हमारे पुरोधा श्री नारायण वर्मा
श्री नारायण वर्मा से हमारे काव्य मित्र अपरिचित ही हैं। कारण स्पष्ट रहा हे, यहॉं के साहित्यकारों में अपने समकालीन उत्कृष्ट रचनाकार की उपेक्षा स्वाभाविक वृत्ति रही है। तब मैं राजकीय महाविद्यालय में हिन्दी विभाग का छात्र था, तब आपके गीतों को पहली बार सुना था। आप राजकीय सेवा में उच्च अधिकारी रहे थे। भारतेन्दु समिति पर तब सांस्कृतिक साहित्य कर्मियों का प्रभुत्व था। वहॉं साहित्य के प्रति अलिखित दुराग्रह था। श्री नारायण वर्मा समृद्ध गीतकार थे। राज्य सेवा का भी प्रभुत्व उनकी एक पहचान थी।
आपके दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। आप वर्षो तक साहित्य सृजन में संलग्न रहे। परन्तु साहित्यिक गुटबन्दी से बहुत दूर रहे। छावनी में जहॉं आज शोपिंग सैन्टर है , उस जमाने में आपका बड़ा भवन था।मुझे यह पता नहीं आप कब दिवंगत हुए, आपकी स्मृति में न तो कोई मोनोग्राफ आया नहीं कोई आलेख मुझे मिला। आपके दो काव्य संग्रह मुझे मिले , उन्हीं के आधार पर यह स्मृति- कथा नियोजित है, मित्रों के पास सूचना हो अवश्य बताएॅं, ठाड़ा साहब तथा हरि जी के बारे में भाई अतुल कनक ने काफी महत्वपूर्ण जानकारियॉं दी हैं, मैं उनका आभारी हूॅं।
कवि की कविता की आधार सामग्री उस का अनुभूत्यात्मक सच होता है। जहाँ वह अन्तर्मुखी होता है, वहाँ बाहर की दुनिया उस के आग्रह, उसे बाँध नहीं पाते हैं। ‘वह’, ‘स्व’ की खोज में ‘काँदे’ के छिलके उतारता-उतारता, उस परम सत्य की झलक पाने को, जिसे ‘विराट’ भी कहा जाता है, उस नन्हें शिशु की तरह उत्सुकता थामे, जो ख़ाली सीपियों में मोती तलाश करना चाहता है, सागर तट पर रेत में अपनी कोमल अँगुलियों से कुरेदता रहता है। सच है, अन्तर्मुखता का प्रवेश द्वार यहीं प्राप्त होता है। यहाँ बहिर्मुखता का आकर्षण स्वतः छूटता चला जाता है। सांस्कृतिक काव्यधारा की यह एक प्रमुख विशेषता है।
‘मन की बातें’ आप का पहला कविता संग्रह था।
नाथू लाल जैन ने ‘तरंगें’ 1991 ई. की भूमिका में कहा है:-
”‘तरंगें’ संग्रह के गीतों में स्वाभाविक रूप से ही अधिक प्रौढ़ता है, परिपक्वता है और आचार्य श्री शिलीमुख जी ने जिसे ‘शुद्ध हार्दिकता’ कहा, वह तो है ही, उस पर आध्यात्मिकता का वह रंग भी है, जो विप्रलम्भ के इन गीतों को भक्ति के बहुत समीप पहुँचा देता है। अब कवि के हृदय में अधिक गहरा आत्म-विश्वास है।“
और इस गहरे आत्म-विश्वास का कारण है:-
”मैं तुम्हारा नाम ले कर चल रहा हूँ
मैं तुम्हारा वेग ले कर चल रहा हूँ
राह मुझ को यों थका लेगी भला क्या?
राह को मैं साथ ले कर चल रहा हूँ
बस कि तुम अब राह से मुझ को लगा दो
तुम मुझे जीवन नया दो।“
”यहाँ अनुभूति की गहनता है, भाषा में सहजता है, कथ्य सहज स्फूर्त है, यहाँ विचार का न दबाव है, न आग्रह है, एक सहज अह-शून्यता है। सच है, जहाँ हीन भावना होती है, वहीं अहंकार होता है, वहाँ काव्य भाषा जटिल प्रतीकों तथा अभिव्यक्ति में उलझ जाती है। बलाघात वहाँ अधिक होता है। जटिलता काव्य गुण नहीं है, हाँ जटिल भावों की व्यथा भी सरल भाषा में व्यष्ति हो पाती है। यहाँ अनुभूति की सघनता तो है, पर वह स्वानुभव की तपिश में, अभिव्यक्ति तलाश कर रही है:-
”कि तुम ने यांे कृपा की कोर दे कर
बहुत झुक कर मुझे ऊँचा उठाया
कि तृण-सा रज-कणों में डूबता था
कि तुम ने फूल-सा सिर पर चढ़ाया
तुम्हारा आसरा मुझ को बड़ा है।
कि मस्तक आज चरणों में झुका है।“ ;पृ. 84.
दार्शनिक भंंिगमाऐं प्रायः ‘बुद्धि जन्य ज्ञान’ पर आधारित होती हैं। फ्ऱायड व मार्क्स के चिन्तन के आधार पर ‘इन्द्रिय जन्य ज्ञान’, काव्य वस्तु बनता है। वहाँ जीवन का यथार्थ, ‘इन्द्रिय जन्य ज्ञान’ हो जाता है। बहिर्जगत की यात्रा यहाँ चिन्तन का रस प्रदान करती है, पर जहाँ कविता, अनुभव की आँख से दुनिया देखना चाहती है, वहाँ हृदय खुलता है, यह करुणा की ज़मीन है, यहाँ प्रेम, साध्य रह जाता है।
”‘सत्य धरती, सत्य यह आकाश भी
सत्य ही सागर धरा के पास भी
एक हैं सब और सब साकार भी
दूर हैं सब और सब हैं पास भी
सत्य को देखंे भला आँखें कहाँ
सत्य ही यह सत्य का आभास है।
स्वप्न का संसार मुझ से दूर है
तथ्य जीवन का हृदय के पास है।“
श्रीनारायण वर्मा की कविता ‘साक्षित्व’ की उप सम्पदा है। आध्यात्म की दुनिया, रहस्यमयी है। वहाँ दार्शनिक की भंगिमा छूट जाती है। दर्शन का क्षेत्र, विचार का है, बुद्धि का है, विश्लेषण का है। प्रायः ‘आध्यात्मिक’ नाम पर ‘धर्म’, सम्प्रदाय की मान्यताओं, उन के चरित्र आख्यानों को सौंपा जाता है।
‘भागवत में ‘चीरहरण’ का प्रसंग आता है, जहाँ सारी अवधारणाऐं छूट जाती हैं, ‘नान कन्डीशन्ड माइन्ड’, कोई साम्प्रदायिक आग्रह नहीं रहता है। श्रीनारायण वर्मा इसी ‘अन्तर्यात्रा के पथिक हैं। ‘तुम’, इस अन्तर्मुखता का मनोहर प्रस्थान बिन्दु होता है। उस की पहचान, उस की मनोहारी कल्पना होती है, जितना उस का सान्निाध्य प्राप्त होता जाता है। उतना ही भीतर का कल्मष दूर होता है।
”यों ही तुम मेरे जीवन में अपना रंग लुटाते जाओ
और रजनियों की आभा में अपना रूप रचाते जाओ।“ ;पृ. 67.
यह ‘तुम’, ... यहाँ प्रीत का भण्डार है। यहाँ प्रेमानुभूति, अनुभूत्यात्मक जगत का सार है। यहाँं कविता जिस ‘सहज धर्म’ का वरण करती है, वह मनुष्यत्व का वाहक है। और यहाँ काव्य, जिस ‘संस्कृति’ को अपनी वाणी देता है, वह बाह्य कलेवरों को छोड़ती हुई ‘आत्मस्थ कवि की सहज स्वानुभूति’ है, जो सांस्कृतिक काव्य धारा की प्रमुख विशेषता है। छायावादी काव्य धारा का सहज विकास है।
गलती हमसे यही हुई है, कि हम परंपरा से कटते हुए , आत्म मुग्ध, स्वयं अपनी ही सृजनशीलता को ही समर्पित होकर रह गए। हमारे आसपास कुछ अच्छा भी लिखा गया है, लिखा जा रहा है, हम उससे जुड़े , साहित्य का अवरुद्ध मार्ग गतिशील होगा , इसी आशा के साथ।
श्री नारायण वर्मा से हमारे काव्य मित्र अपरिचित ही हैं। कारण स्पष्ट रहा हे, यहॉं के साहित्यकारों में अपने समकालीन उत्कृष्ट रचनाकार की उपेक्षा स्वाभाविक वृत्ति रही है। तब मैं राजकीय महाविद्यालय में हिन्दी विभाग का छात्र था, तब आपके गीतों को पहली बार सुना था। आप राजकीय सेवा में उच्च अधिकारी रहे थे। भारतेन्दु समिति पर तब सांस्कृतिक साहित्य कर्मियों का प्रभुत्व था। वहॉं साहित्य के प्रति अलिखित दुराग्रह था। श्री नारायण वर्मा समृद्ध गीतकार थे। राज्य सेवा का भी प्रभुत्व उनकी एक पहचान थी।
आपके दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। आप वर्षो तक साहित्य सृजन में संलग्न रहे। परन्तु साहित्यिक गुटबन्दी से बहुत दूर रहे। छावनी में जहॉं आज शोपिंग सैन्टर है , उस जमाने में आपका बड़ा भवन था।मुझे यह पता नहीं आप कब दिवंगत हुए, आपकी स्मृति में न तो कोई मोनोग्राफ आया नहीं कोई आलेख मुझे मिला। आपके दो काव्य संग्रह मुझे मिले , उन्हीं के आधार पर यह स्मृति- कथा नियोजित है, मित्रों के पास सूचना हो अवश्य बताएॅं, ठाड़ा साहब तथा हरि जी के बारे में भाई अतुल कनक ने काफी महत्वपूर्ण जानकारियॉं दी हैं, मैं उनका आभारी हूॅं।
कवि की कविता की आधार सामग्री उस का अनुभूत्यात्मक सच होता है। जहाँ वह अन्तर्मुखी होता है, वहाँ बाहर की दुनिया उस के आग्रह, उसे बाँध नहीं पाते हैं। ‘वह’, ‘स्व’ की खोज में ‘काँदे’ के छिलके उतारता-उतारता, उस परम सत्य की झलक पाने को, जिसे ‘विराट’ भी कहा जाता है, उस नन्हें शिशु की तरह उत्सुकता थामे, जो ख़ाली सीपियों में मोती तलाश करना चाहता है, सागर तट पर रेत में अपनी कोमल अँगुलियों से कुरेदता रहता है। सच है, अन्तर्मुखता का प्रवेश द्वार यहीं प्राप्त होता है। यहाँ बहिर्मुखता का आकर्षण स्वतः छूटता चला जाता है। सांस्कृतिक काव्यधारा की यह एक प्रमुख विशेषता है।
‘मन की बातें’ आप का पहला कविता संग्रह था।
नाथू लाल जैन ने ‘तरंगें’ 1991 ई. की भूमिका में कहा है:-
”‘तरंगें’ संग्रह के गीतों में स्वाभाविक रूप से ही अधिक प्रौढ़ता है, परिपक्वता है और आचार्य श्री शिलीमुख जी ने जिसे ‘शुद्ध हार्दिकता’ कहा, वह तो है ही, उस पर आध्यात्मिकता का वह रंग भी है, जो विप्रलम्भ के इन गीतों को भक्ति के बहुत समीप पहुँचा देता है। अब कवि के हृदय में अधिक गहरा आत्म-विश्वास है।“
और इस गहरे आत्म-विश्वास का कारण है:-
”मैं तुम्हारा नाम ले कर चल रहा हूँ
मैं तुम्हारा वेग ले कर चल रहा हूँ
राह मुझ को यों थका लेगी भला क्या?
राह को मैं साथ ले कर चल रहा हूँ
बस कि तुम अब राह से मुझ को लगा दो
तुम मुझे जीवन नया दो।“
”यहाँ अनुभूति की गहनता है, भाषा में सहजता है, कथ्य सहज स्फूर्त है, यहाँ विचार का न दबाव है, न आग्रह है, एक सहज अह-शून्यता है। सच है, जहाँ हीन भावना होती है, वहीं अहंकार होता है, वहाँ काव्य भाषा जटिल प्रतीकों तथा अभिव्यक्ति में उलझ जाती है। बलाघात वहाँ अधिक होता है। जटिलता काव्य गुण नहीं है, हाँ जटिल भावों की व्यथा भी सरल भाषा में व्यष्ति हो पाती है। यहाँ अनुभूति की सघनता तो है, पर वह स्वानुभव की तपिश में, अभिव्यक्ति तलाश कर रही है:-
”कि तुम ने यांे कृपा की कोर दे कर
बहुत झुक कर मुझे ऊँचा उठाया
कि तृण-सा रज-कणों में डूबता था
कि तुम ने फूल-सा सिर पर चढ़ाया
तुम्हारा आसरा मुझ को बड़ा है।
कि मस्तक आज चरणों में झुका है।“ ;पृ. 84.
दार्शनिक भंंिगमाऐं प्रायः ‘बुद्धि जन्य ज्ञान’ पर आधारित होती हैं। फ्ऱायड व मार्क्स के चिन्तन के आधार पर ‘इन्द्रिय जन्य ज्ञान’, काव्य वस्तु बनता है। वहाँ जीवन का यथार्थ, ‘इन्द्रिय जन्य ज्ञान’ हो जाता है। बहिर्जगत की यात्रा यहाँ चिन्तन का रस प्रदान करती है, पर जहाँ कविता, अनुभव की आँख से दुनिया देखना चाहती है, वहाँ हृदय खुलता है, यह करुणा की ज़मीन है, यहाँ प्रेम, साध्य रह जाता है।
”‘सत्य धरती, सत्य यह आकाश भी
सत्य ही सागर धरा के पास भी
एक हैं सब और सब साकार भी
दूर हैं सब और सब हैं पास भी
सत्य को देखंे भला आँखें कहाँ
सत्य ही यह सत्य का आभास है।
स्वप्न का संसार मुझ से दूर है
तथ्य जीवन का हृदय के पास है।“
श्रीनारायण वर्मा की कविता ‘साक्षित्व’ की उप सम्पदा है। आध्यात्म की दुनिया, रहस्यमयी है। वहाँ दार्शनिक की भंगिमा छूट जाती है। दर्शन का क्षेत्र, विचार का है, बुद्धि का है, विश्लेषण का है। प्रायः ‘आध्यात्मिक’ नाम पर ‘धर्म’, सम्प्रदाय की मान्यताओं, उन के चरित्र आख्यानों को सौंपा जाता है।
‘भागवत में ‘चीरहरण’ का प्रसंग आता है, जहाँ सारी अवधारणाऐं छूट जाती हैं, ‘नान कन्डीशन्ड माइन्ड’, कोई साम्प्रदायिक आग्रह नहीं रहता है। श्रीनारायण वर्मा इसी ‘अन्तर्यात्रा के पथिक हैं। ‘तुम’, इस अन्तर्मुखता का मनोहर प्रस्थान बिन्दु होता है। उस की पहचान, उस की मनोहारी कल्पना होती है, जितना उस का सान्निाध्य प्राप्त होता जाता है। उतना ही भीतर का कल्मष दूर होता है।
”यों ही तुम मेरे जीवन में अपना रंग लुटाते जाओ
और रजनियों की आभा में अपना रूप रचाते जाओ।“ ;पृ. 67.
यह ‘तुम’, ... यहाँ प्रीत का भण्डार है। यहाँ प्रेमानुभूति, अनुभूत्यात्मक जगत का सार है। यहाँं कविता जिस ‘सहज धर्म’ का वरण करती है, वह मनुष्यत्व का वाहक है। और यहाँ काव्य, जिस ‘संस्कृति’ को अपनी वाणी देता है, वह बाह्य कलेवरों को छोड़ती हुई ‘आत्मस्थ कवि की सहज स्वानुभूति’ है, जो सांस्कृतिक काव्य धारा की प्रमुख विशेषता है। छायावादी काव्य धारा का सहज विकास है।
गलती हमसे यही हुई है, कि हम परंपरा से कटते हुए , आत्म मुग्ध, स्वयं अपनी ही सृजनशीलता को ही समर्पित होकर रह गए। हमारे आसपास कुछ अच्छा भी लिखा गया है, लिखा जा रहा है, हम उससे जुड़े , साहित्य का अवरुद्ध मार्ग गतिशील होगा , इसी आशा के साथ।
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