हमारे पुरोधा रामनाथ कमलाकर
आदरणीय मित्र-गण, आप इस लेखमाला से हृदय से जुड़ गए हैं, मेरे लिए यह उत्साह वर्द्धक है। हमारा हिन्दी साहित्य बीसवीं शताब्दी में ही प्रारम्भ हुआ, विकसित हुआ और आज हमारे ही कारण से अवसान के समीप भी आगया है। हिन्दी के समाचार पत्रों मंे अंग्रेजी लेखकों के लेखों के हिन्दी अनुवाद या इन्टरनेट से उतारी सूचनाओं का संग्रह ही अब बच गया है। अपनी भाषा में मौलिक सृजनात्मकता की पहल ही रुक सी गई है। प्रान्त में हिन्दी कविता को पहचान दिलाने वाले कवियों में सुधीन्द्र के समकालीन रामनाथ कमलाकर का योगदान महत्वपूर्ण है। सुधीन्द्र अपने समय में भारत में राष्ट्रªªीय- सांस्कृतिक काव्यधारा के महत्वपूर्ण कवि के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे। भारतेन्दु समिति संभवतः 1980 के आसपास तक सुधीन्द्र जयंती मनाती थी, पर उसके बाद से यह लेखकीय पर्व बंद हो गया है।
रामनाथ कमलाकर से मेरा पहला परिचय कोटा के कवि सम्मलन में हुआ था। तब मैं किशोरावस्था में था, जब मैंने उन्हें मंच पा देखा था, उन्हें कवि कुल किरीट के रूप में पुकारा गया था। संभवतः सन पचपन के आसपास का समय रहा होगा। कमलाकर जी की तब पहचान स्थापित हो चुकी थी। तब कवि जगदीश चतुर्वेदी भी स्थापित कवि होचुके थे। ये दोनो ही कवि जन संपर्क विभाग में कार्य कर रहे थे।
सन 69 में मैं झालावाड़ महाविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक रहा। वही पर कमलाकर जी जन संपर्क अधिकारी थे। आपका पुत्र गोपाल शर्मा मेरा विद्यार्थी रहा, तब उनके घर कई बार जाना हुआ। जयपुर में जब शासन सचिवालय में कार्यरत था तब पुनः कमलाकरजी के सपर्क में आया, वे प्रति माह कविगोष्ठी आयोजित करते थे। उसमें उन्होंने मुझे बुलाया था। कमलाकर जी का हालही में कुछ वर्षपूर्व देहांत हुआ है। वे रससिद्ध कवि थे। नंद जी ने आपको अपनी आलोचना की कृतियों में याद किया है।
हमारी नई पीढ़ी उनके साहित्यिक योगदान से अनभिज्ञ है। वे कवि परम्परा के कवि थे, रस , माधुर्य गीत की रागात्मकता को वे सहज ही व्यंजित कर जाते थे। न जाने क्यों अकादमी ने उन्हें उनके सम्मान से दूर ही रखा।
रामनाथ कमलाकर की अनवरत सृजनात्मकता पचास वर्षों से फैली हुई है। वे नन्द चतुर्वेदी के समकालीन हैं। उन की प्रारम्भिक पुस्तकों में उन का परिचय कवि कुल किरीट कमलाकर दिया हुआ है।
वे अपने ज़माने के ‘कवि सम्मेलन’ के प्रमुख कवि हुआ करते थे। नन्द चतुर्वेदी ने उन की काव्य रचना के बारे में लिखा था:-
”कमलाकर के जीवन में कवि ही की तरह अशेष प्यार की भावना और जलन एक साथ रही है। तारीफ़ यह है कि उस की जलन प्यार को कभी जला नहीं सकी, और यही कारण है कि कमलाकर के काव्य में रह-रह कर अनन्य प्रीति के विश्वासमय स्वर मुखर हुए। सभी गद्य गीतों में वह धरणी के सन्ताप का दुःख गा रहा है और पृथ्वी का आत्मा-हनन, जैसे उसे चैन नहीं लेने दे रहा है।“
‘हन्स तीर्थ’, ‘मेरे गीत: तुम्हारे चरण’, ‘दिलकश दौर’, ‘गौने की चूनर’ आप के प्रमुख प्रकाशित कविता संग्रह हैं।
‘एकोऽहम्,’ उन की पहली ‘गद्य गीत’ ड्डति है। बृज भाषा पर आप का अधिकार रहा। आप कवीन्द्र हरनाथ की परम्परा के वाहक रहे। ‘एकोऽहम’ पर उत्तर छायावाद का पूरा प्रभाव है। भाषा प्रसाद मयी, अलंकृत है। साथ ही दर्शन की पूरी भंगिमा है। तथ्यों को समेट कर अनुभव में ढालने की चेष्टा इस कृति में है। फिर भी हिन्दी भाषा की इस अंचल की ही नहीं, वरन प्रान्त की यह पहली ‘गद्य गीत’ कृति उल्लेखनीय है। अपने समय में इस कृति ने सुधी विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया था।
”ऐसे ही, सम्वेदनाओं के अनेक सन्दर्भों में रामनाथ ‘कमलाकर’ की कविताओं का रसास्वादन किया जाना चाहिए। प्रकृति की विराट प्रभुता, प्रीति का पावन आकर्षण, रहस्य-चिन्तन, वैषम्य पूर्ण जीवन की कुण्ठाऐं और कभी-कभी बीसवीं शताब्दी के कत्रिम जीवन की ग्लानि, इतना कुछ समेटता है कवि ‘कमलाकर’। एक रचना में चाँद के अपरूप सौन्दर्य का यह आत्मीयता पूर्ण वर्णन दृष्टव्य है:-
”लो प्रतीची के अधर पर झुका चन्द्रानन
छॉंह पलती तम किशोरी का जगा यौवन
सोचता क्या ओंठ पर अँगुली धरे आकाश
चाँदनी में मुस्कुराता चाँद मेरे पास।“
ओठ पर अंगुली धरे आकाश , नूतन प्रतीक योजना है, चंद्रोदय की समीपता , सहृदय को झंकृत कर देती है।
”अंजलीगत समर्पण हुआ जब अहम
रह गए एक तुम ही जगत बन स्वयं
भाव घूँघट उठा साधना ने कहा
थे कभी तुम कठिन अब अनायास हो
शब्द से दूर हो अर्थ से पास हो
दूर से दूर हो पास से पास हो।“
अद्वैतानुभूति ही प्रेम का प्रसाद है, जहॉं कोई गैर नहीं होता कोई और नहीं होता, मनुष्यत्व की सुगंध के कवि कमलाकर हैं।
कमलाकर ने अपनी इस विस्तृत काव्य-समयावधि में काव्य की सभी प्रवृत्तियों का आदर किया। समय के साथ बदलती काव्य संरचना का का सहारा भी लिया, परन्तु उन का मूल स्वर जो उदात्त मानवीय सम्पदा से सन्निाहित था, वह परिवर्तित नहीं होने दिया। गहरी वैष्णवी संस्कृति मंे उन के काव्य संस्कार प्रभावित हुए हैं, जो ‘परम हन्स’, ‘अरविन्द’ आदि अनेक सन्तों के दर्शन से स्थिर हुए, उस संस्कार धर्मिता ने उन की ‘काव्य अन्तर्वस्तु’ का निर्माण किया है।
यही कारण है कि वे निरन्तर धर्म के तथ्यात्मक रूपों की आवृति को छोड़ते हुए गहरे में आध्यात्म से जुड़ते चले गए।
गहन साांस्कृतिक चेतना और उस की अभिव्यक्ति, कमलाकर की काव्य साधना है। वे कविता की ‘अन्तर्वस्तु’ भाव लोक से लाते हैं, जो उन की अपनी ‘अनुभूत्यात्मक सम्वेदना’ है। वे आत्मानुभव को, जीवनानुभव में बदलते हुए, काव्य रूप की, उसी के अनुरूप तलाश करते हैं। उन के यहाँ रूप उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना जो ‘रूप’ उन्हों ने अनुभव किया है। आप की सहज, प्रभावी, दृश्य बिम्बों से सघन, काव्य भाषा की विशेषता का यही कारण है:-
”मत मतान्तर सभी एक मत हो गए,
स्वप्न सब जागरण में असत हो गए।
लक्ष्य पर आ मनोरथ का रथ रुक गया,
राह के संस्मरण अब विगत हो गए।“
”मौन हो गया मन
मंज़िल पर चुक गई चपलता,
शान्ति सेज सो गई मुखरता
जग जिस में प्रतिबिम्बित था
वह उलट गया दर्पण।“ ;पृ. 3. ‘गौने की चूनर’
”दूर कर नींद का आवरण
आ गया लो तुम्हारी शरण।
अब तुम्हारी ख़ुुशी में ख़ुशी,
ज़िन्दगी है तुम्हारे रहन।“
कमलाकर हिन्दी के सूफ़ी कवि थे, जो प्रेम की पीर का सत्य पा चुके थे। नई कविता के आलोचक और कवि जग जिसमे प्रतिबिम्बित था, उलट गया वह दर्पण, कवि की आंतरिक यात्रा का मूल्यांकन नहीं कर पाए।
कवि कमलाकर साठ वर्ष से अधिक निरन्तर सृजन रत रहे, वे दार्शनिक तथ्यों को, सन्तों के अनुभवों को सम्वेदना के स्तर पर स्वीकार करते हैं। उन्हों ने हिन्दी में रुबाइयाँ लिखी हैं। उन का शब्द भण्डार विपुल है:-
”नभ निकंज में सन्ध्या फूली,
श्रमिक कण्ठ झरते मधु निर्झर,
गूँजे नीड़ों में आतुर स्वर,
प्रत्याशित शिशु मुख में मुख दे
तरु फुनगी पर बिहगी झूली।“ ;पृ. 152. ‘गौने की चूनर’
यहाँ जो बिम्ब विधान है, वहाँ मानवीकरण भी है, प्रतीकों का सुन्दर निर्वहन भी है। ‘लोक’, ‘श्रमिक कण्ठ से झरते मधु निर्झर’, ‘प्रत्याशित शिशु मुख में मुख दे’ के साथ ‘प्रकृति’ के ‘माँ’ रूप को प्रस्तुत कर गया है।
यह आलेख कमलाकरजी की काव्य साधना को समझने का प्रयास है। जब जीवन में विसंगतियों को मूल्य बनाकर कविता के मूल्यांकन का प्रयास किया गया , तब कमलाकर जी की माधुर्य भावना का निरादर होना स्वाभाविक ही था। कविता मनुष्य जाति की सहृदयता की संवर्द्धन औषधि है, इस आधार पर कमलाकर जी का मूल्यांकन अपेक्षित है।
आदरणीय मित्र-गण, आप इस लेखमाला से हृदय से जुड़ गए हैं, मेरे लिए यह उत्साह वर्द्धक है। हमारा हिन्दी साहित्य बीसवीं शताब्दी में ही प्रारम्भ हुआ, विकसित हुआ और आज हमारे ही कारण से अवसान के समीप भी आगया है। हिन्दी के समाचार पत्रों मंे अंग्रेजी लेखकों के लेखों के हिन्दी अनुवाद या इन्टरनेट से उतारी सूचनाओं का संग्रह ही अब बच गया है। अपनी भाषा में मौलिक सृजनात्मकता की पहल ही रुक सी गई है। प्रान्त में हिन्दी कविता को पहचान दिलाने वाले कवियों में सुधीन्द्र के समकालीन रामनाथ कमलाकर का योगदान महत्वपूर्ण है। सुधीन्द्र अपने समय में भारत में राष्ट्रªªीय- सांस्कृतिक काव्यधारा के महत्वपूर्ण कवि के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे। भारतेन्दु समिति संभवतः 1980 के आसपास तक सुधीन्द्र जयंती मनाती थी, पर उसके बाद से यह लेखकीय पर्व बंद हो गया है।
रामनाथ कमलाकर से मेरा पहला परिचय कोटा के कवि सम्मलन में हुआ था। तब मैं किशोरावस्था में था, जब मैंने उन्हें मंच पा देखा था, उन्हें कवि कुल किरीट के रूप में पुकारा गया था। संभवतः सन पचपन के आसपास का समय रहा होगा। कमलाकर जी की तब पहचान स्थापित हो चुकी थी। तब कवि जगदीश चतुर्वेदी भी स्थापित कवि होचुके थे। ये दोनो ही कवि जन संपर्क विभाग में कार्य कर रहे थे।
सन 69 में मैं झालावाड़ महाविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक रहा। वही पर कमलाकर जी जन संपर्क अधिकारी थे। आपका पुत्र गोपाल शर्मा मेरा विद्यार्थी रहा, तब उनके घर कई बार जाना हुआ। जयपुर में जब शासन सचिवालय में कार्यरत था तब पुनः कमलाकरजी के सपर्क में आया, वे प्रति माह कविगोष्ठी आयोजित करते थे। उसमें उन्होंने मुझे बुलाया था। कमलाकर जी का हालही में कुछ वर्षपूर्व देहांत हुआ है। वे रससिद्ध कवि थे। नंद जी ने आपको अपनी आलोचना की कृतियों में याद किया है।
हमारी नई पीढ़ी उनके साहित्यिक योगदान से अनभिज्ञ है। वे कवि परम्परा के कवि थे, रस , माधुर्य गीत की रागात्मकता को वे सहज ही व्यंजित कर जाते थे। न जाने क्यों अकादमी ने उन्हें उनके सम्मान से दूर ही रखा।
रामनाथ कमलाकर की अनवरत सृजनात्मकता पचास वर्षों से फैली हुई है। वे नन्द चतुर्वेदी के समकालीन हैं। उन की प्रारम्भिक पुस्तकों में उन का परिचय कवि कुल किरीट कमलाकर दिया हुआ है।
वे अपने ज़माने के ‘कवि सम्मेलन’ के प्रमुख कवि हुआ करते थे। नन्द चतुर्वेदी ने उन की काव्य रचना के बारे में लिखा था:-
”कमलाकर के जीवन में कवि ही की तरह अशेष प्यार की भावना और जलन एक साथ रही है। तारीफ़ यह है कि उस की जलन प्यार को कभी जला नहीं सकी, और यही कारण है कि कमलाकर के काव्य में रह-रह कर अनन्य प्रीति के विश्वासमय स्वर मुखर हुए। सभी गद्य गीतों में वह धरणी के सन्ताप का दुःख गा रहा है और पृथ्वी का आत्मा-हनन, जैसे उसे चैन नहीं लेने दे रहा है।“
‘हन्स तीर्थ’, ‘मेरे गीत: तुम्हारे चरण’, ‘दिलकश दौर’, ‘गौने की चूनर’ आप के प्रमुख प्रकाशित कविता संग्रह हैं।
‘एकोऽहम्,’ उन की पहली ‘गद्य गीत’ ड्डति है। बृज भाषा पर आप का अधिकार रहा। आप कवीन्द्र हरनाथ की परम्परा के वाहक रहे। ‘एकोऽहम’ पर उत्तर छायावाद का पूरा प्रभाव है। भाषा प्रसाद मयी, अलंकृत है। साथ ही दर्शन की पूरी भंगिमा है। तथ्यों को समेट कर अनुभव में ढालने की चेष्टा इस कृति में है। फिर भी हिन्दी भाषा की इस अंचल की ही नहीं, वरन प्रान्त की यह पहली ‘गद्य गीत’ कृति उल्लेखनीय है। अपने समय में इस कृति ने सुधी विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया था।
”ऐसे ही, सम्वेदनाओं के अनेक सन्दर्भों में रामनाथ ‘कमलाकर’ की कविताओं का रसास्वादन किया जाना चाहिए। प्रकृति की विराट प्रभुता, प्रीति का पावन आकर्षण, रहस्य-चिन्तन, वैषम्य पूर्ण जीवन की कुण्ठाऐं और कभी-कभी बीसवीं शताब्दी के कत्रिम जीवन की ग्लानि, इतना कुछ समेटता है कवि ‘कमलाकर’। एक रचना में चाँद के अपरूप सौन्दर्य का यह आत्मीयता पूर्ण वर्णन दृष्टव्य है:-
”लो प्रतीची के अधर पर झुका चन्द्रानन
छॉंह पलती तम किशोरी का जगा यौवन
सोचता क्या ओंठ पर अँगुली धरे आकाश
चाँदनी में मुस्कुराता चाँद मेरे पास।“
ओठ पर अंगुली धरे आकाश , नूतन प्रतीक योजना है, चंद्रोदय की समीपता , सहृदय को झंकृत कर देती है।
”अंजलीगत समर्पण हुआ जब अहम
रह गए एक तुम ही जगत बन स्वयं
भाव घूँघट उठा साधना ने कहा
थे कभी तुम कठिन अब अनायास हो
शब्द से दूर हो अर्थ से पास हो
दूर से दूर हो पास से पास हो।“
अद्वैतानुभूति ही प्रेम का प्रसाद है, जहॉं कोई गैर नहीं होता कोई और नहीं होता, मनुष्यत्व की सुगंध के कवि कमलाकर हैं।
कमलाकर ने अपनी इस विस्तृत काव्य-समयावधि में काव्य की सभी प्रवृत्तियों का आदर किया। समय के साथ बदलती काव्य संरचना का का सहारा भी लिया, परन्तु उन का मूल स्वर जो उदात्त मानवीय सम्पदा से सन्निाहित था, वह परिवर्तित नहीं होने दिया। गहरी वैष्णवी संस्कृति मंे उन के काव्य संस्कार प्रभावित हुए हैं, जो ‘परम हन्स’, ‘अरविन्द’ आदि अनेक सन्तों के दर्शन से स्थिर हुए, उस संस्कार धर्मिता ने उन की ‘काव्य अन्तर्वस्तु’ का निर्माण किया है।
यही कारण है कि वे निरन्तर धर्म के तथ्यात्मक रूपों की आवृति को छोड़ते हुए गहरे में आध्यात्म से जुड़ते चले गए।
गहन साांस्कृतिक चेतना और उस की अभिव्यक्ति, कमलाकर की काव्य साधना है। वे कविता की ‘अन्तर्वस्तु’ भाव लोक से लाते हैं, जो उन की अपनी ‘अनुभूत्यात्मक सम्वेदना’ है। वे आत्मानुभव को, जीवनानुभव में बदलते हुए, काव्य रूप की, उसी के अनुरूप तलाश करते हैं। उन के यहाँ रूप उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना जो ‘रूप’ उन्हों ने अनुभव किया है। आप की सहज, प्रभावी, दृश्य बिम्बों से सघन, काव्य भाषा की विशेषता का यही कारण है:-
”मत मतान्तर सभी एक मत हो गए,
स्वप्न सब जागरण में असत हो गए।
लक्ष्य पर आ मनोरथ का रथ रुक गया,
राह के संस्मरण अब विगत हो गए।“
”मौन हो गया मन
मंज़िल पर चुक गई चपलता,
शान्ति सेज सो गई मुखरता
जग जिस में प्रतिबिम्बित था
वह उलट गया दर्पण।“ ;पृ. 3. ‘गौने की चूनर’
”दूर कर नींद का आवरण
आ गया लो तुम्हारी शरण।
अब तुम्हारी ख़ुुशी में ख़ुशी,
ज़िन्दगी है तुम्हारे रहन।“
कमलाकर हिन्दी के सूफ़ी कवि थे, जो प्रेम की पीर का सत्य पा चुके थे। नई कविता के आलोचक और कवि जग जिसमे प्रतिबिम्बित था, उलट गया वह दर्पण, कवि की आंतरिक यात्रा का मूल्यांकन नहीं कर पाए।
कवि कमलाकर साठ वर्ष से अधिक निरन्तर सृजन रत रहे, वे दार्शनिक तथ्यों को, सन्तों के अनुभवों को सम्वेदना के स्तर पर स्वीकार करते हैं। उन्हों ने हिन्दी में रुबाइयाँ लिखी हैं। उन का शब्द भण्डार विपुल है:-
”नभ निकंज में सन्ध्या फूली,
श्रमिक कण्ठ झरते मधु निर्झर,
गूँजे नीड़ों में आतुर स्वर,
प्रत्याशित शिशु मुख में मुख दे
तरु फुनगी पर बिहगी झूली।“ ;पृ. 152. ‘गौने की चूनर’
यहाँ जो बिम्ब विधान है, वहाँ मानवीकरण भी है, प्रतीकों का सुन्दर निर्वहन भी है। ‘लोक’, ‘श्रमिक कण्ठ से झरते मधु निर्झर’, ‘प्रत्याशित शिशु मुख में मुख दे’ के साथ ‘प्रकृति’ के ‘माँ’ रूप को प्रस्तुत कर गया है।
यह आलेख कमलाकरजी की काव्य साधना को समझने का प्रयास है। जब जीवन में विसंगतियों को मूल्य बनाकर कविता के मूल्यांकन का प्रयास किया गया , तब कमलाकर जी की माधुर्य भावना का निरादर होना स्वाभाविक ही था। कविता मनुष्य जाति की सहृदयता की संवर्द्धन औषधि है, इस आधार पर कमलाकर जी का मूल्यांकन अपेक्षित है।