शनिवार, 26 नवंबर 2011
गजेन्द्र सिंह सोलंकी
89 वर्षीय सालंकीजी अस्वस्थ हैं,उनकी काव्य यात्रा स्वतंत्रता पं्राप्ति के साथ ही प्रारम्भ होगई थी।
उनकी अपनी विशिष्ट विचारधारा रही, पर इस अंचल में वे साहित्य की सेवा में सृजनरत रहे।
कुछ दिन पहले कवि शिवराज श्रीवास्तव के साथ उनसे मिलना हुआ। उन्होंने लेखक की कृति ळाड़ौती अंचल की काव्य परंपरा का अवलोकन किया। अपने लिए लिखा आलेख सुना।
यहां वह आलेख दिया जारहा हेै।
लगभग साठ वर्षों से भी कविता तथा साहित्यिक गतिविधियों में सक्रियता बनाए रखने वाले गजेन्द्र सिंह सोलंकी, बृज भाषा के भी सशक्त कवि हंै। आप की राजनैतिक पक्षधरता स्पष्ट है तथा आप की रचनाओं पर उस का सीधा हस्तक्षेप है। आप संास्ड्डतिक राष्ट्रवादी काव्य धारा के कवि हंै। आप का कवि कर्म आप के द्वारा सम्पादित, प्रकाशित ‘एकात्म’ साप्ताहिक की रीति-नीति का पक्षधर रहा है। आप अपने ‘पक्ष’ के सुविचारित कवि हंै। आप की कविताओं में रागात्मकता तथा वैचारिकता दोनों का अन्तर्सम्बन्ध है। आप परम्परागत शिल्प का मोह भी नहीं छोड़ पाते हंै तथा परम्परागत ‘अन्तर्वस्तु’ के प्रतिपादन के प्रति भी स्पष्ट हंै। यही उन की विशेषता है तथा कमज़ोरी भी।
‘गागर’ ;1969 ई.द्ध, आप की पहली ड्डति थी, जो परम्परागत ‘दोहा’ छन्द मंे प्रकाशित हुई थी। यह आप की राष्ट्रवादी कविताओं का संग्रह है। खड़ी बोली, ब्रज तथा हाड़ौती तीनों ही भाषाओं के शब्द भण्डार से कवि ने नए-नए प्रयोग किए हैं। विषय वैविध्य है, परन्तु काव्य रूप परम्परागत ‘दोहा’ है। परम्परागत पाठकों में यह संग्रह लोकप्रिय भी हुआ है:-
”भव्य भवन के भाल पै,भासित भअहुं न चाह
नींव धरूँ जा देह की,जा सम जस कुछ नाह।“62 ;आका}ाद्ध
उपरोक्त छन्द में ‘गागर’ की अन्तर्वस्तु तथा काव्य रूप की पहचान सहज ही परिलक्षित है। महा कवि हरनाथ की काव्य परम्परा में आप हैं।
‘अमर सेनानी ताँत्या टोपे’ ;प्रबन्ध काव्यद्ध 1987 ई. मंे प्रकाश मंे आया था। राष्ट्रीयता का स्पन्दन ही आप की काव्य धारा का प्रमुख स्वर है। यह एक लम्बी उदात्त कविता है। इस के कला शिल्प में एकोन्मुखता है। चरित नायक की अस्मिता की खोज ही यहाँ प्रतिपाद्य है। कवि ने तथ्यों को अपनी जीवनानुभूतियों से एक नई गरिमा दी है। ‘ताँत्या’ मात्र एक सेनानी ही नहीं है, वह ‘आम जन’ की लड़ाई लड़ रहा है, आम आदमी है, उस का साहस, उस का शौर्य, उस की पराजय और उस की सहन करने की क्षमता, कवि की जीवनानुभूति का स्पर्श पा कर सहज सम्वेदनात्मक रूप से पाठक तक पहुँचने में समर्थ है। कवि ने ताँत्या टोपे के माध्यम से, वर्तमान की नैराश्य भरी परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए ‘राष्ट्रीयता’ के आधार पर समस्याओं के सन्धान का पथ तलाश किया है। वर्तमान में व्याप्त कटुता, निराशा और दैन्य से उत्पन्ना जो तमस है, कवि का सृजनशील मन उस के प्रति सजग है। वह प्रश्नों के उत्तर अतीत में तलाशता है और फिर अतीत की मनोहारी कल्पनाओं में आप का कवि मन डूबता है, फिर भी समाधान न पा कर वर्तमान को झकझोरता है। एकान्विति ही इस का आधार है। वृत्तों का यह परस्पर संगुफन तथा समग्रता में एक बिन्दु पर आ कर उन का बिखराव, आप के काव्य-शिल्प की पहचान है:-
”त्याग और बलिदान आज कुंठित हो रहे
स्मरण मात्र से रोमांचित हो जाता है कण-कण
अर्थ बदल डाले सारे जीवन-मूल्यों के
बिकाऊ लोग पाएंगे, तेरी रज का कण?“63 ;समर्पणद्ध
यह बिन्दु उत्सर्ग भावना है। राष्ट्र ही सर्वोपरि है। यही एक मात्र मूल्य है।
कवि मन वर्तमान की परिस्थितियों से आहत है, वह ताँत्या टोपे के माध्यम से जीवन की उदात्तता का स्पर्श करना चाहता है। कवि मन जीवन और जगत की परिस्थितियों से अपनी कर्मठता के साथ सÐर्ष चाहता है। आप की राजनैतिक पक्षधरता कहीं-कहीं ‘अन्तर्वस्तु’ का अतिक्रमण भी कर जाती है। प्रतिब( रचनाकर्मी की विवशता यहाँ स्वाभाविक हैै। कविता अतिरष्क होने से बचती हैै, कवि ने यहाँ शिल्प में परम्परागत ढाँचे का अतिक्रमण किया है, अन्तर्वस्तु की बनावट और बुनावट के अनुरूप भाषा ने काव्य रूप तलाश किया है:-
”बाह्य जगत हेय बता
कि होता भी और क्या
एक अजब सी आस्था
नहीं तथ्यों से वास्ता
विश्व बंधुत्व भावना
कि जग हित की कामना
क्लीवता में ढल गई
कि पोर-पोर धुल गई।“64 पृ. 127.‘ताँत्या टोपे’ मात्र एक प्रतीक है, उस साधारण भारतीय जन का, जिस के भीतर विराट असाधारणता है। जहाँ कहीं चुनौती आती है, वह उस के प्राणों की अकुलाहट को मूर्तता देती हुई तेजस्विता बन जाती है और व्यक्तित्व की तेजस्विता तथा समाज की वह दुर्बलता, जो इस अग्नि को अग्नि कुण्ड में धधकने से रोक देती है। यह विरोधाभास, जो इस देश की सब से बड़ी नियति है, समग्रता के साथ इस ड्डति में चित्रित है।
राष्ट्रीयता की खोज ही इस काव्य का मुख्य स्वर है। कवि मन अतीत में झाँकता हुआ, सभी मध्य युगीन प्रतिमानों को पड़ताल करता है। संस्ड्डति के सभी प्रतिमानों को वह परखता है। वह क्यों? यह क्यों? इतना ज्ञान, इतना कौशल, व्यक्ति रूप में इतनी तेजस्विता तथा समूह रूप में एक न होने की विवशता, यह सब क्यों? यही तलाश इस काव्य-कथा का केन्द्र-बिन्दु है।
‘रण रागिनी’ में गजेन्द्र सिंह सोलप्री की स्वतन्त्रता पूर्व की कविताऐं सप्रलित हैं। आप का यह काव्य-सप्रलन ‘रण-रागिनी’ अपने शीर्षक से ही कवि की दृष्टि और अभिरुचि का सप्रेत कर देता है। और अधिक स्पष्ट होते हुए उन्हों ने इसे राष्ट्रीय-चेतना का काव्य-सप्रलन घोषित भी कर दिया है। आप लगभग साठ वर्षों से निरन्तर सृजनशील हैं:-
”है नहीं वह रागिनी जो तप्त हृदय को गुदगुदा दे
या हृदय ही है नहीं जो रागमय कुछ गीत गा दे।“65
‘आज तुमको क्या सुना दूं’, पृ. 23.
‘छन्दसि-त्रिविधा’ ;2005 ई.द्ध, गजेन्द्र सिंह सोलप्री का चैथा काव्य सप्रलन, नाम के अनुरूप विधि छन्दमयी रचनाओं का स्वतन्त्र सप्रलन है। कवित्त, मनहरण, धनाक्षरी, सवैया, कुण्डलिया आदि छन्दों का यहाँ निर्वाह हुआ है। राष्ट्रीय मनोभाव कवि सोलंकी की काव्य चेतना की प्रमुख विषय वस्तु है। ‘बृज माधुरी’ इस सप्रलन में पृथक खण्ड है, जहाँ ब्रज भाषा में शंृगारिक कविताओं का चयन है।
‘हूक’ ;2007 ई.द्ध आप की स्वतन्त्र कविताओं का एक संग्रह प्रकाशित हुआ है, जिन्हें आप 1947 ई. से निरन्तर लिखते आए हैं। यहाँ कवि का मन, जिन घटनाओं से निरन्तर, उद्वेलित होता आया है, उन का यहँं काव्य चेतना के परिप्रेक्ष्य में सुन्दर चित्रण मिलता हैः-
”ज्ञान गठरिया भारी भरकम लगता है दबे जा रहे तुम,
स्वेद छलकता पीत वर्ण हो सूख रहा सांसों का सरगम
जो लादे हो बोझा है, तुम जो साधे धोखा है
अहम् तुम्हारा जान न सकता, पर ज्ञान बजे वह थोथा है ।“66 पृ. 58.
यहाँ कवि के पास साठ साल से अधिक की काव्य-यात्रा से प्राप्त जीवनानुभव है। गजेन्द्र सिंह सोलंकी ‘राष्ट्रीय काव्य धारा’ के प्रतिनिधि कवि हैं, वे जीवन सÐर्ष से तपे-निखरे कवि हैं, जहाँ उन का कर्म व वचन दोनों ही एकमेक हैं। तभी कवि इतनी तटस्थता के साथ यह कहने का साहस भी रखता है:-
”लो विदा की घड़ी अब तो आने को है
कर्म अस्बाब अपना खुद संभाले रखो,
कि कब आ जाए बुलावा पता कुछ नहीं
वक्त अपना न पलभर को जाया करो।“67 पृ. 54.
गजेन्द्र सिंह सोलंकी की कविता का स्वर गत साठ वर्षों से निरन्तर एक ही भाव भूमि पर केन्द्रित रहा है, राष्ट्र के प्रति उन की ममत्व मयी समर्पण भावना, उन की जीवन शैली का भी अविभाज्य अÂ है। सांस्ड्डतिक राष्ट्रवाद उन की काव्य धारा की सुस्पष्ट वैचारिक भूमि रही है। फिर भी वे अपनी राजनैतिक दृष्टि के स्पष्ट होने के बावजूद, एक नैतिक जीवन जीते हुए, सामान्य जन व देशज भूमिका रखते हुए कविता में उस के पक्षधर रहे हैं। वास्तव में वे लोक से जुड़े हुए ज़मीनी इन्सान हैं, उन की कविता और वे सचमुच एक रूप हैं।
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