रविवार, 20 नवंबर 2011
उपलिब्ध क्षमा चतुर्वेदी की कहानी
उपलब्धि
देर तक सुकांत के शब्द ठक-ठक करते हुए सत्या के कानों में गूंजते रहे थे। ‘कुछ नहीं तो कम से कम एक अच्छी सास ही बन जातीं, पर वह भी तो नहीं हुआ तुम से.......!’
वह सन्न रह गई थी। इतना ही तो कहा था धीरे से कि न हो तो नव्या को ही फोन कर दो, दो-चार दिन की छुट्टी ले कर आ जाएगी तो घर थोड़ा संभल जाएगा।
सुकांत तब जला टोस्ट और कच्चा परांठा ठण्डी चाय के साथ खा रहे थे। वह भी क्या करे, पूरे सात दिन हो गए, बुखार तो अब उतर गया है, पर कमजोरी इतनी है कि खड़े होते ही चक्कर आने लगते हैं, जैसे अब गिरी कि तब गिरी... इसी लिए डाॅक्टर ने उसे पूरी तरह आराम करने की सलाह दी है। उस दिन भी तो जाते-जाते यही कह गए थे।
‘सत्या जी! अब आप पौष्टिक खाना थोड़ा-थोड़ा लेना शुरू करें और आराम करें, तथी आप की कमजोरी दूर होगी और सुकांत जी अब आप को इन का ध्यान रखना है ताकि फिर बीमार न पड़ें...।’
अब सुकांत ने जीवन भर तो घर का कोई काम किया नहीं है तो अब क्या करेंगे। घर की बिगड़ती दशा देख कर सत्या भी चिन्तित हो गई थी। हर चीज बिखरी-बिखरी-सी, कहीं कपड़े पड़े हैं, कहीं जूठे बर्तन... अब नौकरानी से तो खड़े हो कर काम कराओ तभी करती है। पांच-सात दिन में ही घर कबाड़खाना-सा दिखाई देने लगा था। इसी लिए तो उस ने कहा था कि नव्या को बुला लो, पर सुकांत तो एक दम बिगड़ गए थे।
‘नव्या... नव्या... तुम्ही लाई थीं उस गैर जाति की लड़की को बहू बना कर, अब भुगतो उसे... अरे जब तुम्हारे सगे बेटे, बेटी को तुम्हारी चिन्ता नहीं है तो उस नई नवेली बहू को क्या होगी? पता है निमिष को फोन किया था कि तुम्हारी मां बीमार है तो उस ने फौरन कह दिया-
‘पापा एक नौकरानी रख लो, हम लोग तो अभी आ नहीं सकते हैं, बैंक में आजकल बहुत व्यस्तता चल रही है, छुट्टी मिलना मुश्किल है...’ तो फिर नव्या भी तो उसी बैंक में है, उसे कहां छुट्टी मिलेगी... अब आराम से तुम भी ये जला टोस्ट खाओ और प्रभु के गुन गाओ...’ सुकांत ने जाते समय दरवाजा इतनी जोर से बन्द किया कि वह भी सहम गई थी।
भूख तो आजकल वैसे ही लगती नहीं है, पर डाॅक्टर ने कहा है कि कुछ खाएंगी नहीं तो कमजोरी कैसे दूर होगी? इसी लिए मन मार कर पेट में कुछ डालना पड़ता है, पर अभी तो मुंह का स्वाद भी कड़वा हो रहा था, मन हुआ कि खट्टे नींबू की शिकंजी बना कर पी ले, पर उठते ही इतनी जोर का चक्कर आया कि कुर्सी का सहारा ले कर उसी पर निढाल हो गई थी।
वैसे सुकांत के मुंह से अपने लिए ऐसे शब्द सुनना उस के लिए कोई नई बात नहीं थी, वह तो शादी हो कर आई है, तभी से यह सब सुनती आई है-
‘तुम से कुछ नहीं होता, तुम्हारी उम्र की और महिलाओं को देखो, कितने आत्मविश्वास से भरी रहती हैं। पर तुम... हर बार डरी, सहमी-सी... हर कोई तुम्हें दबा लेता है, पहले सास, जेठानी, देवरानी थीं तो अब तुम्हारे अपने ही बच्चे तुम पर रोब झाड़ने लगे हैं। कहीं तो अपना बड़प्पन बना कर रखो, न तो तुम ढंग की पत्नी बन पाईं, न मां और न अब सास...।’
और कोई समय होता तो वह हंस कर यह बात भी टाल जाती, पर अब कमजोरी की वजह से उसे अपनी लाचारी पर रोना आ रहा था।
पति के शब्द हृदय को छलनी कर गए थे। शादी हो कर आई है तभी से यह सब सुनती आई है और तभी से क्यों बचपन से युवा होते हुए भी तो यही सब सुन कर बड़ी हुई है।
बड़ी दोनों बहनें पढ़ने में तेज तर्रार थीं, पर वह उतनी कुशाग्र बु(ि की नहीं थी तो अक्सर झिड़कियां सुनने को मिलती-
‘अरे सत्या! तुम से यह भी नहीं होता...!’
यही सब सुनते हुए वह और दब्बू होती गई थी। कभी दूध गरम करती तो वह उफन जाता तो कभी गैस खुली रह जाती।
गलतियों पर गलतियां वह करती जाती और बहनें मजाक उड़तीं... उस की कमजोरी का फायदा भी वे दोनों उठातीं। अक्सर रोब झाड़ कर उस से अपने काम कराती रहतीं-
‘अरे सत्या! खड़ी क्या है? जरा इस सूट पर प्रेस कर दे...!’
‘जो अच्छी-सी चाय बना कर ला...!’
पता नहीं कैसे उस की आदत ही पड़ गई थी सब की झिड़कियां सुनती और काम करती रहती।
फिर ससुराल आई तो यहां भी यही ढर्रा था, जेठानी, ननद, सब ने ताड़ लिया कि सत्या की कमजोरी क्या है? और तो और सुकांत भी उस से इसी बात पर नाराज रहते, पर वह कहां अपने आप को बदल पाई। न कभी अपने मन की कोई बात कह सकी। बस जब बेटे निमिष न जिद की कि वह अपने ही बैंक में काम करने वाली लड़की नव्या से शादी करना चाहता है तो सत्या ने धीरे से कहा था सुकांत से-
‘अगर बेटे की यही इच्छा है तो आप भी हां कर दो, आखिर रहना तो उसे ही है उस लड़की के साथ, हम ने जोर-जबरदस्ती कर के उस की शादी कहीं और कर दी तो पता नहीं वह उसे निभाएगा भी या नहीं...।’
‘अच्छा तो मैं ने तुम्हें नहीं निभाया है क्या... और क्या निभा नहीं रहा हूं... यह कहो कि अब तुम्हारी भी जुबान चलने लगी है, यह तो हुआ नहीं कि बेटे को समझाओ, उल्टे उसी की वकालत करने चली आई... अरे जब अपनी जाति-बिरादरी की लड़कियां घर में निभ नहीं रही हैं तो यह गैर जाति की लड़की कहां निभेगी... सोचो जरा...।’
सत्या जब चुप रह गई थी, पर निमिष की जिद के आगे सुकांत को भी झुकना ही पड़ा था, पर आज भी वे इस के लिए सत्या को ही दोषी मानते हैं।
अच्छी बेटी... अच्छी पत्नी... अच्छी मां... अच्छी सास... कुछ भी तो नहीं बन सकी वह... सब को बस शिकायतें ही शिकायतें रहीं उस से... शब्द ठक-ठक करते हुए फिर से कानों में बजने लगे थे।
स्वास्थ्य ठीक था तो पूरा घर संभल लेती थी, पर अब क्या करे... कमरे से ही झांका रसोई में जूठे बर्तनों का अम्बार लगा हुआ था। फर्श पर शायद कोई मीठी चीज फैली हुई थी तो चींटियों की कतार चली आ रही थी। अब बाई को भी आराम हो गया है, ढंग से काम ही नहीं करती है।
मन तो हुआ कि झाड़न उठा कर वही साफ कर दे, पर पता था कि अभी चक्कर खा कर यहीं गिर जाएगी।
गिलास में पानी ले कर थोड़ा पिया फिर बिस्तर पर लेट गई थी, क्या करे? मन भी तो अच्छा नहीं है, इसी लिए कुछ खाने का भी मन नहीं होता है। खाली पेट दवा भी नहीं ले सकती है। कमजोरी के कारण ही आंखें मुंदने लगी थीं। शायद सुकांत ठीक कहते हैं, वह कोई भी रोल ढंग से नहीं निभा पाई। अरे जब बेटे को चिन्ता नहीं है मां की तो बहू को क्या होगी? नव्या को अभी वह जानती ही कितना है, शादी हो कर आई तो बेटे-बहू घूमने चले गए। फिर नौकरी दूसरे शहर में हो तो वहां जाना ही था।
शायद देर तक सोती रही थी वह। तभी दरवाजा खुलने की आहट से नींद टूटी थी।
तो क्या दरवाजा उस ने बन्द नहीं किया था।
चैंक कर उठ बैठी... कौन... कौन है...
कोई आवाज नहीं थी, उठ कर धीरे से बाहर झांका, कोई भी तो नहीं था, शायद बाई आ गई है, रसोई से खटर-पटर की आवाजें आ रही थीं, धीरे से आवाज भी दी...
‘बाई... आ गईं क्या...?’
‘हां आ गई...।’
देखा तो चैंक ही गई थी... नव्या खड़ी हंस रही थी... हाथ की टेª में दूध, फल सब लिए हुए...
‘कब आई...?’
‘अभी... आप गहरी नींद में थी तो सोचा कि आप को डिस्टर्ब न करूं....’
कहते हुए उस ने सामने के स्टूल पर सारा सामान जमाया, फिर पैर छूने के लिए नीचे झुकी...
‘पर तुझे छुट्टी...?’
‘अरे मां! जब आप इतनी बीमार और कमजोर हो कर बिस्तर पर लेटी हो तो छुट्टी मिले न मिले, मैं तो चली आई, अब आप को भला चंगा कर के ही जाऊंगी... देखो न आप ने अपनी यह क्या हालत कर ली है, अब थोड़ा-बहुत खाना शुरू करो तभी कमजोरी दूर होगी।’
कहते हुए नव्या ने सेव की फांक आगे बढ़ाई थी।
और सत्या के कानों में फिर कुछ शब्द गूंजे थे, लेकिन अब उसे लग रहा था कि चाहे और कोई उपलब्धि नहीं रही हो उस की, पर एक अच्दी बहू तो उस ने पा ही ली है।
क्षमा चतुर्वेदी
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