रविवार, 27 नवंबर 2011

कारावास पम्मी ने तो एक तरह से ज़िद ही ठान ली थी। ‘नहीं दीदी! आप ना नहीं कहोगी! पहले भी तो दो बार आप ऐसे टूर टाल चुकी हैं। अब जब फिर आपको मौका दिया जा रहा है तो आप फायदा उठाइए न... आप ही तो कह रही थीं कि इस टेªेनिंग के बाद प्रमोशन के और भी चान्स मिल सकते हैं।’ पम्मी ने चाय की ट्रे मेज पर रखते हुए वही जिक्र फिर से छेड़ दिया था। ‘ओफ्फो...! मुझे तो लगता है कि तू इस बार छुट्टी ले कर बस इसीलिए मेरे पास आई है कि मुझे किसी तरह यहाँ से रवाना कर ही दे।’ सुनीता को अब पम्मी की बातों से झुँझलाहट होने लगी थी। कल रात को आई है और एक ही रट लगाए जा रही है। अब जानती तो हैं कि सुनीता को ऐसे टूर, ट्रेनिंग वग़ैरह में कोई दिलचस्पी नहीं है और न ही घूमने का शौक है, पर यह है कि बस...! सुनीता ने धीरे से अपना कप उठा लिया। ‘देख! अब मेरी बात ध्यान से सुन, मुझे इस ट्रेनिंग से कोई ख़ास फ़ायदा नहीं है, न ही मैं अगले प्रमोशन के लिए अधिक लालायित हूं। हां! हमारे ही बैंक के किसी और सहयोगी को अगर यह चांस मिलता है तो उन लोगों को, उन के परिवार को अधिक लाभ मिलेगा। रामबाबू, सुधीर जी, जैसे लोग तो अपने परिवार को भी साथ ले जाना चाह रहे हैं घूमने के लिए....।’ ‘दीदी...!’ पम्मी ने बात काटी थी। ‘जब बाॅस ने आपकी सिफ़ारिश की है तो ये रामबाबू, सुधीर जी, ये सब कहां से टपक पड़े? आप सब से सीनियर हो, आपको चांस मिल रहा है बस...! और हां! मै। अब और कुछ सुनने वाली नहीं हूं, मैं तो तीन दिन की छुट्टी लेकर आई ही इसलिए हूं कि आपके जाने की तैयारी करा दूं..., तो आप तैयार हो जाआ, आज तो वैसे ही आपके बैंक की छुट्टी है... तो बाज़ार चलते हैं, मैं तब तक आपकी वार्डरोब चैक करती हूं कि क्या-क्या लेना है आपको...?’ कहते हुए पम्मी ने चाय के बर्तन समेटना शुरू कर दिया था। ‘ये लड़की भी ज़िद की पक्की है...!’ सुनीता को हंसी आ गई थी। यूं देखा जाए तो रिश्ता क्या है पम्मी से...? बस जब तकक यहां इसकी नौकरी थी तो इसी फ़्लैट में सुनीता के साथ रह रही थी, फिर अपनापन इतना बढ़ा कि सगी बहन से भी अधिक स्नेह हो गया। अब शादी करके दूसरे शहर चली भी गई है तो क्या आए दिन फोन पर बात करती रहती है और फिर पता नहीं कैसे इस टूर की भनक भी लगी तो बिना बताए ही आ धमकी। ‘तू तो लगता है कि शादीशुदा होकर अब बड़ी बहन की तरह रोब झाड़ने लगी है मुझ पर...।’ ‘वह तो है ही, अब कोई तो आपको सही राय देगा, चलो अब और बातें नहीं, आप जल्दी से नहाकर तैयार हो जाएं, नाश्ता करके चलते हैं।’ कहती हुई पम्मी किचिन में घुस गई थी। जब तक सुनीता नहाकर निकली, पम्मी ने उसकी अल्मारी भी टटोल ली थी। ‘यह क्या दीदी, सारे पुराने फ़ैशन के कपड़े हैं और इतने फीके रंग के...! अरे विदेश जा रही हो तो थोड़े चटख़ रंग भी लो ना..., आज मैं पसंद करूंगी आपके कपड़े और आप मत टोकना... और पिछली बार मैं कुछ सूट के कपड़े लाई थी आपके लिए, आपने सिलवाए नहीं...?’ ‘अरे वो...!’ सुनीता ने याद करने की कोशिश की। ‘हां वो तो मैं रश्मि को दे आई, एक फिर विनी ने ले लिया... उनके गोरे रंग पर ये रंग फबते... और फिर उनकी उम्र भी है।’ ‘दीदी...! फिर वही बात, आप अभी कौन-सी बुढ़ा गई हो कि उन पर फबते और आप पर नहीं... अरे मैं तो इतने शौक से आपके लिए लाई थी और आप भी बस... विनी, रश्मि, गीता, सुहाग, सब भाई-भतीजे और उनके परिवार के बारे मेें ही सोचती रहती हो।’ ‘पम्मी! मेरा परिवार है यह...!’ सुनीता ने धीरे से कहा। ‘तो मैं कब कह रही हूं कि आपका परिवार नहीं है यह, पर वे लोग भी तो कभी आपके बारे में सोचें... पूछें... आएं आपके पास..., आपने फ़्लैट का गृह-प्रवेश किया था तो आया कोई? नहीं ना...! आप इतनी बीमार पड़ीं... हाॅस्पिटल में एडमिट करना पड़ा आपको तब... तब यह परिवार कहां था...?’ सुनीता चुप रह गई थी। शायद पम्मी को भी ध्यान आया कि उसने दुखती रग पर हाथ रख दिया है, कुछ देर के बाद वही बोली- ‘साॅरी दीदी! मेरा मक़्सद आपका दिल दुखाना नहीं था, मैं तो बस यही कहना चाह रही थी कि कभी तो आप औरों से हटकर अपने बारे में सोचें... कि आपको क्या अच्छा लगता है? आपको किस बात से ख़ुशी मिलती है... क्या इतना भी हक नहीं बनता आपका...? चलिए अब दूसरी बात करते हैं, नाश्ता करलें पहले ठंडा हो रहा है...।’ सुनीता सोच रही थी कि बातों का रुख़ बदलने में कितनी माहिर हो गई है यह लड़की... पर कितना कुछ चटपट बोल जाती है, क्या सब कुछ इतना सहज है? अब जब अब तक अपने बारे में कुछ नहीं सोचा ... न अपनी स्वयं की ख़ुशी... न अपने अधिकार... तो अब अचानक उम्र की इस सीढ़ी पर आकर...? चलो अभी इसमें बचपना है, धीरे-धीरे बड़प्पन आएगा....। पम्मी ने तब तक टोस्ट, परांठे, दूध सब लाकर मेज पर सजा दिए थे। ‘तो इस बार तू मुझे लंदन भेज कर ही मानेगी...?’ ‘हां दीदी! मैं तो आई ही इसलिए हूं कि कहीं पहले की तरह आप इस बार भी अपना ट्रिप कैंसिल न कर दें... अरे! दूध का गिलास क्यों छोड़ दिया...?’ ‘बस बहुत हो गया, तू तो जानती है कि इतना हैवी ब्रेकफास्ट मैं कहां करती हूं, आॅफ़िस भी बस दो टोस्ट और काॅफ़ी लेकर जाती हूं...।’ सुनीता फिर उठ ही गई थी। बाज़ार में पहुंचते ही जब पम्मी ने आॅटो एक प्रसि( ब्यूटी पार्लर ‘रूपाली’ के सामने रोका तो सुनीता चैंक गई थी। ‘अरे! यहां क्यों रोक दिया? यहां क्या करना है?’ ‘करना है दीदी! पहले यहीं करना है...!’ कहकर पम्मी ने उतरकर आॅटोवाले को पैसे देने के लिए अपना पर्स खोल लिया था, साथ ही उसकी आवाज़ भी सुनाई दी- ‘दीदी! आप तो उतर कर अंदर चलिए, मैं रूपाली से आपका एपाइंटमेंट ले चुकी हूं।’ ‘एपाॅइंटमेंट...! पर क्यों...? जानती तो है मैं कभी ब्यूटी पार्लर...’ ‘नहीं जातीं न... तो अब चलिए...’ कह कर पम्मी ने उसका हाथ थाम लिया था। ‘पम्मी तू भी न बस...!’ ‘बस दीदी! आप प्राॅमिस कर चुकी हैं कि आप आज मुझे बिल्कुल नहीं टोकोगी।’ सुनीता चुप रह गई थी। फिर पम्मी ने ज़िद करके उसके बाल सेट करवाए, क्लीनिंग भी करवाया, फेशियल के लिए भी ज़िद करके बैठा ही दिया। ‘दीदी! आपको यहां थोड़ी देर लगेगी, तो मैं कुछ और चीज़ें तब तक बाज़ार में देख लेती हूं।’ कहते हुए पम्मी बाहर आ गई थी। फिर उसने कुछ काॅस्मेटिक्स ख़रीदे, अच्छे महंगे सूट के कपड़े लिए। जब तक लौटी तो सुनीता का एकदम बदला स्वरूप पाया। ‘वाह दीदी! आपकी तो उम्र ही दस साल कम करदी रूपाली ने...’ रूपाली भी मुस्कुरा रही थी। ‘चलिए, अब आपको टेलर के यहां नाप देना है, कपड़े तो मैं ले चुकी हूं, मुझे पता था, आपके सामने लेती तो आप ख़रीदने भी नहीं देतीं...।’ ‘पम्मी! आखि़र तू चाहती क्या है? क्या मुझे कहीं शादी कराने ले जा रही है...?’ ‘देखो दीदी! अच्छी तरहसे तैयार होने पर स्वयं को भी अच्छा लगता है और दूसरों को भी... तो फिर इसमें बुराई क्या है..? अब मैं जैसी डिज़ाइन पसंद करूं, आप मना मत करना...।’ पम्मी ने आधनिक डिज़ाइनों में कपड़े सिलवाने के लिए दे दिए थे। ‘भैया! दो दिन में दे देना, दीदी को बाहर जाना है...!’ दो-तीन बार याद भी दिला दिया था टेलर को। खाना फिर बाहर ही खाकर घर लौटे तो सुनीता को थकान लगने लगी थी, पर पम्मी सूटकेस खोलकर उसका सामान जमाती रही। रात को उसने कह भी दिया था- ‘दीदी! आपकी सारी तैयारी कर दी है। अब टिकिट, वीज़ा वग़रैह का इंतज़ाम तो आपके आॅफिस की तरफ़ से हो ही रहा है। आपको तो ख़ुश होकर इस यात्रा का आनन्द लेना है, मेरा बस चलता तो मैं भी आपके साथ चलती, पर क्या करूं...? रात की गाड़ी से लौटना जो है...।’ पम्मी का स्वर सुनकर सुनीता भी भावुक हो गई थी। ‘तू क्या पिछले जन्म में मां थी मेरी...? संभाल तो ऐसे रही है...’ और पम्मी सचमुच सुनीता के गले लग गई थी। ‘पता नहीं दीदी! पिछले जन्म में मैं क्या थी आपकी...? पर इस जन्म में मैं आपको बहुत ख़ुश देखना चाहती हूं। मैं जानती हूं कि आपने बहुत दुख उठाए हैं और हमेशा दूसरों के बारे में ही सोचा है, अब कुछ तो ख़ुशी के क्षण आपकी भी ज़िंदगी में आएं... आप भी तो हक़दार हैं अपनी ख़ुशी की... और कभी वे क्षण आएं तो आप इंकार मत करना...!’ कहते-कहते पम्मी और भावुक हो उठी थी। ‘अच्छा अब तू इत्मीनान रख, मैं ख़ुश होकर इस यात्रा का आनंद लूंगी और कुछ नहीं सोचूंगी, बस....!’ कहते-कहते सुनीता का भी गला भर आया था, कोई तो है उसकी ज़िंदगी में, जो उसके बारे में इतना सोचता भी है। पम्मी के जाने के बाद दो-चार दिन तो सफ़र की तैयारी की अफ़रातफ़री में ही बीत गए थे। जब सारी औपचारिकताएं पूरी करके दिल्ली से हवाई जहाज में बैठी तो इत्मीनान की सांस ली उसने... ‘...तो आख़िर पम्मी ने भेज ही दिया मुझे...’ सोचकर एक हल्की मुस्कान सुनीता के चेहरे पर फैल गई थी। ऐसे टूर के मौके तो पहले भी कई बार आए थे उसकी ज़िंदगी में, पर वही टालती रही थी, क्या करे? मन ही नहीं होता था इतने लंबे अकेले सफ़र का... छुट्टी मिलती तो बस भाई-बहनों के पास आना-जाना हो जाता... वही काफ़ी था। पम्मी तो अभी भी मना ही कर रही थी कि जब दीदी और भैया लोग पसंद ही नहीं करते कि आप कहीं जाओ तो आप उन्हें बताना भी नहीं। ‘अरे बताऊंगी कैसे नहीं? इतना लंबा प्रोग्राम है...!’ कहकर उसने दीदी को फोन किया था। ‘अच्छा तो तू जा रही है लंदन... चलो अपना-अपना सुख है... हमें तो यहीं झांसी में ही मरना है, जीना है...।’ दीदी कुछ और कहतीं तब तक उनकी बेटी शुभ्रा ने फोन झटक लिया था। ‘मौसी! यूरोप जा रही हो तो मेरे लिए अच्छे काॅस्मेटिक्स और जीन्स ज़रूर लाना... नाप तो पता है न आपको मेरा...?’ फिर दीदी की आवाज़ आई थी। ‘देख सुनीता! अकेली शुभ्रा के लिए नहीं, तुझे कुछ न कुछ तो सभी के लिए लाना है, वैसे बीनू तुम्हें मेल कर देगा चीज़ों के बारे में...’ ...फिर फ़र्माइशों की लंबी लिस्ट...। फोन तो पम्मी भी सुन रही थी। ‘देखा दीदी! सब अपनी-अपनी कहे जा रहे हैं, कोई यह नहीं कह रहा है कि इतने लंबे समय बाद आप बाहर कहीं जा रही हैं, तो ख़ूब एंजाॅए करना, आराम से घूमना, ख़र्च करना, खाना-पीना और जो जंचे सो करना...!’ सुनीता तब फीकी-सी हंसी हंसकर रह गई थी। पम्मी भी तो अब उसके परिवार के लोगों की मानसिकता से परिचित हो गई है, इसलिए सब कुछ कह देती है। कई बार तो यह भी कह चुकी है कि अच्छा हुआ आपने ये फ़्लैट ख़रीद लिया, रिटायरमेंट के बाद कोई ठिया तो होगा रहने के लिए, यहां भाई-बहनों से अपेक्षा रखो तो बुढ़ापे में ठोकर ही खानी पड़ती है, आपको तो पेंशन भी अच्छी ख़ासी मिल जाएगी, तो आराम से रहना, यह नहीं कि सब लुटाती रहो...। पम्मी की बातें कभी-कभी चुभ तो जाती हैं, पर बोलती तो खरी-खरी बातें ही है, ऐसे कई उदाहरण तो सुनीता भी देख चुकी है, कब तक आंखें मूंदे रहे सबसे...? प्लेन में बैठे-बैठे ही मन अतीत में डूबने लगा था। पूरे चंवालीस वर्ष हो गए उम्र के, क्या खोया... क्या पाया...? कभी विश्लेषण करती है तो लगता है कि खोया ही खोया है उसने। पढ़ाई में मेधावी रही तो कम उम्र में ही बैंक में नौकरी लग गई। फिर अकस्मात पिता का देहान्त हो गया तो भाई-बहनों का दायित्व आ पड़ा उसी के कमज़ोर कंधों पर। दीदी की शादी, भैया की पढ़ाई, छोटी बहनों के ख़र्चे... सबको वहन करते-करते अपनी शादी का ख़याल तो बस एक बार ही आया था... जब प्रखर को देखा था... प्रखर आर्मी में मेजर था। वहीं झांसी में टेªेनिंग के लिए आया था। तब उसकी एक सहेली ने ही परिचय करवाया था। प्रखर का शानदार व्यक्तित्व, मिलनसारिता, हंसमुख स्वभाव, उसने तो बातों ही बातों में प्रपोज़ भी कर दिया था, पर घरवालों का विरोध... वह नौकरी छोड़कर प्रखर के साथ चली गई तो भाई-बहनों का दायित्व कौन वहन करेगा? प्रखर तो इस दो टूक इंकार से इतना नाराज़ हुआ कि अपनी टेªनिंग भी बीच में ही छोड़कर चला गया था। वह भी तो कई दिनों तक भूल नहीं पाई थी उसे... और कई दिनों तक ही क्यों... प्रखर का व्यक्तित्व तो आज भी ताज़ा है उसकी आंखों में... बाद में भी कई बार रिश्तों की बात चली पर कभी किसी कारण तो कभी किसी कारणवश वह अस्वीकार ही होती रही। रिश्ते की पूर्वा दीदी ने तो एक बार अपनी तरफ़ से रिश्ता तय ही कर दिया था। ‘सुनीता! दीपक भी बैंक में ही आॅफ़ीसर है, पारिवारिक कारणों से अब तक विवाह नहीं किया है, तो मैंने तेरी बात चलाई है, शाम को खाने पर बुला लिया है उसे... तो तू भी ठीक तरह से तैयार होकर आ जाना... और अच्छी तरह ख़ुशी की बातें करना, पुरानी किसी बात का ज़िक्र मत करना समझी...!’ और सुनीता को समझते देर नहीं लगी थी कि पूर्वा का इशारा प्रखर की तरफ़ ही था। वैसे वह ठीक समय पर पहुंच गई थी। खाने-पीने तक माहौल सामान्य रहा। दीपक भी देखने में ठीक-ठाक ही था, फिर पूर्वा ने ही प्रस्ताव रखा... ‘दीपक! अब तुम सुनीता को लेकर कहीं घूम आओ...!’ ‘ठीक है...!’ दीपक के साथ बग़ल में कार में बैठते समय वह कुछ असहज हो गई थी... पुराने रिश्ते याद आए... कई बार अस्वीकार होने का बोध हुआ... दीपक ने धीरे से उसका हाथ सहलाया था, पर वह तो पसीने में नहा उठी थी। ‘क्या बात है...? तबीयत ठीक नहीं है क्या...?’ ‘हां शायद ऐसा ही कुछ...’ वह स्वयं समझ नहीं पाई थी कि हुआ क्या है? दीपक ने तो कह भी दिया था- ‘और लड़कियां तो शादी के नाम से लालायित रहती हैं, पर आप तो इतनी ठंडी... कोल्ड...?’ शब्द कहीं कुछ भीतर तक चुभते चले गए थे और वह ज़िद करके बीच रास्ते में ही उतर गई थी। पूर्वा तो इसी बात से अब तक नाराज़ है। पर वह निश्चय कर चुकी है कि अब कभी विवाह के बारे में सोचेगी भी नहीं। उस तरह की कोई भावनाएं अब मन में उठती ही नहीं हैं। ‘मैडम! आप शायद सो गई थीं, आपका नाश्ता...।’ एअर हाॅस्टेस पूछ रही थी। तब ख़याल आया कि शायद उनींदेपन में भी मन विचार-तंद्रा में ही डूबा रहा। थोड़ा ज्यूस और सैण्डविच लेकर वह कुछ सहज होकर बैठ गई थी। साथ लाई पुस्तक के पन्ने पलटने चाहे, पर मन तो फिर से उड़ानें भरने लगा था। अब पम्मी को कैसे बताए अपने मन की स्थिति? वह तो जब चाहे कह ही देती है- ‘दीदी! अभी आपकी ऐसी उम्र भी नहीं हुई है कि शादी के बारे में सोचें ही नहीं। कोई मन लायक़ साथी मिले तो ज़रूर विचार करना, बड़ी उम्र में भी एक अच्छे कम्पेनियन की तो ज़रूरत होती ही है।’ ‘पम्मी! अब मैं एक तरह से वैरागिनी हो गई हूं...।’ उस दिन पता नहीं कैसे सुनीता के मुंह से निकल ही गया था। ‘कोई वैरागिनी नहीं हुई हैं... मैंने देखी है आपकी एक डायरी... कितनी प्रेम-कविताएं लिखी हैं आपने...?’ ‘अरे वह पुरानी डायरी...!’ चैंक पड़ी थी सुनीता...। और जाते समय भी तो पम्मी कान में कह गई थी... ‘दीदी! आपकी वह डायरी भी मैंने अपने बैग में डाल दी है, फ़ुर्सत में वही पढ़ना तो अच्छा लगेगा... व्यर्थ के विचारों से बचेंगी...।’ ‘पम्मी...!’ याद आते ही फिर एक क्षीण मुस्कान दौड़ गई थी चेहरे पर, अभी पूरी तरह परिपक्व नहीं है ये लड़की, पर ध्यान तो ऐसा रखती है कि पूरे परिवार को पीछे छोड़ दिया है उसने... हीथ्रो एअरपोर्ट की चकाचैंध मन को लुभा गई थी... कस्टम से बाहर आते ही चमकती दूकानें... लोगों की भीड़-भाड़... लंबा-चैड़ा एअरपोर्ट... फिर बाहर आॅफ़िस की ही टैक्सी लेने आ गई थी। विदेश की धरती पर पहला क़दम, सब कुछ बदला-बदला... साफ़-सुथरा... और मन को मोह लेने वाला था। फिर होटल में रिसेप्शन से चाबी लेते समय ही पता चला कि उसका कमरा नंबर 302 है और 303 में भी एक भारतीय ही है, मिस्टर नारायण... जो बैंगलोर से आए हैं। ‘हलो...!’ नारायण ने हाथ आगे बढ़ाया था। एक बार तो चैंक ही गई थी सुनीता... लगा जैसे प्रखर ही सामने आ गया हो... वही डील-डौल... वही क़द... कानों के पास के बालों में ज़रूर हल्की सफ़ेदी झांक रही थी... पर प्रखर भी इस उम्र में... ‘हलो!’ नारायण दोबारा उसे देखकर मुस्कुराया था। ‘हलो...!’ अब वह कुछ झेंप गई थी। ‘चलिए, हमारे कमरेे पास-पास ही हैं...!’ कहकर नारायण ने उसका बैग उठा लिया था। नारायण उसे पहली मुलाक़ात में ही काफ़ी मिलनसार और मज़ाक़िया स्वभाव का लगा था। बातों में लगा ही नहीं कि अब वह एक अनजानी विदेशी भूमि पर हैं। कमरे में सामान रखकर दोनों काॅफ़ी पीने नीचे लाउंज में आ गए थे और तब तक नारायण ने उसे होटल की सारी व्यवस्थाओं से भी परिचित करवा दिया था। ‘चलिए, अब आप कमरे में जाकर आराम कीजिए, मैं थोड़ी देर अपने लैपटाॅप पर काम करूंगा, शाम को खाने पर मिलते हैं।’ नारायण ने बड़े अपनेपन से कहा था। सुनीता स्वयं सोच रही थी कि प्लेन में तो ठीक से सो नहीं पाई, अब नहा-धोकर एक अच्छी नींद लेगी, ताकि शाम तक कुछ ताज़गी महसूस हो। शाम को खाने के समय और भी सहयोगियों से परिचय हुआ, नारायण ने सबसे मिलवा दिया था। ‘आप दोनों शायद पुराने परिचित हैं?’ एक विदेशी ने तो सुनीता से पूछ ही लिया था। और तब नारायण उसे देखकर मुस्कुरा दिया था। कुल मिलाकर सारा माहौल अच्छा और सौहार्दपूर्ण लगा था सुनीता को... कहीं कुछ पूछना होता तो नारायण बड़े अपनेपन से मदद कर देता था। एक हफ़्ते तो कान्फ्ऱेन्स चली, फिर एक हफ़्ते का यूरोप घूमने का प्रोग्राम वहीं से बन गया था। नए शहर, एतिहासिक इमारतें, ख़ूबसूरत वादियां, झीलें, फूलों के लुभावने लहलहाते बाग़ीचे, सभी कुछ भव्य था... और नारायण के सान्निध्य ने दोनों को काफ़ी पास ला दिया था। इतने दिन कब निकल गए... सुनीता तो सोच ही नहीं पाई थी, एक बार भी अपने घर, पुराने परिचितों की याद नहीं आई। लौटते समय फिर लंदन से ही वापिसी की उड़ान थी। उसी होटल में फिर एक रात रुकना था। दूसरे दिन लौटना है, लग रहा था कि जैसे वह और नारायण दोनों ही कुछ मिस कर रहे हैं... नारायण अपने स्वभाव के विपरीत आज बहुत गंभीर और चुप-सा था। ‘आपका सान्निध्य बहुत अच्छा लगा...’ सुनीता ने अपनी तरफ़ से धन्यवाद देने का प्रयास किया था... नारायण फिर भी चुप था, आंखों में उदासी की झलक थी। ‘चलो, कमरे में चलकर काॅफ़ी पीते हैं, मैं बहुत अच्छी काॅफ़ी बनाती हूं...’ सुनीता ने फिर कुछ सहज होने का प्रयास किया था और नारायण के साथ अंदर कमरे में आ गई। काॅफ़ी पीते समय भी दोनों चुप थे... शायद बहुत कुछ अनुभव करते हुए भी कुछ कह नहीं पा रहे थे। फिर कब क्या हुआ... कब नारायण उठकर उसके पास सोफ़े पर इतने क़रीब आ गया... कब वह उसके कंधे पर सिर रखे सिसक पड़ी... कब उसने उसे बाहों में ले लिया... कब... कब...??? देर रात नारायण के धीमे शब्द सुनीता के कानों में गूंजे थे- ‘तुम्हें भूल नहीं पाऊंगा सुनीता... हो सके तो मुझे माफ़ कर देना... मैं... मैं... अपने आपको रोक नहीं पाया...’ ‘नहीं...’ सुनीता ने धीरे से उसके होठों को छुआ था... ‘माफ़ी क्यों... और किससे...? बहुत अच्छी यादें लेकर जा रहे हैं हम दोनों... थैंक्स ए लाॅट...!’ फिर लगा कि शायद शब्दों से वह सब कुछ बयान नहीं कर पा रही है, जो महसूस कर रही है... आख़िर आज नारायण ने उसे एक स्वनिर्मित कारावास से मुक्त जो कर दिया था। 00000000000

क्षमा चतुर्वेदी

 
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बनते बिगड़ते समीकरण

बनते बिगड़ते समीकरण नई काॅलोनी के इस मकान में जैसे ही शिफ्ट हुई, एक साथ कई परेशानियों का सामना करना पड़ा था। एक तो काॅलोनी पूरी तरह बसी नहीं थी, गिनती के ही घर थे। फिर नई-नई बिजली-पानी की फिटिंग, तो आए दिन कोई न कोई समस्या आ खड़ी होती। पहले तो हुआ यह कि नल में पानी आ ही नहीं रहा था, फिर जैसे-तैसे शहर से प्लम्बर को बुलाकर नल ठीक करवाया तो रात को पानी लीक होने लगा। अब इस समय इस समस्या का क्या समाधान हो? उधर बच्चे अलग अपनी कहे जा रहे थे। ‘ममा! पहले ही कहा था कि शहर से इतनी दूर घर मत लो, इससे तो हमारा किराए का घर ही ठीक था। शहर के बीचोंबीच था तो चाहे जब किसी को भी बुला लेते।’ बड़ी बेटी टीना का कहना जारी ही था कि छोटी गुड़िया ने भी हां में हां मिलाई। ‘और फिर वहां बाजार भी कितना पास था। चाहे जब आइसक्रीम, पिज्जा, जो चाहे मंगवा लो, मम्मी को भी परेशानी नहीं थी।’ ‘अरे अब खाने-पीने की बातें छोड़ो और इस पानी की समस्या का समाधान ढूंढो...’ पति महोदय ने अपनी झुंझलाहट उतारी थी। पानी की लगातार टप-टप से अब मेरा भी सिर दर्द करने लगा था। उठ कर पड़ौस वाले शर्माजी को फोन किया तो उन्होंने बताया कि सामने वाली बंगाली बस्ती में जो कच्ची टापरियां बनी हुई हैं, उन में ही एक आदमी है, जो थोड़ा-बहुत बिजली, पानी की लाइन का काम जानता है, नन्दू नाम है उसका, अगर यहां हो तो उसे बुलवा लें। ‘अच्छा!...’ फोन सुनते ही पति महोदय चप्पल पैरों में डालकर पैदल ही उसे बुलाने चल दिए थे। और फिर भाग्य से नंदू मिल भी गया, उसने आकर नल के सारे पाइप चैक किए और कुछ इंतजाम करके लीक होने वाली लाइन को ठीक किया। हमने भी राहत की सांस ली। और यह था नंदू से हमारा पहला परिचय। फिर तो आए दिन नंदू से काम पड़ने लगा था। कभी कमरे की बिजली का फ्यूज उड़ जाता, तो कभी टी.वी. का तार हिल गया है, तो कभी गैस लीक हो रही है। मतलब यह था कि करीब रोज ही नंदू को बुलाना पड़ रहा था। मुझे भी यह लड़का थोड़ा सीधा-सादा लगा था, जो भी काम बताओ सहर्घ कर देता, फिर अपने मुंह से कुछ नहीं मांगता, हम जो भी देते स्वीकार कर लेता। यह बात जरूर थी कि जितनी देर वह काम करता मैं बीच-बीच में उसे चाय, नाश्ता जरूर दे देती। फिर जाते समय जरूर पूछता- ‘और कोई काम तो नहीं है मम्मी जी...?’ मैं अब इस नइ समस्या से जूझ रही थी। यहां शहर से इतनी दूर कोई नौकरानी आने को तैयार नहीं थी तो घर का काम बहुत बढ़ गया था। वैसे ही नया घर, सफाई करो, सामान जमाओ, फिर बर्तन साफ करना, खाना बनाना, काम थे कि खत्म ही नहीं होते और रात होते-होते मैं बुरी तरह निढ़ाल हो जाती। ‘नंदू तुम्हारी निगाह में कोई नौकरानी हो तो बताना।’ उस दिन मैं ने नंदू से ही पूछ लिया था। ‘नौकरानी... घर के काम के लिए?’ वह चैंका था। कुछ देर चुप ही रहा, फिर धीरे से झिझकता हुआ बोला था- ‘मेरी घरवाली है, अभी कुछ महीनों पहले ही शादी हुई है। पर वह काम करेगी या नहीं, कह नहीं सकता।’ ‘नंदू, उस से पूछ लेना, जितना काम करना चाहे कर ले, कुछ तो सहारा होगा, और फिर तुम्हारा घर भी तो सड़क के पार ही है।’ मेरे मन में आशा की किरण जगी थी। नंदू उसी शाम को अपनी पत्नी को ले आया था। अल्हड़ किशोरी-सी लगी थी मुझे वह। नंदू की तुलना में रंग कुछ निखरा हुआ लगा। नाक नक्श भी तीखे थे। ‘क्या नाम है?’ ‘परबो...’ ‘प्रभा...?’ मैं समझी नहीं थी और वह खिलखिला कर हंसी तो उसके सफेद मोती-से दांत चमक उठे थे। ‘परभा नहीं परबो...’ अब तो मेरी दोनों बेटियां भी मेरे पास आकर खड़ी हो गईं। ‘मां! नाम से क्या फर्क पड़ता है, आप उसे प्रभा कहो या परबो...’ टीना ने अपनी समझदारी दिखाई थी। ‘पूरबा नाम है इस का’ अब नंदू ने खुलासा किया था। और मैं समझ गई थी कि बंगला में ओ शब्द का अधिक उच्चारण होता है, इसीलिए यह अपना नाम परबो कहे जा रही है। ‘ठीक है, हम तुम्हें ‘पूरबा’ कह कर ही बुलाएंगे, अब बताओ कि क्या काम कर सकती हो?’ उसने सफाई और बर्तन मांजने का काम स्वीकार कर लिया था। चलो इतना ही कर लेगी तो बहुत है। इस प्रकार पूरबा भी घर के एक सदस्य की भांति हो गई थी। कुछ ही दिनों में मैं भांप गई कि उसमें सीखने की प्रवृत्ति है, जो भी काम बताओ करने के लिए तैयार हो जाती है, यहां तक कि रसोई के छोटे-मोटे कामों में भी मेरा हाथ बटाने लगी थी। सब से अधिक तो मेरी दोनों बेटियां प्रसन्न थीं, उन्हें एक जैसे सहेली मिल गई थी। खाली समय में वह उन के पास बैठ कर टी.वी. देखती, गाने सुनती या उन के साथ ही डांस के बोल पर थिरकने भी लगती। धीरे-धीरे मैं देख रही थी कि घर के सामानों में भी उस की रुचि बढ़ने लगी है। ‘ममी जी! यह टी.वी. कितने का आता है? वैसे हमारी कोठरी तो बहुत छोटी है, टी.वी. ले भी आए तो रखेंग कहां...?’ ‘मम्मी जी! मुझे लकड़ी के चूल्हे में बहुत धुंआ लगता है, आप मुझे भी गैस का चूल्हा दिला दो न...’ पतिदेव ने तो उस दिन हंस कर कह ही दिया था- ‘इसे भी अब शहर की हवा लग गई है, अब नंदू की खैर नहीं।’ वैसे वह परेशान तो थी ही नंदू से, क्योंकि उसकी कोई नियमित आमदनी नहीं थी। कभी काम किया तो पैसे मिल गए, और कभी-कभी तो आलस्यवश वह कई दिनों तक घर पर ही पड़ा रहता। ‘मम्मी जी! मेरा आदमी जब कोई ढंग का काम करेगा, तभी तो घर बनेगा, अभी तो बस एक कच्ची टापरी है सिर छिपाने को।’ वह उदासी भरे स्वर में कहती रहती। कह-सुन कर एक बिजली की दूकान पर काम दिलवाया नंदू को, पर शायद टिक कर कहीं काम करना उसकी नियति में था ही नहीं। इधर काॅलोनी में दो-चार और मकानों में परिवार आ गए थे, तो उन्हें भी नौकरानी की आवश्यकता थी। मैं ने ही फिर पूरबा को समझाया- ‘न हो तो तू ही और दो-चार घरों का काम ले ले, तू तो अब होशियार हो गई है, और ये लोग मुंह मांगी तनख्वाह भी दे देंगे।’ इस प्रकार वह और भी तीन घरों में काम करने लगी थी। पर अब मैं नंदू के व्यवहार में एक नई बात देख रही थी। कई बार तो वह जब तक काम करती नंदू बाहर खड़ा उस का इंतजार करता रहता। ‘नंदू! क्या बात है? कोई काम है क्या पूरबा से?’ मैं ने दो-एक बार पूछा भी, पर वह टाल जाता। फिर एक दिन उसकी अनुपस्थिति में ही झिझकते हुए बोला था- ‘मम्मी जी! वो जो मेरी टापरी के पास बड़ा-सा मकान बन रहा है न शंकर ठेकेदार का, उसकी बुरी निगाह है इस पर... इसीलिए..., पर इसे तो समझ है नहीं, उससे ही बोलती-बतियाती रहती है।’ ‘अच्छा...!’ यह तो हमारे पड़ौसियों ने भी कहा था कि इस कच्ची बस्ती में अब एक पहला अच्छा पक्का मकान बन रहा है, देखते ही देखते नीचे के दो कमरे बन गए थे, अब ऊपर की मंजिल पर काम चल रहा था। नीचे के कमरे में टी.वी. भी लगवा लिया था शंकर ने, उस की बीवी से भी पूरबा की दोस्ती हो गई थी और अक्सर वह उस के पास बैठी रहती टी.वी. देखती रहती। इसी बात को लेकर, नंदू से उसका झगड़ा होता। एक-दो बार तो मार-पीट तक हो गई। एक दिन तो शाम को बुरी तरह से रोती हुई वह मेरे पास आई थी। पीठ पर नील पड़ रहे थे, गाल सूज रहे थे, रोते-रोते वह बोल भी नहीं पा रही थी। पीछे-पीछे फिर नंदू भी आ गया था। ‘मम्मी जी! इसे समझाओ, दिन भर उस मुच्छड़ शंकर के पास बैठ कर टी.वी. देखती है और वह इसे छेड़ता रहता है और यह खी-खी कर के हंसती है... अब घर से निकलना बंद कर दूंगा इसका... घर बैठ कर चूल्हा फूंक... रोटियां सेक... समझी...’ ‘और तू... तू जो दिन भर बैठा-बैठा दारू पीता है...’ पूरबा भी चिल्लाई थी। किसी तरह दोनों को शांत करके घर में भेजा था मैंने... मेरी बेटियां भी हैरान थीं। ‘ममा! ये दोनों तो अब तक तोता-मैना की तरह रहते थे, अब क्या हो गया है?’ मैं स्वयं आशंकित थी, दूसरे दिन अकेले में मैं ने पूरबा को समझाया भी था- ‘देख, अगर तू इसी प्रकार शंकर के घर जा-जा कर बैठती रही तो नंदू तो और दारू पीकर तुझ से मार-पीट करेगा, काम-धाम करेगा नहीं, तो क्यों तू दूसरे के घर जा-जाकर अपने घर की शांति नष्ट करने पर तुली है, प्यार से रह...’ ‘क्यों न जाऊं... वो तो मुझे पक्का घर दे रहा है, सारे आराम देगा, मैं रानी बन कर रहूंगी... यहां नंदू ने मुझे दिया ही क्या है... सिवाय मार-पीट के...?’ ‘क्या... क्या कह रही है... तू शंकर के घर जाकर रहेगी, और उसकी जो बीवी...’ ‘कौन-सी बीवी... छोड़ दी है उसने वह...’ पूरबा जिस प्रकार दहाड़ रही थी, उस का यह रूप मैं आज पहली बार देख रही थी, क्या भौतिकता ने इसकी आंखों पर पूरी तरह पर्दा डाल दिया है, या नंदू ने कुछ बदसलूकी की है... मैं समझ नहीं पा रही थी। पर हुआ वही, जिस की आशंका थी। पूरबा नंदू का घर छोड़ कर शंकर के घर चली गई थी। ऊपर एक और कमरा उसके लिए बन गया था। अब घरों में चैका-बर्तन करने की भी उसे आवश्यकता नहीं थी। नंदू तो कुछ दिनों तक टापरी में ही बंद होकर रह गया था। फिर अचानक ही एक दिन पता चला कि वह सब कुछ छोड़ कर कहीं और चला गया है। सड़क के पार ही घर था शंकर का, एक बार उधर से निकलते समय मैं ने देखा कि ऊपर के कमरे की खिड़की से पूरबा अपनी पुरानी टापरी को टकटकी लगाए देख रही है। क्या देख रही है अब...? मेरा मन कड़वा हो गया था। सामने उसे देख कर भी बात करने का मन नहीं हुआ था। कुछ ही दिनों बाद एक शाम वह स्वयं ही आ गई थी। अब रंगत और निखर आई थी। शरीर पर मंहगी साड़ी थी, गले में सोने की चैन, कानों में टाॅप्स, पर फिर भी आंखों में उदासी झलक रही थी। ‘मम्मी जी! आप के पास नंदू का मोबाइल नम्बर था न...’ ‘मोबाइल नम्बर...?’ मैं चकित थी, आज उसे अपने पुराने पति के मोबाइल नम्बर की याद कैसे आ गई। ‘हां था तो... पर अब कहां याद रहता है, जरूरत ही नहीं पड़ी...’ मैं ने टालते हुए कह दिया था। ‘तू बता कैसी है?’ ‘ठीक हूं...’, उसकी उदास दृष्टि फिर भी कुछ और ही कह रही थी, और वह फिर रुकी भी नहीं थी। फिर इस बात को हुए भी महीने दो महीने बीत गए, मैं भी इस बीच बाहर चली गई थी। फिर लौटी तो एक बार शहर के दूसरे कोने में बनी काॅलोनी में किसी के यहां मिलने जाना पड़ा था। लौटते में हम लोग मोड़ पर आॅटो रिक्शें के इंतजार में खड़े थे, तभी मेरी बेटी चिल्लाई- ‘ममा, देखो पूरबा... नंदू के साथ साइकिल पर जा रही है...’, हां पूरबा ही तो थी, वही पुरानी पूरबा, वैसे ही कपड़े... पर यहां... पूरबा साइकिल से उतर गई थी, मेरी बेटियां उस से बात करने आगे बढ़ गई थीं... पर मैं अब तक ठगी-सी वहीं खड़ी रह गई थी और जुटी थी इस बनते बिगड़ते समीकरण को हल करने में। -ः-ः

शनिवार, 26 नवंबर 2011

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गजेन्द्र सिंह सोलंकी 89 वर्षीय सालंकीजी अस्वस्थ हैं,उनकी काव्य यात्रा स्वतंत्रता पं्राप्ति के साथ ही प्रारम्भ होगई थी। उनकी अपनी विशिष्ट विचारधारा रही, पर इस अंचल में वे साहित्य की सेवा में सृजनरत रहे। कुछ दिन पहले कवि शिवराज श्रीवास्तव के साथ उनसे मिलना हुआ। उन्होंने लेखक की कृति ळाड़ौती अंचल की काव्य परंपरा का अवलोकन किया। अपने लिए लिखा आलेख सुना। यहां वह आलेख दिया जारहा हेै। लगभग साठ वर्षों से भी कविता तथा साहित्यिक गतिविधियों में सक्रियता बनाए रखने वाले गजेन्द्र सिंह सोलंकी, बृज भाषा के भी सशक्त कवि हंै। आप की राजनैतिक पक्षधरता स्पष्ट है तथा आप की रचनाओं पर उस का सीधा हस्तक्षेप है। आप संास्ड्डतिक राष्ट्रवादी काव्य धारा के कवि हंै। आप का कवि कर्म आप के द्वारा सम्पादित, प्रकाशित ‘एकात्म’ साप्ताहिक की रीति-नीति का पक्षधर रहा है। आप अपने ‘पक्ष’ के सुविचारित कवि हंै। आप की कविताओं में रागात्मकता तथा वैचारिकता दोनों का अन्तर्सम्बन्ध है। आप परम्परागत शिल्प का मोह भी नहीं छोड़ पाते हंै तथा परम्परागत ‘अन्तर्वस्तु’ के प्रतिपादन के प्रति भी स्पष्ट हंै। यही उन की विशेषता है तथा कमज़ोरी भी। ‘गागर’ ;1969 ई.द्ध, आप की पहली ड्डति थी, जो परम्परागत ‘दोहा’ छन्द मंे प्रकाशित हुई थी। यह आप की राष्ट्रवादी कविताओं का संग्रह है। खड़ी बोली, ब्रज तथा हाड़ौती तीनों ही भाषाओं के शब्द भण्डार से कवि ने नए-नए प्रयोग किए हैं। विषय वैविध्य है, परन्तु काव्य रूप परम्परागत ‘दोहा’ है। परम्परागत पाठकों में यह संग्रह लोकप्रिय भी हुआ है:- ”भव्य भवन के भाल पै,भासित भअहुं न चाह नींव धरूँ जा देह की,जा सम जस कुछ नाह।“62 ;आका}ाद्ध उपरोक्त छन्द में ‘गागर’ की अन्तर्वस्तु तथा काव्य रूप की पहचान सहज ही परिलक्षित है। महा कवि हरनाथ की काव्य परम्परा में आप हैं। ‘अमर सेनानी ताँत्या टोपे’ ;प्रबन्ध काव्यद्ध 1987 ई. मंे प्रकाश मंे आया था। राष्ट्रीयता का स्पन्दन ही आप की काव्य धारा का प्रमुख स्वर है। यह एक लम्बी उदात्त कविता है। इस के कला शिल्प में एकोन्मुखता है। चरित नायक की अस्मिता की खोज ही यहाँ प्रतिपाद्य है। कवि ने तथ्यों को अपनी जीवनानुभूतियों से एक नई गरिमा दी है। ‘ताँत्या’ मात्र एक सेनानी ही नहीं है, वह ‘आम जन’ की लड़ाई लड़ रहा है, आम आदमी है, उस का साहस, उस का शौर्य, उस की पराजय और उस की सहन करने की क्षमता, कवि की जीवनानुभूति का स्पर्श पा कर सहज सम्वेदनात्मक रूप से पाठक तक पहुँचने में समर्थ है। कवि ने ताँत्या टोपे के माध्यम से, वर्तमान की नैराश्य भरी परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए ‘राष्ट्रीयता’ के आधार पर समस्याओं के सन्धान का पथ तलाश किया है। वर्तमान में व्याप्त कटुता, निराशा और दैन्य से उत्पन्ना जो तमस है, कवि का सृजनशील मन उस के प्रति सजग है। वह प्रश्नों के उत्तर अतीत में तलाशता है और फिर अतीत की मनोहारी कल्पनाओं में आप का कवि मन डूबता है, फिर भी समाधान न पा कर वर्तमान को झकझोरता है। एकान्विति ही इस का आधार है। वृत्तों का यह परस्पर संगुफन तथा समग्रता में एक बिन्दु पर आ कर उन का बिखराव, आप के काव्य-शिल्प की पहचान है:- ”त्याग और बलिदान आज कुंठित हो रहे स्मरण मात्र से रोमांचित हो जाता है कण-कण अर्थ बदल डाले सारे जीवन-मूल्यों के बिकाऊ लोग पाएंगे, तेरी रज का कण?“63 ;समर्पणद्ध यह बिन्दु उत्सर्ग भावना है। राष्ट्र ही सर्वोपरि है। यही एक मात्र मूल्य है। कवि मन वर्तमान की परिस्थितियों से आहत है, वह ताँत्या टोपे के माध्यम से जीवन की उदात्तता का स्पर्श करना चाहता है। कवि मन जीवन और जगत की परिस्थितियों से अपनी कर्मठता के साथ सÐर्ष चाहता है। आप की राजनैतिक पक्षधरता कहीं-कहीं ‘अन्तर्वस्तु’ का अतिक्रमण भी कर जाती है। प्रतिब( रचनाकर्मी की विवशता यहाँ स्वाभाविक हैै। कविता अतिरष्क होने से बचती हैै, कवि ने यहाँ शिल्प में परम्परागत ढाँचे का अतिक्रमण किया है, अन्तर्वस्तु की बनावट और बुनावट के अनुरूप भाषा ने काव्य रूप तलाश किया है:- ”बाह्य जगत हेय बता कि होता भी और क्या एक अजब सी आस्था नहीं तथ्यों से वास्ता विश्व बंधुत्व भावना कि जग हित की कामना क्लीवता में ढल गई कि पोर-पोर धुल गई।“64 पृ. 127.‘ताँत्या टोपे’ मात्र एक प्रतीक है, उस साधारण भारतीय जन का, जिस के भीतर विराट असाधारणता है। जहाँ कहीं चुनौती आती है, वह उस के प्राणों की अकुलाहट को मूर्तता देती हुई तेजस्विता बन जाती है और व्यक्तित्व की तेजस्विता तथा समाज की वह दुर्बलता, जो इस अग्नि को अग्नि कुण्ड में धधकने से रोक देती है। यह विरोधाभास, जो इस देश की सब से बड़ी नियति है, समग्रता के साथ इस ड्डति में चित्रित है। राष्ट्रीयता की खोज ही इस काव्य का मुख्य स्वर है। कवि मन अतीत में झाँकता हुआ, सभी मध्य युगीन प्रतिमानों को पड़ताल करता है। संस्ड्डति के सभी प्रतिमानों को वह परखता है। वह क्यों? यह क्यों? इतना ज्ञान, इतना कौशल, व्यक्ति रूप में इतनी तेजस्विता तथा समूह रूप में एक न होने की विवशता, यह सब क्यों? यही तलाश इस काव्य-कथा का केन्द्र-बिन्दु है। ‘रण रागिनी’ में गजेन्द्र सिंह सोलप्री की स्वतन्त्रता पूर्व की कविताऐं सप्रलित हैं। आप का यह काव्य-सप्रलन ‘रण-रागिनी’ अपने शीर्षक से ही कवि की दृष्टि और अभिरुचि का सप्रेत कर देता है। और अधिक स्पष्ट होते हुए उन्हों ने इसे राष्ट्रीय-चेतना का काव्य-सप्रलन घोषित भी कर दिया है। आप लगभग साठ वर्षों से निरन्तर सृजनशील हैं:- ”है नहीं वह रागिनी जो तप्त हृदय को गुदगुदा दे या हृदय ही है नहीं जो रागमय कुछ गीत गा दे।“65 ‘आज तुमको क्या सुना दूं’, पृ. 23. ‘छन्दसि-त्रिविधा’ ;2005 ई.द्ध, गजेन्द्र सिंह सोलप्री का चैथा काव्य सप्रलन, नाम के अनुरूप विधि छन्दमयी रचनाओं का स्वतन्त्र सप्रलन है। कवित्त, मनहरण, धनाक्षरी, सवैया, कुण्डलिया आदि छन्दों का यहाँ निर्वाह हुआ है। राष्ट्रीय मनोभाव कवि सोलंकी की काव्य चेतना की प्रमुख विषय वस्तु है। ‘बृज माधुरी’ इस सप्रलन में पृथक खण्ड है, जहाँ ब्रज भाषा में शंृगारिक कविताओं का चयन है। ‘हूक’ ;2007 ई.द्ध आप की स्वतन्त्र कविताओं का एक संग्रह प्रकाशित हुआ है, जिन्हें आप 1947 ई. से निरन्तर लिखते आए हैं। यहाँ कवि का मन, जिन घटनाओं से निरन्तर, उद्वेलित होता आया है, उन का यहँं काव्य चेतना के परिप्रेक्ष्य में सुन्दर चित्रण मिलता हैः- ”ज्ञान गठरिया भारी भरकम लगता है दबे जा रहे तुम, स्वेद छलकता पीत वर्ण हो सूख रहा सांसों का सरगम जो लादे हो बोझा है, तुम जो साधे धोखा है अहम् तुम्हारा जान न सकता, पर ज्ञान बजे वह थोथा है ।“66 पृ. 58. यहाँ कवि के पास साठ साल से अधिक की काव्य-यात्रा से प्राप्त जीवनानुभव है। गजेन्द्र सिंह सोलंकी ‘राष्ट्रीय काव्य धारा’ के प्रतिनिधि कवि हैं, वे जीवन सÐर्ष से तपे-निखरे कवि हैं, जहाँ उन का कर्म व वचन दोनों ही एकमेक हैं। तभी कवि इतनी तटस्थता के साथ यह कहने का साहस भी रखता है:- ”लो विदा की घड़ी अब तो आने को है कर्म अस्बाब अपना खुद संभाले रखो, कि कब आ जाए बुलावा पता कुछ नहीं वक्त अपना न पलभर को जाया करो।“67 पृ. 54. गजेन्द्र सिंह सोलंकी की कविता का स्वर गत साठ वर्षों से निरन्तर एक ही भाव भूमि पर केन्द्रित रहा है, राष्ट्र के प्रति उन की ममत्व मयी समर्पण भावना, उन की जीवन शैली का भी अविभाज्य अÂ है। सांस्ड्डतिक राष्ट्रवाद उन की काव्य धारा की सुस्पष्ट वैचारिक भूमि रही है। फिर भी वे अपनी राजनैतिक दृष्टि के स्पष्ट होने के बावजूद, एक नैतिक जीवन जीते हुए, सामान्य जन व देशज भूमिका रखते हुए कविता में उस के पक्षधर रहे हैं। वास्तव में वे लोक से जुड़े हुए ज़मीनी इन्सान हैं, उन की कविता और वे सचमुच एक रूप हैं।

रविवार, 20 नवंबर 2011

उपलि‍ब्‍ध क्षमा चतुर्वेदी की कहानी

उपलब्धि देर तक सुकांत के शब्द ठक-ठक करते हुए सत्या के कानों में गूंजते रहे थे। ‘कुछ नहीं तो कम से कम एक अच्छी सास ही बन जातीं, पर वह भी तो नहीं हुआ तुम से.......!’ वह सन्न रह गई थी। इतना ही तो कहा था धीरे से कि न हो तो नव्या को ही फोन कर दो, दो-चार दिन की छुट्टी ले कर आ जाएगी तो घर थोड़ा संभल जाएगा। सुकांत तब जला टोस्ट और कच्चा परांठा ठण्डी चाय के साथ खा रहे थे। वह भी क्या करे, पूरे सात दिन हो गए, बुखार तो अब उतर गया है, पर कमजोरी इतनी है कि खड़े होते ही चक्कर आने लगते हैं, जैसे अब गिरी कि तब गिरी... इसी लिए डाॅक्टर ने उसे पूरी तरह आराम करने की सलाह दी है। उस दिन भी तो जाते-जाते यही कह गए थे। ‘सत्या जी! अब आप पौष्टिक खाना थोड़ा-थोड़ा लेना शुरू करें और आराम करें, तथी आप की कमजोरी दूर होगी और सुकांत जी अब आप को इन का ध्यान रखना है ताकि फिर बीमार न पड़ें...।’ अब सुकांत ने जीवन भर तो घर का कोई काम किया नहीं है तो अब क्या करेंगे। घर की बिगड़ती दशा देख कर सत्या भी चिन्तित हो गई थी। हर चीज बिखरी-बिखरी-सी, कहीं कपड़े पड़े हैं, कहीं जूठे बर्तन... अब नौकरानी से तो खड़े हो कर काम कराओ तभी करती है। पांच-सात दिन में ही घर कबाड़खाना-सा दिखाई देने लगा था। इसी लिए तो उस ने कहा था कि नव्या को बुला लो, पर सुकांत तो एक दम बिगड़ गए थे। ‘नव्या... नव्या... तुम्ही लाई थीं उस गैर जाति की लड़की को बहू बना कर, अब भुगतो उसे... अरे जब तुम्हारे सगे बेटे, बेटी को तुम्हारी चिन्ता नहीं है तो उस नई नवेली बहू को क्या होगी? पता है निमिष को फोन किया था कि तुम्हारी मां बीमार है तो उस ने फौरन कह दिया- ‘पापा एक नौकरानी रख लो, हम लोग तो अभी आ नहीं सकते हैं, बैंक में आजकल बहुत व्यस्तता चल रही है, छुट्टी मिलना मुश्किल है...’ तो फिर नव्या भी तो उसी बैंक में है, उसे कहां छुट्टी मिलेगी... अब आराम से तुम भी ये जला टोस्ट खाओ और प्रभु के गुन गाओ...’ सुकांत ने जाते समय दरवाजा इतनी जोर से बन्द किया कि वह भी सहम गई थी। भूख तो आजकल वैसे ही लगती नहीं है, पर डाॅक्टर ने कहा है कि कुछ खाएंगी नहीं तो कमजोरी कैसे दूर होगी? इसी लिए मन मार कर पेट में कुछ डालना पड़ता है, पर अभी तो मुंह का स्वाद भी कड़वा हो रहा था, मन हुआ कि खट्टे नींबू की शिकंजी बना कर पी ले, पर उठते ही इतनी जोर का चक्कर आया कि कुर्सी का सहारा ले कर उसी पर निढाल हो गई थी। वैसे सुकांत के मुंह से अपने लिए ऐसे शब्द सुनना उस के लिए कोई नई बात नहीं थी, वह तो शादी हो कर आई है, तभी से यह सब सुनती आई है- ‘तुम से कुछ नहीं होता, तुम्हारी उम्र की और महिलाओं को देखो, कितने आत्मविश्वास से भरी रहती हैं। पर तुम... हर बार डरी, सहमी-सी... हर कोई तुम्हें दबा लेता है, पहले सास, जेठानी, देवरानी थीं तो अब तुम्हारे अपने ही बच्चे तुम पर रोब झाड़ने लगे हैं। कहीं तो अपना बड़प्पन बना कर रखो, न तो तुम ढंग की पत्नी बन पाईं, न मां और न अब सास...।’ और कोई समय होता तो वह हंस कर यह बात भी टाल जाती, पर अब कमजोरी की वजह से उसे अपनी लाचारी पर रोना आ रहा था। पति के शब्द हृदय को छलनी कर गए थे। शादी हो कर आई है तभी से यह सब सुनती आई है और तभी से क्यों बचपन से युवा होते हुए भी तो यही सब सुन कर बड़ी हुई है। बड़ी दोनों बहनें पढ़ने में तेज तर्रार थीं, पर वह उतनी कुशाग्र बु(ि की नहीं थी तो अक्सर झिड़कियां सुनने को मिलती- ‘अरे सत्या! तुम से यह भी नहीं होता...!’ यही सब सुनते हुए वह और दब्बू होती गई थी। कभी दूध गरम करती तो वह उफन जाता तो कभी गैस खुली रह जाती। गलतियों पर गलतियां वह करती जाती और बहनें मजाक उड़तीं... उस की कमजोरी का फायदा भी वे दोनों उठातीं। अक्सर रोब झाड़ कर उस से अपने काम कराती रहतीं- ‘अरे सत्या! खड़ी क्या है? जरा इस सूट पर प्रेस कर दे...!’ ‘जो अच्छी-सी चाय बना कर ला...!’ पता नहीं कैसे उस की आदत ही पड़ गई थी सब की झिड़कियां सुनती और काम करती रहती। फिर ससुराल आई तो यहां भी यही ढर्रा था, जेठानी, ननद, सब ने ताड़ लिया कि सत्या की कमजोरी क्या है? और तो और सुकांत भी उस से इसी बात पर नाराज रहते, पर वह कहां अपने आप को बदल पाई। न कभी अपने मन की कोई बात कह सकी। बस जब बेटे निमिष न जिद की कि वह अपने ही बैंक में काम करने वाली लड़की नव्या से शादी करना चाहता है तो सत्या ने धीरे से कहा था सुकांत से- ‘अगर बेटे की यही इच्छा है तो आप भी हां कर दो, आखिर रहना तो उसे ही है उस लड़की के साथ, हम ने जोर-जबरदस्ती कर के उस की शादी कहीं और कर दी तो पता नहीं वह उसे निभाएगा भी या नहीं...।’ ‘अच्छा तो मैं ने तुम्हें नहीं निभाया है क्या... और क्या निभा नहीं रहा हूं... यह कहो कि अब तुम्हारी भी जुबान चलने लगी है, यह तो हुआ नहीं कि बेटे को समझाओ, उल्टे उसी की वकालत करने चली आई... अरे जब अपनी जाति-बिरादरी की लड़कियां घर में निभ नहीं रही हैं तो यह गैर जाति की लड़की कहां निभेगी... सोचो जरा...।’ सत्या जब चुप रह गई थी, पर निमिष की जिद के आगे सुकांत को भी झुकना ही पड़ा था, पर आज भी वे इस के लिए सत्या को ही दोषी मानते हैं। अच्छी बेटी... अच्छी पत्नी... अच्छी मां... अच्छी सास... कुछ भी तो नहीं बन सकी वह... सब को बस शिकायतें ही शिकायतें रहीं उस से... शब्द ठक-ठक करते हुए फिर से कानों में बजने लगे थे। स्वास्थ्य ठीक था तो पूरा घर संभल लेती थी, पर अब क्या करे... कमरे से ही झांका रसोई में जूठे बर्तनों का अम्बार लगा हुआ था। फर्श पर शायद कोई मीठी चीज फैली हुई थी तो चींटियों की कतार चली आ रही थी। अब बाई को भी आराम हो गया है, ढंग से काम ही नहीं करती है। मन तो हुआ कि झाड़न उठा कर वही साफ कर दे, पर पता था कि अभी चक्कर खा कर यहीं गिर जाएगी। गिलास में पानी ले कर थोड़ा पिया फिर बिस्तर पर लेट गई थी, क्या करे? मन भी तो अच्छा नहीं है, इसी लिए कुछ खाने का भी मन नहीं होता है। खाली पेट दवा भी नहीं ले सकती है। कमजोरी के कारण ही आंखें मुंदने लगी थीं। शायद सुकांत ठीक कहते हैं, वह कोई भी रोल ढंग से नहीं निभा पाई। अरे जब बेटे को चिन्ता नहीं है मां की तो बहू को क्या होगी? नव्या को अभी वह जानती ही कितना है, शादी हो कर आई तो बेटे-बहू घूमने चले गए। फिर नौकरी दूसरे शहर में हो तो वहां जाना ही था। शायद देर तक सोती रही थी वह। तभी दरवाजा खुलने की आहट से नींद टूटी थी। तो क्या दरवाजा उस ने बन्द नहीं किया था। चैंक कर उठ बैठी... कौन... कौन है... कोई आवाज नहीं थी, उठ कर धीरे से बाहर झांका, कोई भी तो नहीं था, शायद बाई आ गई है, रसोई से खटर-पटर की आवाजें आ रही थीं, धीरे से आवाज भी दी... ‘बाई... आ गईं क्या...?’ ‘हां आ गई...।’ देखा तो चैंक ही गई थी... नव्या खड़ी हंस रही थी... हाथ की टेª में दूध, फल सब लिए हुए... ‘कब आई...?’ ‘अभी... आप गहरी नींद में थी तो सोचा कि आप को डिस्टर्ब न करूं....’ कहते हुए उस ने सामने के स्टूल पर सारा सामान जमाया, फिर पैर छूने के लिए नीचे झुकी... ‘पर तुझे छुट्टी...?’ ‘अरे मां! जब आप इतनी बीमार और कमजोर हो कर बिस्तर पर लेटी हो तो छुट्टी मिले न मिले, मैं तो चली आई, अब आप को भला चंगा कर के ही जाऊंगी... देखो न आप ने अपनी यह क्या हालत कर ली है, अब थोड़ा-बहुत खाना शुरू करो तभी कमजोरी दूर होगी।’ कहते हुए नव्या ने सेव की फांक आगे बढ़ाई थी। और सत्या के कानों में फिर कुछ शब्द गूंजे थे, लेकिन अब उसे लग रहा था कि चाहे और कोई उपलब्धि नहीं रही हो उस की, पर एक अच्दी बहू तो उस ने पा ही ली है। क्षमा चतुर्वेदी -ः-ः-ः-

गुरुवार, 17 नवंबर 2011

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