रविवार, 27 नवंबर 2011

कारावास पम्मी ने तो एक तरह से ज़िद ही ठान ली थी। ‘नहीं दीदी! आप ना नहीं कहोगी! पहले भी तो दो बार आप ऐसे टूर टाल चुकी हैं। अब जब फिर आपको मौका दिया जा रहा है तो आप फायदा उठाइए न... आप ही तो कह रही थीं कि इस टेªेनिंग के बाद प्रमोशन के और भी चान्स मिल सकते हैं।’ पम्मी ने चाय की ट्रे मेज पर रखते हुए वही जिक्र फिर से छेड़ दिया था। ‘ओफ्फो...! मुझे तो लगता है कि तू इस बार छुट्टी ले कर बस इसीलिए मेरे पास आई है कि मुझे किसी तरह यहाँ से रवाना कर ही दे।’ सुनीता को अब पम्मी की बातों से झुँझलाहट होने लगी थी। कल रात को आई है और एक ही रट लगाए जा रही है। अब जानती तो हैं कि सुनीता को ऐसे टूर, ट्रेनिंग वग़ैरह में कोई दिलचस्पी नहीं है और न ही घूमने का शौक है, पर यह है कि बस...! सुनीता ने धीरे से अपना कप उठा लिया। ‘देख! अब मेरी बात ध्यान से सुन, मुझे इस ट्रेनिंग से कोई ख़ास फ़ायदा नहीं है, न ही मैं अगले प्रमोशन के लिए अधिक लालायित हूं। हां! हमारे ही बैंक के किसी और सहयोगी को अगर यह चांस मिलता है तो उन लोगों को, उन के परिवार को अधिक लाभ मिलेगा। रामबाबू, सुधीर जी, जैसे लोग तो अपने परिवार को भी साथ ले जाना चाह रहे हैं घूमने के लिए....।’ ‘दीदी...!’ पम्मी ने बात काटी थी। ‘जब बाॅस ने आपकी सिफ़ारिश की है तो ये रामबाबू, सुधीर जी, ये सब कहां से टपक पड़े? आप सब से सीनियर हो, आपको चांस मिल रहा है बस...! और हां! मै। अब और कुछ सुनने वाली नहीं हूं, मैं तो तीन दिन की छुट्टी लेकर आई ही इसलिए हूं कि आपके जाने की तैयारी करा दूं..., तो आप तैयार हो जाआ, आज तो वैसे ही आपके बैंक की छुट्टी है... तो बाज़ार चलते हैं, मैं तब तक आपकी वार्डरोब चैक करती हूं कि क्या-क्या लेना है आपको...?’ कहते हुए पम्मी ने चाय के बर्तन समेटना शुरू कर दिया था। ‘ये लड़की भी ज़िद की पक्की है...!’ सुनीता को हंसी आ गई थी। यूं देखा जाए तो रिश्ता क्या है पम्मी से...? बस जब तकक यहां इसकी नौकरी थी तो इसी फ़्लैट में सुनीता के साथ रह रही थी, फिर अपनापन इतना बढ़ा कि सगी बहन से भी अधिक स्नेह हो गया। अब शादी करके दूसरे शहर चली भी गई है तो क्या आए दिन फोन पर बात करती रहती है और फिर पता नहीं कैसे इस टूर की भनक भी लगी तो बिना बताए ही आ धमकी। ‘तू तो लगता है कि शादीशुदा होकर अब बड़ी बहन की तरह रोब झाड़ने लगी है मुझ पर...।’ ‘वह तो है ही, अब कोई तो आपको सही राय देगा, चलो अब और बातें नहीं, आप जल्दी से नहाकर तैयार हो जाएं, नाश्ता करके चलते हैं।’ कहती हुई पम्मी किचिन में घुस गई थी। जब तक सुनीता नहाकर निकली, पम्मी ने उसकी अल्मारी भी टटोल ली थी। ‘यह क्या दीदी, सारे पुराने फ़ैशन के कपड़े हैं और इतने फीके रंग के...! अरे विदेश जा रही हो तो थोड़े चटख़ रंग भी लो ना..., आज मैं पसंद करूंगी आपके कपड़े और आप मत टोकना... और पिछली बार मैं कुछ सूट के कपड़े लाई थी आपके लिए, आपने सिलवाए नहीं...?’ ‘अरे वो...!’ सुनीता ने याद करने की कोशिश की। ‘हां वो तो मैं रश्मि को दे आई, एक फिर विनी ने ले लिया... उनके गोरे रंग पर ये रंग फबते... और फिर उनकी उम्र भी है।’ ‘दीदी...! फिर वही बात, आप अभी कौन-सी बुढ़ा गई हो कि उन पर फबते और आप पर नहीं... अरे मैं तो इतने शौक से आपके लिए लाई थी और आप भी बस... विनी, रश्मि, गीता, सुहाग, सब भाई-भतीजे और उनके परिवार के बारे मेें ही सोचती रहती हो।’ ‘पम्मी! मेरा परिवार है यह...!’ सुनीता ने धीरे से कहा। ‘तो मैं कब कह रही हूं कि आपका परिवार नहीं है यह, पर वे लोग भी तो कभी आपके बारे में सोचें... पूछें... आएं आपके पास..., आपने फ़्लैट का गृह-प्रवेश किया था तो आया कोई? नहीं ना...! आप इतनी बीमार पड़ीं... हाॅस्पिटल में एडमिट करना पड़ा आपको तब... तब यह परिवार कहां था...?’ सुनीता चुप रह गई थी। शायद पम्मी को भी ध्यान आया कि उसने दुखती रग पर हाथ रख दिया है, कुछ देर के बाद वही बोली- ‘साॅरी दीदी! मेरा मक़्सद आपका दिल दुखाना नहीं था, मैं तो बस यही कहना चाह रही थी कि कभी तो आप औरों से हटकर अपने बारे में सोचें... कि आपको क्या अच्छा लगता है? आपको किस बात से ख़ुशी मिलती है... क्या इतना भी हक नहीं बनता आपका...? चलिए अब दूसरी बात करते हैं, नाश्ता करलें पहले ठंडा हो रहा है...।’ सुनीता सोच रही थी कि बातों का रुख़ बदलने में कितनी माहिर हो गई है यह लड़की... पर कितना कुछ चटपट बोल जाती है, क्या सब कुछ इतना सहज है? अब जब अब तक अपने बारे में कुछ नहीं सोचा ... न अपनी स्वयं की ख़ुशी... न अपने अधिकार... तो अब अचानक उम्र की इस सीढ़ी पर आकर...? चलो अभी इसमें बचपना है, धीरे-धीरे बड़प्पन आएगा....। पम्मी ने तब तक टोस्ट, परांठे, दूध सब लाकर मेज पर सजा दिए थे। ‘तो इस बार तू मुझे लंदन भेज कर ही मानेगी...?’ ‘हां दीदी! मैं तो आई ही इसलिए हूं कि कहीं पहले की तरह आप इस बार भी अपना ट्रिप कैंसिल न कर दें... अरे! दूध का गिलास क्यों छोड़ दिया...?’ ‘बस बहुत हो गया, तू तो जानती है कि इतना हैवी ब्रेकफास्ट मैं कहां करती हूं, आॅफ़िस भी बस दो टोस्ट और काॅफ़ी लेकर जाती हूं...।’ सुनीता फिर उठ ही गई थी। बाज़ार में पहुंचते ही जब पम्मी ने आॅटो एक प्रसि( ब्यूटी पार्लर ‘रूपाली’ के सामने रोका तो सुनीता चैंक गई थी। ‘अरे! यहां क्यों रोक दिया? यहां क्या करना है?’ ‘करना है दीदी! पहले यहीं करना है...!’ कहकर पम्मी ने उतरकर आॅटोवाले को पैसे देने के लिए अपना पर्स खोल लिया था, साथ ही उसकी आवाज़ भी सुनाई दी- ‘दीदी! आप तो उतर कर अंदर चलिए, मैं रूपाली से आपका एपाइंटमेंट ले चुकी हूं।’ ‘एपाॅइंटमेंट...! पर क्यों...? जानती तो है मैं कभी ब्यूटी पार्लर...’ ‘नहीं जातीं न... तो अब चलिए...’ कह कर पम्मी ने उसका हाथ थाम लिया था। ‘पम्मी तू भी न बस...!’ ‘बस दीदी! आप प्राॅमिस कर चुकी हैं कि आप आज मुझे बिल्कुल नहीं टोकोगी।’ सुनीता चुप रह गई थी। फिर पम्मी ने ज़िद करके उसके बाल सेट करवाए, क्लीनिंग भी करवाया, फेशियल के लिए भी ज़िद करके बैठा ही दिया। ‘दीदी! आपको यहां थोड़ी देर लगेगी, तो मैं कुछ और चीज़ें तब तक बाज़ार में देख लेती हूं।’ कहते हुए पम्मी बाहर आ गई थी। फिर उसने कुछ काॅस्मेटिक्स ख़रीदे, अच्छे महंगे सूट के कपड़े लिए। जब तक लौटी तो सुनीता का एकदम बदला स्वरूप पाया। ‘वाह दीदी! आपकी तो उम्र ही दस साल कम करदी रूपाली ने...’ रूपाली भी मुस्कुरा रही थी। ‘चलिए, अब आपको टेलर के यहां नाप देना है, कपड़े तो मैं ले चुकी हूं, मुझे पता था, आपके सामने लेती तो आप ख़रीदने भी नहीं देतीं...।’ ‘पम्मी! आखि़र तू चाहती क्या है? क्या मुझे कहीं शादी कराने ले जा रही है...?’ ‘देखो दीदी! अच्छी तरहसे तैयार होने पर स्वयं को भी अच्छा लगता है और दूसरों को भी... तो फिर इसमें बुराई क्या है..? अब मैं जैसी डिज़ाइन पसंद करूं, आप मना मत करना...।’ पम्मी ने आधनिक डिज़ाइनों में कपड़े सिलवाने के लिए दे दिए थे। ‘भैया! दो दिन में दे देना, दीदी को बाहर जाना है...!’ दो-तीन बार याद भी दिला दिया था टेलर को। खाना फिर बाहर ही खाकर घर लौटे तो सुनीता को थकान लगने लगी थी, पर पम्मी सूटकेस खोलकर उसका सामान जमाती रही। रात को उसने कह भी दिया था- ‘दीदी! आपकी सारी तैयारी कर दी है। अब टिकिट, वीज़ा वग़रैह का इंतज़ाम तो आपके आॅफिस की तरफ़ से हो ही रहा है। आपको तो ख़ुश होकर इस यात्रा का आनन्द लेना है, मेरा बस चलता तो मैं भी आपके साथ चलती, पर क्या करूं...? रात की गाड़ी से लौटना जो है...।’ पम्मी का स्वर सुनकर सुनीता भी भावुक हो गई थी। ‘तू क्या पिछले जन्म में मां थी मेरी...? संभाल तो ऐसे रही है...’ और पम्मी सचमुच सुनीता के गले लग गई थी। ‘पता नहीं दीदी! पिछले जन्म में मैं क्या थी आपकी...? पर इस जन्म में मैं आपको बहुत ख़ुश देखना चाहती हूं। मैं जानती हूं कि आपने बहुत दुख उठाए हैं और हमेशा दूसरों के बारे में ही सोचा है, अब कुछ तो ख़ुशी के क्षण आपकी भी ज़िंदगी में आएं... आप भी तो हक़दार हैं अपनी ख़ुशी की... और कभी वे क्षण आएं तो आप इंकार मत करना...!’ कहते-कहते पम्मी और भावुक हो उठी थी। ‘अच्छा अब तू इत्मीनान रख, मैं ख़ुश होकर इस यात्रा का आनंद लूंगी और कुछ नहीं सोचूंगी, बस....!’ कहते-कहते सुनीता का भी गला भर आया था, कोई तो है उसकी ज़िंदगी में, जो उसके बारे में इतना सोचता भी है। पम्मी के जाने के बाद दो-चार दिन तो सफ़र की तैयारी की अफ़रातफ़री में ही बीत गए थे। जब सारी औपचारिकताएं पूरी करके दिल्ली से हवाई जहाज में बैठी तो इत्मीनान की सांस ली उसने... ‘...तो आख़िर पम्मी ने भेज ही दिया मुझे...’ सोचकर एक हल्की मुस्कान सुनीता के चेहरे पर फैल गई थी। ऐसे टूर के मौके तो पहले भी कई बार आए थे उसकी ज़िंदगी में, पर वही टालती रही थी, क्या करे? मन ही नहीं होता था इतने लंबे अकेले सफ़र का... छुट्टी मिलती तो बस भाई-बहनों के पास आना-जाना हो जाता... वही काफ़ी था। पम्मी तो अभी भी मना ही कर रही थी कि जब दीदी और भैया लोग पसंद ही नहीं करते कि आप कहीं जाओ तो आप उन्हें बताना भी नहीं। ‘अरे बताऊंगी कैसे नहीं? इतना लंबा प्रोग्राम है...!’ कहकर उसने दीदी को फोन किया था। ‘अच्छा तो तू जा रही है लंदन... चलो अपना-अपना सुख है... हमें तो यहीं झांसी में ही मरना है, जीना है...।’ दीदी कुछ और कहतीं तब तक उनकी बेटी शुभ्रा ने फोन झटक लिया था। ‘मौसी! यूरोप जा रही हो तो मेरे लिए अच्छे काॅस्मेटिक्स और जीन्स ज़रूर लाना... नाप तो पता है न आपको मेरा...?’ फिर दीदी की आवाज़ आई थी। ‘देख सुनीता! अकेली शुभ्रा के लिए नहीं, तुझे कुछ न कुछ तो सभी के लिए लाना है, वैसे बीनू तुम्हें मेल कर देगा चीज़ों के बारे में...’ ...फिर फ़र्माइशों की लंबी लिस्ट...। फोन तो पम्मी भी सुन रही थी। ‘देखा दीदी! सब अपनी-अपनी कहे जा रहे हैं, कोई यह नहीं कह रहा है कि इतने लंबे समय बाद आप बाहर कहीं जा रही हैं, तो ख़ूब एंजाॅए करना, आराम से घूमना, ख़र्च करना, खाना-पीना और जो जंचे सो करना...!’ सुनीता तब फीकी-सी हंसी हंसकर रह गई थी। पम्मी भी तो अब उसके परिवार के लोगों की मानसिकता से परिचित हो गई है, इसलिए सब कुछ कह देती है। कई बार तो यह भी कह चुकी है कि अच्छा हुआ आपने ये फ़्लैट ख़रीद लिया, रिटायरमेंट के बाद कोई ठिया तो होगा रहने के लिए, यहां भाई-बहनों से अपेक्षा रखो तो बुढ़ापे में ठोकर ही खानी पड़ती है, आपको तो पेंशन भी अच्छी ख़ासी मिल जाएगी, तो आराम से रहना, यह नहीं कि सब लुटाती रहो...। पम्मी की बातें कभी-कभी चुभ तो जाती हैं, पर बोलती तो खरी-खरी बातें ही है, ऐसे कई उदाहरण तो सुनीता भी देख चुकी है, कब तक आंखें मूंदे रहे सबसे...? प्लेन में बैठे-बैठे ही मन अतीत में डूबने लगा था। पूरे चंवालीस वर्ष हो गए उम्र के, क्या खोया... क्या पाया...? कभी विश्लेषण करती है तो लगता है कि खोया ही खोया है उसने। पढ़ाई में मेधावी रही तो कम उम्र में ही बैंक में नौकरी लग गई। फिर अकस्मात पिता का देहान्त हो गया तो भाई-बहनों का दायित्व आ पड़ा उसी के कमज़ोर कंधों पर। दीदी की शादी, भैया की पढ़ाई, छोटी बहनों के ख़र्चे... सबको वहन करते-करते अपनी शादी का ख़याल तो बस एक बार ही आया था... जब प्रखर को देखा था... प्रखर आर्मी में मेजर था। वहीं झांसी में टेªेनिंग के लिए आया था। तब उसकी एक सहेली ने ही परिचय करवाया था। प्रखर का शानदार व्यक्तित्व, मिलनसारिता, हंसमुख स्वभाव, उसने तो बातों ही बातों में प्रपोज़ भी कर दिया था, पर घरवालों का विरोध... वह नौकरी छोड़कर प्रखर के साथ चली गई तो भाई-बहनों का दायित्व कौन वहन करेगा? प्रखर तो इस दो टूक इंकार से इतना नाराज़ हुआ कि अपनी टेªनिंग भी बीच में ही छोड़कर चला गया था। वह भी तो कई दिनों तक भूल नहीं पाई थी उसे... और कई दिनों तक ही क्यों... प्रखर का व्यक्तित्व तो आज भी ताज़ा है उसकी आंखों में... बाद में भी कई बार रिश्तों की बात चली पर कभी किसी कारण तो कभी किसी कारणवश वह अस्वीकार ही होती रही। रिश्ते की पूर्वा दीदी ने तो एक बार अपनी तरफ़ से रिश्ता तय ही कर दिया था। ‘सुनीता! दीपक भी बैंक में ही आॅफ़ीसर है, पारिवारिक कारणों से अब तक विवाह नहीं किया है, तो मैंने तेरी बात चलाई है, शाम को खाने पर बुला लिया है उसे... तो तू भी ठीक तरह से तैयार होकर आ जाना... और अच्छी तरह ख़ुशी की बातें करना, पुरानी किसी बात का ज़िक्र मत करना समझी...!’ और सुनीता को समझते देर नहीं लगी थी कि पूर्वा का इशारा प्रखर की तरफ़ ही था। वैसे वह ठीक समय पर पहुंच गई थी। खाने-पीने तक माहौल सामान्य रहा। दीपक भी देखने में ठीक-ठाक ही था, फिर पूर्वा ने ही प्रस्ताव रखा... ‘दीपक! अब तुम सुनीता को लेकर कहीं घूम आओ...!’ ‘ठीक है...!’ दीपक के साथ बग़ल में कार में बैठते समय वह कुछ असहज हो गई थी... पुराने रिश्ते याद आए... कई बार अस्वीकार होने का बोध हुआ... दीपक ने धीरे से उसका हाथ सहलाया था, पर वह तो पसीने में नहा उठी थी। ‘क्या बात है...? तबीयत ठीक नहीं है क्या...?’ ‘हां शायद ऐसा ही कुछ...’ वह स्वयं समझ नहीं पाई थी कि हुआ क्या है? दीपक ने तो कह भी दिया था- ‘और लड़कियां तो शादी के नाम से लालायित रहती हैं, पर आप तो इतनी ठंडी... कोल्ड...?’ शब्द कहीं कुछ भीतर तक चुभते चले गए थे और वह ज़िद करके बीच रास्ते में ही उतर गई थी। पूर्वा तो इसी बात से अब तक नाराज़ है। पर वह निश्चय कर चुकी है कि अब कभी विवाह के बारे में सोचेगी भी नहीं। उस तरह की कोई भावनाएं अब मन में उठती ही नहीं हैं। ‘मैडम! आप शायद सो गई थीं, आपका नाश्ता...।’ एअर हाॅस्टेस पूछ रही थी। तब ख़याल आया कि शायद उनींदेपन में भी मन विचार-तंद्रा में ही डूबा रहा। थोड़ा ज्यूस और सैण्डविच लेकर वह कुछ सहज होकर बैठ गई थी। साथ लाई पुस्तक के पन्ने पलटने चाहे, पर मन तो फिर से उड़ानें भरने लगा था। अब पम्मी को कैसे बताए अपने मन की स्थिति? वह तो जब चाहे कह ही देती है- ‘दीदी! अभी आपकी ऐसी उम्र भी नहीं हुई है कि शादी के बारे में सोचें ही नहीं। कोई मन लायक़ साथी मिले तो ज़रूर विचार करना, बड़ी उम्र में भी एक अच्छे कम्पेनियन की तो ज़रूरत होती ही है।’ ‘पम्मी! अब मैं एक तरह से वैरागिनी हो गई हूं...।’ उस दिन पता नहीं कैसे सुनीता के मुंह से निकल ही गया था। ‘कोई वैरागिनी नहीं हुई हैं... मैंने देखी है आपकी एक डायरी... कितनी प्रेम-कविताएं लिखी हैं आपने...?’ ‘अरे वह पुरानी डायरी...!’ चैंक पड़ी थी सुनीता...। और जाते समय भी तो पम्मी कान में कह गई थी... ‘दीदी! आपकी वह डायरी भी मैंने अपने बैग में डाल दी है, फ़ुर्सत में वही पढ़ना तो अच्छा लगेगा... व्यर्थ के विचारों से बचेंगी...।’ ‘पम्मी...!’ याद आते ही फिर एक क्षीण मुस्कान दौड़ गई थी चेहरे पर, अभी पूरी तरह परिपक्व नहीं है ये लड़की, पर ध्यान तो ऐसा रखती है कि पूरे परिवार को पीछे छोड़ दिया है उसने... हीथ्रो एअरपोर्ट की चकाचैंध मन को लुभा गई थी... कस्टम से बाहर आते ही चमकती दूकानें... लोगों की भीड़-भाड़... लंबा-चैड़ा एअरपोर्ट... फिर बाहर आॅफ़िस की ही टैक्सी लेने आ गई थी। विदेश की धरती पर पहला क़दम, सब कुछ बदला-बदला... साफ़-सुथरा... और मन को मोह लेने वाला था। फिर होटल में रिसेप्शन से चाबी लेते समय ही पता चला कि उसका कमरा नंबर 302 है और 303 में भी एक भारतीय ही है, मिस्टर नारायण... जो बैंगलोर से आए हैं। ‘हलो...!’ नारायण ने हाथ आगे बढ़ाया था। एक बार तो चैंक ही गई थी सुनीता... लगा जैसे प्रखर ही सामने आ गया हो... वही डील-डौल... वही क़द... कानों के पास के बालों में ज़रूर हल्की सफ़ेदी झांक रही थी... पर प्रखर भी इस उम्र में... ‘हलो!’ नारायण दोबारा उसे देखकर मुस्कुराया था। ‘हलो...!’ अब वह कुछ झेंप गई थी। ‘चलिए, हमारे कमरेे पास-पास ही हैं...!’ कहकर नारायण ने उसका बैग उठा लिया था। नारायण उसे पहली मुलाक़ात में ही काफ़ी मिलनसार और मज़ाक़िया स्वभाव का लगा था। बातों में लगा ही नहीं कि अब वह एक अनजानी विदेशी भूमि पर हैं। कमरे में सामान रखकर दोनों काॅफ़ी पीने नीचे लाउंज में आ गए थे और तब तक नारायण ने उसे होटल की सारी व्यवस्थाओं से भी परिचित करवा दिया था। ‘चलिए, अब आप कमरे में जाकर आराम कीजिए, मैं थोड़ी देर अपने लैपटाॅप पर काम करूंगा, शाम को खाने पर मिलते हैं।’ नारायण ने बड़े अपनेपन से कहा था। सुनीता स्वयं सोच रही थी कि प्लेन में तो ठीक से सो नहीं पाई, अब नहा-धोकर एक अच्छी नींद लेगी, ताकि शाम तक कुछ ताज़गी महसूस हो। शाम को खाने के समय और भी सहयोगियों से परिचय हुआ, नारायण ने सबसे मिलवा दिया था। ‘आप दोनों शायद पुराने परिचित हैं?’ एक विदेशी ने तो सुनीता से पूछ ही लिया था। और तब नारायण उसे देखकर मुस्कुरा दिया था। कुल मिलाकर सारा माहौल अच्छा और सौहार्दपूर्ण लगा था सुनीता को... कहीं कुछ पूछना होता तो नारायण बड़े अपनेपन से मदद कर देता था। एक हफ़्ते तो कान्फ्ऱेन्स चली, फिर एक हफ़्ते का यूरोप घूमने का प्रोग्राम वहीं से बन गया था। नए शहर, एतिहासिक इमारतें, ख़ूबसूरत वादियां, झीलें, फूलों के लुभावने लहलहाते बाग़ीचे, सभी कुछ भव्य था... और नारायण के सान्निध्य ने दोनों को काफ़ी पास ला दिया था। इतने दिन कब निकल गए... सुनीता तो सोच ही नहीं पाई थी, एक बार भी अपने घर, पुराने परिचितों की याद नहीं आई। लौटते समय फिर लंदन से ही वापिसी की उड़ान थी। उसी होटल में फिर एक रात रुकना था। दूसरे दिन लौटना है, लग रहा था कि जैसे वह और नारायण दोनों ही कुछ मिस कर रहे हैं... नारायण अपने स्वभाव के विपरीत आज बहुत गंभीर और चुप-सा था। ‘आपका सान्निध्य बहुत अच्छा लगा...’ सुनीता ने अपनी तरफ़ से धन्यवाद देने का प्रयास किया था... नारायण फिर भी चुप था, आंखों में उदासी की झलक थी। ‘चलो, कमरे में चलकर काॅफ़ी पीते हैं, मैं बहुत अच्छी काॅफ़ी बनाती हूं...’ सुनीता ने फिर कुछ सहज होने का प्रयास किया था और नारायण के साथ अंदर कमरे में आ गई। काॅफ़ी पीते समय भी दोनों चुप थे... शायद बहुत कुछ अनुभव करते हुए भी कुछ कह नहीं पा रहे थे। फिर कब क्या हुआ... कब नारायण उठकर उसके पास सोफ़े पर इतने क़रीब आ गया... कब वह उसके कंधे पर सिर रखे सिसक पड़ी... कब उसने उसे बाहों में ले लिया... कब... कब...??? देर रात नारायण के धीमे शब्द सुनीता के कानों में गूंजे थे- ‘तुम्हें भूल नहीं पाऊंगा सुनीता... हो सके तो मुझे माफ़ कर देना... मैं... मैं... अपने आपको रोक नहीं पाया...’ ‘नहीं...’ सुनीता ने धीरे से उसके होठों को छुआ था... ‘माफ़ी क्यों... और किससे...? बहुत अच्छी यादें लेकर जा रहे हैं हम दोनों... थैंक्स ए लाॅट...!’ फिर लगा कि शायद शब्दों से वह सब कुछ बयान नहीं कर पा रही है, जो महसूस कर रही है... आख़िर आज नारायण ने उसे एक स्वनिर्मित कारावास से मुक्त जो कर दिया था। 00000000000

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