रविवार, 27 नवंबर 2011
बनते बिगड़ते समीकरण
बनते बिगड़ते समीकरण
नई काॅलोनी के इस मकान में जैसे ही शिफ्ट हुई, एक साथ कई परेशानियों का सामना करना पड़ा था। एक तो काॅलोनी पूरी तरह बसी नहीं थी, गिनती के ही घर थे। फिर नई-नई बिजली-पानी की फिटिंग, तो आए दिन कोई न कोई समस्या आ खड़ी होती। पहले तो हुआ यह कि नल में पानी आ ही नहीं रहा था, फिर जैसे-तैसे शहर से प्लम्बर को बुलाकर नल ठीक करवाया तो रात को पानी लीक होने लगा। अब इस समय इस समस्या का क्या समाधान हो?
उधर बच्चे अलग अपनी कहे जा रहे थे।
‘ममा! पहले ही कहा था कि शहर से इतनी दूर घर मत लो, इससे तो हमारा किराए का घर ही ठीक था। शहर के बीचोंबीच था तो चाहे जब किसी को भी बुला लेते।’
बड़ी बेटी टीना का कहना जारी ही था कि छोटी गुड़िया ने भी हां में हां मिलाई।
‘और फिर वहां बाजार भी कितना पास था। चाहे जब आइसक्रीम, पिज्जा, जो चाहे मंगवा लो, मम्मी को भी परेशानी नहीं थी।’
‘अरे अब खाने-पीने की बातें छोड़ो और इस पानी की समस्या का समाधान ढूंढो...’
पति महोदय ने अपनी झुंझलाहट उतारी थी। पानी की लगातार टप-टप से अब मेरा भी सिर दर्द करने लगा था।
उठ कर पड़ौस वाले शर्माजी को फोन किया तो उन्होंने बताया कि सामने वाली बंगाली बस्ती में जो कच्ची टापरियां बनी हुई हैं, उन में ही एक आदमी है, जो थोड़ा-बहुत बिजली, पानी की लाइन का काम जानता है, नन्दू नाम है उसका, अगर यहां हो तो उसे बुलवा लें।
‘अच्छा!...’
फोन सुनते ही पति महोदय चप्पल पैरों में डालकर पैदल ही उसे बुलाने चल दिए थे।
और फिर भाग्य से नंदू मिल भी गया, उसने आकर नल के सारे पाइप चैक किए और कुछ इंतजाम करके लीक होने वाली लाइन को ठीक किया। हमने भी राहत की सांस ली। और यह था नंदू से हमारा पहला परिचय। फिर तो आए दिन नंदू से काम पड़ने लगा था।
कभी कमरे की बिजली का फ्यूज उड़ जाता, तो कभी टी.वी. का तार हिल गया है, तो कभी गैस लीक हो रही है। मतलब यह था कि करीब रोज ही नंदू को बुलाना पड़ रहा था।
मुझे भी यह लड़का थोड़ा सीधा-सादा लगा था, जो भी काम बताओ सहर्घ कर देता, फिर अपने मुंह से कुछ नहीं मांगता, हम जो भी देते स्वीकार कर लेता।
यह बात जरूर थी कि जितनी देर वह काम करता मैं बीच-बीच में उसे चाय, नाश्ता जरूर दे देती। फिर जाते समय जरूर पूछता-
‘और कोई काम तो नहीं है मम्मी जी...?’
मैं अब इस नइ समस्या से जूझ रही थी। यहां शहर से इतनी दूर कोई नौकरानी आने को तैयार नहीं थी तो घर का काम बहुत बढ़ गया था। वैसे ही नया घर, सफाई करो, सामान जमाओ, फिर बर्तन साफ करना, खाना बनाना, काम थे कि खत्म ही नहीं होते और रात होते-होते मैं बुरी तरह निढ़ाल हो जाती।
‘नंदू तुम्हारी निगाह में कोई नौकरानी हो तो बताना।’ उस दिन मैं ने नंदू से ही पूछ लिया था।
‘नौकरानी... घर के काम के लिए?’
वह चैंका था। कुछ देर चुप ही रहा, फिर धीरे से झिझकता हुआ बोला था-
‘मेरी घरवाली है, अभी कुछ महीनों पहले ही शादी हुई है। पर वह काम करेगी या नहीं, कह नहीं सकता।’
‘नंदू, उस से पूछ लेना, जितना काम करना चाहे कर ले, कुछ तो सहारा होगा, और फिर तुम्हारा घर भी तो सड़क के पार ही है।’
मेरे मन में आशा की किरण जगी थी। नंदू उसी शाम को अपनी पत्नी को ले आया था। अल्हड़ किशोरी-सी लगी थी मुझे वह। नंदू की तुलना में रंग कुछ निखरा हुआ लगा। नाक नक्श भी तीखे थे।
‘क्या नाम है?’
‘परबो...’
‘प्रभा...?’ मैं समझी नहीं थी और वह खिलखिला कर हंसी तो उसके सफेद मोती-से दांत चमक उठे थे।
‘परभा नहीं परबो...’
अब तो मेरी दोनों बेटियां भी मेरे पास आकर खड़ी हो गईं।
‘मां! नाम से क्या फर्क पड़ता है, आप उसे प्रभा कहो या परबो...’ टीना ने अपनी समझदारी दिखाई थी।
‘पूरबा नाम है इस का’ अब नंदू ने खुलासा किया था। और मैं समझ गई थी कि बंगला में ओ शब्द का अधिक उच्चारण होता है, इसीलिए यह अपना नाम परबो कहे जा रही है।
‘ठीक है, हम तुम्हें ‘पूरबा’ कह कर ही बुलाएंगे, अब बताओ कि क्या काम कर सकती हो?’
उसने सफाई और बर्तन मांजने का काम स्वीकार कर लिया था। चलो इतना ही कर लेगी तो बहुत है।
इस प्रकार पूरबा भी घर के एक सदस्य की भांति हो गई थी। कुछ ही दिनों में मैं भांप गई कि उसमें सीखने की प्रवृत्ति है, जो भी काम बताओ करने के लिए तैयार हो जाती है, यहां तक कि रसोई के छोटे-मोटे कामों में भी मेरा हाथ बटाने लगी थी। सब से अधिक तो मेरी दोनों बेटियां प्रसन्न थीं, उन्हें एक जैसे सहेली मिल गई थी। खाली समय में वह उन के पास बैठ कर टी.वी. देखती, गाने सुनती या उन के साथ ही डांस के बोल पर थिरकने भी लगती।
धीरे-धीरे मैं देख रही थी कि घर के सामानों में भी उस की रुचि बढ़ने लगी है।
‘ममी जी! यह टी.वी. कितने का आता है? वैसे हमारी कोठरी तो बहुत छोटी है, टी.वी. ले भी आए तो रखेंग कहां...?’
‘मम्मी जी! मुझे लकड़ी के चूल्हे में बहुत धुंआ लगता है, आप मुझे भी गैस का चूल्हा दिला दो न...’
पतिदेव ने तो उस दिन हंस कर कह ही दिया था-
‘इसे भी अब शहर की हवा लग गई है, अब नंदू की खैर नहीं।’
वैसे वह परेशान तो थी ही नंदू से, क्योंकि उसकी कोई नियमित आमदनी नहीं थी। कभी काम किया तो पैसे मिल गए, और कभी-कभी तो आलस्यवश वह कई दिनों तक घर पर ही पड़ा रहता।
‘मम्मी जी! मेरा आदमी जब कोई ढंग का काम करेगा, तभी तो घर बनेगा, अभी तो बस एक कच्ची टापरी है सिर छिपाने को।’ वह उदासी भरे स्वर में कहती रहती।
कह-सुन कर एक बिजली की दूकान पर काम दिलवाया नंदू को, पर शायद टिक कर कहीं काम करना उसकी नियति में था ही नहीं। इधर काॅलोनी में दो-चार और मकानों में परिवार आ गए थे, तो उन्हें भी नौकरानी की आवश्यकता थी। मैं ने ही फिर पूरबा को समझाया-
‘न हो तो तू ही और दो-चार घरों का काम ले ले, तू तो अब होशियार हो गई है, और ये लोग मुंह मांगी तनख्वाह भी दे देंगे।’ इस प्रकार वह और भी तीन घरों में काम करने लगी थी।
पर अब मैं नंदू के व्यवहार में एक नई बात देख रही थी। कई बार तो वह जब तक काम करती नंदू बाहर खड़ा उस का इंतजार करता रहता।
‘नंदू! क्या बात है? कोई काम है क्या पूरबा से?’ मैं ने दो-एक बार पूछा भी, पर वह टाल जाता। फिर एक दिन उसकी अनुपस्थिति में ही झिझकते हुए बोला था-
‘मम्मी जी! वो जो मेरी टापरी के पास बड़ा-सा मकान बन रहा है न शंकर ठेकेदार का, उसकी बुरी निगाह है इस पर... इसीलिए..., पर इसे तो समझ है नहीं, उससे ही बोलती-बतियाती रहती है।’
‘अच्छा...!’
यह तो हमारे पड़ौसियों ने भी कहा था कि इस कच्ची बस्ती में अब एक पहला अच्छा पक्का मकान बन रहा है, देखते ही देखते नीचे के दो कमरे बन गए थे, अब ऊपर की मंजिल पर काम चल रहा था। नीचे के कमरे में टी.वी. भी लगवा लिया था शंकर ने, उस की बीवी से भी पूरबा की दोस्ती हो गई थी और अक्सर वह उस के पास बैठी रहती टी.वी. देखती रहती।
इसी बात को लेकर, नंदू से उसका झगड़ा होता। एक-दो बार तो मार-पीट तक हो गई। एक दिन तो शाम को बुरी तरह से रोती हुई वह मेरे पास आई थी। पीठ पर नील पड़ रहे थे, गाल सूज रहे थे, रोते-रोते वह बोल भी नहीं पा रही थी। पीछे-पीछे फिर नंदू भी आ गया था।
‘मम्मी जी! इसे समझाओ, दिन भर उस मुच्छड़ शंकर के पास बैठ कर टी.वी. देखती है और वह इसे छेड़ता रहता है और यह खी-खी कर के हंसती है... अब घर से निकलना बंद कर दूंगा इसका... घर बैठ कर चूल्हा फूंक... रोटियां सेक... समझी...’
‘और तू... तू जो दिन भर बैठा-बैठा दारू पीता है...’ पूरबा भी चिल्लाई थी।
किसी तरह दोनों को शांत करके घर में भेजा था मैंने... मेरी बेटियां भी हैरान थीं।
‘ममा! ये दोनों तो अब तक तोता-मैना की तरह रहते थे, अब क्या हो गया है?’
मैं स्वयं आशंकित थी, दूसरे दिन अकेले में मैं ने पूरबा को समझाया भी था-
‘देख, अगर तू इसी प्रकार शंकर के घर जा-जा कर बैठती रही तो नंदू तो और दारू पीकर तुझ से मार-पीट करेगा, काम-धाम करेगा नहीं, तो क्यों तू दूसरे के घर जा-जाकर अपने घर की शांति नष्ट करने पर तुली है, प्यार से रह...’
‘क्यों न जाऊं... वो तो मुझे पक्का घर दे रहा है, सारे आराम देगा, मैं रानी बन कर रहूंगी... यहां नंदू ने मुझे दिया ही क्या है... सिवाय मार-पीट के...?’
‘क्या... क्या कह रही है... तू शंकर के घर जाकर रहेगी, और उसकी जो बीवी...’
‘कौन-सी बीवी... छोड़ दी है उसने वह...’
पूरबा जिस प्रकार दहाड़ रही थी, उस का यह रूप मैं आज पहली बार देख रही थी, क्या भौतिकता ने इसकी आंखों पर पूरी तरह पर्दा डाल दिया है, या नंदू ने कुछ बदसलूकी की है... मैं समझ नहीं पा रही थी।
पर हुआ वही, जिस की आशंका थी। पूरबा नंदू का घर छोड़ कर शंकर के घर चली गई थी। ऊपर एक और कमरा उसके लिए बन गया था। अब घरों में चैका-बर्तन करने की भी उसे आवश्यकता नहीं थी।
नंदू तो कुछ दिनों तक टापरी में ही बंद होकर रह गया था। फिर अचानक ही एक दिन पता चला कि वह सब कुछ छोड़ कर कहीं और चला गया है।
सड़क के पार ही घर था शंकर का, एक बार उधर से निकलते समय मैं ने देखा कि ऊपर के कमरे की खिड़की से पूरबा अपनी पुरानी टापरी को टकटकी लगाए देख रही है।
क्या देख रही है अब...? मेरा मन कड़वा हो गया था। सामने उसे देख कर भी बात करने का मन नहीं हुआ था।
कुछ ही दिनों बाद एक शाम वह स्वयं ही आ गई थी। अब रंगत और निखर आई थी। शरीर पर मंहगी साड़ी थी, गले में सोने की चैन, कानों में टाॅप्स, पर फिर भी आंखों में उदासी झलक रही थी।
‘मम्मी जी! आप के पास नंदू का मोबाइल नम्बर था न...’
‘मोबाइल नम्बर...?’
मैं चकित थी, आज उसे अपने पुराने पति के मोबाइल नम्बर की याद कैसे आ गई।
‘हां था तो... पर अब कहां याद रहता है, जरूरत ही नहीं पड़ी...’ मैं ने टालते हुए कह दिया था।
‘तू बता कैसी है?’
‘ठीक हूं...’, उसकी उदास दृष्टि फिर भी कुछ और ही कह रही थी, और वह फिर रुकी भी नहीं थी।
फिर इस बात को हुए भी महीने दो महीने बीत गए, मैं भी इस बीच बाहर चली गई थी। फिर लौटी तो एक बार शहर के दूसरे कोने में बनी काॅलोनी में किसी के यहां मिलने जाना पड़ा था। लौटते में हम लोग मोड़ पर आॅटो रिक्शें के इंतजार में खड़े थे, तभी मेरी बेटी चिल्लाई-
‘ममा, देखो पूरबा... नंदू के साथ साइकिल पर जा रही है...’, हां पूरबा ही तो थी, वही पुरानी पूरबा, वैसे ही कपड़े... पर यहां...
पूरबा साइकिल से उतर गई थी, मेरी बेटियां उस से बात करने आगे बढ़ गई थीं...
पर मैं अब तक ठगी-सी वहीं खड़ी रह गई थी और जुटी थी इस बनते बिगड़ते समीकरण को हल करने में।
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