हमारे पुरोधा श्री हरि वल्लभ हरि
हरि वल्लभ हरि प्रान्त में आधुनिक हिन्दी साहित्य की विकासधारा के प्रमुख स्तम्भ हैं। ”गंगाकिनारे“,(1951) आपकी कहानियों का संग्रह है जो सन पचास के आसपास प्रकाशित हुआ था। दयाकृष्ण विजय के कहानी संग्रह ”उलझन “, की आपने भूमिका लिखी थी। ”बुदबुद“ आपका काव्यसंग्रह प्रकाशित हुआ था। आप वर्षों तक भारतेन्दु समिति के अध्यक्ष भी रहे। सन पचपन के आसपास भारतेन्दु समिति के किसी कार्यक्रम में मैंने आपको देखा था। तब में छठी क्लास में पढंता था। उन दिनो साहित्यकारों का समाज में विशेश स्थान था। कोटा भी छोटा शहर था। रामपुरा बाजार ही साहित्यिक सांस्कृतिक हलचल का केन्द्र था।
सफेद खादी का कुर्ता और धोती तथा सिर पर टोपी आपकी पहचान थी। उन दिनो डॉ राम चरण महेन्द्र देश में सम्मानित हो चुके थे।
कोटा के कवि डॉ नलिन वर्मा आपके पुत्र हैं। जिनकी ग़ज़लों के दो संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी पुत्री का भी एक कहानी संग्रह कन्यादान प्रकाशित हुआ है।
इन सब बातों की चर्चा आपसे इसीलिए करने का मन हो रहा है कि कुछ दिन पूर्व मैंने अपने साहित्यिक मित्रों से जब आपके बारे में चर्चा की तो पाया हमारे मित्र श्री हरि के नाम से ही अपरिचित हैं। हम अपनी परंपरा को आज के मीडिया के प्रभाव में इतनी जल्दी भूलते जारहे हैं, यह चिन्तनीय है। आज रचनाकार मात्र अपने तक ही सीमित रह गया है। वह स्वयं हर जगह अपने आपको ही विज्ञापित करने के प्रयास में है। यहॉ के बड़े रचनाकार साहित्य अकादमी के पुरोधा भी रहे। पर नजाने क्यों श्री हरि जी पर एक मोनोग्राफ भी नहीं दे पाए। आजकल तो अकादमी की हमारे पुरोधा श्रृंखला में नए रचनाकारों के देहावसान के बाद ही उनकी स्मृमि में तुरंत ग्रंथ भी छप जाते हैं। तब इतनी राजनीति नहीं थी। सृजनकार अपनी लेखनी से ही संतुष्ट था। इस अंचल के रचनाकारों ने हिन्दी साहित्य के विकास में गत शताब्दी में बहुत कुछ दिया है। रचनाकारों का मूल्यांकन किया जाना अपरिहार्य है।
स्वतन्त्रता पूर्व के प्रसिद्ध कवियों में हरि वल्लभ ‘हरि’ प्रमुख हैं। वे सुधीन्द्र के समकालीन थे। वर्षों तक कोटा की साहित्यिक समृद्धि के वाहक भी रहे।
छायावादी तथा उत्तर छायावादी काव्य संस्कारों से वे प्रभावित थे। सन 1983 ई. में ‘श्रीभारतेन्दु समिति’ ने उन के काव्य संग्रह ‘बुदबुद’ का प्रकाशन किया था।
कृति की भूमिका में बाल कृष्ण थोलम्बिया ने लिखा है:-
”उन में एक ओर जहाँ उन के दार्शनिक चिन्तन की छाप है, कुछ अनुत्तरित प्रश्न हैं, और संसार की असारता में भी सार है, वहीं दूसरी और यहाँ के स्पार्द्ध, ईर्ष्या, द्वेष, छल, दम्भ और अहं से विकृत जीवन ने भी उन्हें मर्माहत किया है। उन के मुख से ‘यह तो मेरा देश नहीं है’, सहसा ही नहीं निकल पड़ा है, इस की पृष्ठ भूमि में कुछ रहा है, फिर भी उन की आस्था बनी रही है, विश्वास डिगा नहीं है।“
प्रो. इन्द्र कुमार ने उन की कविताओं की समीक्षा में जिस सांकेतिकता रहस्य भावना और अनुभूत्यात्मक अभिव्यक्ति की ओर इंंिगत किया है, वह उल्लेखनीय है:-”‘हरि’ के काव्य संसार में यह छोटी-छोटी चीज़ंे ही बड़े प्रश्न पैदा करती हैं। उस में समुद्र, आकाश, वन, हिमालय, आदि कम हैं और पंछी, नीड़, तितली, बूँद, फुहार, दीप, बुद-बुद आदि प्रचुर मात्रा में हैं, और प्रत्येक अपना-अपना प्रश्न लिए हुए है:-
”बनना मिटना ही क्या जीवन?
बढ़ना ही क्या जीवन का धन?
इन बुद-बुद को देख प्रश्न
ये सहसा मन में आते ?
बुद-बुद बन-बन मिट-मिट जाते।
तथा
मिट्टी के इन लघु दीपों से
तुम को इतनी ममता क्यों है?
भरते जाते स्नेह तरल, ये होते जाते रीते
युग-युग बीते तुम को भरते, इन को पीते-पीते।
जड़ से नेह बढ़ाने को
चेतन में यह तन्मयता क्यों है?
यहाँं दार्शनिकता अध्यात्म की तरफ़ उन्मुख ही नहीं, एकाकार हो गई है, तथ्य अपने आवरण को छोड़ता हुआ, अनुभूत्यात्मक अभिव्यक्ति में है। यहाँ सम्वेदना आरोपित नहीं है, सहज स्वभाव, तथा सरल शिल्प में जैसे चुपचाप ममेतर पास आ कर बैठ गया हो। विरल अनुभूृतियाँ, सहज शिल्प में अनायास उभर आई हैं। भाषा, समास शैली में है। शब्द, अर्थ-गर्भत्व व स्वतन्त्र लय के साथ हैं। यह श्रम साध्य शिल्प हाड़ौती अंचल के कवियों में महत्वपूर्ण है।
”शूलों की दुनिया में आ कर
क्या पाओगे पंछी गा कर?
अरे! उड़ो स्वच्छन्द जहाँ से
यहॉं महकते आये पंछी?
आप की अन्य काव्य कृतियों में ‘पृथ्वी-सूक्त का अनुवाद’ उध्ेखनीय है। आपको अधिकांश लेखन अप्रकाशित रह गया है।
सन 1951 ई. में हरि वल्लभ हरि का कथा-संग्रह ‘गंगा किनारे’ प्रकाशित हुआ था। संग्रह की भूमिका में चन्द्र प्रकाश सिंह ने लिखा था कि इन कहानियों में निरूपित समस्याऐं प्रधानतः सामाजिक हैं, व्यक्तिगत नहीं। इसी लिए इन में परिस्थितियों का रचनात्मक वर्णन ही अधिक मिलता है। व्यक्तित्वों का मनोविश्लात्मक चित्रण नहीं। भूमिका में हरि वल्लभ हरि की कथा-यात्रा का स्पष्ट परिचय मिल जाता है। हरि वध्भ हरि आदर्श वादी लेखक थे। वे लज्जा राम मेहता के कथा-साहित्य से प्रभावित थे। मुन्शी प्रेम चन्द की प्रारम्भिक कहानियों का भाषागत प्रभाव उन की कहानियों में है।
इस कथा संग्रह में ‘उलझन’, ‘गंगा किनारे’ पहाड़ी’ ‘वीरांगना’ आदि कहानियाँ अपने समय में चर्चित रही थीं। ‘उलझन’ कहानी जो है, उस का कथान्श यह है कि दौलत राम की बहिन मैना की शादी माणिक लाल के साथ होती है। दौलत राम समाचार लाता है कि माणिक लाल ने मोहिनी नाम की अन्य स्त्री के साथ विवाह कर लिया है। माणिक लाल को क्रान्तिकारी बताया गया है। मैना को जब यह समाचार मिलता है तो वह माणिक लाल को पत्र लिखती है। मोहिनी, मैना को मिलने के लिए बुलाती है। दोनों जब मिलते हैं तो वे दौलत राम के साथ माणिक लाल से मिलने जाती है। वहाँ माणिक लाल तो नहीं मिलता है, मैना के नाम लिखा हुआ उस का पत्र मिलता है। जिस में लिखा है कि तुम ने मोहिनी को मुझ से छीन लिया है, इसलिए मैं उचित समझता हूँ कि तुम से नहीं मिलूँ। मैं यहाँ से जा रहा हूँ और मुझे ढूँढने का प्रयास मत करना। इसी के साथ उस ने मोहिनी का वह पत्र, जो उस ने माणिक लाल को लिखा था कि उसे सब बात पता लग गई है और वह सम्बन्ध विच्छेद करना चाहती है, रख देता है। दोनों पत्र पा कर मैना अपना सिर पीट लेती है और कहती है, ‘भैया घर चलो’।
दूसरी महत्व पूर्ण कहानी है, ‘गंगा किनारे’। कथान्श यह है कि कमल एक कवि है, मेधावी छात्र है। उस के माता-पिता नहीं है। कॉलेज में हुए कार्यक्रम में उसे एक लड़की मिलती है जो कि अपने आप को प्रोफ़ेसर खरे की लड़की बताती है। उसे प्रोफं़सर खरे ने गंगा की बाढ में अनाथ पाया था, उस का लालन-पालन उन्हों ने किया था। प्रोफ़ेसर साहब के कहने पर कमल को घर बुलाती है, वहीं समाचार-पत्र से पता लगता है कि गंगा में बाढ़ फिर आई हुई है। कमल कोे अपना बचपन याद आता है और वह गाँव जा कर लोगों की मदद करना चाहता है। किरण भी उस के साथ चलना चाहती है। वे दोनों भवानीपुर आ जाते है, वहाँ कमल एक बड़े नीम के पेड़ को पहचान कर अपने पुराने मकान और अपने बचपन को याद करता है। वह अपने घर के पास किसी मनमोहन पाण्डे को भी याद करता है, जो उस के पिता के मित्र थे और उन की पाँच-छः वर्ष की लड़की भी थी जो उसके साथ खेलती थी। कमल उसे अपने बचपन की बातें बतलाता है, और अपने हाथ पर लिखे हुए बचपन के नाम को बताता है। किरण उस बचपन में साथ खेली लड़की का नाम पूछती है। वह उस का नाम लीला बताता है, और तब किरण अपनी कलाई को उस के सामने रख कर पूछती है और कहती है:-
‘तुम्हारा नाम था विनय’
कमल चौंक जाता है और कहता है:-
‘कौन मेरी लीला!’
इस प्रकार से हरि वध्भ हरि की कहानियाँ भावुकता पूर्ण सामाजिक परिप्रेक्ष्य में प्रेम को व्यक्त करने की कामना लिए हुए आर्दश वादी रुज्हान से परिपक्व हैं। यह बात दूसरी है कि इस काल में भारतीय परिदृश्य पर मुन्शी प्रेम चन्द, जैनेन्द्र कुमार, शरद चन्द्र, बंकिम चन्द्र के कथा-साहित्य का व्यापक प्रभाव पड़ने लगा था। इस अंचल का कथा-साहित्य खड़े होने की कोशिश में था।
डॉ नलिन वर्मा निरन्तर अपने काव्यसंग्रहों के साथ अपनी संलग्नता को बनाए हुए है। आवश्यक है श्री हरि का अप्रकाशित साहित्य भी विशेषकर उनके निबन्ध प्रकाश में लाए जाएॅं, हम अकादमी से आग्रह करें कि उन रचनाकारों के लिए जो साहित्य सेवा में पूरी तरह समर्पित रहे, उनके सृजनात्मक योगदान को प्रकाश में लाए।
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