शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

हमारे पुरोधा साहित्य के अनाम साधक बृजेश चंचल

हमारे पुरोधा
साहित्य के अनाम साधक बृजेश चंचल


तब मैं  अजमेर में पढ रहा था, कोटा का कवि सम्मेलन सुनने आया था पैंसठ की लड़ाई हो चुकी थी। कोटा के कवि सम्मेलन  की पूरे देश में धूम थी । यहॉं हमने बच्चन जी को सुना, नीरज जी को सुना, कैफी आजमी को सुना ही नहीं , उनका सानिध्य भी पाया था। इस अंचल के प्रसिद्ध कवि रघुराज सिंह हाड़ा को पहली बार वहीं सुना था, शायद ”कैसूला का फूल“ उनकी कविता थी। पर महत्वपूर्ण पहचान जिस कवि की मिली थी, वे बृजेश चंचल थे, वे भूख से व्याकुल बच्चे की करुण दशा की मार्मिक वेदना को शब्दायित कर रहे थे। मैंने देखा था, मैं ही नहीं सैंकड़ों लोगो की ऑंखें तरल थी। करुण रस के , वीर रस के बृजेश चंचल अद्भुद कवि थे।
वे आज कहॉं हैं, संभवतः परिवार जन को भी पता नहीं।
”लापता हुआ वह चेहरा“ हमारी क्षरित संवेदना का वे मूक गवाह बनकर रह गए। उनके भाई  प्रेमचंद कुलीन भी कहानी कार रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व उनके परिवार के एक सदस्य आकाशवाणी  मे मिले थे, उनके बारे मैं जानने का प्रयास किया था। पर उनके अज्ञातवास पर जाने के बाद से उनके बारे में कोई सूचना उनके पास नहीं थी।
मुझे याद है,  उन दिनो जब किसी पत्रिका में किसी रचना का प्रकाशन साहित्यकार के लिए महतवपूणर््ा घटना बन जाती थी, बृजेश चंचल की रचनाएॅं हर छोटी बड़ी पत्रिका में निरंतर प्रकाशित हो रहीं । वे मंच के उन दिनो सर्वाधिक लोकप्रिय कवि भी थे। एक बार मासिक पत्रिका कादंबिनी ने उनका गीत मुखपृष्ठ पर प्रकाशित किया था। तब इस नगर में उसकी बहुत चर्चा हुई थी।
दुर्भाग्य है, उनका कोई संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ। तब इस नगर में भी प्रांत की साहित्यिक गुटबंदी ने पॉंव पसारने शुरु कर दिए थे।
वे अपने समकालीन कवियों से बहुत आगे थे, पर उनकी प्रतिभा और जीवन की समस्याएॅं उन के लिए बोझा ही बन गईं।  कविता के साथ जुड़ा हुआ उनका  मन जहॉं उदात्त हो जाता था, वहॉं उनके परिवार , नौकरी बात उन्हें अचानक अप्रिय लग जाती थी।
हमारी आज भी यही आदत है हम कविताऔर कवि का मूल्यांकन भी , सोच- समझकर बाजार को देखते हुए करते हैं।
उनकी एक कविता मेरे पास है, जो संभवतः आपातकाल के आसपास लिखी गई थी।  उसके कुछ अंश मैं आपके साथ साझा करना चाहॅंगा
”स्वर्गीय शारदा पुत्रों की
जब कलमें कुर्क कराओगे।
कुछ तो बोलो,निज काल पात्र
किस अंधे से लिखवाओगे।

खुशहाली एक खिलोने सी
हर रोज तोड़ती मॅंहगाई।
मैना ने पूछा तोते से,
यह कैसी आजादी आई?

कॉंटे तो सब आजाद हुए,
फूलों पर अब तक पहरे हैं।
कुछ कहने वाले गॅूंगे हैं ,
कुछ सुनने वाले बहरे हैं।

अब पूछ रहा है लाल किला,
झंडा फहराने वालों से-
क्ब तक मेरे माथे ऊपर
ये रीते कलश चढा़ओगे?

हर बार लोरियॉं देने से
यह देश नहंी सोजाता है।
अब तो बतलाओ सही-सही
कब नए सवेरे लाओगे?

आदरणीय मित्रो, हम बृजेश चंचल की शोकसभा भी नहीं कर पाए क्या पता वे जीवित हों?  वे कहॉं हैं, न वे किसी दुर्घटना के शिकार हुए , न उनके सन्यासी होने की सूचना है। संभवतः गत पच्चीस वर्ष से वह कवि का चेहरा हमारे बीच से गुम हो गया है। इसीलिए हम उन्हें भूल गए। उनका व्यक्तित्व साक्षी है, अधिक उर्जा का वेग पात्र को तोड़ देता हे।  क्या कारण रहा ,क्या उनका शरीर दुर्बल था, जो उनकी प्रतिभा को सभॉंल नहीं पाया ,या हमारा दुराग्रह रहा जहॉ हम आज भी प्रतिभा को अवमूल्यित कर , अपात्र के महिमा मंडन में अपनी गुटीय प्रतिबद्धता को लगा देते हैं। हमने उनकी प्रतिभा को आदर नहीं दिया।
मित्रो उन्होंने बहुत अच्छा लिखा था, क्या पता आपके साथ सुरक्षित किसी पत्रिका मैं हो, भारतेन्दु समिति के संग्रहालय में हो सकता है, उनके परिवार जन ने कुछ सुरक्षित रख रखा हो, वह बाहर आए, संग्रह प्रकाशन हो, उनकी स्मृति में हमारा यही सहयोग होगा।

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