बुधवार, 2 मार्च 2011

डॉ. शांति भारद्वाज ‘राकेश’

डॉ. शांति भारद्वाज ‘राकेश’और हाड़ौती का साहित्य संसार

शांति भारद्वाज ‘राकेश’ के काव्य संग्रह समय की धार,;1962द्ध तथा खंड काव्य परीक्षित ;1969द्धइतने वर्ष;1985द्ध और फिर ;2000द्ध में प्रकाशित ‘द्वार खुले है’, उनकी चालीस वर्षीय काव्य साधना का प्रमाण है।  सूर्यास्त उपन्यास पर आपको राजस्थान साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला था। ‘उड़जा रे सुआ,’ आपका हाड़ौती का पहला उपन्यास है, जिस पर आपको केन्द्रिय साहित्य अकादमी का राजस्थानी में पुरस्कार मिला। श्रीलाल शुक्ल के  राग दरबारी का , तथा विष्णु प्रभाकर के ‘ अर्ध नारीश्वर ’ का आपने राजस्थानी में अनुवाद किसा। आपका अंतिम उपन्यास ,‘ एक विशिष्ट कृति है। वर्षोंतक ‘मधुमती’ का संपादक किया,  आपका,  साहित्य और उसकी विभिन्न प्रवृतियों से निरंतर संबंध रहा है। वे आज हमारे बीच में नहीं हैं, पर उनके साहित्य और उसकी अनूगूंज सुधि पाठकों के हृदय में बनी हुई है।
 वे साहित्य और उसकी वस्तु के साथ आमजन से गहराई से जुड़े थे।सभी प्रकार के अतिवादों से दूर
वे भारतीय साहित्य की परंपरा के वाहक थे। यही कारण रहा सै(ांतिक और विचार प्रतिब( समीक्षक और आलोचक उनसे और उनके साहित्य से दूरी बनाए ही रहे।
 आज उनके साहित्य की चर्चा के साथ  कुछ कह पाना ही श्र(ांजलि है।

‘समय की धार.’सन्1962 के आसपास  की कविताओं का संग्रह   है। पारदर्शी, तेजाबी भाषा..... तथा मनुष्य की जीवंतता जो उसकी परिवेशगत सच्चाई से उपजती है, ... वहां उनका कविता संसार है। ये कविताएंं.... समय को पहचानने का प्रयास हंै।  सामाजिक सरोकारों में आया बदलाव और परिवर्तित जीवन दृष्टि की अनुगूंज इस संग्रह की कविताओं मे स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
परीक्षित ;1969द्ध शांति भारद्वाज ‘राकेश’ का यह खंड काव्य समकालीन द्वन्द्व को पौराणिक संदर्भों में पुनर्मूल्यांकन के साथ प्रस्तुत करता है। ‘कलियुग’ ‘मिथ ’है। समाज अपनी दुर्बलताओं तथा मानवीय आकांक्षाओं के प्रतिफलन से जो दाय प्राप्त हुआ है, ... उससे ‘कलियुग’ पर सौंप देता है।
मनुष्य का विकास, विवेक से, बु(ि तथा शरीर से विषय तक की यात्रा पर है। हम जिसे सतयुग कहते हैं, ... वहां व्यक्ति विवेकाधीन था। उपनिषदकालीन समाज में हर व्यक्ति को हम नीति-नियम से परिचालित तथा विवेकाधीन पाते थे। क्रमश विकासवाद में आज मनुष्य अनन्य तम भौतिक वादी हो गया है। भौतिकवाद की चरम परिणिति ‘‘विषयाधीन होने में है। यहां विवेक, क्रमशः विकास से विभिन्न चरणों को प्राप्त होता हुआ विषय में डूब जाता है। विषय प्राधान्य  हो जाते हैं। इन्द्रियों व विषय का सन्निकर्ष सुख देता है। धन, स्त्रीसंग, द्यूत, सुरा ये सुख दाता है। कलियुग यहीं परीक्षित की आज्ञा से निवास कर रहा है।
 दिनकर जी ने भूमिका में कहा है-
‘‘कविता के छन्द शु( है,ं और भाषा अर्थ वती है।’’ नागार्जुन ने कहा है-‘‘ पुरानी कथा के संदर्भों में आधुनिक विसंगतियां अघ्यारोपित हैं.... ऐसे उद्गार भरे पड़े हैं, जिनको आत्मसात् करते समय लगा कि एक कवि-चिन्तक के प्रखर अभिमत ही यहां छन्द गन्धी मुक्तकों में गुम्फित है।खंड काव्य की भाषा प्रवाही है। काव्य शिल्प सुगठित है, बिम्ब योजना प्रासंगिक है, ... तथा कृकृति पठनीय व विचारोत्तेजक है।”इतने वर्ष “;1985द्ध श्री भारद्वाज जी का यह दूसरा काव्य संग्रह है, जिसमें कविताएं हैं, गीत है और हिंदी गजलें भी हैं।
भारद्वाज की कविता में समसामयिक जीवन यथार्थ अपनी संपूर्ण विसंगतियां के साथ उपस्थित है। कवि के पास ‘भावुकता उसकी पूंजी है, वह वर्तमान जीवन की विषमताओं का सामना एक नागरिक की तरह कर रहा है। उसका नागरिक मन क्षुब्ध भी होता है, पर वहां पलायन नहीं है। रू-ब-रू होने का सामथ्र्य है। वह अपनी संवेदना ही पूंजी उस वर्ग को सौंपता है, जो उसकी इस यात्रा में उसके सहभागी है-
‘‘हम ‘रेस’ के घोड़े है-
जिन्दगी उबड़ खाबड़ सड़कों पर
धर्म-ईमान की फ़सलों को रोंधत
ेबिजली से कोंधते
व्यवस्था की छाती पर मूंग दलते
बेलगाम-बेसवार दौड़ें हैं।
‘द्वार खुले हं’ै ;1999द्ध भारद्वाज जी की नई कविताओ का संग्रह है।
 कवि ने लगभग चालीस वर्ष की अपनी काव्य यात्रा में लौटकर आया आज मेंे द्वार पर....... इस उक्ति को अपनी ‘अनुभूत्यात्मक संवेदना ’ से व्यंजित किया है।
अनजाने में भूमिका मेंे कवि ने ... ‘यों कहें कि एक ही गन्तव्य है।’’ ‘आगन  के पार द्वार’, तथा ‘कितनी नावों में कितनी बार’.... के प्रतीक   ‘स्वीकृति’, को रेखांकित कर दिया है।
 यहां पर आकर कवि की संवेदना पारदर्शी तथा जो बूंुंद सहसा .उछली . थी, वह मटमैली न होकर.निरंंंतर अध्यवसाय तथा गहन काव्य साधना से परिष्कृत होती हुई उज्जवल होती चली गई है। सजगता काव्य चेतना का आधार है.... परन्तु वह अब शांत है, ‘अनुभव को शब्द देना कितना कठिन है, इसका अनुभव भी इसी यात्रा में सर्वाधिक हुआ।’
अंतर्मुखता की वापसी, शब्द को असंग व निसंग कर जाती है, वहीं जो ध्वनित होता है, वह मात्र अनुगूंज ही होती है।
 ‘‘  और तब
 उभर आते हो तुम’
 परत झड़ते ही जैसे
 प्रज्वलित हो पाती है यज्ञ की अग्नि !
 तुम हो और मंै हंू
 कहॉं है इतना एकान्त ?
 यह मन की सहजता जहां अनुभव मौन निर्वाक मै अभिव्यक्ति ढूढंता है,.... यहां शब्द पश्यंती के द्वार पर दस्तक देते है.ं.. भाषा की यह संस्कार धर्मिता विरल है। राकेश जी के उपन्यास ‘सूर्यास्त’ को कथा साहित्य में अकादमी  पुरस्कार मिला था। ‘सूर्यास्त’ एक लम्बी दुखान्त कथा यात्रा है। इसकी कथा-भाषा और इसका शिल्प प्रभावशाली है। व्यक्ति मन के यथार्थ को उद्घाटित करने के लिए शिल्प और शैली का नूतन प्रयोग यहां पारिलक्षित है। पत्राात्मक शैली का सुन्दर प्रयोग हुआ है। पात्रों के माध्यम से कथा का विकास हुआ है। पात्र ही अपना अन्तः निरीक्षण करते पारिलक्षित होते हंै। नायिका ‘करुणा’ का चरित्र उलझनों से भरा हुआ है। अनिर्णय से निर्णय की यात्रा है। भावुकता व कठोर जीवन की यंत्रणा है। कथाकार ने इस दुखान्त यात्रा का पर्यवसान जिस शांिन्त में किया  है, वह महत्वपूर्ण है।

एक और यात्रा   भारद्वाज जी का ‘‘सूर्यास्त’’ के बाद  हिन्दी में यह दूसरा उपन्यास है, राजस्थानी में आपका ‘उड़जा रे सुआं’ प्रकाशित होकर, केन्द्रीय साहित्य अकादमी से पुरस्कृत भी हुआ है। ‘विवेच्य उपन्यास का परिप्रेक्ष्य विस्तृत है। ‘यहां स्वतंत्रता पूर्व पैदा हुए ‘सूरज प्रकाश’ की कथा है, जो स्वतंत्र भारत में अपना विस्तार पाती है।
आंचलिक परिवेश है, ... ग्रामीण भारत जो ‘कस्बाई संस्कृति में विकसित हो रहा था, ... जहां ट्रेन से परिचय प्रारंभ हुआ है, ... डाकघर आया है, स्कूल खुले हैं, ... ‘समय’ को चिन्हित करते हुए उसे यथोचित परिलक्षित करने का भाव यहां केन्द्रित है। पिता आदर्शवादी है, ... वे शिक्षक हैं, ... तथा बाद में उनका सेवा कार्य ‘विजय सिंह पथिक’ की तरह बहुआयामी हो जाता है। वे पुत्र की पढ़ाई के प्रति चिंतित हैं, ... पर अपने पारिवारिक दायित्व के प्रति उदासीन भी हैं।
‘सूरज प्रकाश’ की पढ़ाई, छोटे कस्बे से, ... शहर तक आती है। वह स्कूल से कॉलेज तक की यात्रा करता है। तत्कालीन शैक्षणिक माहौल तथा समाज की सभी धाराओं का जो क्षीण गलियों से गुजरती हुई नगर के मैदान तक आती है, ... उन्हें चित्रित करते हुए विश्लेषित करने का आग्रह है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह जिस रूप में राजनीति में अपना चेहरा बदला था, उसके महीन धागों को परीक्षित भी किया गया है। अराजकीय क्षैक्षणिक प्रबंधन में लेखक का परिचय गहन रहा है। उसकी प्रतिध्वनि यहां पर है। सूरज प्रकाश, सरकारी नौकरी में न जाकर, ... निजी शैक्षणिक प्रबंधन में कार्य करना उचित समझता है।
कायस्थ परिवार की कन्या के प्रति वह आकर्षित है। उसके पिता उसके पूर्व के शिक्षक रहे हैं। टूटता मध्यवर्ग, ... तथा उसका चारित्रिक पतन यहां चित्रित है। अपनी उम्र से कम, ... भाभी के प्रति उसका अनैतिक आचरण, ... बिखरता परिवार, वहां सूरज प्रकाश का नायिका      के प्रति प्रेम भाव, जिसकी परिणिति प्रेम विवाह में होती है, आदर्शवादी रुझान है।
 कथा का परिप्रेक्ष्य सन साठ के आसपास अपना समाहार पाता है। तब समाज में आदर्शवाद छूटने लगा था। चीन के हमले ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था को पहली बार झिंझोड़ दिया था। राजनीति में विरोधी स्वर भी प्रबल होने लगे थे। उपन्यास में चित्रित कथा संसार में तत्कालीन राजनैतिक सामाजिक घटनाओं को समेटने का आग्रह  है।
यह कृति आधुनिक की चुनौति को समष्टि मन पर विवेचित करने का प्रयास करती है। कोटा नगर में सन साठ के पास औद्यागिक करण गति पर था। समाज में आरहा परिवर्तन व्यक्ति मन को किस तरह विचलित कर रहा है, एक गामीण युवक की बदलती मानसिकता इस उपन्यास के केन्द्र में है। कथाकार ने आंचलिकता के निर्वहन का पूरा प्रयास किया है।
‘उड़जा रे सुआ,  आंचलिक  उपन्यास है, जहाँ सामंती समाज में संघर्षरत नायिका की कथा है। हाड़ौती भाषा का चारुत्व इस कृति की प्रमुख विशेषता है। जहाँ , हाड़ौती बोली , भाषा के रूप में स्थानित हुई है।
भारद्वाज जी का महत्वपूर्ण योगदान हाड़ौती शोध प्रतिष्ठान की स्थापना का था। हाड़ौती की संस्कृति, तथा स्वतंत्रता संग्राम पर दो पुस्तकें आपके संपादन में प्रकाशित हुईं हैं, वे अमूल्य धरोहर हैं। हाड़ौती भाषा के उन्नयन में आपके द्वारा की गई सेवा स्तुत्य है। यह बात दूसरी है न जाने क्यों हम हीनता ग्रंथि से ग्रसित होकर अपनी श्रेष्ठ प्रतिभाओं का  समय पर मूल्यांकन और सम्मान नहीं कर पारहे हैं।
भारद्वाज जी एक बड़े भाई की तरह वर्षों तक हमारा मार्गदर्शन करते रहे। हर युवा रचनाकार के लिए,वे एक आदर्श थे। उनकी स्मृतियाँ हमारी धरोहर हैं, हम साहित्य के प्रति आदर भाव रखें , यही कामना है।
        नरेन्द्र नाथ

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