। धर्म का यह स्वरूप नहीं है।
पथ आज इतना कठिन नहीं है, जितना सौ वर्ष पूर्व था,स्वामी विेवेकानंदजी ने जो भारत का भविष्य देखा था उस सपने,को हमें पूरा करना है- आपने कहा था-
”मुझसे कहा गया है,अतीत की ओर नजर डालने से सिुर्फ मन की अवनति होती हे और इससे कोई फल नहीं होता, अतः हमें भविष्य की ओर दृष्टि रखनी चाएि। यह सच है। परन्तु अतीत से ही भविष्य का निर्माण होता हें अतः जहॉं तक हो सके, अतीत की ओर देखो पीछे जो चिरन्तन निझंर बह रहा हे।, आकंठ उसका जल पीयो और उसके बाद सामने देखो और भारत को उज्जवलतर , महत्तर और पहले से भी और ऊॅंचा उठाओ।”
$$$$$$$- हमारे पास एकमात्र सम्मिलन भूमि है, हमारी पवित्र परम्परा, हमारा धर्म। एकमात्र सामान्य आधार वही है, और उसी पर हमें संगठन करना होगां। यूरोप में राजन्ैतिक विचार ही राष्ट्रीय एकता का कारण है ,।किन्तु एशिया में राष्ट्रीय एक्य का आधार धर्म ही है। अतः भारत के भविष्य संगठन की पहली शर्त के तौर पर उसी धार्मिक एकता की ही आवश्यकता हेै। देश भर में एक ही धर्म सबको स्वीकारना होगा। एक ही धर्म से मेरा क्या मतलब है? यह उस तरह का एक ही धर्म नहीं ,जिसका , ईसाइयों, मुसलमानो, बौद्धो में प्रचार हेै। हम जानते हैं कि हमारे विभिन्न संप्रदायों के सिद्धांत तथा दावे चाहे कितने ही विभन्न क्यों न , हमारे धर्म के कुछ सिऋयंत ऐसे हें, जो सभी संप्रदायों द्वारा मान्य हैं।$$$$$$और अपने धर्म के ये जीवनप्रद सामान्य तत्व हम सबके सामने लायें,और देश के सभी स्त्री -पुरुष, बाल वृद्ध उन्हें जाने समझें, तथा जीवन में उतारें,- यही हमारे लिए आवश्यक है। सर्वप्रथम यही हमारा कार्य है।ं,“भाग5 पृ181
स्वामीजी के इस चिन्तन का निष्कर्ष आज भी हमारे लिए मार्ग दर्शक है-
”भारत में जाति ,भाषा, समाज संबंधी सारी बाधॉं धम््र की इस एकीकरण की शक्ति के ससामने उड़ जाती हें।। हम जानते हैं कि भारतीय मन के लिए धार्मिक आदर्श से बड़ा और कुछ भी नहीं है । धर्म ही भारतीय जीवनका मूल मंत्र है। पृ 181 भाग 5
साम्प्रदायिकता ही आज धार्मिकता हो गई है। और वह दिन पर दिन बदसूरत होती जा रही है।
हम जिस रास्ते पर चलते हैं, वही लक्ष्य हमें प्राप्त होता है। यह एक प्राकृतिक नियम है। अगर सैंकड़ों सालों की गुलामी के बाद स्वाधीन भारत के मनुष्य की सुख शांति उपलब्ध नहीं है। उसका सामाजिक जीवन और बदतर हो गया है तो उसे इसका कारण अपने भी ही तलाश करना होगा।
वे निरर्थक मूल्य, वे विचारधाराएं जिनका अनुकरण आज मात्रा दोहराव होकर रह गया है। जो हमारे जीवन में कोई रूपान्तरण नहीं ला सकती है, जो उसे उसकी निजता से जोड़ने में असफल रही है, उन्हें छोड़ना ही श्रेयस्कर है।
धर्म हमारे समाज में सदा से ही बहुमूल्य रहा है। आचार्यों ने इसकी अनेकों प्रकार से परिभाषा की हैं आज हमारा समाज इसी प्रश्न को लेकर सबसे अधिक चिंतित है। शताब्दी हुयी जब बंग भूमि से यह संदेश सारी दुनिया में प्रसारित हुआ था कि सभी धर्मो का सार तत्व एक ही है। वह है परमात्मा की प्राप्ति और वह भी इसी जीवन में ही संभव हैं।
परमहंस रामकृष्णदेव ने धर्म की समन्वयवादी धारा दुनिया को देते हुए मानव धर्म को समस्त संसार में प्रतिपादित किया था।
आज पशुओं के समाज की तो हम पहचान करते हैं, परन्तु जब मनुष्य के बारे में चर्चा होती है तो लगता है, मनुष्य का धर्म, उसका स्वभाव ही कहीं खो गया है। मनुष्य या तो हिन्दू हैं, या मुसलमान है, या ईसाई है, या जैन है, या बौद्ध है, भूगोल के आधार पर कहीं वह अमेरिकी है, कहीं वह रूसी है। कहीं वह अमीर है, कहीं वह गरीब है, कहीं वह कांग्रेसी हैं, तो कहीं कम्युनिस्ट हैं।
स्वामी विवेकानंदजी आधुनिक हिन्दू धर्म के महान प्रवक्ता थे हिन्दू धर्म पर अपने आलेख में आपने कहा है-
”हिन्दू लोग अपना धर्म प्राचीन वेदों पर आधारित करते हैं, जिनका नाम ‘जानना’ अर्थ देने वाली विद् धातु से बना है। वे एक ऐसी ग्रंथमाला हैं, जिनमें हमारे विचार से, सभी धर्मों का सार-तत्त्व सन्निहित है, पर हम ऐसा नहीं मानते कि सत्य केवल उनमें ही है। ग्रन्थ हमें आत्मा के अमरत्व की शिक्षा देते हैं। हर देश में और हर मानव-हृदय में एक दृढ़ सन्तुलन खोज निकालने की प्राकृतिक चाह है- कुछ ऐसा खोजने की चाह, जो कभी बदलता न हो। हम ऐसी वस्तु प्रकृति में नहीं पा सकते, क्योंकि यह समस्त विश्व अनंद परिवर्तनों का एक समूह मात्र ही तो है। किन्तु इससे यह परिणाम निकालना कि अपरिवर्तनशील कुछ है ही नहीं, दाक्षिणात्य बौद्धों और चार्वाकवादियों की ही भूल में पड़ना है। इनमें चार्वाकवादी विश्वास करते हैं कि जड़ पदाथ्र ही सब कुछ है और मनस्तत्त्व कुछ भी नहीं, तथा धर्म केवल मात्र धोखा है और नैतिकता तथा साधुता बेकार के अंधविश्वास मात्र हैं। वेदांत दर्शन हमें सिखाता है कि मनुष्य अपनी पाँच इन्द्रियों से बँधा नहीं है। वे केवल वर्तमान को जानते हैं, भविष्य या भूत को नहीं, किन्तु चूँकि वर्तमान में भूत और भविष्य भी निहित होते हैं तथा तीनों ही केवल समय के विभाजन मात्र हैं, वर्तमान भी अज्ञात होता, यदि कुछ ऐसी वस्तु न होती, जो इन्द्रियों से परे है, जो समय से स्वतंत्र हैं, तथा जो भूत और भविष्य को मिलाकर वर्तमान में एकीभूत कर देती है।$$$$$ वेद कहते हैं,समस्तसंसार स्वतंत्रता और परतंत्रता का , मुक्ति और बंधन का मिश्रण हैं, किन्तु इन सबके माध्यम से स्वतं?,अमर,शुद्ध, पूर्ण और पवित्र आत्मा देदीप्यमान है। भाग1 पृ259
वेदों के श्रुुति आधार को सपष्ट करते हुए आपने कहा था-
”वेदों का अर्थ है, भिन्न भिन्न कालों में भिन्न भिन्न व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष। जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त मनुष्यों के पता लगने के पूर्व से ही अपना काम करता चला आया था और आज यदि मनुष्य-जाति उसे भूल भी जाय, तो भी वह नियम अपना काम करता ही रहेगा, ठीक वही बात आध्यात्मिक जगत् का शासन करने वाले नियमों के सम्बन्ध में भी है। एक आत्मा का दूसरे आत्मा के साथ और जीवात्मा का आत्माओं के परम पिता के साथ जो नैतिक तथा आध्यात्मिक सम्बन्ध हैं, वे उनके आविष्कार के पूर्व भी थे, और हम यदि उन्हें भूल भी जायँ, तो भी बने रहेंगे।“ हिन्दू धर्म पर निबन्ध भाग1 पृ8
हम विभिन्नताओं में, सार तत्व की खोज करना चाह रहे हें धर्म ही जीवन का सार तत्व हे। ईश्वरानुभूति ही लक्ष्य हे। सथी नदियॉं , जल प्रपात उसी महारसागर की दिशा में जा रहे है। कर्म कांड का ही मतभेद हे। यह भेद किताबों का, धर्म गुरुओं का है,विधि का हें परमतत्व एक ही है। उसके नाम , उसकी संज्ञा अनेक हो सकती हैं।
स्वामी विवेेकानंद जी के शब्दों में ,” जिस सर्वोच्च लक्ष्य की कल्पना सभी धर्म कर सकते हैं, वह है एक आध्यात्मिक सत्ता की। अतः कोई भी धर्म उससे परे की शिक्षा नहीं दे सकता, हर धर्म में एक सारभूत सत्य होता है, और उस रत्न को धारण करने वाली एक गौण मंजूषा होती है।“ भाग1 पृ283
आज धर्म और उसका स्वरूप ही कहीं खो गया है। मनुष्य अपनी पहचान अपने आपसे ही खो बैठा हैं। धातु की पहचान की उसका स्वभाव है। वही उसका धर्म है। पशु की पहचान उसका स्वभाव है। वह उसका धर्म है। परन्तु मनुष्य का धर्म, मनुष्य अपने मनुष्यत्व को ही खो बैठा है। परमहंस का आहृान इसी धरती पर मनुष्यत्व की स्थापना का था। उन्होंने नाना पंथों की आध्यात्मिक धारा के अनुभव की ज्ञानगंगा से होकर ही यह सत्य पाया था।
कालान्तर में उनका भव्य राज मार्ग भी संकीर्ण होता चला गया। वहां भी एक पंथ हो गया। अन्य पंथ आये व खंडन मण्डन में चले गये आध्यात्म की भूमि भारत है तथा पदार्थ जन्य ज्ञान की भूमि अमेरिका है यूरोप है। दोनों ही ज्ञान के बिना मनुष्य अधूरा है। मात्रा जड़ पदार्थ ही नहीं हैं, वह चेतना का समवाय भी है। जिनकी चेतना की पहचान ही आत्मसाक्षात्कार है। यही उसका स्वभाव है वह खो गया है जिसे उसे पाना है।
धर्म महासभा में अपने हिन्दू धर्म पर निबंध में स्वामीविेकानंदजी ने कहा था,-”
वहाँ भारत में एक के बाद एक न जाने कितने समप्रदायों का उदय हुआ और उन्होंने वैदिक धर्म को जड़ से हिला सा दिया; किन्तु भयंकर भूकम्प के समय समुद्र-तट के जल के समान वह कुछ समय पश्चात् हजार गुना बलशाली होकर सर्वग्रासी आप्लावन के रूप में पुनः लौटने के लिए पीछे हट गया; और जब यह सारा कोलाहल शान्त हो गया, तब इन समस्त धर्म-सम्प्रदायों को उनकी धर्म-माता (हिंदू धर्म) की विराट् काया ने चूस लिया, आत्मसात कर लिया और अपने में पचा डाला।
वह संसार की अवहेलना नहीं कर सकता है। यह ठीक है, यह माया है, परन्तु इसकी भी व्यवहारिक सत्ता है। कर्म से मनुष्य बच नहीं सकता है। कर्म ही कर्म से सन्यास दिला सकता है मनुष्य जीवन का उद्देश्य पूर्णता को पाना है,शारीरिक, आर्थिक, मानसिक, बौद्धिक जो भी शक्तियां प्राकृतिक विधान से पायी गयी हैं, उनका पूर्ण विकास कर उस सामर्थ्य का सदुपयोग करना ही मनुष्य की भौतिक यात्रा का उद्देश्य है। श्रुति ने स्पष्ट निर्देश दिया है ”त्येन त्यकेन भुंजीथा” त्याग करते हुए भोग करो यह सम्पत्ति किसी की भी नहीं है। यह तो ईश्वरीय विभूति है। इसका सम्पादन होना ही जन्म मृत्यु का कारण है।
यह मात्र भोग भूमि ही नहीं हैं, यह तो लीला भूमि भी है। लीला भूमि में सारा कर्म खेल है। नट नटी का खेल है। जो कुशलता से खेला जाता है। अपना खेल भी खेलते रहो, आगे यह ध्यान रहे कि किसी का खेल हमारे कारण से बिगड़ने नहीं पाये, यही परोपकार कहलाता है। तब मनुष्य पाता है, सुख इन्द्रिय जन्य है। शांति अनुभव जन्य है, सुख का भोक्ता शरीर है। शांति मन के करण से संपादित होती है। और अहर्निश शांति में रहने से जब मन, मन से पार चला जाता है वहां मात्रा रह जाता है, आनन्द।
यही तो पूर्ण मनुष्य का स्वभावव है। जिसकी प्रवृत्ति मात्रा अहिंसा है। जिसका सौन्दर्य मात्रा प्रेम है। जो वर्णना से रहित है। जो मात्रा मनुष्यत्व की सुगंध हैं।
हिन्दू धर्म पर निबन्ध में आपने भारतीय चिन्तन की महानतम देन को स्पष्ट करते हुए कहा था-
उन्होंने कहा है कि मनुष्य को इस संसार में पद्यपत्र की तरह रहना चाहिए। पद्यपत्र जैसे पानी में रहकर भी उससे नहीं भीगता, उसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में रहना चाहिए- उसका हृदय ईश्वर में लगा रहे और उसके हाथ कर्म करने में लगे रहें। भाग1 पृ13
इसी संसार में रहते हुए मनुष्य अपनी आध्यात्मिक यात्रा के सर्वोच्च लक्ष्य परमात्मा शक्ति का अनुभव प्राप्त कर जीवन को समाज, परिवार व व्यक्ति के विकास के लिए किस प्रकार समर्पित कर सकता है, यही पाना मनुष्य का लक्ष्य है। हम जब प्रकृति में दो पत्तियों एक जैसा नहीं पाते, तब सबके लिण् एक ही धर्म किा प्रकार चाह सकते हैं।
इस विभ्न्निता को संकेतित करते हुए भारत में ईसाई धर्म नामक आलेख में विवेकानेदजी ने कहा था-
”मनुष्य भिन्न होते हैं। यदि वे ऐसे न होते, तो विश्व-मनोवृत्ति का पतन हो जाता। यदि विभिन्न धर्म न होते, तो कोई धर्म जीवित न रहता। ईसाई को अपने धर्म की आवश्यकता है, हिन्दू को अपने धर्म की। सभी धर्म एक दूसरे से वर्षों से संघर्ष कर चुके हैं। जो धर्म किसी ग्रंथ के आधार पर संस्थापित हुए हैं, वे अभी भी टिके हुए हैं। ईसाई यहूदियों का धर्म-परिवर्तन क्यों नहीं कर सके? क्योंकि वे पारसियों को ईसाई नहीं बना सके? क्यो वे मुसलमानों को धर्मान्तरित नहीं कर सके? चीन और जापान पर कोई प्रभाव क्यों नहीं डाला जा सका?
प्रथम मिशनरी, धर्म, बौद्ध धर्म में धर्म परिवर्तितों की संख्या, किसी अन्य धर्म में परिवर्तित जनों की संख्या से दूनी है और उन्होंने तलवार का प्रयोग नहीं किया। मुसलमानों ने सबसे अधिक हिंसा का प्रयोग किया। तीनों महान् मिशनरी धर्मों में उनकी संध्या सबसे कम है। मुसलामनों का समय बीत चुका है। हर दिन तुम ईसाई राष्ट्रों का रक्तपात से भूमि पर अधिकार करने की बात पढ़ते हो।
धर्म-प्रचारक इसके विरूद्ध क्या उपदेश देते हैं। सर्वाधिक रक्तपिपासु राष्ट्र, उस कथित धर्म पर, जो ईसा का धर्म नहीं है, क्यों गर्व करें? यहूदी और अरब ईसाई धर्म के पिता थे और ईसाइयों द्वारा उन्हें कैसा पीड़ित किया गया! भारत में ईसाइयों को कसौटी पर कसा गया है और वे खोटे सिद्ध हुए हैं। मेरा आशय निर्दय होने का नहीं है, पर मैं ईसाईयों को दिखाना चाहता हूं कि दूसरे उन्हे कैसे देखते हैं। जो धर्म-प्रचारक नरक के अग्निमय गर्त का भय दिखाकर उपदेश देते हैं, उन्हें आतंक से देखा जाता है। मुसलमानों की लहरों पर लहरें तलवार झुमाते हुए भारत में गिरी और आज वे कहाँ हैं? भाग1पृ 283
हम एक नए धर्म की चर्चा कर धर्म परिवर्तन और सांप्रदायिक आग्रह का निषेध करते हे। विवेकानंद जी मानव धर्म की खोज में थे, तहॉं मनुष्य इसी जीवन में स्वतंत्रता पा सके। हर महापुरुष ने उसकी मुक्ति की चाह
रखी है, इस्लामिक साधना में रूह का पवित्र होते हुए अंत में फ़ना हो जाना सार तत्व हे। सूफ़ी परम्परा भक्ति की परमावस्था है।
आज विश्व समुदाय उस पथ की खोज में हैं जो मनुष्यता को उजागर कर सके। जो समाज को सुख शांति दे सके। जहां पूंजीवाद आज सम्पूर्ण समाज पर, विश्व पर अपनी मनोहारी, आत्मघाती प्रवंचकी मुद्रा से भादों की काली घटा की तरह छाता चला जा रहा है। वहीं साम्यवाद ”मागृधः कस्य स्वित् धनम् के सूत्र के साथ लिए यह संपत्ति किसी की भी नही है। कहता हुआ, आचरण में उत्कट भोग और हिंसा का गठजोड़ देखकर हताश है।पर उसका वट वृक्ष उखड़ गया है। पूंजीवाद इसमें अपनी विजय देख रहा है। परन्तु पूंजीवाद मनुष्यत्व के शोषण का अनन्यतम प्रयास है। यह मात्रा मनुष्य को एक उपभोक्ता सामग्री में ही बदल रहा है। यहां मानवीयता नहीं है। मात्रा जड़ता है।
इस धरती का संदेश जहां जितना पुराना रहा है, वहीं उतना ही अधुनातन भी रहा है, यह सम्पति किसी की भी नहीं है, यह सच है, परन्तु ईशा का वास, जड़ चेतन सभी में हैं। यह ऋषि का अनुभव गम्य जयघोष था अधूरे चिंतन पर कोई इमारत खड़ी नही हो सकती। भारत का भविष्य संपूर्ण विश्व का भविष्य है।
भारत को आज अपनी पहचान तलाश करनी है। उसका मार्ग न पूंजीवादी व्यवस्था में हैं, नहीं साम्यवादी जमीन पर है। भारत के भविष्य दृष्टा, मानवीयता की तलाश में वादों की भूलभूलैया में कैद होते चले गये हैं।
हम हिन्दू हैं, धार्मिक है, शरीर का और जीवन का उद्देश्य जानते है। इसी जीवन में ईश्वरानुभूति के मार्ग पर अग्रसर हैं। हम मानते हैं, धर्म हमारा प्राण है।
हमारे धर्म की सामान्य सार बातों पर चर्चा करना उचित मानते हैं।
धर्म के जगत में यहां मात्र शब्द ही महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण आचरण है। भारतीय चिंतन सुख के विरोध में नहीं है। सुख की खोज ही मनुष्य की यात्रा का प्रथम पड़ाव रहा है। यही पूंजीवादी विचारधारा की आकर्षक भूमि है। औपनिषदिक धारा सुख के विरोध में नहीं है। तपस्या का अर्थ शरीर को यातना देना नहीं है। भौतिक वाद की अवहेलना कर, आज मनुष्य जी नहीं सकता है। आज तथा कथित संप्रदाय जो भारतीयता का जयघोष कर पुष्पित व पल्लवित हो रहे हैं। वे यूरोप व अमरीका जाकर वहां से मात्र संपत्ति ही बटोर कर ला रहे हैं। न इधर के रहे न उधर के रहे।
विदूषकों की जमात खड़ी हो गई है। शब्द बासी भोजन की तरह हो गये हैं। और यही कारण है कि संपूर्ण विश्व में भारत की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। स्पष्ट चिंतन, अभय की जमीन पर खड़ा होता है। जब आत्मलीन हंस, मान सरोवर से जुड़ता है, जिसका एक पंख अभय का है, तथा दूसरा विवेक का है, तभी चिंतन के कण ज्योतित होते हैं।जिसको प्रचार की आकांक्षा है, पंथ की आकांक्षा हो, धर्म को राजनीति में जोड़कर प्रभुत्व प्राप्ति का लक्ष्य हो, वह भारतीय आर्ष चिंतन से कोसों दूर हैं। हमें भौतिकवाद को उसका सही स्थान देना होगा। और वह माया ही नहीं, लीला है, यह आधार भूमि है। नाटक है। एक बहुत बड़ा खेल है। स्वप्न तो इसलिए मिथ्या है कि उसमें निरन्तरता नही है। परन्तु जो जाग्रत में भासता है क्या वह भी निरन्तरता में रह पाता है ? यह भी तो उसी तरह निरन्तर गत्यात्मकता में हैं।
परन्तु उसका अर्थ यह नहीं है कि कार्य ही नहीं किया जावें। लीला में कर्म मात्र खेल है। यह तो प्रभु की लीला है। चिरंतन नृत्य है। बूंद के साथ मटमैलापन भी है। धीरे धीरे मटमैलापन कम हो जाये। और वह उज्जवल शुभ हो जावे ताकि ज्योति उसके पारदर्शी तल को ज्योतितं कर जावे, यही साधना रहस्य है।
यही कारण है जो नई राह बनाते हैं, वे परंपरा का अवदान तो होते हैं, परन्तु वे परम्परा के बीच से स्वतः ही हटते जाते हैं। वे मात्र अनुकरण कर्ता नहीं होते, वे मात्रा मौलिक होते हैं। सृजनात्मकता वहीं जन्मती है, जहां पुराना अवदान अपना आशीष देकर स्वतः ही पतझड़ के पत्तों की तरह खामोश विदा ले पाता है। और परम्परा सदा गत्यात्मक होती है, है, परन्तु रूढ़ियाँ जड़ होती है। ये नदी के प्रवाह पको रोकती है। सृजनात्मकता का जन्म इन परम्पराओं के अंतिम छोर पर होता है, जहां परम्परा अपना अवदान सौंपकर स्वतः सन्यासोन्मुख हो जाती है। परम्परा का यहां निर्वाह नहीं होता वरन् गत्यात्मकता प्रयोगी की नई राह सौंपती है। जहां तक पथ है वहां पर परम्परा है। परम्परा में पद चिन्ह होते हैं। परन्तु जो परम्परा को धन्यवाद देकर गतिशील होते हैं। वहां चरण सुरक्षित नहीं रहते हैं। यही पथ विहिन पथ है। जो पथ पर ही हैं, वहां मौलिकता की संभावना तो है, परन्तु सृजनात्मकता अभी गर्म में ही है।
हमारी दृष्टि में , यह सच है, आधुनिकता कभी ओढ़ी नहीं जाती है। आधुनिकता वही जन्मती है, जहां चित्त इतना संवेदनशील हो जाता है कि उसकी समस्त अवधारणाएं चली जाती है। यह चित्त की वह विशेष अवस्था है जहां पतझड़ की तरह सब वासनाएं झड़ जाती है। रह जाता है मात्रा एक खालीपन एक खुला आकाश उसी में आनन्द उपजता है। यही मौलिकता पैदा होती है। यही सृजनशीलता है।यही धार्मिकता है।
स्वतंत्रता जहॉं हर प्रकार का दासत्व चला जाता है।
स्वामी विवेकानंदजी ने कहा था, हिन्दू धर्म में सभी के लिए सारतत्व है, हम सझने का प्रयास करें-
”ईसाई धर्म जैसे सभी धर्मों का दोष यह है कि उनमें सभी के लिए एक ही नियमावली है। किन्तु हिन्दू धर्म सभी प्रकार की धार्मिक अभीप्सा अैर प्रगति की सभी कोटियों के लिए उपयुक्त है। उसमें सभी आदर्श अपने पूर्ण रूप में है। उदाहरण के लिए शांत या परमानन्द का आदर्श वशिष्ठ में मिलता है, प्रेम का कृष्ण में, कर्तव्य का राम और सीता में बुद्धि का शुक्रदेव में। इन और अन्य आदर्श पुरुष के चरित्रों का अध्ययन करो। ऐसे एक को ग्रहण करो, जो तुमको सर्वाधिक अनुकूल लगा हो। स्फुट विचार भाग1 पृ303
आज पश्चिम जिस आधुनिकता की चर्चा करता है, वह उसी प्रकार से है, नीले रंग को छोड़कर हरे रंग के कपड़े पहन लेना। कपड़े कपड़े ही है। कपड़ों के बदलने से रूपान्तरण नहीं आता इसीलिए महावीर ने ”दिगम्बर” की चर्चा की थी। परन्तु जो नंगे हो गये, वे भी परम्परा का अवदान तिरस्कृत कर रूढ़ियों के जाल में चले गए। यहां दिगम्बरता आधुनिकता में परिवर्तित नहीं हो पायी। आधुनिकता सभी अवधारणाओं के व्यापक दबाव से मुक्त मन में उपजती है। जो आधुनिक है, वही मुक्त है। जो मुक्त है वही आधुनिक है। और वास्तव में वही धार्मिक है।
परमहंस ”होमा” पक्षी का उदाहरण दिया करते थे। जो आकाश में ही जन्म लेता और अचानक ही आकाश में इस भय से कि कहीं नीचे आकर मर नहीं जाए वह उड़ने लग जाता। ”होमा” पक्षी का उदाहरण इस मौलिक परिवर्तन की सूचना है। जहां जो घटता है, वह अचानक घटता है। सतत प्रक्रिया उसके अंडज तक होने की है। परन्तु जो मौलिक परिवर्तन उसमें आता है, जहां उसके पंख निकल आते हैं, वह उड़ने लग जाता है। यही मुक्ति पर्व है।
सामान्य हिन्दू भी सांप्रदायिक नहीं होता, वह मस्जिद के सामने से जब गुजरता है, हाथ जोड़ देता है। वह ताकजण् के नीचे से गुजरना चाहता है, उसका विश्वास है, इससे उसका भला होता हे। मानव धर्म वहीं है , जो हर मनुष्य के अभ्युदय और निश्रेयस की कामना रखता है।
धार्मिक वह है जो प्रयोगशील है। जो सत पथ का अन्वेषी है। परन्तु यही नहीं होता है, हम मात्र अनुकरण के पुतले होकर रह जाते हैं। यही विवशता है। जो सत्य पथ का अन्वेषी है, वह कहीं रूकता नहीं है। मात्रा चरेवैति यही पथ रहता है। वहां पर भी रूक गए तो मोह होगा, आत्म मुग्धता सबसे अधिक भयानक है। निज का निज पर जो सम्मोहन होता है, वह आत्मघाती होता है। इस दासता विकारी के साथ ले आता है।
इसलिए भागों मत, सामना करो। संसार में ऐसा कोई अरण्य नहीं हैं, जहां समस्याएं नहीं होगी, दुख नहीं होगा अशान्ति नहीं होगी। यह तो प्राकृतिक घटनाएं हैं। जहां भी तुम हो वहीं रहना सीखो, खूंटियां भी है, धागे भी हैं, पर अब बंधने वाला सजग हो उठा है। तब राग द्वेष के लिए जगह नहीं मिलती है।
21 फरवरी 1894 को डिट्रायट में सवामीजी ने हिन्दू और ईसाई विषय पर भाषण दिया था। मुख्य बात है, हम तब पराधीन थे। 120वर्ष पूर्व के भारत की कल्पना करनी कठिन है, ईसाइयों का शासन था। लगभग सात सौ साल तक इस्लाम शासन कर चुका था। तब हिन्दू धर्म के सार तत्व की बात करना साहसी काम था। हिन्दू धर्म का सार तत्व यहॉं से ग्रहण किया जा सकता है।
स्वामीजी ने कहा था- ”तुम अपने धर्म को आक्रामक धर्म कहते हो। तुम आक्रामक हो, पर तुमने कितने को पाया है? संसार में हर छठवाँ व्यक्ति चीनी प्रजा है अर्थात् बौद्ध है; और तब जापान, तिब्बत, रूस और साइबेरिया और बरमा और श्याम है; और यह चाहे अच्छा न लगे, किन्तु यह ईसाई नैतिकता, यह कैथोलिक सम्प्रदाय सब उन्हीं से निःसृत है। अच्छा, तो यह कैसे किया गया? बिना रक्त की एक बूँद भी बहाये हुए। अपने दम्भ और आत्मश्लाघा के बावजूद, बिना तलवार के ईसाइयत कहाँ सफल हुई है? संपूर्ण विश्व में मुझे एक स्थान दिखाओ। केवल एक, मैं कहता हूँ, ईसाइ धर्म के संपूर्ण इतिहास में एक मुझे दिखाओ; केवल एक, मैं दो नहीं चाहता। मैं जानता हूँ, तुम्हारे पूर्वजों का किस प्रकार धर्म-परिवर्तन किया गया। उनके सामने दो मार्ग थे, धर्म-परिवर्तन करें या मारे जायँ, बस, यही। तुम अपने समस्त दंभ के बावजूद इस्लाम धर्म से क्या अच्छा कर सकते हो। ‘‘बस हमीं है! और क्यों? ‘‘क्योंकि हम दूसरों को मार सकते हैं।’’ अरबों ने यह कहा और उन्होंने दंभ किया। पर आज अरब कहाँ है? वे गृहहीन हैं। रोमन ऐसा कहा करते थे और आज वे कहाँ है? शांति लाने वाले ही धन्य हैं, पृथ्वी उन्हीं की होगी! ऐसी वस्तुएँ, भूमिसात् हो जाती हैं, वे रेत पर बनीं होती है। वह बहुत समय तक नहीं टिक सकतीं। भाग1 पृ278
हिन्दू धर्म जिसमें अनेक संप्रदाय हैं, हिन्सा के आधारप , प्रलोज्ञन के आधार पर धर्म परिवर्तन नहीं चाहतंे।जैन धर्म , सिक्ख र्ध्म, बौद्ध धर्म अपने विचारो ंका प्रसार -प्रचार करते है। यहॉं धर्म परिवर्तन का आग्रह नहीं हे। आप को जो उचित लगे करते रहें। यहॉं तक पति अग्रवाल हिन्दू है, उसकी पत्नी जैन हे। किसी प्रकार का किसी पर कोई दबाब नहीं है।
मुक्ष्य बात है, धर्म का जीवन जीने की कला बन जाना। यहॉं धर्म ही जीवन का प्राण हे। साधना के बिना जीवन अधूरा हे। जैन मंदिर जाता है। हिन्दू मंदिर जाता है। मुसलमान नमाज पढ़ता हे। सिक्ख गुरुद्वारे जाता हे। धर्म का सार तत्व ईश्वरानुभूति पाना हे। सब के लिए सब बराबर हैं। यही मानव धर्म का आधार है।
कर्मकांड पहली पाठशाला है, इसे उपरांत सब के पास अपनं-अपनं पुराण हे। यह यात्रा बहिर्मुखी है। इसके बाद वह अपने भीतर सत्य की तलाश करता हे। यही आध्यात्मिकता है। यहॉं बाह्य का अनुशासन ढीला पड़ जाता हे। यहीं धर्म का सरतत्व उपस्थित होता है।
एकाग्रता के उपसय औा ध्यान सीखना मनुष्य चाहता हे। मन की शांति , शक्ति की चाहत , अनेको संप्रदायों के आचार्यों को जन्म दे जाती है।
सारतत्व साधना का मिलता है- ”पवित्र बनो। अंधविश्वास छोड़ो और प्रकृति के आश्चर्यजनक समन्वय का दर्शन करो। अंधविश्वास धर्म के अधिकांश को मिटाता है। सभी धर्म अच्छे हैं, क्योंकि सारभूत बातें समान है। प्रत्यक मनुष्य को अपने पूर्ण व्यक्तित्व का उपयोग करना चाहिए, परन्तु इन व्यक्तित्वों से एक पूर्णत्व की सृष्टि होती है। यह अद्भुत अवस्था पहले से वर्तमान है। इस आश्चर्यजनक ढाँचे की संरचना में प्रत्येक धर्म का कुछ न कुछ योगदान है। भाग 1 पृ284
और तब वर्तमान में रहने का क्षण उपस्थित हो जाता है। वर्तमान तो काल खंड से मुक्त क्षण है। जब तक अतीत है, भविष्य है, और वह मनोवैज्ञानिक जगत में उपस्थित है, वहां वर्तमान नहीं होता है, वहां राग व द्वेष अपनी संपूर्णता में उपस्थित रहते हैं। वर्तमान में रहने की पहली उपसंपदा यही प्राप्त होती है, बाधएं उसी तरह से उपस्थित रहती है, पर परिवर्तन अपने भीतर आने लगता है। बाह्य अपनी तीव्रता से प्रभावित नहीं कर पाता है। तब चित्त एक विशेष प्रकार की कोमलता को पाता है, जिसकी उपसंपदा है, परोपकारी वृत्ति। यहां राग नहीं होता है, खूंटियों पर अटकने वाला धागा क्षीण हो जाता है, वहां चित्त में स्वतः ही उदारता प्रवेश कर जाती है। यही परोपकारी वृत्ति है। यहां आकर पर का सहारा छूट जाता है। जहां तक वर्तमान में रहने का अभ्यास रहेगा पराश्रय नहीं होगा। दूसरे का सहारा दूसरे की आवश्यकता के हटते ही छूट जाता है।
यह स्थिति शब्दों से वर्णन नहीं की जा सकती है। क्योंकि हमारा सारा जीवन दूसरों पर आश्रित है। दूसरों का सहारा दूसरे की आवश्यकता के हटते ही छूट जाता है। यह स्थिति सही नहीं पाती। कहीं कोई सहारा नहीं मिलतर। सब तरफ जैसे रास्ते ही मानो खो गए हों। कुछ नजर नहीं आता, असफलता बाहर हर मोर्चे पर मिलती है। सब जगह लगता है, रास्ते बन्द हो गए हों। जैसे चूहा पिंजड़े में बन्द हो गया हो। बिल्कुल वैसा ही घट जाता है। साथ के संगी भी हट जाते हैं। पुरानी बाधांएँ रहती हैं। भगवान राम भी बनवास में सीता हरण के बाद ऐसे ही निराश्रित होकर रह गए थे। राजा रानी द्रोपदी को भगवान कृष्ण के लिए पात्रा में चावल का एक दाना मिला था। यही वह स्थिति है, जो साधक के जीवन में घटती है जब प्राकृतिक विधान से परमात्मा की कृपा होती है, तभी हमारे सारे सहारे छूट जाते हैं। ब्रहृानिष्ठ गुरू देने को संसार की सारी सुविधाएं दे सकते हैं। योग क्षे वहाम्यम, परन्तु वे जिन्हें सचमुच देना चाहते हैं, उन्हें बहुमूल्य स्वाश्रय सौंपते हैं।
पराश्रय नहीं। पराधीनता नहीं। तभी लगता है साथी संगी सभी छूट गए हैं आप मात्रा अकेले रह गए हैं। इस खतरे को समझना सरल नहीं है। जब किसी का एक सहारा छूटता है तो जीवन में अंधेरा आ जाता है। जब सारे सहारे छूट जावें , सारे आश्रय चले जाते हैं, तब अचानक जो घट जाता है उसकी कल्पना नहीं होती है। यहीं सन्यास का अनुभव होता है। सारी अवधारणाओं, सारी मान्यताओं से अचानक छूट जाना पर धीरे धीरे यह भी मात्र रूढ़ि होकर रह गई। सन्यास का सौंदर्य चला जाता है। वहां मुक्तता नहीं रही, बंधन रह गया है। जड़ता आ गई । सन्यास इसी स्वाश्रय का दूसरा नाम है। यही आत्मकृपा का अवदान होता है।
यहां कपड़े बदले का आग्रह नहीं है। नही संसार का परित्याग है। वरन् अपने अंतस में उस अभूतपूर्व परिवर्तन का अहसास होना है, जहां मात्र रूपांतरण अभी अभी हुआ है।
स्वामीजी ने कहा था,- ”कितनी ही बार मुझसे कहा गया हैकि अतहत की ओर नजर डालने से मन की अवनति होतह है।इससे कोई फल नहीं होता, अतः हमें भविष्य की ओर दृष्टि रखनी चाहिए। यह सच है।
यह अवधारणा साधारण नहीं होती है। जब किसी साधक के जीवन में ऐसा घटता है, तब उसके भीतर आग लग जाती है। आग, शवदाह मुर्दे जल उठते हैं। रूढ़ियों को शव की तरह लादे विक्रमादित्य घूमता ही रहता है। जो आश्रय है, वे मात्रा शव ही है। अतीत के पिटारे हैं, खुलते हैं। और जलने लग जाते हैं। अब जो बचता है, वह तो राख ही है। वही राख शिवजी ने लगा रखी है। यही भभूत का रहस्य है।
शिव और शव का भेद यही है। जो आश्रयों के सहारे टिका है, वह शव है। उसकी शक्ति का केन्द्र बाहर है। जो अपनी शक्ति के सहारे है, वही शिव है। यहीं से वैराग्य आरम्भ होता है। वैराग्य घर से भाग कर जंगल में जाना नहीं हैं। वहां भी राग रहता है। अंतस के बदलाव के बिना कोई परिवर्तन नहीं आता है। यह सामान्य सा प्रकृति का नियम है। फिरकनी को बाहर से कितना बल लगाओ, जब तक बल रहेगा, फिरकनी घूती रहेगी बल हटा, फिरकनी रूक जावेगी। वैराग्य है, सारे आश्रयों के छूट जाने से उत्पन्न चित्त की सरलता। अगर चित्त प्रभावित है तो राग है। चित्त अप्रभावित है, अविचलित है, तो शांत है। यदि शांत है। तो वैराग्य है।
संसार तो आश्रय की बुनियाद पर ही भविष्य की इमारत तैयार करता है। आश्रय के हिलते ही सुरक्षा की इमारते गिरने लग जाती है। रह जाता है, मात्रा एक खालीपन यही भय आता है। जब तक कहीं ना कहीं आश्रय है, हम भय की ओर से पीठ कर लेते हैं। परन्तु आश्रय के हटते ही चारों तरफ से भय ही भय घेर लेता है। यह भय मृत्यु से बड़ा होता है। मृत्यु के बाद तो सब समाप्त हो जाता है। परन्तु यहां तो जीवित रहते हुए भी सब कुछ को करते हुए देखना है। सारी आसक्तियों को सारी अवधारणाओं को सारी कटुताओं को उस द्धेष को जिसे हम सहेजकर अपने अंतस में रखते चले आए हैं। उनका मर जाना, मिट जाना, क्या बर्दाश्त हो पाता है। होलिका दहन है। अब सब जलेगा। और लौ उठेगी। सन्यासी गैरिक वस्त्र पहनतें हैं। आग की तरह। यह रंग सब राख हो जाने पर उत्पन्न प्रकाश का है। जो उज्जवल है। मात्रा गैरिक है, तब जो शेष रह जाता है, वह मात्रा विश्वास है। होलिका जल जाती है।
घृणा जल जाती है। पशुता जल जाती है। प्रहलाद बच जाता है। मात्र विश्वास बच जाता है। यही तो सन्यासी का गीत है। उसका सौंदर्य है। पर आज जो सन्यासी है, वह तो सबसे ज्यादा असुरक्षित तथा भयभीत है। पूर्वग्रहो से जकड़ा हुआ है।
क्योंकि वह भीतर से अभी राख नहीं हुआ है। उसके अंतस में अभी होलिका नहीं जली है। उसका प्रहलाद अभी परतंत्र है। उसके पास आत्मविश्वास नहीं है।
और यह विश्वास प्राप्त होता है, स्वाश्रय की जमीन पर। जब वह पूरी तरह निराश्रय हो जाता है। तभी उसके भीतर अन्तर्मुखता का प्रवाह जन्मता है। तब उस प्रवाह में उसके भीतर जो अंतर्मन है, जो स्व है, यह प्रकट हो जाता हैं
वही तो अपना आश्रय होता है। वही स्व है। उसका अनुगमन स्वधर्म हैं जिससे न तो देशकाल की दूरी होतर है, और न ही फिर जिसकी प्राप्ति के बाद उससे कभी अलगाव हो पाता है। जहां, अपना आश्रय है, उसका नाम कुछ भी दिया जा सकता है।
यह यात्रा अहम् से आत्म तक की है। जो अहम् है, वह स्थूल होता है, स्थूल को परिभाषित कर सकते हैं, परन्तु जो आत्म है, वहां अहम् है ही नहीं। और जहां कुछ भी नहीं है, उसकी परिभाषा नहीं होती है। उसके लिए जगत ही आत्मवत हो जाता है। श्रुति ने बार बार कहा है सर्व भूतेषु सर्वभूतेषु हिते रतः यही अंतिम अवस्था है। जहां जगत के समस्त प्राणी आत्मवत है। पृथकता का नाम मात्र का अंकन तक नहीं है। यही संस्कृति जन्मती है। जिसकी धरती पर धर्म का वृक्ष खड़ा होता है। इस संस्कृति की बुनियाद व्यवहार है। आचरण है।
यहां बाहुबल नहीं हैं, यहां धन बल नहीं है, यहां मात्र ज्ञान है। ज्ञान, श्रुति स्मृति पर आधारित कोई बड़ी बातें नहीं है। ज्ञान तो हमारा व्यवहार है। हमारा आचरण होता है। तब जो कुछ जाना गया है, वही व्यवहार हो जाता है। यही ज्ञान का आरम्भ है। ज्ञान किसी पाठशाला में नहीं मिलता। न ही सिखाया जाता है। यह तो आचरण की बात है। हमारा व्यवहार ही ज्ञान की परख को बताता है। किताबी बातों को ज्ञान नहीं कहते हैं।
सभी का सार तत्व यही है कि मनुष्य को वर्तमान में रहने की कला आनी चाहिए। और यह प्राप्त होती है मात्रा आत्म कृपा से। तब शरीर और मन और प्राण की धारा एकोन्मुख हो जाती है। इसके लिए किसी ब्राहृाप्रयास की आवश्यकता नहीं है। यहां जो कुछ भी होता है, अंतस में होना है: यही सच्ची धार्मिकता होती है। हमें इसी जीवन में ही विश्व का संचालन करने वाली इस महान शक्ति का अनुभव प्राप्त करना है। और यही तभी होता है जब हम सारे आश्रयों से मुक्त हो जावें, तभी बाहृयमन निष्क्रिय होता जाता है। यह होना एक निरंतरता है, परन्तु जो अचानक घटता है, वह यह है कि अन्तर्मन जो जाग्रत तो था, परन्तु उसका अहसास नहीं था, उसका अहसास जग जाता है यही जागृति है।
परन्तु यही नहीं होता है, हम कितनी भी शास्त्र चर्चा करें, कितना ही बाहृा प्रयास करें, ये सब बाहृा मन को सक्रिय ही करते हैं। चित्त में तो वैसे ही प्रर्याप्त संग्रह था, हम और संग्रह करते जाते हैं, साधना के नाम पर असाधन ही करते हैं। यही माया है। हाँ, जो वर्तमान में हैं, वही इस चक्र से बाहर जा सकता है। चित्त में संग्रह होता है, निरंतर खूटियां पकड़ने से ये खूंटिया होती है, राग -द्वेष की।। राग- द्वेष के संग्रह से यहां भी भीड़ जमा होती रहती है, सुख व दुख का कारण तलाश करने की आदत से। इससे निरंतर भटकाव बना रहता है। पराश्रय कायम रहता है। ये दोनों एक दूसरे के सहयोग है। पूरक हैं। एक कम होता है, दूसरा अपने आप कम होता जाता है।
स्वामीविवेकानंद जी ने दीवान साहब श्री हरिदासजी को 29 जनवरी 1894 के पत्र में लिखा था-
”
”हम केवल सब धर्मों के प्रति सहिष्णुता ही नहीं रखते ,वरन् एन्हें स्वीकार भी करते हैं, एवं प्रभु की सहायता से सारे संसार में इसका प्रचार करने का प्रयत्न भी मैं कर रहा हूॅं।
प्रत्येक मनुष्य और ंएवं प्रत्येक राष्ट्र को महान बनाने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं।-
1 सदाचार की शक्ति में विश्वास
2 ईर्ष्या और सन्देह का परित्याग
3 जो सत् बनने या सत् करने के लिए यत्नवान हों, उनकी सहायता करना।
क्या कारण है हिन्दू राष्ट्र अपनी अद्भुद बुद्धि एवं अन्यान्य गुणों के रहते हुए भी टुकड़े- टुकड़े हो गया।? मेरा उत्तर होगा- ईर्ष्या। कभी भी कोई जाति इस मन्द भाग्य हिन्दू जाति की तरह इतनी नीचता के साथ एक दूसरे से ईर्ष्या करने वाली, एक दूसरे के सुयश से ऐसी डाह करने वाली नहीं हुई, और यदि आप कभी पश्चिमी देशों में आएॅ, तो पश्चिमी राष्ट्रों में इसके अभाव का अनुभव सबसे पहले करेंगे।“ भाग2 पृ325
इस दबाव से तभी मुक्त हुआ जा सकता है, जब इस चक्र को सहज विकास क्रम के अन्तर्गत स्वीकार किया जाता है। विष्णु के चक्र का यही रहस्य है। यही बोधिसत्व का चक्र है। इस चक्र से मात्रासमझ के द्वारा ही स्वतन्त्रता पाई जा सकती है। अन्यता यहां तो मात्रा बंधन ही है। जहां तक अहम है वहां तक जड़ता है। बंधन है। जहां अहम का अभाव होगा, वहां मात्र मुक्तता होगी। और उसकी न तो कोई विशेष पहचान होगी, न कोई विशेषता होगी। यहां जो बच जाती है, वही मात्रा तितिक्षा है। तितिक्षा सहनशीलता नही है यहां तो जो घटता जा रहा है, उससे अप्रभावित होने की क्षमता है। अभी मनोजगत तुरन्त विचलित हो जाता है। मात्र एक आवेग, एक संकेत, एक सहारा ही बहाव के लिए पर्याप्त होता है। परन्तु तितिक्षा धीरे धीरे इस बहाव की गति पर रोक लगाती जाती है। तब प्राप्त होती है, आश्रयहीनता। एक ऐसी अवस्था जहां मात्रा ऊसर जमीन रह जाती है। खूंटियों का अभाव हो जाता है।
रेगिस्तान का भी अपना सौंदर्य है। डूबते हुए सूरज का जो अक्स रेत के टोलों पर पड़ता है, वही शेष रह जाता है, इतना स्पष्ट है कि पद चिन्ह भी साफ साफ दिख जाते हैं। बहाव के प्रति इतनी संवेदनशीलता सतकर्ता से प्राप्त होती है सतर्कता की बच जाती है। जो सजगता में ढलना चाहती है यहीं जो शेष बचता है वही दिगम्बरत्व है। दिगम्बर कपड़ों का खोल देना नहीं हैं। यह तो परम सौंदर्य की उपलब्धि है। यहां तो अंतस का घट रीत गया है। एक अजीब सा खालीपन। वहां रिक्तता भी नहीं हैं। भरा भरा सा है। कुछ छलक जाने को है। खूंटियां नहीं है। बाहृा का दबाव नहीं हैं बन्धन नहीं हैं। खाली भी हुआ है पर भर भी गया है। क्या सचमुच यहां प्रेम नहीं होता ? प्रेम न स्थान घेरता है, न उसकी कोई आकृति है, न कोई छाप होती है। वह तो स्वयं पूर्ण होता है और दिया भी पूरा जाता है जिसे मिलता है वह पूर्ण है जिसके पास रह गया है, वह भी पूर्ण है। यही जो भी व्यक्ति आ रहा है मात्रा एक निमिष में अपने आपको भरा हुआ पा रहा है घट तो उसका ही है, यहां तो मात्रा एक प्रवाह है अंनत प्रवाह, निमिष में ही पात्रा भर जाता है, पात्र फूटा है, और स्वयं ही गले तक भरा हुआ है तो बात दूसरी है, अन्यथा यहां तो देना मात्रा एक छटांक भर है, और पाना मन भर होता है यहीं स्वाश्रय की उपलब्धि होती है। यही आत्मकृपा है। तभी आत्मविश्वास पैदा होता है। तभी विवेक जगता है।
स्वाश्रय ही आत्म कृपा पैदा करता है। आत्म कृपा, साधक को अभय प्रदान करती है। अभय और विवेक यहीं की उप संपदाऐं हैं।
यह कथन मात्रा शाब्दिक नहीं हैं, आज आध्यात्मिक जगत में सबसे अधिक नगण्य मनुष्य हो गया है। उससे उसकी निजता छीन ली गई है। धर्म, शब्द आज इतना विकृत हो चला है कि वह बाहुबल का ही पर्याय हो चला है। सनातन धर्म अपनी गत्यात्म्क यात्रा को खोता हुआ, मनुष्यत्व की स्थापना को छोड़ता हुआ मात्रा विशिष्ट प्रकार के व्यक्ति के निर्माण में ही मानो संलग्न हो गया है।
धर्म के केन्द्र में मनुष्य है । उसका मनुष्यत्व है। उपासना गृह नहीं हैं। जड़ इमारतें नहीं हैं। आज इमारतें महत्वपूर्ण हो गई है। प्रस्तर खंड महत्वपूर्ण है। परन्तु परम चैतन्य मनुष्य उपेक्षित हो गया है। यहां जो यात्रा है, वह मनुष्यत्व की है। आत्मकृपा शब्द बहुमूल्य हैं
जहां तक मंदिर है, उपासना हैं, कर्मकाण्ड है, अर्चना है, वहां दूसरा है, वहां तक पराश्रय है। शक्ति का आश्रय बाहर है। जहां तक आश्रय बाहर है, वहां तक बर्हिमुखता रहेगी। बहाव रहेगा। मन खूंटियों में जकड़ा रहेगा। वह अपने आपसे जुड़ नहीं पाएगा। वह अतीत और भविष्य के संक्रमण में रहेगा। परन्तु जब वह अपने आप से जुड़ने लगता हैं और जितना वह वर्तमान में रहने लगता है, उतना ही उसका मन जो चक्रकार गति से बाहर बहता है वह एकोन्मुखता पाकर अन्तर्मुखी होने लगता है। प्राण मात्रा श्वास ही नहीं हैं। श्वास तो मात्रा सहायक है। मन में गति है। परन्तु प्राण में सृजन करने की क्षमता है। शशु जब गर्भ में होता है तब ले, लेकर उसकी अंतिम यात्रा तक पोषण करने वाली शक्ति ही प्राण है।
विपश्यना साधना आज जिस रूप में प्रचलित है, वह वृक्ष के पत्तों का बाहृा रूपान्तरण है। बिना पतझड़ की प्रतीक्षा लिए नई कोपलें नहीं आती है। एक बार तो निर्वसन होना ही होगा। स्वाश्रय की गन्ध जब देह वृक्ष से निसृत होती है, तब जो कोपले इस वृक्ष से फुटती है, वहां विपश्यना स्वतः उपलब्ध हो जाती है।
विशिष्ट भी है, विपरीत भी है। यह पराश्रय से स्वाश्रय की यात्रा है। बिना स्वाश्रय पाए, आत्मकृपा नहीं आती है इसी भाव भूमि पर ही विपश्यना का संगीत उभरता है। सावित्राी सत्यवान और यम, भारतीय चिन्तन का अद्भुत उदाहरण है। सावित्राी रहस्य प्राण साधना ही है। यह प्राण अब स्वतः ही जो उर्ध्वाकार रहा था। मन की आत्मा कृपा को भाव भूमि पर, जितना वह वर्तमान को उपलब्ध होता जाता है उससे संयुक्त होने लग जाता है। यही योग है। यह युक्ति ही मुक्त मनुष्य की उपसंपदा है। क्योंकि जब स्वतः ही उस मनुष्य के भीतर उसे विवेक की उपलब्धि प्राप्त होती है। यही ब्रहृा निष्ठ गुरू की प्राप्ति का रहस्य है। गुरूत्व स्वतः ही समर्पित होता है। यहां यात्रा अहम् से आत्म की है। आत्म तत्व ही उसका उद्धार कर सकता है। उसे होना है तो अपने आपके प्रति समर्पित होना है।
यहीं तो हृदय की मुक्तावस्था होती है। साधारणी करण में ही आनंद भाव पैदा होता है। हृदय की मुक्तावस्था में ही आनंद उपजता है। और यह मुक्तावस्था ही स्वाश्रय की भूमिका है। यही तो आत्मकृपा है। बिना यहां आए क्या रसेश्वरी से साक्षात्कार संभव है। हृदय की मुक्तावस्था ही श्री राधिका रहस्य है। यहीं आत्मकृपा है। उसकी उपसंपदा प्रेम है। प्रेम का मानवीकरण ही तो श्री कृष्ण है। यही प्रेम है। यहां मात्रा आकर्षण है। अपार्थिक सतत चेतन्य का नृत्य है। जो चिरंतन हो रहा है। इस नृत्य में, इस रास में शरीक होना हो तो हर गोपिका का धर्म है, उसकी जीवेच्छा है। हर बूंद जो सहसा उछली है, और मटमैली हो गई, वह अपना मटमैलापन दूर करके उज्जवल हो पाए, तभी तो सागर में विलीन हो पाती है। पर बूंद कहीं सागर से अलग है। वह तो उसकी अपनी ही है, उसके साथ भी है और अलग भी है। ससाथ तो पहले भी थी, पर पहचान नहीं थी। आज पहचान जो मिल गई है। पहचान होते ही गुण धर्म गया। स्वभाव बन गया। वह अब गोपिका हो गई। और चिरंतन रास में शरीक हो गई। यह महारास चिरंतन है। और इसकी प्राप्ति है, मात्रा प्रेम जिसकी न तो कोई परिभाषा है, न कोई पहचान है।
साधना के नाम पर अतिरिक्त कुछ नहीं करना है, मात्रा वर्तमान में रहना है। जिस भी कार्य में हो, वहां पूरी समग्रता में रहो। मन को वहीं रखो किंचित मात्रा भी विपरीत मत जाने दो।
जब कार्य सम्मुख नहीं हो तब अवलोकन की सहायता से विचारों की श्रंखला को कम करो। यहीं साधन सामग्री सतर्कता है। जो अन्त में सजगता में ढल जाती है। जो जीवन प्राप्त हुआ है वह बहुमूल्य है। उसे पूरी समग्रता में जीना है। सम्पूर्णता में जीना है। यही सुख का रहस्य है। सुख की अवहेलना में समाज जी नहीं सकता है। स्थायी सुख ही शान्ति का भाव है। वर्तमान में रहने से लाभ यह होता है कि व्यक्ति को वह संतुलन प्राप्त हो जाता है कि वह सुख भी पाता है और शांति भी पाता है। और शांति का भोक्ता जो मन है, वह अगर अहर्निश इसी स्थिति में रहने लग जाता है तब वह क्रमशः निष्क्रिय होता हुआ अन्तर्मन में विलीन होने लग जाता है।
यही रास है। वृन्दावन, अंतःकरण है। जहां यह लीला नित्य हो रही है। ”गो” इन्द्रियां हैं। जहां देह वेणुगीत से संयुक्त है। देह जब वांसुरी बन जाती है। जब पराश्रय चला जाता है तब चीर हरण हो जाता है। तब आता है, निराश्रय, फिर स्वाश्रय आता है। और उसी भाव भूमि मंे आत्मकृपा आती है। आत्मकृपा ही रसेश्वरी है। जब दूसरा जो था, वह अप्रासंगिक हो गया, अर्थहीन हो गया, गोपिका जो थ्ज्ञी, वह नृत्योम्मुख हो गई। पूर्णिमा की यह रात है, चारों और सुगंध है, वेणुगीत अंतःकरण मानों उलोच रहा है, एक ऐसा खालीपन जो पहले कभी जाना नहीं था-जो था, वह बाहर आ रहा है, आंखें, आंसुओं से भरी है-पर अब व्यथा नहीं है। दुख भी सहन नहीं हो पा रहा है। भीतर का जब कवंल खिलता है, तब मन गुजार करता हुआ भ्रमर बन जाता है। मानो सारा रस आज ही पी जाएगा। डूबते हुए सूरज को देखा है। कभी कभी आसमान इतना सुनहरी हो जाता है कि मानों रंग बिखर गये हों। यही तो धमाल है। रंग बिखर गए हैं। अंतस भीगा भीगा सा है। उस अंतःकरण में ही आत्मकृपा उपजती है और तब जो शेष रह जाता है, वह आनंद ही है। आनंद की अभिव्यक्ति ही प्रेम है। यहां प्रेम ही साधना है, प्रेम ही साध्य है।
और प्रेम ही मनुष्य की सबसे बड़ी पूंजी है। यही भारतीय चिंतना की बड़ी देन है। पश्चिमी आंख पदार्थ, जन्य ज्ञान को देखती है। उसका आग्रह भौतिकता में हैं। संपत्ति के अधिक से अधिक संग्रह में हैं। विकासशील देश, विकासशील समाज वही है, जहां अधिक से अधिक धन हैं। संपत्ति ही विकास का मानक है। परन्तु इसके विपरीत भारत की आंख, भारत की दृष्टि इसके विपरीत है।
जो त्याग में ही, भारतीयता देखते हैं, वह भी अधूरापन है। यहां तो ”त्येन त्यक्तेन भुंजी था” लक्ष्य रहा यहां मार्ग सामर्थ्य के सदुपयोग का रहा। यह सदुपयोग ही है जो दुरूपयोग को रोक देता है। तब जो जगत है, न तो उसके प्रति लोभ व भोग रहता है, नही उससे पलायन रहता है, वरन् उसके प्रति कर्तव्य बोध जग जाता है। यह कर्तव्य भूमि है, यहां, कुछ भी छोड़ना नहीं है, जिसे छूटना होगा वह स्वयं छूटता जाता है, होना तो यही है, मात्रा वर्तमान में रहने का अधिक से अधिक अभ्यास होना है। जो जीवन प्राप्त हुआ है वह बहुमूल्य है। उसे पूरी समग्रता से जीना है। संपूर्णता में लेना है। यही सहज मार्ग है।
धर्म मनुष्य को उसकी पहचान सौंपता है। उसका नया जन्म होता है। यही द्विज की भूमिका है। अब नया जन्म अन्तर्मुखता की दहलीज पर होता है। जहां पर कृपा छूट जाती है। पराश्रय चला जाता है। वर्तमान रहने का प्रारम्भ यही होता है। अब मन का भूत और भविष्य से संचरण कम होता जाता है अवधारणाएं रहती तो है पर अब उनसे प्रभावित होने की क्षमता कम होती चली जाती है।
आज धार्मिक जगत अवधारणाओं के दासत्व में सोया हुआ है। धार्मिक जन व सामान्य जन में कोई अन्तर नहीं रहा है वे नन्हें शिशुओं की तरह अपने गुड्डे व गुड़ियों को ही श्रेष्ठ मानकर मात्रा बहस ही नहीं करते, वरन् मनुष्य जाति का ही संहार कर रहे हैं। धर्म का यह स्वरूप नहीं है।
पथ आज इतना कठिन नहीं है, जितना सौ वर्ष पूर्व था,स्वामी विेवेकानंदजी ने जो भारत का भविष्य देखा था उस सपने,को हमें पूरा करना है- आपने कहा था-
”मुझसे कहा गया है,अतीत की ओर नजर डालने से सिुर्फ मन की अवनति होती हे और इससे कोई फल नहीं होता, अतः हमें भविष्य की ओर दृष्टि रखनी चाएि। यह सच है। परन्तु अतीत से ही भविष्य का निर्माण होता हें अतः जहॉं तक हो सके, अतीत की ओर देखो पीछे जो चिरन्तन निझंर बह रहा हे।, आकंठ उसका जल पीयो और उसके बाद सामने देखो और भारत को उज्जवलतर , महत्तर और पहले से भी और ऊॅंचा उठाओ।”
$$$$$$$- हमारे पास एकमात्र सम्मिलन भूमि है, हमारी पवित्र परम्परा, हमारा धर्म। एकमात्र सामान्य आधार वही है, और उसी पर हमें संगठन करना होगां। यूरोप में राजन्ैतिक विचार ही राष्ट्रीय एकता का कारण है ,।किन्तु एशिया में राष्ट्रीय एक्य का आधार धर्म ही है। अतः भारत के भविष्य संगठन की पहली शर्त के तौर पर उसी धार्मिक एकता की ही आवश्यकता हेै। देश भर में एक ही धर्म सबको स्वीकारना होगा। एक ही धर्म से मेरा क्या मतलब है? यह उस तरह का एक ही धर्म नहीं ,जिसका , ईसाइयों, मुसलमानो, बौद्धो में प्रचार हेै। हम जानते हैं कि हमारे विभिन्न संप्रदायों के सिद्धांत तथा दावे चाहे कितने ही विभन्न क्यों न , हमारे धर्म के कुछ सिऋयंत ऐसे हें, जो सभी संप्रदायों द्वारा मान्य हैं।$$$$$$और अपने धर्म के ये जीवनप्रद सामान्य तत्व हम सबके सामने लायें,और देश के सभी स्त्री -पुरुष, बाल वृद्ध उन्हें जाने समझें, तथा जीवन में उतारें,- यही हमारे लिए आवश्यक है। सर्वप्रथम यही हमारा कार्य है।ं,“भाग5 पृ181
स्वामीजी के इस चिन्तन का निष्कर्ष आज भी हमारे लिए मार्ग दर्शक है-
”भारत में जाति ,भाषा, समाज संबंधी सारी बाधॉं धम््र की इस एकीकरण की शक्ति के ससामने उड़ जाती हें।। हम जानते हैं कि भारतीय मन के लिए धार्मिक आदर्श से बड़ा और कुछ भी नहीं है । धर्म ही भारतीय जीवनका मूल मंत्र है। पृ 181 भाग 5
साम्प्रदायिकता ही आज धार्मिकता हो गई है। और वह दिन पर दिन बदसूरत होती जा रही है।
हम जिस रास्ते पर चलते हैं, वही लक्ष्य हमें प्राप्त होता है। यह एक प्राकृतिक नियम है। अगर सैंकड़ों सालों की गुलामी के बाद स्वाधीन भारत के मनुष्य की सुख शांति उपलब्ध नहीं है। उसका सामाजिक जीवन और बदतर हो गया है तो उसे इसका कारण अपने भी ही तलाश करना होगा।
वे निरर्थक मूल्य, वे विचारधाराएं जिनका अनुकरण आज मात्रा दोहराव होकर रह गया है। जो हमारे जीवन में कोई रूपान्तरण नहीं ला सकती है, जो उसे उसकी निजता से जोड़ने में असफल रही है, उन्हें छोड़ना ही श्रेयस्कर है।