हमारे पुरोधा
अनाम साहित्य सेवक दुर्गाशंकर त्रिवेदी
आदाणीय मित्रो, , संभवतः हम सब इस अनाम साहित्य सेवक को लगभग भूल ही गए हैं। भवानीमंडी में जन्मे , त्रिवेदी जी कोटा के सोशलिस्ट समाचार कार्यालय के प्रभारी थे। सन् सत्तर के दशक में उनका कार्यालय साहित्यकारों का एक विशेष आकर्षण का केन्द्र था। वे उस समय भारत की हर छोटी बड़ी पत्रिका में निरंतर छपते रहते थे। देश की हर पत्रिका का अंक आप उनके यहॉं प्राप्त कर सकते थे। वे स्वयं सहर्ष अन्य को पत्रिका का पता बताते थे, छपने के लिए प्रोत्साहन देते थे। उस जमाने में कोटा में दस के आसपास साप्ताहिक और पाक्षिक पत्र निकलते थे। विशेषांकों का अपना महत्व था।आज तो देश के बड़े पत्र भी वैसे अंक नहीं निकाल सकते हैं। आज प्रांत के दोनो बड़े पत्र इंटरनेट से उतारी गई सूचनाओं के संग्रह मात्र रह गए हैं।
त्रिवेदी जी कोटा से अस्सी के आसपास जयपुर में राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट को देख रहे थे। वहॉं से वे बाद में जयपुर के पास किसी गॉंव में निजि आवास बनाकर लेखन कार्य में संलग्न थे।
त्रिवेदीजी साहित्य के मौन साधक थे। उन्होंने बहुत लिखा , लेखन ही उनकी आजीविका का साधन रहा। अत्यंत विपन्नता में भी उनका व्यक्तित्व अपराजेय रहा। वे निरन्तर हर छोटे लेखक की मदद में रहे।
सन 1967 मे कोटा आया था। तब कहानीकार नफीस अहमद से मेरा परिचय था, वही मुझे त्रिवेदी जी से मिलवाने लेगया था। बृजेश चंचल, शचीन्द्र उपाध्याय, प्रेम जी प्रेम, रामकुमार, उस दौर के अनेक साहित्यकार उस समय शाम के समय प्रेस में मिल जाते थे, त्रिवेदी जी सबको चाय और कचौड़ी खिलाया करते थे। पैसे की बात करते ही तुरंत कहते आज मनीआर्डर आया है, आप तो खाओ।
समय के साथ सब बदल जाता है, आज साहित्यकारों की विवशता यही है, बाजारवाद में साहित्य और साहित्यकार अपने ही घर- परिवार में अवमूल्यित हो गया है। अपने साहित्य के इतिहास के ग्रंथों की तैयारी के समय जब साहित्य की सामग्री का संग्रह कर रहा था, तब यही वाक्य प्रायः सुनने में आया, ”उनें साहित्य से हमें क्या मिला? कोई दुकान ही खोल देते तो परिवार कहॉं से कहॉं होता? साहित्यकार की रचनाएॅं उसके सामने उसके जीवनकाल में ही उपेक्षित हो जाती हैं।
शायद गलती हमारी ही है। हम बहुत अधिक आत्ममुग्ध हो गए हैं। राजनेताओं की तरह हमारा व्यक्त्वि हो गया है। त्रिवेदी जी ने बहुत लिखा, वे अपने आलेखों का विशेषकर संस्मरणों का संग्रह निकालना चाह रहे थे। पर वह रह गया। उसका प्रकाशन किया जाना उचित है।
समाचार पत्र में एक छोटी सी खबर थी, जयपुर के समीप रेल की पटरीपार करते हुए , एक वृद्ध की मौत होगई, वह साहित्यकार दुर्गाशंकर त्रिवेदी थे। धक्का सा लगा,उनके पुत्र बालमुकुंद का फोन भी मेरे पास नहीं था, कुछ वर्षों से संबंध टूट गया था। पहले उसका भी कोटा में प्रेस था, वह बंद होगया था। परंपरा के हिसाब से वह भी उनसे दूर हो गया था।
न तो कोटा में कोई शोकसभा हुई , न मधुमती में कोई सूचना आई, किसी ने चर्चा भी नहीं की, कि कहीं ऐसा व्यक्तित्व भी हमारे बीच में था। जिस व्यक्ति ने पूरा जीवन साहित्य सेवा में निकाल दिया, सबकी मदद भी करता रहा, उसकी याद मैं आप के साथ बॉंट रहा हूॅं। मेरी दृष्टि में साहित्यकारों की स्मृतियॉं ही हमारी पूॅंजी है, जो आगे का रास्ता हमें दिखाती हैं।
अनाम साहित्य सेवक दुर्गाशंकर त्रिवेदी
आदाणीय मित्रो, , संभवतः हम सब इस अनाम साहित्य सेवक को लगभग भूल ही गए हैं। भवानीमंडी में जन्मे , त्रिवेदी जी कोटा के सोशलिस्ट समाचार कार्यालय के प्रभारी थे। सन् सत्तर के दशक में उनका कार्यालय साहित्यकारों का एक विशेष आकर्षण का केन्द्र था। वे उस समय भारत की हर छोटी बड़ी पत्रिका में निरंतर छपते रहते थे। देश की हर पत्रिका का अंक आप उनके यहॉं प्राप्त कर सकते थे। वे स्वयं सहर्ष अन्य को पत्रिका का पता बताते थे, छपने के लिए प्रोत्साहन देते थे। उस जमाने में कोटा में दस के आसपास साप्ताहिक और पाक्षिक पत्र निकलते थे। विशेषांकों का अपना महत्व था।आज तो देश के बड़े पत्र भी वैसे अंक नहीं निकाल सकते हैं। आज प्रांत के दोनो बड़े पत्र इंटरनेट से उतारी गई सूचनाओं के संग्रह मात्र रह गए हैं।
त्रिवेदी जी कोटा से अस्सी के आसपास जयपुर में राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट को देख रहे थे। वहॉं से वे बाद में जयपुर के पास किसी गॉंव में निजि आवास बनाकर लेखन कार्य में संलग्न थे।
त्रिवेदीजी साहित्य के मौन साधक थे। उन्होंने बहुत लिखा , लेखन ही उनकी आजीविका का साधन रहा। अत्यंत विपन्नता में भी उनका व्यक्तित्व अपराजेय रहा। वे निरन्तर हर छोटे लेखक की मदद में रहे।
सन 1967 मे कोटा आया था। तब कहानीकार नफीस अहमद से मेरा परिचय था, वही मुझे त्रिवेदी जी से मिलवाने लेगया था। बृजेश चंचल, शचीन्द्र उपाध्याय, प्रेम जी प्रेम, रामकुमार, उस दौर के अनेक साहित्यकार उस समय शाम के समय प्रेस में मिल जाते थे, त्रिवेदी जी सबको चाय और कचौड़ी खिलाया करते थे। पैसे की बात करते ही तुरंत कहते आज मनीआर्डर आया है, आप तो खाओ।
समय के साथ सब बदल जाता है, आज साहित्यकारों की विवशता यही है, बाजारवाद में साहित्य और साहित्यकार अपने ही घर- परिवार में अवमूल्यित हो गया है। अपने साहित्य के इतिहास के ग्रंथों की तैयारी के समय जब साहित्य की सामग्री का संग्रह कर रहा था, तब यही वाक्य प्रायः सुनने में आया, ”उनें साहित्य से हमें क्या मिला? कोई दुकान ही खोल देते तो परिवार कहॉं से कहॉं होता? साहित्यकार की रचनाएॅं उसके सामने उसके जीवनकाल में ही उपेक्षित हो जाती हैं।
शायद गलती हमारी ही है। हम बहुत अधिक आत्ममुग्ध हो गए हैं। राजनेताओं की तरह हमारा व्यक्त्वि हो गया है। त्रिवेदी जी ने बहुत लिखा, वे अपने आलेखों का विशेषकर संस्मरणों का संग्रह निकालना चाह रहे थे। पर वह रह गया। उसका प्रकाशन किया जाना उचित है।
समाचार पत्र में एक छोटी सी खबर थी, जयपुर के समीप रेल की पटरीपार करते हुए , एक वृद्ध की मौत होगई, वह साहित्यकार दुर्गाशंकर त्रिवेदी थे। धक्का सा लगा,उनके पुत्र बालमुकुंद का फोन भी मेरे पास नहीं था, कुछ वर्षों से संबंध टूट गया था। पहले उसका भी कोटा में प्रेस था, वह बंद होगया था। परंपरा के हिसाब से वह भी उनसे दूर हो गया था।
न तो कोटा में कोई शोकसभा हुई , न मधुमती में कोई सूचना आई, किसी ने चर्चा भी नहीं की, कि कहीं ऐसा व्यक्तित्व भी हमारे बीच में था। जिस व्यक्ति ने पूरा जीवन साहित्य सेवा में निकाल दिया, सबकी मदद भी करता रहा, उसकी याद मैं आप के साथ बॉंट रहा हूॅं। मेरी दृष्टि में साहित्यकारों की स्मृतियॉं ही हमारी पूॅंजी है, जो आगे का रास्ता हमें दिखाती हैं।
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