बुधवार, 2 मार्च 2011

रामनाथ कमलाकर

रामनाथ कमलाकर
रामनाथ कमलाकर की अनवरत सृजनात्मकता पचास वर्षों से फैली हुई है। वे नन्द चतुर्वेदी के समकालीन हंै। उन की प्रारम्भिक पुस्तकों में उन का परिचय कवि कुल किरीट कमलाकर दिया हुआ है।
 वे अपने ज़माने के ‘कवि सम्मेलन’ के प्रमुख कवि हुआ करते थे। नन्द चतुर्वेदी ने उन की काव्य रचना के बारे में लिखा था ः-
 ”कमलाकर के जीवन में कवि ही की तरह अशेष प्यार की भावना और जलन एक साथ रही है। तारीफ़ यह है कि उस की जलन प्यार को कभी जला नहीं सकी, और यही कारण है कि कमलाकर के काव्य में रह-रह कर अनन्य प्रीति के विश्वासमय स्वर मुखर हुए। सभी गद्य गीतों में वह धरणी के सन्ताप का दुःख गा रहा है और पृथ्वी का आत्मा-हनन, जैसे उसे चैन नहीं लेने दे रहा है।“17
‘हन्स तीर्थ’, ‘मेरे गीत ः तुम्हारे चरण’, ‘दिलकश दौर’, ‘गौने की चूनर’ आप के प्रमुख प्रकाशित कविता संग्रह हैं।
 ‘एकोऽहम्,’ उन की पहली ‘गद्य गीत’ ड्डति है। बृज भाषा पर आप का अधिकार रहा। आप कवीन्द्र हरनाथ की परम्परा के वाहक रहे। ‘एकोऽहम’ पर उत्तर छायावाद का पूरा प्रभाव है। भाषा प्रसाद मयी, अलंड्डत है। साथ ही दर्शन की पूरी भÂिमा है। तथ्यों को समेट कर अनुभव में ढालने की चेष्टा इस ड्डति में है। फिर भी हिन्दी भाषा की इस अ´चल की ही नहीं, वरन प्रान्त की यह पहली ‘गद्य गीत’ ड्डति उध्ेखनीय है। अपने समय में इस ड्डति ने सुधी विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया था।
 ”ऐसे ही, सम्वेदनाओं के अनेक सन्दर्भों में रामनाथ ‘कमलाकर’ की कविताओं का रसास्वादन किया जाना चाहिए। प्रड्डति की विराट प्रभुजा, प्रीति का पावन आकर्षण, रहस्य-चिन्तन, वैषम्य पूर्ण जीवन की कुण्ठाऐं और कभी-कभी बीसवीं शताब्दी के ड्डत्रिम जीवन की ग्लानि, इतना कुछ समेटता है कवि ‘कमलाकर’। एक रचना में चाँद के अपरूप सौन्दर्य का यह आत्मीयता पूर्ण वर्णन दृष्टव्य है ः-
”लो प्रतीची के अधर पर झुका चन्द्रानन
छॉंह पलती तम किशोरी का जगा यौवन
सोचता क्या ओंठ पर अँगुली धरे आकाश
चाँदनी में मुस्कुराता चाँद मेरे पास।“18         
”अ‘लीगत समर्पण हुआ जब अहम
रह गए एक तुम ही जगत बन स्वयं
भाव घूँघट उठा साधना ने कहा
थे कभी तुम कठिन अब अनायास हो
शब्द से दूर हो अर्थ से पास हो
दूर से दूर हो पास से पास हो।“19
कमलाकर ने अपनी इस विस्तृत काव्य-समयावधि में काव्य की सभी प्रवृत्तियों का आदर किया। समय के साथ बदलती काव्य संरचना का का सहारा भी लिया, परन्तु उन का मूल स्वर जो उदात्त मानवीय सम्पदा से सéिाहित था, वह परिवर्तित नहीं होने दिया। गहरी वैष्णवी संस्ड्डति मंे उन के काव्य संस्कार प्रभावित हुए हंै, जो ‘परम हन्स’, ‘अरविन्द’ आदि अनेक सन्तों के दर्शन से स्थिर हुए, उस संस्कार धर्मिता ने उन की ‘काव्य अन्तर्वस्तु’ का निर्माण किया है।
यही कारण है कि वे निरन्तर धर्म के तथ्यात्मक रूपों की आवृति को छोड़ते हुए गहरे में आध्यात्म से जुड़ते चले गए।
गहन साांस्ड्डतिक चेतना और उस की अभिव्यक्ति, कमलाकर की काव्य साधना है। वे कविता की ‘अन्तर्वस्तु’ भाव लोक से लाते हैं, जो उन की अपनी ‘अनुभूत्यात्मक सम्वेदना’ है। वे आत्मानुभव को, जीवनानुभव में बदलते हुए, काव्य रूप की, उसी के अनुरूप तलाश करते हैं। उन के यहाँ रूप उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना जो ‘रूप’ उन्हों ने अनुभव किया है। आप की सहज, प्रभावी, दृश्य बिम्बों से सघन, काव्य भाषा की विशेषता का यही कारण है ः-
 ”मत मतान्तर सभी एक मत हो गए,
 स्वप्न सब जागरण में असत हो गए।
 लक्ष्य पर आ मनोरथ का रथ रुक गया,
 राह के संस्मरण अब विगत हो गए।“

 ”मौन हो गया मन
 मंज़िल पर चुक गई चपलता,
 शान्ति सेज सो गई मुखरता
 जग जिस में प्रतिबिम्बित था
 वह उलट गया दर्पण।“20 ;पृ. 3. ‘गौने की चूनर’द्ध
 ”दूर कर नींद का आवरण
 आ गया लो तुम्हारी शरण।
 अब तुम्हारी ख़ुुशी में ख़ुशी,
 ज़िन्दगी है तुम्हारे रहन।“
कवि कमलाकर गत साठ वर्ष से निरन्तर सृजन रत हैं। वे दार्शनिक तथ्यों को, सन्तों के अनुभवों को सम्वेदना के स्तर पर स्वीकार करते हैं। उन्हों ने हिन्दी में रुबाइयाँ लिखी हंै। उन का शब्द भण्डार विपुल है ः-
”नभ निकु‘ में सन्ध्या फूली,
श्रमिक कण्ठ झरते मधु निर्झर,
गूँजे नीड़ों में आतुर स्वर,
प्रत्याशित शिशु मुख में मुख दे
तरु फुनगी पर बिहगी झूली।“ ;पृ. 152. ‘गौने की चूनर’द्ध
यहाँ जो बिम्ब विधान है, वहाँ मानवीकरण भी है, प्रतीकों का सुन्दर निर्वहन भी है। ‘लोक’, श्रमिक कण्ठ से झरते मधु निर्झर’, ‘प्रत्याशित शिशु मुख में मुख दे’ के साथ ‘प्रड्डति’ के ‘माँ’ रूप को प्रस्तुत कर गया है।

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