बुधवार, 13 जनवरी 2016

गजेन्द्र सिंह सोलंकी और उनका साहित्यिक अवदान

गजेन्द्र सिंह सोलंकी और उनका साहित्यिक अवदान

डस दिन अचानक लाड़पुरा जाने का अवसर मिल गया था। भारतेन्दु समिति के भवन को देखकर न जाने क्यों पुरानी समिति का भवन याद आगया। तब समिति का कार्यालय एक कमरे में ही था, बाहर दुकाने थीं। बाहर की तरफ एक गली में सोलंकी जी का अपना एकात्म प्रेस भी था। वे वहॉं से एकात्म साप्ताहिक निकाला करते थे। वे ही संपादक और प्रकाशक थे। पीछ के ही मौहल्ले में वे किराए के मकान में रहते थे। तब वे और भारतेन्दु समिति मानो एक ही थे। वे भारतीय जनसंघ के स्थापना सदस्यों में एक थे। पहला लोकसभा का चुनाव भी उन्होंने लड़ा था। राजा गंगासिंह जो कहानीकार थे, ं नयापुरा में उनका व्यवसाय था, सोलंकीजी वहॉं व्यवस्थापकीय कार्य भी देखते थे।

पर उनकी पहचान पत्रकार और कवि के रूप में थी। वे साहित्य प्रेमी थे। साहित्य की हर गाष्ेठी  में उनकी उपस्थिति अनिवार्य थी। उनकी पहचान यही थी कि वे सहृदय साहित्यकार थे, जो कर्म से पूरी तरह समाजवादी थे,   कर्मकांड से दूर  धार्मिक व्यक्तित्व के धनी थे। वे आजीवन न्याय और मूल्यों के पथ पर चले। वे सांस्कृतिक राष्टवाद के अनन्यतम प्रचारक थे।
वे जितने  सहज भाव से साहित्य परिषद के कवियों से मिलते थे,  उतने ही सहज भाव से मार्क्सवादी कवियों से मिलते थे। किसी के प्रति द्वेष उनके भीतर नहीं था। ब्रज भाषा पर उनका अधिकार था। हिन्दी साहित्य अकादमी के साथ ब्रज भाषा अकादमी के भी कार्यक्रम वे कराते थे।  वे अपने कर्म और अभिरुचि में हाड़ौती के बाबा नागार्जुन ही थे। उनके मित्र उन्हें बाबा ही कहते थे। जीवन के उत्तरार्ध में भी वे सृजनकर्म से जुड़े रहे। वृद्धावस्था में उन्हें लकवा लग गया था, उनके ं पुत्रों ने बहुत सेवा की, उनके  महाप्रयाण के पूर्व में और शिवराज श्रीवास्तव उनसे मिलने उनके घर गए थे। । वे लेटे हुए थे, पुत्र ने उनके कान में सूचना दी। उनकी चेतना लौटी। उन्हें बैठाया गया। वे सचेत हुए , बोले , इन्हें चाय पिलाओ, नाश्ता कराओ, फिर उत्साह से अपने छंद भी सुनाए।
एक कवि की विरासत , उसकी पूंजी जो उसके जीवन की सहयात्री होती है, वह कविता ही है, तब जाना था।
 आज जब हर छोटे - बड़े कवि के सम्मान समारोह की अनुगूॅंज सुनाई देने लगी है, तब सोलंकी जी की यादें उभरने लगती है, जिन्होंने देना ही सीखा था , लेना नहीं, मुझे याद नहीं उनके मित्रों ने कभी उन्हें किसी मंच पर सम्मानित होते हुए कभी देखा हो। वे स्वयं दूसरों को सम्मानित करते हुए प्रसन्न रहते थे।

यही कारण रहा कि जब वे अस्वस्थ थे,  तब साहित्य अकादमी के तत्कालीन  अघ्यक्ष जब कोटा आए थे, उनसे सोलंकी जी से मिलने का कार्यक्रम बनवाया था, पर वह रह गया।  न तो, उनकी साहित्य परिषद  ने, न, उनकी मेहनत पर खड़ी भारतेन्दु समिति ने उनकी स्मृति में कोई कार्यक्रम  किया। उन्होंने गद्य और कविता में बहुत लिखा, जीवन के अंतकाल में वे एक उपन्यास लिख रहे थे। साहित्य अकादमी की ओर से उनके ऊपर एक मोनोग्राफ अवश्य निकला था।  पर अभी उनकी रचनाधर्मिता का मूल्यांकन अपेक्षित है।

आज  जब साहित्य की दुनिया में सहिष्णुता की चर्चा मुखर  हैं, तब सोलंकी जी की स्मृति का आना स्वाभाविक है, उन्होंने अपने जीवन में किसी के प्रति कभी दृर्व्यवहार सोचा ही नहीं। सन सत्तर के आसपास का समय था, नफीस आफरीदी की कहानियॅंा बहुत तेजी से प्रकाशित हो रही थीं, उन्होंने  नफीस की कहानियों पर चर्चा आयोजित कराई थी, वे सब जगह नफीस की चर्चा किया करते थे। महेन्द्र नेह की मार्क्सवादी कविताओं के प्रशंसक थे, जिनका आज उतनी सरलता से वाचन कठिन है। वे सही मायने में सहृदय पाठक थे, उन्होंने पूरा जीवन साहित्य की सेवा में लगा दिया था।

  लगभग साठ वर्षों से भी कविता तथा साहित्यिक गतिविधियों में सक्रियता बनाए रखने वाले गजेन्द्र सिंह सोलंकी, बृज भाषा के भी सशक्त कवि रहे हैं। आप की राजनैतिक पक्षधरता स्पष्ट थी। तथा आप की रचनाओं पर उस का सीधा हस्तक्षेप है। आप संास्कृतिक राष्ट्रवादी काव्य धारा के कवि हैं। आप का कवि कर्म आप के द्वारा सम्पादित, प्रकाशित ‘एकात्म’ साप्ताहिक की रीति-नीति का पक्षधर रहा था। आप अपने ‘पक्ष’ के सुविचारित कवि रहे हैं। आप की कविताओं में रागात्मकता तथा वैचारिकता दोनों का अन्तर्सम्बन्ध है। आप परम्परागत शिल्प का मोह भी नहीं छोड़ पाते हैं तथा परम्परागत ‘अन्तर्वस्तु’ के प्रतिपादन के प्रति भी स्पष्ट हैं। यही उन की विशेषता है तथा कमज़ोरी भी।

‘गागर’ (1969 ई.), आप की पहली कृति थी, जो परम्परागत ‘दोहा’ छन्द मंे प्रकाशित हुई थी। यह आप की राष्ट्रवादी कविताओं का संग्रह है। खड़ी बोली, ब्रज तथा हाड़ौती तीनों ही भाषाओं के शब्द भण्डार से कवि ने नए-नए प्रयोग किए हैं। विषय वैविध्य है, परन्तु काव्य रूप परम्परागत ‘दोहा’ है। परम्परागत पाठकों में यह संग्रह लोकप्रिय भी हुआ है:-
”भव्य भवन के भाल पै,भासित भअहुं न चाह
नींव धरूँ जा देह की,जा सम जस कुछ नाह।

उपरोक्त छन्द में ‘गागर’ की अन्तर्वस्तु तथा काव्य रूप की पहचान सहज ही परिलक्षित है। महा कवि हरनाथ की काव्य परम्परा में आप  हैं।
‘अमर सेनानी ताँत्या टोपे’ ;प्रबन्ध काव्य( 1987 ई.) मंे प्रकाश मंे आया था। राष्ट्रीयता का स्पन्दन ही आप की काव्य धारा का प्रमुख स्वर है। यह एक लम्बी उदात्त कविता है। इस के कला शिल्प में एकोन्मुखता है। चरित नायक की अस्मिता की खोज ही यहाँ प्रतिपाद्य है। कवि ने तथ्यों को अपनी जीवनानुभूतियों से एक नई गरिमा दी है। ‘ताँत्या’ मात्र एक सेनानी ही नहीं है, वह ‘आम जन’ की लड़ाई लड़ रहा है, आम आदमी है, उस का साहस, उस का शौर्य, उस की पराजय और उस की सहन करने की क्षमता, कवि की जीवनानुभूति का स्पर्श पा कर सहज सम्वेदनात्मक रूप से पाठक तक पहुँचने में समर्थ है।
 कवि ने ताँत्या टोपे के माध्यम से, वर्तमान की नैराश्य भरी परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए  ‘राष्ट्रीयता’ के आधार पर समस्याओं के सन्धान का पथ तलाश किया है। वर्तमान में व्याप्त कटुता, निराशा और दैन्य से उत्पन्न जो तमस है, कवि का सृजनशील मन उस के प्रति सजग है। वह प्रश्नों के उत्तर अतीत में तलाशता है और फिर अतीत की मनोहारी कल्पनाओं में आप का कवि मन डूबता है, फिर भी समाधान न पा कर वर्तमान को झकझोरता है। एकान्विति ही इस का आधार है। वृत्तों का यह परस्पर संगुफन तथा समग्रता में एक बिन्दु पर आ कर उन का बिखराव, आप के काव्य-शिल्प की पहचान है:-
”त्याग और बलिदान आज कुंठित हो रहे
स्मरण मात्र से रोमांचित हो जाता है कण-कण
अर्थ बदल डाले सारे जीवन-मूल्यों के
बिकाऊ लोग पाएंगे, तेरी रज का कण?

यह बिन्दु उत्सर्ग भावना है। राष्ट्र ही सर्वोपरि है। यही एक मात्र मूल्य है।
कवि मन वर्तमान की परिस्थितियों से आहत है, वह ताँत्या टोपे के माध्यम से जीवन की उदात्तता का स्पर्श करना चाहता है। कवि मन जीवन और जगत की परिस्थितियों से अपनी कर्मठता के साथ संघर्ष चाहता है। आप की राजनैतिक पक्षधरता कहीं-कहीं ‘अन्तर्वस्तु’ का अतिक्रमण भी कर जाती है। प्रतिबद्ध रचनाकर्मी की विवशता यहाँ स्वाभाविक हैै। कवि ने यहाँ शिल्प में परम्परागत ढाँचे का अतिक्रमण किया है, अन्तर्वस्तु की बनावट और बुनावट के अनुरूप भाषा ने काव्य रूप तलाश किया है:-
”बाह्य जगत हेय बता
कि होता भी और क्या
एक अजब सी आस्था
नहीं तथ्यों से वास्ता
विश्व बंधुत्व भावना
कि जग हित की कामना
क्लीवता में ढल गई
कि पोर-पोर धुल गई।

‘ताँत्या टोपे’ मात्र एक प्रतीक है, उस साधारण भारतीय जन का, जिस के भीतर विराट असाधारणता है। जहाँ कहीं चुनौती आती है, वह उस के प्राणों की अकुलाहट को मूर्तता देती हुई तेजस्विता बन जाती है और व्यक्तित्व की तेजस्विता तथा समाज की वह दुर्बलता, जो इस अग्नि को अग्नि कुण्ड में धधकने से रोक देती है। यह विरोधाभास, जो इस देश की सब से बड़ी नियति है, समग्रता के साथ इस ड्डति में चित्रित है।
राष्ट्रीयता की खोज ही इस काव्य का मुख्य स्वर है। कवि मन अतीत में झाँकता हुआ, सभी मध्य युगीन प्रतिमानों को पड़ताल करता है। संस्कृति के सभी प्रतिमानों को वह परखता है। वह क्यों? यह क्यों? इतना ज्ञान, इतना कौशल, व्यक्ति रूप में इतनी तेजस्विता तथा समूह रूप में एक न होने की विवशता, यह सब क्यों? यही तलाश इस काव्य-कथा का केन्द्र-बिन्दु है।
‘रण रागिनी’ में गजेन्द्र सिंह सोलंकी की स्वतन्त्रता पूर्व की कविताऐं संकलित हैं। आप का यह काव्य-संकलन ‘रण-रागिनी’ अपने शीर्षक से ही कविकी दृष्टि और अभिरुचि का संकेत कर देता है। और अधिक स्पष्ट होते हुए उन्हों ने इसे राष्ट्रीय-चेतना का काव्य-संकलन घोषित भी कर दिया है। आप लगभग साठ वर्षों से निरन्तर सृजनशील रहे हैं-
”है नहीं वह रागिनी जो तप्त हृदय को गुदगुदा दे
या हृदय ही है नहीं जो रागमय कुछ गीत गा दे।
‘आज तुमको क्या सुना दूं’, पृ. 23.
‘छन्दसि-त्रिविधा’ (2005 ई.), गजेन्द्र सिंह सोलंकी का चौथा काव्य संकलन, नाम के अनुरूप विधि छन्दमयी रचनाओं का स्वतन्त्र संकलन है। कवित्त, मनहरण, धनाक्षरी, सवैया, कुण्डलिया आदि छन्दों का यहाँ निर्वाह हुआ है। राष्ट्रीय मनोभाव कवि सोलंकी की काव्य चेतना की प्रमुख विषय वस्तु है। ‘बृज माधुरी’ इस संकलन में पृथक खण्ड है, जहाँ ब्रज भाषा में शंृगारिक कविताओं का चयन है।
‘हूक’(;2007 ई.) आप की स्वतन्त्र कविताओं का एक संग्रह प्रकाशित हुआ है, जिन्हें आप 1947 ई. से निरन्तर लिखते आए हैं। यहाँ कवि का मन, जिन घटनाओं से निरन्तर, उद्वेलित होता आया है, उन का यहँं काव्य चेतना के परिप्रेक्ष्य में सुन्दर चित्रण मिलता हैः-

”ज्ञान गठरिया भारी भरकम लगता है दबे जा रहे तुम,
स्वेद छलकता पीत वर्ण हो सूख रहा सांसों का सरगम

जो लादे हो बोझा है, तुम जो साधे धोखा है
अहम् तुम्हारा जान न सकता, पर ज्ञान बजे वह थोथा है ।
यहाँ कवि के पास साठ साल से अधिक की काव्य-यात्रा से प्राप्त जीवनानुभव है। गजेन्द्र सिंह सोलंकी ‘राष्ट्रीय काव्य धारा’ के प्रतिनिधि कवि  रहे हैं, वे जीवन संघर्ष से तपे-निखरे कवि हैं, जहाँ उन का कर्म व वचन दोनों ही एकमेक हैं। तभी कवि इतनी तटस्थता के साथ यह कहने का साहस भी रखता है:-
”लो विदा की घड़ी अब तो आने को है
कर्म अस्बाब अपना खुद संभाले रखो,
कि कब आ जाए बुलावा पता कुछ नहीं
वक्त अपना न पलभर को जाया करो।“.
गजेन्द्र सिंह सोलंकी की कविता का स्वर गत साठ वर्षों से निरन्तर एक ही भाव भूमि पर केन्द्रित रहा है, राष्ट्र के प्रति उन की ममत्व मयी समर्पण भावना, उन की जीवन शैली का भी अविभाज्य अंग है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद उन की काव्य धारा की सुस्पष्ट वैचारिक भूमि रही है। फिर भी वे अपनी राजनैतिक दृष्टि के स्पष्ट होने के बावजूद, एक नैतिक जीवन जीते हुए, सामान्य जन व देशज भूमिका रखते हुए कविता में उस के पक्षधर रहे हैं। वास्तव में वे लोक से जुड़े हुए ज़मीनी इन्सान थे।, उन की कविता और वे सचमुच एक रूप हैं।
आपने कहानियॉं भी लिखीं थीं।
कथाकार श्री सोलंकी का यह कथा संग्रह ” अंत्येष्टि“ 2007 में प्रकाशित हुआ है।
अन्येष्टि उनकी कहानी लगभग पचास वर्ष पहले संभवतः लिखी गई थी। किसी संग्रह में आई भी थी। ‘राजन, एक बेरोजगार नवयुवक है, बेरोजगारी में वह आत्महत्या कर लेता है, वह साहित्यकार है, उसकी पत्नी नीलू को पागलखाने भेजे जाने की सूचना इसमें मिलती है। इन कहानियों का ऐतिहासिक महत्व है। तब कहानी किस प्रकार लिखी जाती थी, यह सूचना यहां से मिलती है। ‘अंधी और सफर’, बहुत छोटी सी , बड़ी कहानी है। मनुष्य भी काम पिपासा, और त्रासदी की मार्मिक कथा है, अंधी अपनी गोदी में लड़की लिए ट्रेन में चढ़ती है। तब उसकी अवस्था और मनुष्य की काम पिपासा, संतान अनेक प्रश्न आज के यथार्थ की विसंगतियों को उजागर कर जाते हैं। यह संग्रह की एक अच्छी कहानी है। श्री सोलंकी, उपदेशक नहीं हैं, उनका खोजी पत्रकार मात्र अनुत्तरित प्रश्नों को खड़ा कर जाता है। श्री सोलंकी का यह संग्रह निश्चित ही उनका मूल्यांकन कराने में समर्थ हैं। अस्सी साल की आयु में आपका यह संग्रह प्रकाशित हुआ था, कथा-परंपरा के अध्ययन में इसका मूल्य है।

तात्याटोपे की फॉंसी पर आपका  इतिहास ग्रंथ भी है।ताँत्या टोपे की कथित फाँसी‘ 1994 ई. गजेन्द्र सिंह सोलंकी का इतिहासपरक शोध वृत्तान्त’ है।  1857 की क्रान्ति के अमर नायक ताँत्या टोपे को शिवपुरी में दी गई कथित फाँसी पर विश्लेषणात्मक शोध परक यह आलेख है।

अभी तक दी गई सूचना के आधार पर ‘पाडोन’ के ठिकानेदार मान सिंह के सहयोग से अंग्रेज़ों ने शिवपुरी के जंगलों में ताँत्या को पकड़ा था, तथा 18 अपै्रल 1859 को फाँसी दी गई थी। गजेन्द्र सिंह सोलंकी ने, इस सन्दर्भ में अपने शोध पूर्ण आलेख में इस सत्य को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, उस दिन तात्या के स्थान पर श्री नारायण राव भागवत को फाँसी दी गई थी। ताँत्या टोपे, तथा गोविन्द राव भागवत बच कर निकल गए थे।
”गजेन्द्र सिंह सोलंकी ने, वीर सावरकर के ‘1857 का भारतीय स्वातन्त्र्य समर’, सुरेन्द्र नाथ सेन तथा डॉ. रमेश चन्द्र मजूमदार के इतिहास ग्रन्थ, श्रीनिवास बालाजी हर्डीकर द्वारा सम्पादित ‘अठारह सौ सत्तावनः नया समाज’ के ‘सन सत्तावन शताब्दी अंक’, ‘दी अदर साइड ऑफ़ दी मेडिल ;थाम्सन, डॉ. एस. एम. सिन्हा के शोध प्रबन्ध ‘दी रिवोल्हट ऑफ़ 1857 इन बुन्देल खण्ड’, ‘ताँत्या टोपे का बस्ता, उस में मिले पत्र आदि का विश्लेषण करते हुए हर तथ्य की जाँच, पड़ताल सूक्ष्मता से करते हुए यह स्थापित किया है कि उन की मृत्यु स्वाभाविक रूप से 1909 में हुई थी।“

लगभग पैंतीस वर्षों की कठिन साधना से गजेन्द्र सिंह सोलंकी ने इस आलेख को पूरा किया था। भारतीय इतिहास विज्ञ की सब से बड़ी परेशानी आज यही है कि इतिहास लेखन की स्वतन्त्र स्थिति अब तक नहीं आई है। पश्चिमी इतिहास दृष्टि से, भारतीय इतिहास दर्शन, पूर्णतः प्रभावित है। इतिहास घटनाओं का प्रमाणिकता के आधार पर विश्लेषणात्मक विवेचन माँगता है, जो पूर्णतः वस्तुगत होता है, यहाँ भावनाओं और आदर्शों का स्थान नहीं होता। गजेन्द्र सिंह सोलंकी की यह कृति, इतिहासकारों से, वस्तुगत मूल्यांकन की अपेक्षा रखती है। उन की यह कृति महत्त्व पूर्ण है।


उनके एकात्म के संपादकीयों का संग्रह भी ऐतिहासिक दस्तावेज है। राजस्थान साहित्य अकादमी ने आपके कृतित्व पर मोनोग्राफ प्रकाशित किया था, यह उल्लेखनीय है।,  आज वे हमारे साथ नहीं हैं, पर उनकी स्मृति हमारे समीप ही है,  उनके मित्र उन्हें स्मरण रखेंग,े इसी कामना के साथ।

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