हमारे पुरोधा गोविन्द गौड़
गोविन्द गौड़ से मेरा परिचय ज्ञान भारती के किसी कार्यक्रम में 1996 के आसपास हुआ था। मैं तब कोटा में सरकारी पद पर था। उनका हिन्दी, राजस्थानी और अंग्रेजी भाषा और साहित्य पर समान अधिकार था। उन्होंने अपना काव्य संग्रह मुझे भेंट किया था। फिर लघु कहानियों का संग्रह एक उपन्यास गद्य में आलेखों का अप्रकाशित संग्रह लेकर वे मेरे पास आए थे। अत्यधिक संवेदनशील व्यक्ति, साहित्य की दुनिया में अनफिट हो जाता है। जीवन के उतत्रार्द्ध में वे मानसिक बीमारिसों से ग्रस्त हो गए थेेेेेेेेे । कोई उनकी हत्या करना चाहता हे, यह भय उन्हें सताने लगा था। उनके ही मित्रों ने जिन पर उन का भरोसा था, उन्होंनेे उनके साहित्य में अश्लीलता का आरोप लगााकर उन्हें अप्रसांगिक बना दिया था। वे एक कुशल संपादक भी थे । साहित्यिक पत्रिका कदंब गंध का उन्होंने संपादन किया था। वे साहित्य को समर्पित मौन आराधक थे, जिनकी सेवाओं को लेकर, न तो उनके जीवन में , न उनके जाने के बाद कभी किसी प्रकार की चर्चा भी नहीं हुई , यह आलेख उनकी स्मृति में समर्पित है।
गोविन्द गौड़ प्रगतिशील आग्रहों से जुड़े कवि थे,
‘पुरातन के प्रति मोहग्रस्तता का अभाव, आगत के प्रति सजग प्रतीक्षा’ प्रगतिशील कविता का आग्रह रहा है। यहाँ काव्य भाषा में ‘तनाव’ स्वतः परिलक्षित है। यह तनाव जहाँ ओढ़ा हुआ होता है, वहाँ भाषा अत्यधिक बोझिल व शोर ग्रस्त हो जाती है। परन्तु जहाँ कवि, ‘साधारण जन’ की व्यथा-कथा के साथ साक्षी बनता है, वहाँ:-
”अस्तु
कंधा तो तुमको देना है
कुर्सी को या अर्थी को
चुनना तो है साथी
अमन चैन या मातम-पुर्सी को।“‘पुरुषांतर’, पृ. 10.
‘पुरुषांतर’, गोविंद गौड़ का कविता संग्रह, उन की चालीस वर्षीय काव्य-साधना का प्रतिफल है। ‘वर्ण’ व ‘वर्ग’ की असमानता तथा विरोधाभास प्रगतिशीलता में बाधक हैं। समाज की समरसता को, इस वर्ण-व्यवस्था ने, मनुष्य व मनुष्य के बीच के इस अलगाव ने, बहुत तोड़ा है:-
”मुझे तअज्जुब है
अपने तप की असफलता के बावजूद
पीपल, आम की ओर
आकृष्ट क्यों नहीं होता?
और बरगद, जामुन से मुँह क्यों मोड़ेे रहा
शायद संस्कार तोड़ सकने की
शक्ति अब इनमें नहीं रह गई है।पृ. 35.
‘संस्कार बद्धता’, प्रतिगामिता का स्वभाव है। जहाँ यह संस्कार बद्धता, क्षरित हो जाती है, वहाँ उस नाम-रूप धारी व्यक्ति का स्वाभाविक परिवर्तन प्रारम्भ हो उठता है, उस के अहंकार खोने लगते हैं। तब जो बच पाता है, वह मात्र आदमी होता है, केवल आदमी, जो इस कविता का आदर्श है:-
”जिसमें कोई रंग भेद न हो
जो सर्व धर्म समभाव हो
वही केवल आदमी है
सचमुच देव तुल्य
शफ्फाफ
शाश्वत सत्य की तरह।“ पृ. 47.
इस ‘आम आदमी’ की खोज, ‘उफान’, ‘आम आदमी’, ‘पुरुषांतर’ ‘समय पूर्व’, ‘नियति’, ‘उपालम्भ’ आदि कविताओं में है। उस की खोज ही नहीं, उस की पहचान भी कवि को है। सम्भवतः प्रगतिशील कविता के इस संग्रह में, ‘देवदार’ कविता इस मानी में अनूठी है। जहाँ बिना किसी तेज़ाबी भाषा के स्पर्श के, बिना घनघोर शब्दावली का सहारा लिए, सहज वचन-वक्रता से आदमी की पहचान को पुनः रेखांंिकत किया है।
‘असमान्तर’ 1993 ई. गोविंद गौड़ की कहानियों का संग्रह है। आप की कहानियों की विवेचना में, डॉ. शान्ति भारद्वाज ‘राकेश’ ने कृति की भूमिका में कहा है:-
”उस की दृष्टि क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं पर है। कुछ प्रसंग तो चौंकाते हैं और सरलता से पचते नहीं। लेकिन आज का व्यक्ति सोच और व्यवहार में जहाँ पहुँच गया है, उस वस्तुस्थिति का साक्षात्कार सहजता को तो खण्डित करेगा ही। गोविन्द गौड़ ने यहाँ पाठकों की प्रतिक्रिया का कम, समय के नंगे सत्य को उजागर करने पर अधिक ध्यान दिया है।“
‘असमान्तर’ की कथा की वस्तु जिस अन्तर्गत का रहस्योद्घाटन करती है, वहाँ नारी के प्रति उन का जो दृष्टिकोण है, वह विस्मयकारक है।
यहाँ पेइंग गेस्ट कहानी में मकान मालकिन का अपनी युवा कन्या के घर में रहते हुए अतिथि को काम पिपासा की तृप्ति से आमन्त्रण, और अतिथि का यह सोचना कि उस की पत्नी ने भी अपने घर में ‘पेइंग गेस्ट’ रखने को कहा है, उस का वापिस घर लौटना। आंतरिकता पर घहरा आघात है,जो धक्के के साथ विवेेक को जगाता है,
यह सोच अप्रत्याशित तो है, पर मानवीय संबंधों का जटिल चित्रण भी हैं जगत की अपनी चाल है, यहाँ क्रियाऐं, प्रतिक्रियाऐं, लेखकीय क़लम से नहीं चलती हैं। लेखक की दृष्टि में अतिरंजना तो है पर अस्वाभाविक नहीं हे। ‘भूख’ कहानी में भी यही स्थिति है।
‘हड़ताल’, ‘बाढ़’, ‘आशंका, ‘भरम’, निम्न मध्य वर्ग की पीड़ा, कुण्ठा, दरिद्रता को चित्रित करते हुए मनुष्य की प्रगाढ़, जिजीविषा के चित्रण की कथाऐं हैं। यहाँ लेखक का प्र्रगतिशील बोध सजग है। गोविन्द गौड़ की कथा-यात्रा में यह द्वन्द्व सहज परिलक्षित होता है।
वे ‘यशपाल’ के कथा साहित्य से प्रभावित हैं तथा साठोत्तरी पीढ़ी का कथा साहित्य भी तरह-तरह के आन्दोलनों से परिचालित था, वहाँ अयाचित सेक्स वर्जनाओं का चित्रण प्रगतिशीलता का आधार मान लिया गया था। बाद मंे कहानी उस अन्धकार से बाहर चली गई थी। अनावश्यक काम-स्थितियों की कथा में प्रस्तुति कथा को बोझिल ही करती है, यह वस्तु जगत का निर्मम सत्य नहीं है। वह तो ‘भरम’ कहानी में प्रतिबिम्बित है, जहाँ कथा का नायक अपनी नस बन्दी करवा कर मिली राशि पिता को सौंप देता है। पिता के पूछने पर वह लँगड़ा कर क्यों चल रहा है, उस का कथन है कि पाँव में चोट लग गई है।
अश्लीलता का आरोप लगाकर लेखक को उसके अधिकार से वंचित कर खारिज कर देना अमानवीय है। दुख तभी होता है, कृति की राहसे न गुजरकर भी हम कृतिकार को फतवे देकर ही ही खारिज कर देते हैं।
‘असमान्तर’ की भाषा में एक ‘तल्ख़ी’ है, कड़ुवाहट है। रचनाकार ने समर्पण में कहा भी है:-
”जिन्हों ने मुझे नीमज़द कड़ुआ बनाया और नंगा सच बयान करने का साहस दिया।“
परन्तु शिल्प जहाँ सुगठित है, वहाँ बिखराव नहीं है। कथा में एकान्विति है, भाषा में प्रभावोत्पादकता है।
‘हाशिये के लोग’2005 ई. गोविन्द गौड़ का निबन्ध संग्रह है।
शिवराम ने निबन्ध संग्रह की भूमिका में कहा है, ”गोविन्द गौड़ के लेखों का यह संग्रह पाठक को उन के चिन्तन और चिन्ताओं से रू-ब-रू कराता है। ...इन लेखों में समाज में क्षीण होती जा रही मानवता की स्थिति की गहरी पीड़ा है। समाज के व्यापारीकरण ने साहित्य, संस्ड्डति को जीवन के हाशिये पर डाल दिया है। फलस्वरूप जीवन से सुरभि, सौरभ और आनन्द खोता जा रहा है।“
लेखक ने अपने समय की बहुत-सी सामाजिक समस्याओं, साहित्यिक-सांस्कृतिक आन्दोलनों, ऐतिहासिक घटनाओं पर बेबाक लिखा हे। उससे सहृ दय पाठक के लिए एक व्यापक परिदृश्य बनता है। साठोत्तरी कथा साहित्य को उस समय समझने की ललक इस कृति के आलेखों में स्पष्ट है। लेखक की भाषा सहज व प्रभावी है।
‘मैं तुम्हें खाक कर दूंगा’ ;2000 ई., यह सुरेन्द्र गोइन्दी के अंग्रेज़ी उपन्यास ‘आइ विल रुइन यू’ का हिन्दी में वह अनुवाद है, जो गोविन्द गौड़ ने किया है।
अनुवाद की भाषा इतनी सहज व स्वाभाविक है कि वह मूल कति की अपने आप में सूचना देती है। उपन्यास समकालीन यथार्थ का खुला लेखा है। जिस प्रकार तकनीकी महकमों में व्याप्त भ्रष्टाचार एक ईमानदार आदमी को बर्बादी के कगार पर ले आता है, उस की जिजीविषा व नैतिक मूल्यों के प्रति सन्लग्नता, उसे हर परिस्थिति में जो साहस देती है, उस का इस कृति में पसारा है।
हिमाचल प्रदेश यहाँ अपने ख़ूबसूरत पर्यटन सौन्दर्य के साथ है, साथ ही वहाँ प्रचालित निर्माण कार्य की व्यवस्थाएँ हैं। सेना भी है, आपातकाल भी है, जन साधारण किस प्रकार व्यवस्था की निर्ममताओं को झेलता है, उस की कटुता, विषमता यहाँ उपस्थित है।
गोविन्द गौड़ की ख़ूबसूरती वह पारदर्शी भाषा है, जहाँ वस्तुगत तेज़ाबी घुटन व पतन को उन्हों ने तलस्पर्शी छटपटाहट के साथ प्रस्तुत किया है। यह अनुवाद की भाषा नहीं है, लगता है, स्वयं अनुवादक मुख्य पात्र ‘सिंह’ की व्यथा के साथ एक रूप हो गया है, ”मैं ने तो सहज जीवनानुभावों को अभिव्यक्ति दी है। पात्र-विशेष की जीवन-यात्रा के यथार्थ, ज़माने के सत्य, उस के संघर्ष, आदर्श, दर्शन और तीव्र प्रगतिशीलता के स्पेस से इस उपन्यास की साँसों का अहसास मात्र ही मेरे लिए एक उपलब्धि होगी।“ ;लेखकीय
उपरोक्त लेखकीय संकल्प, को उपर्युक्त भाषा में ही नहीं, आत्मगत संकल्प भावना से अनुवाद किया है। यह उपन्यास अपनी विषयवस्तु की अनूठी पहचान रखता है। यहाँ ‘भ्रष्टाचार, व्यभिचार, को परत-दर-परत अनावृत करता हुआ सामान्य मनुष्य की उद्दाम जिजीविषा के महान संकल्प को जगाता हुआ, यह उपन्यास महत्वपूर्ण है।
उपरोक्त आलेख में गोविन्द गौड़ की रचनाधर्मिता से आपका परिचय कराया है। वे आधुनिक सोच के अप्रतिम रचनाकार थे। उनकी अंत्येष्ठि के दिन तेज ओलों की बरसात के साथ उन्हें विदाई दी गई थी। लग ये ही रहा था उनकी जीवन्तता मानो जाने से मना कर रही हो।
गोविन्द गौड़ से मेरा परिचय ज्ञान भारती के किसी कार्यक्रम में 1996 के आसपास हुआ था। मैं तब कोटा में सरकारी पद पर था। उनका हिन्दी, राजस्थानी और अंग्रेजी भाषा और साहित्य पर समान अधिकार था। उन्होंने अपना काव्य संग्रह मुझे भेंट किया था। फिर लघु कहानियों का संग्रह एक उपन्यास गद्य में आलेखों का अप्रकाशित संग्रह लेकर वे मेरे पास आए थे। अत्यधिक संवेदनशील व्यक्ति, साहित्य की दुनिया में अनफिट हो जाता है। जीवन के उतत्रार्द्ध में वे मानसिक बीमारिसों से ग्रस्त हो गए थेेेेेेेेे । कोई उनकी हत्या करना चाहता हे, यह भय उन्हें सताने लगा था। उनके ही मित्रों ने जिन पर उन का भरोसा था, उन्होंनेे उनके साहित्य में अश्लीलता का आरोप लगााकर उन्हें अप्रसांगिक बना दिया था। वे एक कुशल संपादक भी थे । साहित्यिक पत्रिका कदंब गंध का उन्होंने संपादन किया था। वे साहित्य को समर्पित मौन आराधक थे, जिनकी सेवाओं को लेकर, न तो उनके जीवन में , न उनके जाने के बाद कभी किसी प्रकार की चर्चा भी नहीं हुई , यह आलेख उनकी स्मृति में समर्पित है।
गोविन्द गौड़ प्रगतिशील आग्रहों से जुड़े कवि थे,
‘पुरातन के प्रति मोहग्रस्तता का अभाव, आगत के प्रति सजग प्रतीक्षा’ प्रगतिशील कविता का आग्रह रहा है। यहाँ काव्य भाषा में ‘तनाव’ स्वतः परिलक्षित है। यह तनाव जहाँ ओढ़ा हुआ होता है, वहाँ भाषा अत्यधिक बोझिल व शोर ग्रस्त हो जाती है। परन्तु जहाँ कवि, ‘साधारण जन’ की व्यथा-कथा के साथ साक्षी बनता है, वहाँ:-
”अस्तु
कंधा तो तुमको देना है
कुर्सी को या अर्थी को
चुनना तो है साथी
अमन चैन या मातम-पुर्सी को।“‘पुरुषांतर’, पृ. 10.
‘पुरुषांतर’, गोविंद गौड़ का कविता संग्रह, उन की चालीस वर्षीय काव्य-साधना का प्रतिफल है। ‘वर्ण’ व ‘वर्ग’ की असमानता तथा विरोधाभास प्रगतिशीलता में बाधक हैं। समाज की समरसता को, इस वर्ण-व्यवस्था ने, मनुष्य व मनुष्य के बीच के इस अलगाव ने, बहुत तोड़ा है:-
”मुझे तअज्जुब है
अपने तप की असफलता के बावजूद
पीपल, आम की ओर
आकृष्ट क्यों नहीं होता?
और बरगद, जामुन से मुँह क्यों मोड़ेे रहा
शायद संस्कार तोड़ सकने की
शक्ति अब इनमें नहीं रह गई है।पृ. 35.
‘संस्कार बद्धता’, प्रतिगामिता का स्वभाव है। जहाँ यह संस्कार बद्धता, क्षरित हो जाती है, वहाँ उस नाम-रूप धारी व्यक्ति का स्वाभाविक परिवर्तन प्रारम्भ हो उठता है, उस के अहंकार खोने लगते हैं। तब जो बच पाता है, वह मात्र आदमी होता है, केवल आदमी, जो इस कविता का आदर्श है:-
”जिसमें कोई रंग भेद न हो
जो सर्व धर्म समभाव हो
वही केवल आदमी है
सचमुच देव तुल्य
शफ्फाफ
शाश्वत सत्य की तरह।“ पृ. 47.
इस ‘आम आदमी’ की खोज, ‘उफान’, ‘आम आदमी’, ‘पुरुषांतर’ ‘समय पूर्व’, ‘नियति’, ‘उपालम्भ’ आदि कविताओं में है। उस की खोज ही नहीं, उस की पहचान भी कवि को है। सम्भवतः प्रगतिशील कविता के इस संग्रह में, ‘देवदार’ कविता इस मानी में अनूठी है। जहाँ बिना किसी तेज़ाबी भाषा के स्पर्श के, बिना घनघोर शब्दावली का सहारा लिए, सहज वचन-वक्रता से आदमी की पहचान को पुनः रेखांंिकत किया है।
‘असमान्तर’ 1993 ई. गोविंद गौड़ की कहानियों का संग्रह है। आप की कहानियों की विवेचना में, डॉ. शान्ति भारद्वाज ‘राकेश’ ने कृति की भूमिका में कहा है:-
”उस की दृष्टि क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं पर है। कुछ प्रसंग तो चौंकाते हैं और सरलता से पचते नहीं। लेकिन आज का व्यक्ति सोच और व्यवहार में जहाँ पहुँच गया है, उस वस्तुस्थिति का साक्षात्कार सहजता को तो खण्डित करेगा ही। गोविन्द गौड़ ने यहाँ पाठकों की प्रतिक्रिया का कम, समय के नंगे सत्य को उजागर करने पर अधिक ध्यान दिया है।“
‘असमान्तर’ की कथा की वस्तु जिस अन्तर्गत का रहस्योद्घाटन करती है, वहाँ नारी के प्रति उन का जो दृष्टिकोण है, वह विस्मयकारक है।
यहाँ पेइंग गेस्ट कहानी में मकान मालकिन का अपनी युवा कन्या के घर में रहते हुए अतिथि को काम पिपासा की तृप्ति से आमन्त्रण, और अतिथि का यह सोचना कि उस की पत्नी ने भी अपने घर में ‘पेइंग गेस्ट’ रखने को कहा है, उस का वापिस घर लौटना। आंतरिकता पर घहरा आघात है,जो धक्के के साथ विवेेक को जगाता है,
यह सोच अप्रत्याशित तो है, पर मानवीय संबंधों का जटिल चित्रण भी हैं जगत की अपनी चाल है, यहाँ क्रियाऐं, प्रतिक्रियाऐं, लेखकीय क़लम से नहीं चलती हैं। लेखक की दृष्टि में अतिरंजना तो है पर अस्वाभाविक नहीं हे। ‘भूख’ कहानी में भी यही स्थिति है।
‘हड़ताल’, ‘बाढ़’, ‘आशंका, ‘भरम’, निम्न मध्य वर्ग की पीड़ा, कुण्ठा, दरिद्रता को चित्रित करते हुए मनुष्य की प्रगाढ़, जिजीविषा के चित्रण की कथाऐं हैं। यहाँ लेखक का प्र्रगतिशील बोध सजग है। गोविन्द गौड़ की कथा-यात्रा में यह द्वन्द्व सहज परिलक्षित होता है।
वे ‘यशपाल’ के कथा साहित्य से प्रभावित हैं तथा साठोत्तरी पीढ़ी का कथा साहित्य भी तरह-तरह के आन्दोलनों से परिचालित था, वहाँ अयाचित सेक्स वर्जनाओं का चित्रण प्रगतिशीलता का आधार मान लिया गया था। बाद मंे कहानी उस अन्धकार से बाहर चली गई थी। अनावश्यक काम-स्थितियों की कथा में प्रस्तुति कथा को बोझिल ही करती है, यह वस्तु जगत का निर्मम सत्य नहीं है। वह तो ‘भरम’ कहानी में प्रतिबिम्बित है, जहाँ कथा का नायक अपनी नस बन्दी करवा कर मिली राशि पिता को सौंप देता है। पिता के पूछने पर वह लँगड़ा कर क्यों चल रहा है, उस का कथन है कि पाँव में चोट लग गई है।
अश्लीलता का आरोप लगाकर लेखक को उसके अधिकार से वंचित कर खारिज कर देना अमानवीय है। दुख तभी होता है, कृति की राहसे न गुजरकर भी हम कृतिकार को फतवे देकर ही ही खारिज कर देते हैं।
‘असमान्तर’ की भाषा में एक ‘तल्ख़ी’ है, कड़ुवाहट है। रचनाकार ने समर्पण में कहा भी है:-
”जिन्हों ने मुझे नीमज़द कड़ुआ बनाया और नंगा सच बयान करने का साहस दिया।“
परन्तु शिल्प जहाँ सुगठित है, वहाँ बिखराव नहीं है। कथा में एकान्विति है, भाषा में प्रभावोत्पादकता है।
‘हाशिये के लोग’2005 ई. गोविन्द गौड़ का निबन्ध संग्रह है।
शिवराम ने निबन्ध संग्रह की भूमिका में कहा है, ”गोविन्द गौड़ के लेखों का यह संग्रह पाठक को उन के चिन्तन और चिन्ताओं से रू-ब-रू कराता है। ...इन लेखों में समाज में क्षीण होती जा रही मानवता की स्थिति की गहरी पीड़ा है। समाज के व्यापारीकरण ने साहित्य, संस्ड्डति को जीवन के हाशिये पर डाल दिया है। फलस्वरूप जीवन से सुरभि, सौरभ और आनन्द खोता जा रहा है।“
लेखक ने अपने समय की बहुत-सी सामाजिक समस्याओं, साहित्यिक-सांस्कृतिक आन्दोलनों, ऐतिहासिक घटनाओं पर बेबाक लिखा हे। उससे सहृ दय पाठक के लिए एक व्यापक परिदृश्य बनता है। साठोत्तरी कथा साहित्य को उस समय समझने की ललक इस कृति के आलेखों में स्पष्ट है। लेखक की भाषा सहज व प्रभावी है।
‘मैं तुम्हें खाक कर दूंगा’ ;2000 ई., यह सुरेन्द्र गोइन्दी के अंग्रेज़ी उपन्यास ‘आइ विल रुइन यू’ का हिन्दी में वह अनुवाद है, जो गोविन्द गौड़ ने किया है।
अनुवाद की भाषा इतनी सहज व स्वाभाविक है कि वह मूल कति की अपने आप में सूचना देती है। उपन्यास समकालीन यथार्थ का खुला लेखा है। जिस प्रकार तकनीकी महकमों में व्याप्त भ्रष्टाचार एक ईमानदार आदमी को बर्बादी के कगार पर ले आता है, उस की जिजीविषा व नैतिक मूल्यों के प्रति सन्लग्नता, उसे हर परिस्थिति में जो साहस देती है, उस का इस कृति में पसारा है।
हिमाचल प्रदेश यहाँ अपने ख़ूबसूरत पर्यटन सौन्दर्य के साथ है, साथ ही वहाँ प्रचालित निर्माण कार्य की व्यवस्थाएँ हैं। सेना भी है, आपातकाल भी है, जन साधारण किस प्रकार व्यवस्था की निर्ममताओं को झेलता है, उस की कटुता, विषमता यहाँ उपस्थित है।
गोविन्द गौड़ की ख़ूबसूरती वह पारदर्शी भाषा है, जहाँ वस्तुगत तेज़ाबी घुटन व पतन को उन्हों ने तलस्पर्शी छटपटाहट के साथ प्रस्तुत किया है। यह अनुवाद की भाषा नहीं है, लगता है, स्वयं अनुवादक मुख्य पात्र ‘सिंह’ की व्यथा के साथ एक रूप हो गया है, ”मैं ने तो सहज जीवनानुभावों को अभिव्यक्ति दी है। पात्र-विशेष की जीवन-यात्रा के यथार्थ, ज़माने के सत्य, उस के संघर्ष, आदर्श, दर्शन और तीव्र प्रगतिशीलता के स्पेस से इस उपन्यास की साँसों का अहसास मात्र ही मेरे लिए एक उपलब्धि होगी।“ ;लेखकीय
उपरोक्त लेखकीय संकल्प, को उपर्युक्त भाषा में ही नहीं, आत्मगत संकल्प भावना से अनुवाद किया है। यह उपन्यास अपनी विषयवस्तु की अनूठी पहचान रखता है। यहाँ ‘भ्रष्टाचार, व्यभिचार, को परत-दर-परत अनावृत करता हुआ सामान्य मनुष्य की उद्दाम जिजीविषा के महान संकल्प को जगाता हुआ, यह उपन्यास महत्वपूर्ण है।
उपरोक्त आलेख में गोविन्द गौड़ की रचनाधर्मिता से आपका परिचय कराया है। वे आधुनिक सोच के अप्रतिम रचनाकार थे। उनकी अंत्येष्ठि के दिन तेज ओलों की बरसात के साथ उन्हें विदाई दी गई थी। लग ये ही रहा था उनकी जीवन्तता मानो जाने से मना कर रही हो।