रविवार, 24 नवंबर 2013

हमारे पुरोधा रामनाथ कमलाकर

हमारे पुरोधा   रामनाथ कमलाकर

आदरणीय मित्र-गण, आप इस लेखमाला से हृदय से जुड़ गए हैं, मेरे लिए यह उत्साह वर्द्धक है। हमारा हिन्दी साहित्य बीसवीं शताब्दी में ही प्रारम्भ हुआ, विकसित हुआ और आज हमारे ही कारण से अवसान के समीप भी आगया है। हिन्दी के समाचार पत्रों मंे अंग्रेजी लेखकों के लेखों के हिन्दी अनुवाद या इन्टरनेट से उतारी सूचनाओं का संग्रह ही अब बच गया है। अपनी भाषा में मौलिक सृजनात्मकता की पहल ही रुक सी गई है। प्रान्त में हिन्दी कविता को पहचान दिलाने वाले कवियों में सुधीन्द्र के समकालीन रामनाथ कमलाकर का योगदान महत्वपूर्ण है। सुधीन्द्र अपने समय में भारत में राष्ट्रªªीय- सांस्कृतिक काव्यधारा के महत्वपूर्ण कवि के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे। भारतेन्दु समिति संभवतः 1980 के आसपास तक सुधीन्द्र जयंती मनाती थी, पर उसके बाद से यह लेखकीय पर्व बंद हो गया है।

रामनाथ कमलाकर से मेरा पहला परिचय कोटा के कवि सम्मलन में हुआ था। तब मैं किशोरावस्था में था, जब मैंने उन्हें मंच पा देखा था, उन्हें कवि कुल किरीट के रूप में पुकारा गया था।   संभवतः सन पचपन के आसपास का समय रहा होगा। कमलाकर जी की तब पहचान स्थापित हो चुकी थी। तब कवि जगदीश चतुर्वेदी भी स्थापित कवि होचुके थे। ये दोनो ही कवि जन संपर्क विभाग में कार्य कर रहे थे।

सन 69 में मैं झालावाड़ महाविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक रहा। वही पर कमलाकर जी जन संपर्क अधिकारी थे। आपका पुत्र गोपाल शर्मा मेरा विद्यार्थी रहा, तब उनके घर कई बार जाना हुआ। जयपुर में जब शासन सचिवालय में कार्यरत था तब पुनः कमलाकरजी के सपर्क में आया, वे प्रति माह कविगोष्ठी आयोजित करते थे। उसमें उन्होंने  मुझे बुलाया था। कमलाकर जी का हालही में कुछ वर्षपूर्व देहांत हुआ है। वे रससिद्ध कवि थे। नंद जी ने  आपको अपनी आलोचना की कृतियों में याद किया है।

 हमारी नई पीढ़ी उनके साहित्यिक योगदान से अनभिज्ञ है। वे कवि परम्परा के कवि थे, रस , माधुर्य गीत की रागात्मकता को वे सहज ही व्यंजित कर जाते थे। न जाने क्यों अकादमी ने उन्हें उनके सम्मान से दूर ही रखा।


रामनाथ कमलाकर की अनवरत सृजनात्मकता पचास वर्षों से फैली हुई है। वे नन्द चतुर्वेदी के समकालीन हैं। उन की प्रारम्भिक पुस्तकों में उन का परिचय कवि कुल किरीट कमलाकर दिया हुआ है।
वे अपने ज़माने के ‘कवि सम्मेलन’ के प्रमुख कवि हुआ करते थे। नन्द चतुर्वेदी ने उन की काव्य रचना के बारे में लिखा था:-
”कमलाकर के जीवन में कवि ही की तरह अशेष प्यार की भावना और जलन एक साथ रही है। तारीफ़ यह है कि उस की जलन प्यार को कभी जला नहीं सकी, और यही कारण है कि कमलाकर के काव्य में रह-रह कर अनन्य प्रीति के विश्वासमय स्वर मुखर हुए। सभी गद्य गीतों में वह धरणी के सन्ताप का दुःख गा रहा है और पृथ्वी का आत्मा-हनन, जैसे उसे चैन नहीं लेने दे रहा है।“


‘हन्स तीर्थ’, ‘मेरे गीत: तुम्हारे चरण’, ‘दिलकश दौर’, ‘गौने की चूनर’ आप के प्रमुख प्रकाशित कविता संग्रह हैं।
‘एकोऽहम्,’ उन की पहली ‘गद्य गीत’ ड्डति है। बृज भाषा पर आप का अधिकार रहा। आप कवीन्द्र हरनाथ की परम्परा के वाहक रहे। ‘एकोऽहम’ पर उत्तर छायावाद का पूरा प्रभाव है। भाषा प्रसाद मयी, अलंकृत है। साथ ही दर्शन की पूरी भंगिमा है। तथ्यों को समेट कर अनुभव में ढालने की चेष्टा इस कृति में है। फिर भी हिन्दी भाषा की इस अंचल की ही नहीं, वरन प्रान्त की यह पहली ‘गद्य गीत’ कृति उल्लेखनीय है। अपने समय में इस कृति ने सुधी विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया था।

”ऐसे ही, सम्वेदनाओं के अनेक सन्दर्भों में रामनाथ ‘कमलाकर’ की कविताओं का रसास्वादन किया जाना चाहिए। प्रकृति की विराट प्रभुता, प्रीति का पावन आकर्षण, रहस्य-चिन्तन, वैषम्य पूर्ण जीवन की कुण्ठाऐं और कभी-कभी बीसवीं शताब्दी के कत्रिम जीवन की ग्लानि, इतना कुछ समेटता है कवि ‘कमलाकर’। एक रचना में चाँद के अपरूप सौन्दर्य का यह आत्मीयता पूर्ण वर्णन दृष्टव्य है:-

”लो प्रतीची के अधर पर झुका चन्द्रानन
छॉंह पलती तम किशोरी का जगा यौवन
सोचता क्या ओंठ पर अँगुली धरे आकाश
चाँदनी में मुस्कुराता चाँद मेरे पास।“
ओठ पर अंगुली धरे आकाश , नूतन प्रतीक योजना है,  चंद्रोदय की समीपता , सहृदय को झंकृत कर देती है।

         
”अंजलीगत समर्पण हुआ जब अहम
रह गए एक तुम ही जगत बन स्वयं
भाव घूँघट उठा साधना ने कहा
थे कभी तुम कठिन अब अनायास हो
शब्द से दूर हो अर्थ से पास हो
दूर से दूर हो पास से पास हो।“

अद्वैतानुभूति ही प्रेम का प्रसाद है, जहॉं  कोई गैर नहीं होता कोई और नहीं होता, मनुष्यत्व की सुगंध के कवि कमलाकर हैं।

कमलाकर ने अपनी इस विस्तृत काव्य-समयावधि में काव्य की सभी प्रवृत्तियों का आदर किया। समय के साथ बदलती काव्य संरचना का का सहारा भी लिया, परन्तु उन का मूल स्वर जो उदात्त मानवीय सम्पदा से सन्निाहित था, वह परिवर्तित नहीं होने दिया। गहरी वैष्णवी संस्कृति मंे उन के काव्य संस्कार प्रभावित हुए हैं, जो ‘परम हन्स’, ‘अरविन्द’ आदि अनेक सन्तों के दर्शन से स्थिर हुए, उस संस्कार धर्मिता ने उन की ‘काव्य अन्तर्वस्तु’ का निर्माण किया है।

यही कारण है कि वे निरन्तर धर्म के तथ्यात्मक रूपों की आवृति को छोड़ते हुए गहरे में आध्यात्म से जुड़ते चले गए।

गहन साांस्कृतिक चेतना और उस की अभिव्यक्ति, कमलाकर की काव्य साधना है। वे कविता की ‘अन्तर्वस्तु’ भाव लोक से लाते हैं, जो उन की अपनी ‘अनुभूत्यात्मक सम्वेदना’ है। वे आत्मानुभव को, जीवनानुभव में बदलते हुए, काव्य रूप की, उसी के अनुरूप तलाश करते हैं। उन के यहाँ रूप उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना जो ‘रूप’ उन्हों ने अनुभव किया है। आप की सहज, प्रभावी, दृश्य बिम्बों से सघन, काव्य भाषा की विशेषता का यही कारण है:-

”मत मतान्तर सभी एक मत हो गए,
स्वप्न सब जागरण में असत हो गए।
लक्ष्य पर आ मनोरथ का रथ रुक गया,
राह के संस्मरण अब विगत हो गए।“

”मौन हो गया मन
मंज़िल पर चुक गई चपलता,
शान्ति सेज सो गई मुखरता
जग जिस में प्रतिबिम्बित था
वह उलट गया दर्पण।“    ;पृ. 3. ‘गौने की चूनर’

”दूर कर नींद का आवरण
आ गया लो तुम्हारी शरण।
अब तुम्हारी ख़ुुशी में ख़ुशी,
ज़िन्दगी है तुम्हारे रहन।“

कमलाकर हिन्दी के सूफ़ी कवि थे, जो प्रेम की पीर का सत्य पा चुके थे। नई कविता के आलोचक और कवि  जग जिसमे प्रतिबिम्बित था, उलट गया वह दर्पण, कवि की आंतरिक यात्रा का मूल्यांकन नहीं कर पाए।

कवि कमलाकर साठ वर्ष से  अधिक निरन्तर सृजन रत रहे,   वे दार्शनिक तथ्यों को, सन्तों के अनुभवों को सम्वेदना के स्तर पर स्वीकार करते हैं। उन्हों ने हिन्दी में रुबाइयाँ लिखी हैं। उन का शब्द भण्डार विपुल है:-

”नभ निकंज में सन्ध्या फूली,
श्रमिक कण्ठ झरते मधु निर्झर,
गूँजे नीड़ों में आतुर स्वर,
प्रत्याशित शिशु मुख में मुख दे
तरु फुनगी पर बिहगी झूली।“ ;पृ. 152. ‘गौने की चूनर’

यहाँ जो बिम्ब विधान है, वहाँ मानवीकरण भी है, प्रतीकों का सुन्दर निर्वहन भी है। ‘लोक’, ‘श्रमिक कण्ठ से झरते मधु निर्झर’, ‘प्रत्याशित शिशु मुख में मुख दे’ के साथ ‘प्रकृति’ के ‘माँ’ रूप को प्रस्तुत कर गया है।

यह आलेख कमलाकरजी की काव्य साधना को समझने का प्रयास है।  जब जीवन में विसंगतियों को मूल्य बनाकर कविता के मूल्यांकन का प्रयास किया गया , तब कमलाकर जी की माधुर्य भावना का निरादर होना स्वाभाविक ही था। कविता मनुष्य जाति की सहृदयता की संवर्द्धन औषधि है, इस आधार पर कमलाकर जी का मूल्यांकन अपेक्षित है।


शनिवार, 23 नवंबर 2013

हमारे पुरोधा श्री नारायण वर्मा

हमारे पुरोधा श्री नारायण वर्मा

श्री नारायण वर्मा से हमारे काव्य मित्र अपरिचित ही हैं। कारण स्पष्ट रहा हे, यहॉं के साहित्यकारों में अपने समकालीन उत्कृष्ट रचनाकार की उपेक्षा स्वाभाविक वृत्ति रही है। तब मैं राजकीय महाविद्यालय में हिन्दी विभाग का छात्र था, तब आपके गीतों को पहली बार सुना था। आप राजकीय सेवा में उच्च अधिकारी रहे थे। भारतेन्दु समिति पर तब सांस्कृतिक साहित्य कर्मियों का प्रभुत्व था।  वहॉं साहित्य के प्रति अलिखित दुराग्रह था। श्री नारायण वर्मा समृद्ध गीतकार थे। राज्य सेवा का भी प्रभुत्व उनकी एक पहचान थी।

आपके दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। आप वर्षो तक साहित्य सृजन में संलग्न रहे। परन्तु साहित्यिक गुटबन्दी से बहुत दूर रहे। छावनी में जहॉं आज शोपिंग सैन्टर है , उस जमाने में आपका बड़ा भवन था।मुझे यह पता नहीं आप कब दिवंगत हुए, आपकी स्मृति में न तो कोई मोनोग्राफ आया नहीं कोई आलेख मुझे मिला। आपके दो काव्य संग्रह मुझे मिले , उन्हीं के आधार पर यह स्मृति- कथा नियोजित है, मित्रों के पास सूचना हो अवश्य बताएॅं, ठाड़ा साहब तथा हरि जी के बारे में भाई अतुल कनक ने काफी महत्वपूर्ण जानकारियॉं दी हैं, मैं उनका आभारी हूॅं।

कवि की कविता की आधार सामग्री उस का अनुभूत्यात्मक सच होता है। जहाँ वह अन्तर्मुखी होता है, वहाँ बाहर की दुनिया उस के आग्रह, उसे बाँध नहीं पाते हैं। ‘वह’, ‘स्व’ की खोज में ‘काँदे’ के छिलके उतारता-उतारता, उस परम सत्य की झलक पाने को, जिसे ‘विराट’ भी कहा जाता है, उस नन्हें शिशु की तरह उत्सुकता थामे, जो ख़ाली सीपियों में मोती तलाश करना चाहता है, सागर तट पर रेत में अपनी कोमल अँगुलियों से कुरेदता रहता है।  सच है, अन्तर्मुखता का प्रवेश द्वार यहीं प्राप्त होता है। यहाँ बहिर्मुखता का आकर्षण स्वतः छूटता चला जाता है। सांस्कृतिक काव्यधारा की यह एक प्रमुख विशेषता है।
‘मन की बातें’ आप का पहला कविता संग्रह था।


 नाथू लाल जैन ने ‘तरंगें’ 1991 ई. की भूमिका में कहा है:-
”‘तरंगें’ संग्रह के गीतों में स्वाभाविक रूप से ही अधिक प्रौढ़ता है, परिपक्वता है और आचार्य श्री शिलीमुख जी ने जिसे ‘शुद्ध हार्दिकता’ कहा, वह तो है ही, उस पर आध्यात्मिकता का वह रंग भी है, जो विप्रलम्भ के इन गीतों को भक्ति के बहुत समीप पहुँचा देता है। अब कवि के हृदय में अधिक गहरा आत्म-विश्वास है।“
और इस गहरे आत्म-विश्वास का कारण है:-
”मैं तुम्हारा नाम ले कर चल रहा हूँ
मैं तुम्हारा वेग ले कर चल रहा हूँ
राह मुझ को यों थका लेगी भला क्या?
राह को मैं साथ ले कर चल रहा हूँ
बस कि तुम अब राह से मुझ को लगा दो
तुम मुझे जीवन नया दो।“
”यहाँ अनुभूति की गहनता है, भाषा में सहजता है, कथ्य सहज स्फूर्त है, यहाँ विचार का न दबाव है, न आग्रह है, एक सहज अह-शून्यता है। सच है, जहाँ हीन भावना होती है, वहीं अहंकार होता है, वहाँ काव्य भाषा जटिल प्रतीकों तथा अभिव्यक्ति में उलझ जाती है। बलाघात वहाँ अधिक होता है। जटिलता काव्य गुण नहीं है, हाँ जटिल भावों की व्यथा भी सरल भाषा में व्यष्ति हो पाती है। यहाँ अनुभूति की सघनता तो है, पर वह स्वानुभव की तपिश में, अभिव्यक्ति तलाश कर रही है:-

”कि तुम ने यांे कृपा की कोर दे कर
बहुत झुक कर मुझे ऊँचा उठाया
कि तृण-सा रज-कणों में डूबता था
कि तुम ने फूल-सा सिर पर चढ़ाया
तुम्हारा आसरा मुझ को बड़ा है।
कि मस्तक आज चरणों में झुका है।“ ;पृ. 84.

दार्शनिक भंंिगमाऐं प्रायः ‘बुद्धि जन्य ज्ञान’ पर आधारित होती हैं। फ्ऱायड व मार्क्स के चिन्तन के आधार पर ‘इन्द्रिय जन्य ज्ञान’, काव्य वस्तु बनता है। वहाँ जीवन का यथार्थ, ‘इन्द्रिय जन्य ज्ञान’ हो जाता है। बहिर्जगत की यात्रा यहाँ चिन्तन का रस प्रदान करती है, पर जहाँ कविता, अनुभव की आँख से दुनिया देखना चाहती है, वहाँ हृदय खुलता है, यह करुणा की ज़मीन है, यहाँ प्रेम, साध्य रह जाता है।

”‘सत्य धरती, सत्य यह आकाश भी
सत्य ही सागर धरा के पास भी
एक हैं सब और सब साकार भी
दूर हैं सब और सब हैं पास भी
सत्य को देखंे भला आँखें कहाँ
सत्य ही यह सत्य का आभास है।
स्वप्न का संसार मुझ से दूर है
तथ्य जीवन का हृदय के पास है।“
श्रीनारायण वर्मा की कविता ‘साक्षित्व’ की उप सम्पदा है। आध्यात्म की दुनिया, रहस्यमयी है। वहाँ दार्शनिक की भंगिमा छूट जाती है। दर्शन का क्षेत्र, विचार का है, बुद्धि का है, विश्लेषण का है। प्रायः ‘आध्यात्मिक’ नाम पर ‘धर्म’, सम्प्रदाय की मान्यताओं, उन के चरित्र आख्यानों को सौंपा जाता है।
‘भागवत में ‘चीरहरण’ का प्रसंग आता है, जहाँ सारी अवधारणाऐं छूट जाती हैं, ‘नान कन्डीशन्ड माइन्ड’, कोई साम्प्रदायिक आग्रह नहीं रहता है। श्रीनारायण वर्मा इसी ‘अन्तर्यात्रा के पथिक हैं। ‘तुम’, इस अन्तर्मुखता का मनोहर प्रस्थान बिन्दु होता है। उस की पहचान, उस की मनोहारी कल्पना होती है, जितना उस का सान्निाध्य प्राप्त होता जाता है। उतना ही भीतर का कल्मष दूर होता है।
”यों ही तुम मेरे जीवन में अपना रंग लुटाते जाओ
और रजनियों की आभा में अपना रूप रचाते जाओ।“ ;पृ. 67.
यह ‘तुम’, ... यहाँ प्रीत का भण्डार है। यहाँ प्रेमानुभूति, अनुभूत्यात्मक जगत का सार है। यहाँं कविता जिस ‘सहज धर्म’ का वरण करती है, वह मनुष्यत्व का वाहक है। और यहाँ काव्य, जिस ‘संस्कृति’ को अपनी वाणी देता है, वह बाह्य कलेवरों को छोड़ती हुई ‘आत्मस्थ कवि की सहज स्वानुभूति’ है, जो सांस्कृतिक काव्य धारा की प्रमुख विशेषता है। छायावादी काव्य धारा का सहज विकास है।

गलती हमसे यही हुई है, कि हम परंपरा से कटते हुए , आत्म मुग्ध,  स्वयं अपनी ही सृजनशीलता को ही समर्पित होकर रह गए। हमारे आसपास कुछ अच्छा भी लिखा गया है, लिखा जा रहा है, हम उससे जुड़े , साहित्य का अवरुद्ध मार्ग गतिशील होगा , इसी आशा के साथ।

सोमवार, 18 नवंबर 2013

हमारे पुरोधा कवि और उपन्यासकार माधवसिंह दीपक

हमारे पुरोधा
कवि और उपन्यासकार माधवसिंह दीपक
मित्रों ने इस लेखमाला का स्वागत किया है, वे इसे पढ़ रहे हैं, अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं, मैं उनका हृदय से आभारी हूूॅं। मेरा इस लेखमाला लिखने के पीछे आशय यही था, साहित्य के इस महायज्ञ मंे हमारी पुरानी पीढ़ी के वे लोग जो मौन साधना रत रहे, आज वे हमारे बीच में नहीं हैं,जिनके जाने केबाद हम अपने निजी स्वार्थोेे में  उन्हें भूल ही गए। उनके शताब्दी वर्ष भी निकल गए , हम याद भी नहीं कर पाए। उनके समकालीन अकादमी के पुरोधा भी रहे। वे उनकी स्मृति में मोनोग्राफ भी नहीं निकाल पाए, उनके लेखन को मित्रों तक पहुंचाना परंपराके निर्वहन में मेरे लिए यह साहित्यिक धर्म ही है। आज तो शोक सभा भी एक खानापूरी होगई है, जो मोबाइल की बातचीत से हो जाती है। सुबह के अखबार में सूचना छप जाती है।

खैर आज मैं जिस लेखक की चर्चा कर रहा हॅं, वे जीवन मैं लेखक ही रहे। झालावाड़ जिले में जन्मे श्री माधवसिंह दीपक , उच्च प्रशासनिक सेवा में दिल्ली में रहे। वे झाालावाड़ अपनी जागीर सम्हालने आते थे। उनका परिवार झालावाड़ में ही रहा। तब मैं राजकीय महाविद्याालय में हिन्दी प्राध्यापक था।  एक दिन सुबह मेरे घर पर वे आएथे। चूड़ीदार पायजामा अैर अचकन और सुंदर टोपी यही उनकी पहचान थी। उनकी हवेली पर भी गया था। जहॉ बहुत बड़ा निजी पुस्तकालय था। वे अंग्रेजी, हिन्दी तथा कुछ अन्य विदेशी भाषाओं के विद्वान थे। ‘सात सौ गीत उनके गीतांे का वृहद संग्रह था, ’ तलवार की छाया, बोलती लहरें, कर्नाटकी ,रेत की आग आपके उपन्यास थे। झाालावाड़ के मित्रों ने उनके साहित्य  पर बाद में परिचर्चा भी आयोजित की थी।

माधव सिंह ‘दीपक’ के तीन काव्य संग्रह ‘सात सौ गीत’ 1959 ई., ‘लावण्यमयी’ 1959 ई. तथा ‘बलभद्र प्रकाश’ 1960 ई. प्रकाशित हुए थे। उन के पितामह श्री बलभद्र सिंह भी कवि थे, ‘बलभद्र प्रकाश’ खण्ड काव्य उन की ही स्मृति में लिखा गया था। ‘लावण्यमयी’ तीन सौ गीतों का संग्रह है ।

माधव सिंह ‘दीपक’ की कृति‘सात सौ गीत’, सात भागों में विभाजित काव्य संग्रह है, ‘ज्योति’, ‘पिपासा’, ‘लो हम भी हंसे’, ‘कसौटी’, ‘प्रेयसी की याद में’, ‘निर्झर’ एवं ‘मांझी’। प्रत्येक भाग में सौ-सौ गीत हैं। हर भाग के पूर्व में कवि ने संक्ष्प्ति में इन की प्रस्तुति के सन्दर्भ में अपना वक्तव्य भी दिया है।

‘माँझी’, विरह काव्य है। इसे खण्ड-काव्य भी कहा जा सकता है। छायावादी काव्य चेतना का प्रभाव ‘अमर सिंह’ व ‘माधव सिंह दीपक’ में स्पष्ट परिलक्षित होता है। कवि सुधीन्द्र की काव्य चेतना पर भी प्रभाव मिलता है। किन्तु माधव सिंह ‘दीपक’ ने छायावादी मूल्यों को अपनी तरह से ही आत्मसात किया था। अंग्रेज़ी भाषा पर उन का अधिकार था।
‘मांझी’ को कवि ने स्वयं भी खण्ड काव्य माना है। यह एक छोटा-सा विरह काव्य है। कवि ने अपने काव्य को अपने जीवन की यात्रा के रूप में सम्प्रेषित किया है, यह जीवन का आख़िरी पड़ाव है। वह भौतिक विश्व से परे, ‘उस पार’ जाने की कल्पना करता है, वहाँ उसे सुख मिलने की आशा है। केवल माँझी उस के साथ है, जो उस की नाव को खे रहा है:-
”मांझी! कुछ गाते भी जाओ।रोते हो फिर भी मुस्काकर, धीमे-धीमे स्वर में गाकर,
रह-रह कर मुझको आज, याद दिलाते भी जाओ।“ पृ330
नौका डूबने लगती है। उस पार पहुँचने की निष्फल चेष्टा में डूबता उतरता हुआ वह कहता है:-
”वह किनारा दूर ही है।
हाय मांझी! क्षुद्र मानव तो यहाँ मजबूर ही है।“ पृ. 367.

कवि के हृदय पर यही सब से बड़ा घाव है कि वह अपनी यात्रा में सफल नहीं हो सका:-
”वास्तव में मेरा जीवन भी इस संसार रूपी सागर में एक तिनके की भांति लहरों की इच्छा पर नाच रहा है।“ पृ. 326.

”सांसें लेते हैं, अब भी हम, बातें करते हैं अब भी हम
मरने से पहले आखिर इतने, सब क्यों हाय डरे बैठे हैं।“ पृ. 356.
और अन्त में:-
”कौन पहुंचा है, वहां मुझको प्रमाणों से बताए
आज अपरम्पार सागर, पर निशानों से बताए
हाय मॉंझी! क्षुद्र मानव, तो यहाँ मजबूर ही है।“

सौ गीतों में यह काव्य, बिना पूर्णता लिए अचानक समाप्त हो जाता है। जीवन की, अचानक आखिरी सांस की तरह। ये सात सौ गीत, नवयुवक की चहल क़दमी, उस के यौवन, उस के जीवन संघर्ष तथा ‘हास परिहास’ से गुज़रते हैं, जिस का समापन, जीवन की अन्तिम सान्ध्य वेला के साथ होता है:-
कवि दीपक, कवि ही थे। वे और उन की कविता एक रस हो गए थे। उन्हों ने काव्यानुभूति को जीवन में जिया। समीक्षकों ने, अचानक परिवर्तित काव्य रूपों तथा उन के प्रतिमानों के आधार पर, पूर्व की परम्परा को ही हाशिए से भी निष्कासित-सा कर दिया। सांस्कृतिक काव्य धारा के दो रूप होते हैं, पश्चिमी परिभाषा में संस्कृति बाह्य जीवन की अभिव्यक्तियों को प्रदर्शित करती है। हम वहाँ इस आधार पर समाजशास्त्रीय व्याख्या करते हैं। यह परिभाषा बहुत कुछ ‘सभ्यता’ के साथ मिलती हुई, बुद्धिजन्य ज्ञान के स्वरूपों से मिल जाती है। परन्तु भारतीय परम्परा में संस्क्ृति, अनुभव जन्य ज्ञान पर आधारित होती है। संस्कृति की ज़मीन पर ही धर्म का वृक्ष लगता है। धर्म जो परम्परा में मनुष्यत्वको सौंपता है। प्रायः सम्प्रदाय को धर्म मान कर जो व्याख्या की जाती है, उस से सारा अभिप्राय दूषित हो जाता है।
यहाँ सांस्कृतिक चेतना, समस्त अवधारणाओं से मुक्त होेते हुए अन्तर्मुखी मन की अभिव्यक्ति है। मृत्यु भयभीत नहीं कर रही है, वह भी एक पड़ाव है, भागीरथी में स्नान है, यहाँ ‘मृत्यु गन्ध’ चिकित्सालय से आती हुई दूषित समीर नहीं है, वरन पतझड़ के बाद वसन्तागमन की सूचना है। ‘माँझी’ ही साथ है, वह विवेक है, वह उर्जा है, जो जीवन को आख़िरी साँस तक चला रही है। जीवन के प्रति सकारात्मक सोच तथा उदात्त मानव के चरित्रकंन का यह सारगर्भित प्रयास है।

”बह जाने की आशंका है, लहरों में इत- उत घबराकर
सह जाने की स्पर्धा है, क्या तुममें इनसे टकराकर,
घनघोर गरजते मेघों के, आगे थोडे़ से झुक जाओ“  माँझी, पृ. 347.
कवि दीपक की अपनी काव्य भाषा है, वे सहज प्रवाही भाषा के पक्षधर हैं। संग्रह में चयन की जो कमी रही है, उस ने कृति के सम्यक मूल्यांकन से समीक्षकों को दूर ही रखा है। सुधी समीक्षकों का ध्यान माधव सिंह दीपक की ओर भी जाना अपेक्षित है।


उपन्यास कार मधावसिंह ‘दीपक’ ऐतिहासिक उपन्यास कार थे। झालावाड़ अंचल की गागरेन दुर्ग की घटनाएं ,जौहर एवं   युद्ध ने जहां कथावस्तु का निर्धारण किया हैं वहीं अपने अंचल की भाषा को एक नया विस्तार भी दिया है।‘अचल दास की खींची’ की वचनिका से कथा सूत्र प्रभावित तो है, परन्तु कल्पना के मनोहारी प्रभाव ने इतिहास को सीमित नहीं होने दिया है।

 माधव सिंह दीपक के चार उपन्यास प्रकाशित हुए हैं । ‘ बाोलती लहरें‘, तलवार की छाया, रेत की आग, कर्नाटकी प्रकाशित हुये है ।

‘‘बोलती लहरें,’ गागरौन दुर्ग पर आधारित काल्पनिक कथा है । वर्णनात्मक शिल्प है । जातिगत विद्वेष केा केन्द्र में रखकर इस समस्या के समाधानन ढूंढने का प्रयास है ।

 भाषा सहज व प्रभावी है, परन्तु किस्सागोई की शैली में कथा सामान्य पाठकको आकर्षित करने में सफल है । पात्र अनेक है, प्रमूुख पात्र ‘कमलिनी और ‘ गुलाब सिंह हैं, जिनकी प्रेमकथा को कथाकार ने विकसित  किया है ।

‘ ‘तलवार की छाया ‘, यह राजा राणा जालिम सिंह के जीवन पर आधरित, ऐतिहासिक उपन्यास है । इसमें ‘दीपक जी‘ ने कल्पना प्रसूत कथा के स्थान पर, ऐतिहासिक तथ्यों को कथा में पिरोने का प्रयास किया है। नायक ‘ प्रधान यह उपन्यास अपने वर्णनात्मक शिल्प व सहज प्रभावी भाषा के लिए लोकप्रिय रहा है । ‘ भटवाड़े ‘ के युद्ध से लेकर, पृथक झालावाड़ राज्य की स्थापना, 80 वर्ष तक फैला हुआ ‘ समय ‘ यहां उपस्थित है ।

‘रेत की आग‘,
यह भी ऐतिहासिक उपन्यास कम, तथा कल्पना पर आधारित ऐतिहासिक ‘ रस ‘ का उपन्यास है । यहॉं कथाकार ने जोधपुर और जालौर के इतिहास की घटनाओं को ‘ कथा-रूप ‘ में विकासित करने का प्रयास किया है ।

‘कर्नाटकी‘, उपन्यास भी इसी क्रम में है । यह बूंदी के राजा बुद्ध सिंह के जीवन पर आधारित है । दीपकजी ने कथा का फलक तो विस्तृत लिया है, परन्तु सीमित दायरे में समाप्त करने की विवशता में उपन्यास उतने प्रभावी नहीं रहे ।

जीवन और जगत का स्वाभाविक और मार्मिक चित्रण.... कथाकार अपनी और से ही करने में रहा ... पात्र, ‘चरित्र में नहीं ढल पाए, परिवेश, इतिहास की प्रस्तुति नहीं कर पाया, वहॉं कल्पना पर आधारित कथा,... विकसित की जाती रही । शिल्प की कसावट, सुसंगतता का अभाव इन उपन्यासों की बहुत बड़ी कमी रही है । फिर भी दीपक जी ने इस अंचल में ‘ उपन्यास कला ‘ का ‘विकास ‘ लज्जाराम मेहता के बाद किया, यह उनकी बहुत बड़ी देन है ।

कवि और उपन्यासकर दीपक जी साहित्य के मौन साधक थे। वे साहित्य की गुटबंदी से बहुत दूर थे। स्वतंत्रतापूर्व झालावाड़ साहित्य का तीर्थ था। ब्रज भाषा अकादमी के निर्माण के साथ हमने महाकवि हरनाथ को ही विस्मृत कर दिया है। उनकी काव्य परंपरा में ही श्री दीपक विकसित हुए थे।  महाकवि हरनाथ को भी हम  पूरी तरह भूल चुके हैं।

कुछ दिन पहले मित्र कहीं कह रहे थे , हमारे जाने के बाद हमारे साहित्य को और हमे ंकौन याद रखेगा , इसका उत्तर यही हैं, हम आत्ममुग्ध नहों , परंपरा के दाय को सम्हालते हुए अपनी साहित्यिक यात्रा पर चलते रहें , मार्ग अवरुद्ध न हो बस यही काम करते रहें।

शनिवार, 16 नवंबर 2013

हमारे पुरोधा कवि अमर सिंह

हमारे पुरोधा कवि अमर सिंह

राजस्थान साहित्य अकादमी ने अमरसिंह जी को सन 1990 में सम्मानित किया था,... पर वे अस्वस्थ थे,... वे जयपुर में आयोजित कार्यक्रम में नहीं जा पाए थे। उनके घर जाना हुआ था, वहां उनका कक्ष उनकी पांडुलिपियों से, पुस्तकों से भरा था,... वे उस समय ‘‘संभवामि युगे-युगे’’ नए महाकाव्य पर सृजनरत थे, वे उसके प्रकाशन के लिए चिंतित थे,... तभी उन्होंने अपनी प्रकाशित पुस्तकों की चर्चा भी की थी,।
मैं तब सवाई माधोपुर में पद स्थापित था। दुख है बाद में उनसे मिलना नहीं हो पाया। वे एडवोकेट थे। पर वे पूरी तरह साहित्य को ही समर्पित थे। कोटड़ी  में  उनका बड़ा मकान था। वे घर से भी बहुत कम बाहर आते थे। कोटा के ही रचनाकर्मी उनसे अपरिचित ही रहे हैं। तब साहित्य अकादमी द्वारा उन्हें भूल जाना स्वाभाविक ही है।
उनकी पहली कृति... ‘निःश्वास’ जो एक चौदह पृष्ठ की एक लंबी कविता है, जिसमें करुणा का मानवीकरण है, चित्रात्मक भाषा है,... परन्तु हृदय की कोमलतम अनुभूतियों का सहज स्पंदन है, आज पचास वर्ष बाद भी यह कविता अपनी प्रभावशीलता में उतनी ही महत्वपूर्ण है।
जब मैंने दुबारा आसे संपर्क करना चाहा था, तब मुझे सूचना मिली थी कि वे दुनिया मैं नहीं रहे हेैं। दुख हुआ साहित्य की दुनिया से आप अजनबी मसीहे की तरह चले गए। उनका सम्मान भी तब करना तय हुआ था, जब आप गंभीर बीमार थे। उनके मित्रों ने न तो इस बाबत किसी मोनोग्राफ जारी करने का प्रस्ताव रखा ,नहीं आपके जाने के बाद आपकी कृतियों पर हुइ्र किसी चर्चा की कोई सूचना उपलब्ध है। आपका हिन्दी काव्य के विकास में उल्लेखनीय योगदान है।
राजस्थान की हिन्दी काव्य यात्रा में सन 55 का समय बहुत महत्वपूर्ण है। स्वतंत्रता के बाद, विश्व में सोवियत संघ तथा अमरीका के बीच शीत युद्ध प्रारंभ हो चुका है। साहित्य में इसका प्रभाव पड़ा था, एक खेमा प्रगतिवाद से अपने आपको सीमित कर रहा था, दूसरा ‘संस्कृति के संकट’ के नाम पर,... नई कविता के आंदोलन से जुड़ गया था। काव्य का आलंबन, सूत्र ‘भारतीय समाज’ भारतीय जन, भारतीय मन से पृथकता पाकर, अन्तर्राष्ट्रीय मानव मुक्ति के अमरगान में खोने लगने गया था। ... तब अचानक घटना घटी परंपरागत जीवन मूल्यों से, सन्निहित, जहां व्यक्ति की मनुष्य तक की अंतर्मुखी यात्रा का अनुभूत्यात्मक सच अभिव्यक्त हो रहा था,... वह उपेक्षित हो चला। पूरी की पूरी काव्य परम्परा को ,काव्य की प्रवृतियों को हाशिये पर खिसका दिया गया था, कवि उपेक्षित हो गए,कृतियां भी उपेक्षितहोगये।
‘अमरसिंह भी ऐसे ही विरले कवि थे,... जो अपनी ‘अन्तर्मुखी काव्य संपदा से ... काव्य जगत में सन 55 के आसपास दस्तक दे चुके थे।
‘निःश्वास का प्रकाशन 1954 में हुआ था,... दिनकर जी ने इस कविता की भूमिका में कहा है-
‘‘यह ऊषा की पहली झांकी हे, इसीलिए, मिहिका का अस्तित्व अभी है। किन्तु ऊषा का प्रतिबिम्ब पड़ने के कारण यह मिहिका भी खूबसूरत और रंगीन मालूम होती है।’’
करुणा-भाव है,... करुणा मनुष्यत्व का लक्षण है,... हृदय का उद्घाटन होता है। चिकित्सीय हृदय की ‘सर्जरी’ होती है, उसकी देहिक सत्ता है। पर ‘मनुष्य के जिस अन्तर्जगत की व्याख्या हृदय रूप में होती है, वहां बुद्धि अपना दबाब खो देती है। ‘कविता वहांॅ का द्वार खोलती है,... ‘संवेदना, हृदय की पगध्वनि है, जहां प्रेम है, करुणा है,... वही सहृदयता है-
‘जब विस्तृत नभ का अंचल
नीरव गूंगा चुप रहता
किन अवसादों से भीगा
अलसित समीर वह चलता
किन भावों में डूबा सा
आता है भंद समीरण,
कलियों के स्मित आनन पर
क्यों छोड़ चला आंसू कण
पृ. 32
‘करुणा’ अमूर्त है,... उसका अहसास जिस अनुभूति से है,... वह व्यथा है,... पसीजने का भाव है,... आंसू उसकी पहचान है,... हृदय की मुक्तावस्था है,...
‘पगली सी क्यों विकल वेदना
फिरती मारी मारी सी;
कभी कणों में की तृणों में
सोती नभ में हारी सी।
भग्न हृदय के कैसे क्षण की
करुणा भरी कहानी ले;
आज चले क्यों प्रस्तर पथ पर
निर्झर मूक उलाहला ले।
पृ. 84
... रुदन,... सहज है, पीड़ा का वाहक है,... यह मौन भीतर पिघलता ‘हिमखंड का क्षरित होता प्रवाह है
... कवि करुणा’ का आदर करता है, वह इसे मनुष्य की महत्वपूर्ण देन मानता है।
‘करुणा का दे रस इसमें
जगती हंसती क्यों निष्ठुर;
सहृदय मानस में पलती
कल्याण भावना शुचितर
पृ. 106
कवि इस कृति पर ‘प्रसाद’ की भाषा तथा उनकी महत्वपूर्ण कृति ‘आंसू’ का प्रभाव कुछ आलोचकों ने तलाशा है। पर कृति का सम्यक अवलोकन,... इस सीमित दृष्टिकोण को हटाने मंे समर्थ हैं ‘शैली’ का अनुसरण होता है। पर बड़ा कवि अपनी भाषा व वस्तु को जिस संगुफन में अभिव्यक्ति देता है,... वह उसका मौलिक रूप है। अमर सिंह की बहिन की असामयिक मृत्यु से उपजा ‘विषाद’ लोक संस्कृति को समाहृत करते हुए ‘सहज उच्छवास है,... यहां निःश्वास,... दुख की इस विषम घड़ी में,... बाहर आने का पथ भी संकेतिक करता है।
‘जीवन के जीर्ण पुरातन
सब पत्र झरा हर्षाते
उत्सर्ग लिए पनपे से
नव जीवन ले मुसकाते
किरणों ने उतर क्षितिज से
कुंजों में हास बिखेरे
फिर मनोभाव से खिलकर
अलियों के लगते फेरे।
पृ. 109
यहां ‘व्यथा,... अपनी चरम सीमा में आकर,...विसर्जित हो जाती है,... यही ‘करुणा’ का सौंदर्य है, वह व्यथा में नए जीवन का संकेत देती है। गहरी रात की यातना जब टूटती है, तभी स्वतंत्रता का सूर्य जगता है,... संभवतः प्रांत की पहली ‘लंबी कविता है, यहांां एक मनोभाव, मानवीकृत होकर मूर्तता को अभिव्यंजित हुआ है।
निःश्वास 1954 में प्रकाशित हुई थी, इसके बाद ‘अग्निशिवा’ (1985) वृन्दावन शतक राधासतसई (संवत 2036), आम्रपाली (1978) प्रकाशित हुई थी। आपकी अप्रकाशित कृतियों में, सतीमोह (महाकाव्य), ‘संभवामि युगे-युगे’ कृष्ण चरित पर आधारित 900 पृष्ठों का महाकाव्य, तथा  खंड काव्य की श्रृंखला में मेवाड़ महिमा, बहादुरशाह, मधुमती, स्वर्ण पल है।
‘आम्रपाली’ को कवि ने एक भाववृत माना है। यह सोलह अध्याय में लगभग तीन सौ पृष्ठों की ‘आम्रपाली’ का जीवन चरित काव्य है। .. महाकाव्य में जहां जीवन की वृहद गाथा होती है, वहां एक ही ‘चरित्र’ की सांगोपांग काव्यात्मक अभिव्यक्ति यह कृति है। ... ‘खंड काव्य में जीवन की आंशिक अभिव्यक्ति है। अमर सिंह के काव्य संवेदना का केंद्र नारी है। ‘निःश्वास’ बहिन की मृत्यु पर’ एक लंबी शोक कविता है,... वहीं ‘आम्रपाली’,... एक गणवधू की गाथा है,... उसके मनोजगत की व्यथा को यहां आधार मिला है। ‘डॉ. प्रभाकर शास्त्री ने कृति के संदर्भ में जो कहा है, विवेचनीय है- ‘‘आम्रपाली के जीवन को रचनाकार ने एक संघर्षशील नारी की कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है। जब नारी के व्यक्तित्व की समाज की ह्रासोन्मुखी प्रवृत्तियों के समुच्चय से टकराहट होती है तो निश्चय ही यह संघर्ष की स्थिति होती है। नारी को आज भी कैसे संघर्ष का सामना करना पड़ रहा है।’’
‘‘मुझे न वैभव दास्य चाहिए
कुटिया हो जीवन का दाय
उस स्वतंत्र सुखमय जीवन की
समता कहां हुई निरुपाय।
यह धन वैभव कीट विलासी
मद मत्सर का चोर कृतान्त
तृष्णा की जर्जरता लोलुप
यह अतृप्ति भीषण विक्रान्त।
पृ. 234
.... यहां ‘आम्रपाली’ के अन्तर्द्वन्द को कवि ने वाणी दी है। उसके बचपन से युवा व फिर चिर भोग से मुक्त उसकी आकांक्षा को संवेदना दी है। .... यहां उसका बुद्ध की शरण में जाना,... मात्र आकस्मिकता नहीं थी,... उसकी संस्कारबद्धता’ उसकी मुक्तिकामीभी आकांक्षा का ही विस्तार था।
‘अग्निशिखा’,... पांचाली, द्रौपदी को केन्द्र में रखकर सृजित खंड काव्य ही है। ... वहां द्रौपदी की कथा अपने अनूठे रूप में है। परंपरागत छन्द में कवि ने स्त्री की तेजस्विता को, उसके भीतर की ज्वलंत ऊर्जा को अभिव्यक्ति दी है। ... यहां कवि की ‘स्त्री’ के प्रति संवेदना, विमर्ष से ऊपर उठकर ‘एक प्रचंड ... आंदोलन के लिए प्रेरित करती है-
‘झूठ सब आदर्शी-आख्यान
‘देव रमते नारी सम्मान
किसी पागल का झूठ प्रलाप
काटती मूल देव संतान
पृ. 84

‘‘ अधिकार न धर्म राज का है-
वे हारे जीते भले दांव
जो स्वयं स्वयं को हार चुके-
उनका अधिकार न धरे दांव?

राजसी लोभ की लिप्सा में
तुम भूल गए सब अर्थ धर्म,
तुमको न मिलेगा यश वैभव
अरे यह न वीर का कर्म, शर्म  पृ. 91

फिर द्रौपदी का ‘सभा से सवाल करना-
‘अरे कोई भी नहीं सजीव-
सभासद, सारे क्योंकर मूढ?
निरुत्तर मूक मौन पाषाण
नहीं क्यों उत्तर देते मूढ़?    पृ. 100
तब ‘द्रौपदी’ का प्रश्न,... समकालीनता की ‘नारी समस्या’ को संबोधित हो जाता है। ‘पुरुष’ की आंख, आज भी स्त्री को सम्मान की दृष्टि से नहीं देख रही है। स्त्री, अपमानित है,... बलात्कार के लिए  मात्र एक वस्तु बन गई है-
‘कोई भी नया प्रतिकार नहीं’
नारी का कुछ अधिकार नहीं’
मानव पर कुछ आभार नहीं-
कर्तव्य धर्म का भार नहीं- पृ. 103
‘कवि की भाषा’ में ओज’ है,... शब्द चयन में प्रवाह है,... पूरी कविता एक लय से गुजरती है,... ‘द्रौपदी’ मानो साकार, होकर कौरवों की सभा में सामने खड़ी हो। ‘माधव’ की सहायतामें, कवि ने जिस दृष्टि को रुपायित किया है, वहां अलौकिकता का उस रूप में निर्वहन नहीं है, जो कृति को धार्मिकता में खींचकर ले जाता है,... संस्कृति, की गत्यात्मकता,... वर्तमान को भी, परीक्षण का अवसर देती है। ... हम अतीत का मात्र ‘पुनरावलोकन’ ही नहीं करते,... ‘आज की नारी और उसकी ‘अस्मिता’ की पड़ताल भी करते हैं।
‘राधा सतसई’ अमूर्त अनुभूत्यात्मक क्षणों की मधुरम अभिव्यक्ति का प्रयास है। ... यहां नारी का उच्चतम स्पर्श,... रागात्मकता की अभिव्यंजना है। ‘‘‘राधातत्व’ ... भारतीय चिन्तन का सर्वाधिक रहस्यवादी क्षेत्र है। राधा मात्र कृष्ण की आराधिका ही नहीं है। ऐसी ही कुछ अनुभूति इस राधा तत्व की हुई जो प्रकृति में अजस्त्र अविरल चेतन मूर्त रसवत्त होकर कण अणु- अणु में कभी छलकता, कभी झरता और आनंद वर्षा करता सा प्रतीत होता है।’’ (भूमिका से)
‘‘प्राण धार निर्झर बहंे, रोम-कूप से नेह
जिनके भार प्रकाश को, सहे अलोकिक देह।43।

करुणा प्रेम अगाध रस, राग रंग अवतार
भीग रहे कण-कण हंसे; पी- पी  अमृत अपार।।46।।
866 दोहों में रचित ‘कृति’ श्री राधा के अवतरण से लेकर श्रीकृष्ण के ‘कुरुक्षेत्र गमन तथा वहां राधा के मुकुर में बिम्ब दर्शन तक की यात्रा को यहां कथानक के रूप में लिया गया है। निम्बार्क संप्रदाय की... सिद्धान्त गत व्याख्याओं का आदर करते हुए,... देवीभागवत ब्रह्म वैवर्त पुराण, गर्गमंडिता आदि से कथा सूत्र लेते हुए संभवत ‘श्रीराधा’ पर यह स्वतंत्र खंड काव्य है। ... यहां ‘राधा’ का मानवीकरण, उसकी हार्दिकता,... तथा रसात्मकता का पूर्ण निर्वहन है।
श्री अमरसिह,... ने काव्य कृतियों के माध्यम से भारतीय संस्कृति को समाहृत करते हुए,... ‘जिस स्त्री को उसकी संपूर्णता में, चित्रित किया है,... वह ‘देशज,... भारतीय नारी है,... उसकी ‘अस्मिता’ उसका गौरव,... उसका सम्मान ही इनकी कृतियों का आधार है। आज जिस ‘अपसंस्कृति के विस्तार में, प्रकाशन, सम्मान,... तथा वैश्वीकरण से प्रभावित होकर लेखनीय संवेदना विकृत होती जा रही है,... जहां नारी मात्र एक उपभोग की वस्तु बनाकर बाजारवाद की भंेट चढ़ाई जा रही है। वहां अमरसिंह की नारी,... आम्रपाली, पांचाली, राधा,... अपनी व्यापक समादृत दृष्टि में ‘नारी’ अस्मिता, उसकी गरिमा की व्यापक खोज की संभावना को व्यक्त करती है। इस दृष्टि से इन कृतियों का मूल्य है, श्री अमरसिंह स्वयं एकांत साधक थे,... उनकी कृतियां पिछली पूरी अर्ध सदी में मूल्यांकित नहीं हो पाई है,... यही दुखद है,... आलोचकों का ध्यान यहां अपेक्षित है।
































मेरी अपनी ही समस्या थी, जिससे में वर्षों से उलझता रहा था।
मैंने ही यह कभी कथा, अवधारणा दुष्कर्म है
... अवधारणा, जो मैंने उन सबके बारे में, मैं जिनसे मिला हूं, देखा है, सुना है,... सबके बारे में अपनी राय सुरक्षित रख रखी है। जब भी बाहर जाता हूं। मेरी यह आंख मेरे साथ जाती है, यह नहीं देखती है,... जो वह देखना चाहती है, जो दिख रहा है, उसके प्रति कोई आग्रह नहीं रहता है।
तो मैं हूं जो देख रहा हूं, जो अपनी स्मृतियों, अवधारणाओं, तथा निरंतर चल रही विचारणा का पुंज है,... वह पुराना भी है, और नया थी,... निरंतर बैंक के ब्याज की तरह उसमें घट-जोड़ होता रहता है। जो कल था, वह आज बदला है, पर थोड़ा सा,... कुछ नया संग्रह आ गया है।
यह जो भीतर का संग्रह है, यही तो मैं हूं।
... मेरे भीतर हजार, लोगों की हजार बातों के चित्र हैं,... हल्का सा संवेदन हुआ रील एकदम खुल जाती है। टी.वी. के चैनल की तरह,... हर क्षण बदलती रील है,... मैं ही बनाता हूं, मैं ही चलाता हूं, मैं ही देखता हूं।
... हर क्षण मैंने पाया,... मेरा धारणाएं, नई-नई होती जाती है। हर धारणा अपने आप में एक बड़ी फिल्म का बीज रखती है।
... मैं जो देख रहा हूं, सुन रहा हूं, मैं अपनी ही धारणाओं से लड़ता हूं। ... आंखं झपकाता हूं, सिर के बाल नोचता हूं,... थप्पड़ लगाता हूं,... पर जो चैनल्स खुल गया है, वह जाता ही नहीं है। जानता हूं, यह मेरा ही सोच है, इसको मैंने ही बुना है,... पर कल्पना जितना हटाओ, उतनी ही मजबूती से सामने आ जाती है।
मैं जिसे दृष्टा कहता हूं,... वह मेरा आत्म नहीं है। जिस रूप में शास्त्र ने ‘आत्म’ को कहा है। यह मेरा बाह्य मन ही है। मन ही सृष्टा है, मन ही दृष्टा है। मन अपनी ही सृष्टि को देख रहा है। भय का जाल मैंने ही बुना है, मैं ही उसमें उलझ गया हूं। तनाव और कुछ नहीं है। तनाव मकड़ी का अपने ही जाले में उलझ जाना है। तब मैं अपने आपसे लड़ने लग जाता था,... आत्महीनता, आत्म दैन्य तभी उपजता है,... जब स्मृति का बोझा हटाए नहीं हटता,... मेरा संग्रह मुझे ही हराता जाता है।
यहां जो भी देख रहा है,... वह मन ही है। हां, गहरी सजगता जब पैदा होती है, तब स्मृति का दबाव उपेक्षित हो जाता है। वास्तविक त्याग वही है। जो आपका है, आपने निर्मित किया है, उसे आप छोड़ दे। ... जो आपका ही नहीं है, उसका त्याग आप नहीं कर सकते,... आप जिसे त्याग कहते हैं, वह माना एक रूपांतरण है,... भीतर का सब यथावत बना रहता है। ऊपर-ऊपर का खोल ही बदलता है,... तथा वैराग्य इस कल्पना का जो बार-बार,... अतीत की कड़वाहट को वर्तमान में ले आती है, या जो कल का अंधेरा है,... वहा की कल्पनाओं को ताने-बानों के साथ वर्तमान में खेंच लाती है, हम कहते हैं, हम सोच रहे हैं,... यह अनावश्यक विचारणा है,... यही अभिशाप है। इसकी जन्मदात्री यही कल्पना है,... इसके प्रति आसक्ति का कम होना, इसका आदर कम होते जाना ही वैराग्य है। वैराग्य भगवा धारणा करना नहीं है। भगवा धारणा करने से कोई विरागी नहीं होता है। ... भटकाव यथावत रहता है।
... मैंने तब जाना,... मेरे भीतर जो सत्ता है,... जो मैं हूं,... वह मेरा यह बाह्य मन ही है, पर जब, मन बहुत देरत तक एक जगह रहने का अभ्यस्त होने लगता है, तब लगा जल तो वही है, पर बरसात का गंदा, मटमेला जल नहीं है, यही तो ‘कार्तिक का जल है, जहां स्वच्छता, निर्मलता, उसे अपने आप मिल गई है,... गंदलाया जल स्वतः निर्मल हो जाता है।
स्वामीजी कहा करते थे, यह सहज है, यहां करना कुछ भी नहीं है। माात्र रहना है,... तब बाह्य मन अंतर्मन में लीन हो जाता है, पहचान हैै, शांत सजगता ।
हम अपने आपको देखने में समर्थ होने लगते हैं। हम बहते नहीं है। बहाव है,... थपेड़े मारता है,... पर हम बहते हैं, तो क्षण भर बाद ही बहाव को देखकर, लौट आते हैं।
बहाव को आज तक कोई रोक नहीं पाया,... वही सनातन है, पर हां, हम बहें नहीं, यही साधना है।
शास्त्र कहता है- ‘तान तितिश्सत्व भारतः, यही सहन करना कहा जाता है।
यह मात्र कोई बौद्धिक कसरत नहीं है।
बहुत सरल प्रारंभिक बोध है।
बाहर वही घट रहा है, जो मैं हूं,... मैंने चाहा है,... मुझे आज अभी पता नहीं है, पर मैंने चाहा था, वही आया है,
तब मैं अपनी चाहना के प्रति सजग हो जाता हूं।
‘यहां मात्र एक यह अवधारणा भी नहीं है। जैसा कि उस दिन मित्र जो सत्संग से आए थे, कह रहे थे, उनसे कहा गया था,... डीप मेडीटेशन करो।’
... वे बार बार इसका अर्थ समझना चाह रहे थे। जब ध्यान कोई दूसरी चीज होती है, जो निज से पृथक है, सीखनी है, तब उलझन पैदा होती है। उसे कम और ज्यादा किस प्रकार किया जा सकता है, पर जब वह - ‘मात्र’ रहना है कि, वहां अधिक से अधिक रहा जाए,... मन जो भी क्रिया हो मन वहां अधिक से अधिक रहे, किंचित मात्र भी प्रतिकूल न जाने पाए, तब हम सजगता में प्रवेश कर जाते हैं।
जहां क्रिया नहीं होती है, वहां मन स्वाभाविक रूप से शांत होने लगता है, यह शांति किसी बाह्य अनुशासन से नहीं आती है,... सहज है, निसर्ग है, स्वाभाविक है, इसकी एक मात्र पहचान, आपकी शांत सजगता है।
आप निवृति में नहीं हैं, आप समाज को हेय बताकर, पत्नी, परिवार, नौकरी, व्यवसाय को जंजाल बताकर पलायन में नहीं है। आप कमरा बंदकर... कभी श्वास पर, तो कभी मंत्र पर, कभी रूप पर चित्त को एकाग्र करने के लिए कठोर बल का प्रयोग नहीं कर रहे हैं। ... यहां बस मन को क्रिया के साथ, चाहे वह छोटी हो या बड़ी, यह महत्वपूर्ण नहीं है, उसके साथ अधिक से अधिक रखना है।’
‘तब बाह्य मन,... अंतर्मन में लीन होने लगता है।
बाह्य मन, विचार है, विचारणा है, अवधारणा है, स्मृतियां है,... अंतर्मन,... स्मृति तो है पर वह बार -बार सतह पर आकर उत्तेजित नहीं कर रही है। विचार भी है,पर यहां विचारणा का प्रवाह नही है, एक नियंत्रण है।
जब कहा, वह सतह पर आएगी,... अन्यथा नहीं,... उस सेवक की तरह जो अनुशासित है, आदेश की प्रतीक्षा में विश्राम में है। आदेश मिलते ही तुरंत हाजिर होता है।
मन मर नहीं सकता, वह जन्म के साथ, प्राण की युति के साथ आता है।
मृत्यु इस मन का प्राण के साथ लौट जाना है...
पर मुक्ति,... एक अवधारणा भी है,... कन्सेप्ट है। जीवन की अवस्था है। जहां बाह्य मन अनुशासित है।
वहां शांति है, रस है, प्रेम है। प्रचंड शक्ति कार्य करने की है। क्योंकि ‘अंतर्मन’, शक्तिशाली है, जब वह जागृत होता है, तब हम अपनी स्वाभाविक स्थिति में आते हैं, जो हमारा साध्य है।

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

हमारे पुरोधा श्री हरि वल्लभ हरि


हमारे पुरोधा  श्री हरि वल्लभ हरि

हरि वल्लभ हरि प्रान्त में आधुनिक हिन्दी साहित्य की विकासधारा के प्रमुख स्तम्भ हैं। ”गंगाकिनारे“,(1951) आपकी कहानियों का संग्रह है जो सन पचास के आसपास प्रकाशित हुआ था। दयाकृष्ण विजय के कहानी संग्रह ”उलझन “, की आपने भूमिका लिखी थी। ”बुदबुद“ आपका काव्यसंग्रह प्रकाशित हुआ था। आप वर्षों तक भारतेन्दु समिति के अध्यक्ष भी रहे। सन पचपन के आसपास भारतेन्दु समिति के किसी कार्यक्रम में मैंने आपको देखा था। तब में छठी क्लास में पढंता था। उन दिनो साहित्यकारों का समाज में विशेश स्थान था। कोटा भी छोटा शहर था। रामपुरा बाजार ही साहित्यिक सांस्कृतिक हलचल का केन्द्र था।
सफेद खादी का कुर्ता और धोती तथा सिर पर टोपी आपकी पहचान थी। उन दिनो डॉ राम चरण महेन्द्र देश में सम्मानित हो चुके थे।

कोटा के कवि डॉ नलिन वर्मा आपके पुत्र हैं। जिनकी ग़ज़लों के दो संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी पुत्री का भी एक कहानी संग्रह कन्यादान प्रकाशित हुआ है।

इन सब बातों की   चर्चा  आपसे इसीलिए करने का मन हो रहा है कि कुछ दिन पूर्व मैंने अपने साहित्यिक मित्रों से जब आपके बारे में चर्चा की तो पाया हमारे मित्र श्री हरि के नाम से ही अपरिचित हैं। हम अपनी परंपरा को आज के मीडिया के प्रभाव में इतनी जल्दी भूलते जारहे हैं, यह चिन्तनीय है। आज रचनाकार मात्र अपने तक ही सीमित रह गया है। वह स्वयं हर जगह अपने आपको ही विज्ञापित करने के प्रयास में है। यहॉ के बड़े रचनाकार  साहित्य अकादमी के पुरोधा भी रहे। पर नजाने क्यों श्री हरि जी पर एक मोनोग्राफ भी नहीं दे पाए।  आजकल तो अकादमी की हमारे पुरोधा श्रृंखला में नए रचनाकारों  के देहावसान के बाद ही उनकी स्मृमि में तुरंत ग्रंथ भी छप जाते हैं। तब इतनी राजनीति नहीं थी। सृजनकार अपनी लेखनी से ही संतुष्ट था। इस अंचल के रचनाकारों ने हिन्दी साहित्य के विकास में गत शताब्दी में बहुत कुछ दिया है। रचनाकारों का मूल्यांकन किया जाना अपरिहार्य है।

स्वतन्त्रता पूर्व के प्रसिद्ध कवियों में हरि वल्लभ ‘हरि’ प्रमुख हैं। वे सुधीन्द्र के समकालीन थे। वर्षों तक कोटा की साहित्यिक समृद्धि के वाहक भी रहे।

छायावादी तथा उत्तर छायावादी काव्य संस्कारों से वे प्रभावित थे। सन 1983 ई. में ‘श्रीभारतेन्दु समिति’ ने उन के काव्य संग्रह ‘बुदबुद’ का प्रकाशन किया था।
कृति की भूमिका में बाल कृष्ण थोलम्बिया ने लिखा है:-
”उन में एक ओर जहाँ उन के दार्शनिक चिन्तन की छाप है, कुछ अनुत्तरित प्रश्न हैं, और संसार की असारता में भी सार है, वहीं दूसरी और यहाँ के स्पार्द्ध, ईर्ष्या, द्वेष, छल, दम्भ और अहं से विकृत जीवन ने भी उन्हें मर्माहत किया है। उन के मुख से ‘यह तो मेरा देश नहीं है’, सहसा ही नहीं निकल पड़ा है, इस की पृष्ठ भूमि में कुछ रहा है, फिर भी उन की आस्था बनी रही है, विश्वास डिगा नहीं है।“
प्रो. इन्द्र कुमार ने उन की कविताओं की समीक्षा में जिस सांकेतिकता रहस्य भावना और अनुभूत्यात्मक अभिव्यक्ति की ओर इंंिगत किया है, वह उल्लेखनीय है:-”‘हरि’ के काव्य संसार में यह छोटी-छोटी चीज़ंे ही बड़े प्रश्न पैदा करती हैं। उस में समुद्र, आकाश, वन, हिमालय, आदि कम हैं और पंछी, नीड़, तितली, बूँद, फुहार, दीप, बुद-बुद आदि प्रचुर मात्रा में हैं, और प्रत्येक अपना-अपना प्रश्न लिए हुए है:-
”बनना मिटना ही क्या जीवन?
बढ़ना ही क्या जीवन का धन?
इन बुद-बुद को देख प्रश्न
ये सहसा मन में आते ?
बुद-बुद बन-बन मिट-मिट जाते।
तथा
मिट्टी के इन लघु दीपों से
तुम को इतनी ममता क्यों है?
भरते जाते स्नेह तरल, ये होते जाते रीते
युग-युग बीते तुम को भरते, इन को पीते-पीते।
जड़ से नेह बढ़ाने को
चेतन में यह तन्मयता क्यों है?
यहाँं दार्शनिकता अध्यात्म की तरफ़ उन्मुख ही नहीं, एकाकार हो गई है, तथ्य अपने आवरण को छोड़ता हुआ, अनुभूत्यात्मक अभिव्यक्ति में है। यहाँ सम्वेदना आरोपित नहीं है, सहज स्वभाव, तथा सरल शिल्प में जैसे चुपचाप ममेतर पास आ कर बैठ गया हो। विरल अनुभूृतियाँ, सहज शिल्प में अनायास उभर आई हैं। भाषा, समास शैली में है। शब्द, अर्थ-गर्भत्व व स्वतन्त्र लय के साथ हैं। यह श्रम साध्य शिल्प हाड़ौती  अंचल के कवियों में महत्वपूर्ण है।
”शूलों की दुनिया में आ कर
क्या पाओगे पंछी गा कर?
अरे! उड़ो स्वच्छन्द जहाँ से
यहॉं महकते आये पंछी?

आप की अन्य काव्य कृतियों में ‘पृथ्वी-सूक्त का अनुवाद’ उध्ेखनीय है। आपको अधिकांश लेखन अप्रकाशित रह गया है।

सन 1951 ई. में हरि वल्लभ हरि का कथा-संग्रह ‘गंगा किनारे’ प्रकाशित हुआ था। संग्रह की भूमिका में चन्द्र प्रकाश सिंह ने लिखा था कि इन कहानियों में निरूपित समस्याऐं प्रधानतः सामाजिक हैं, व्यक्तिगत नहीं। इसी लिए इन में परिस्थितियों का रचनात्मक वर्णन ही अधिक मिलता है। व्यक्तित्वों का मनोविश्लात्मक चित्रण नहीं। भूमिका में हरि वल्लभ हरि की कथा-यात्रा का स्पष्ट परिचय मिल जाता है। हरि वध्भ हरि आदर्श वादी लेखक थे। वे लज्जा राम मेहता के कथा-साहित्य से प्रभावित थे। मुन्शी प्रेम चन्द की प्रारम्भिक कहानियों का भाषागत प्रभाव उन की कहानियों में है।

 इस कथा संग्रह में ‘उलझन’, ‘गंगा किनारे’ पहाड़ी’ ‘वीरांगना’ आदि कहानियाँ अपने समय में चर्चित रही थीं। ‘उलझन’ कहानी जो है, उस का कथान्श यह है कि दौलत राम की बहिन मैना की शादी माणिक लाल के साथ होती है। दौलत राम समाचार लाता है कि माणिक लाल ने मोहिनी नाम की अन्य स्त्री के साथ विवाह कर लिया है। माणिक लाल को क्रान्तिकारी बताया गया है। मैना को जब यह समाचार मिलता है तो वह माणिक लाल को पत्र लिखती है। मोहिनी, मैना को मिलने के लिए बुलाती है। दोनों जब मिलते हैं तो वे दौलत राम के साथ माणिक लाल से मिलने जाती है। वहाँ माणिक लाल तो नहीं मिलता है, मैना के नाम लिखा हुआ उस का पत्र मिलता है। जिस में लिखा है कि तुम ने मोहिनी को मुझ से छीन लिया है, इसलिए मैं उचित समझता हूँ कि तुम से नहीं मिलूँ। मैं यहाँ से जा रहा हूँ और मुझे ढूँढने का प्रयास मत करना। इसी के साथ उस ने मोहिनी का वह पत्र, जो उस ने माणिक लाल को लिखा था कि उसे सब बात पता लग गई है और वह सम्बन्ध विच्छेद करना चाहती है, रख देता है। दोनों पत्र पा कर मैना अपना सिर पीट लेती है और कहती है, ‘भैया घर चलो’।

दूसरी महत्व पूर्ण कहानी है, ‘गंगा किनारे’। कथान्श यह है कि कमल एक कवि है, मेधावी छात्र है। उस के माता-पिता नहीं है। कॉलेज में हुए कार्यक्रम में उसे एक लड़की मिलती है जो कि अपने आप को प्रोफ़ेसर खरे की लड़की बताती है। उसे प्रोफं़सर खरे ने गंगा की बाढ में अनाथ पाया था, उस का लालन-पालन उन्हों ने किया था। प्रोफ़ेसर साहब के कहने पर कमल को घर बुलाती है, वहीं समाचार-पत्र से पता लगता है कि गंगा में बाढ़ फिर आई हुई है। कमल कोे अपना बचपन याद आता है और वह गाँव जा कर लोगों की मदद करना चाहता है। किरण भी उस के साथ चलना चाहती है। वे दोनों भवानीपुर आ जाते है, वहाँ कमल एक बड़े नीम के पेड़ को पहचान कर अपने पुराने मकान और अपने बचपन को याद करता है। वह अपने घर के पास किसी मनमोहन पाण्डे को भी याद करता है, जो उस के पिता के मित्र थे और उन की पाँच-छः वर्ष की लड़की भी थी जो उसके साथ खेलती थी। कमल उसे अपने बचपन की बातें बतलाता है, और अपने हाथ पर लिखे हुए बचपन के नाम को बताता है। किरण उस बचपन में साथ खेली लड़की का नाम पूछती है। वह उस का नाम लीला बताता है, और तब किरण अपनी कलाई को उस के सामने रख कर पूछती है और कहती है:-

‘तुम्हारा नाम था विनय’
कमल चौंक जाता है और कहता है:-
‘कौन मेरी लीला!’
इस प्रकार से हरि वध्भ हरि की कहानियाँ भावुकता पूर्ण सामाजिक परिप्रेक्ष्य में प्रेम को व्यक्त करने की कामना लिए हुए आर्दश वादी रुज्हान से परिपक्व हैं। यह बात दूसरी है कि इस काल में भारतीय परिदृश्य पर मुन्शी प्रेम चन्द, जैनेन्द्र कुमार, शरद चन्द्र, बंकिम चन्द्र के कथा-साहित्य का व्यापक प्रभाव पड़ने लगा था। इस अंचल का कथा-साहित्य खड़े होने की कोशिश में था।

डॉ नलिन वर्मा निरन्तर अपने काव्यसंग्रहों के साथ अपनी संलग्नता को बनाए हुए है। आवश्यक है श्री हरि का अप्रकाशित साहित्य भी विशेषकर उनके निबन्ध प्रकाश में लाए जाएॅं, हम अकादमी से आग्रह करें कि उन रचनाकारों के लिए जो साहित्य सेवा में पूरी तरह समर्पित रहे, उनके सृजनात्मक योगदान को प्रकाश में लाए।