बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

हमारे पुरोधा गोविन्द गौड़

हमारे पुरोधा गोविन्द गौड़

 गोविन्द गौड़ से मेरा परिचय ज्ञान भारती के किसी कार्यक्रम में 1996 के आसपास हुआ था। मैं तब कोटा में सरकारी पद पर था। उनका हिन्दी, राजस्थानी और अंग्रेजी भाषा और साहित्य पर समान अधिकार था। उन्होंने अपना काव्य संग्रह मुझे भेंट किया था। फिर लघु कहानियों का संग्रह एक उपन्यास गद्य में आलेखों का अप्रकाशित संग्रह लेकर वे मेरे पास आए थे। अत्यधिक संवेदनशील व्यक्ति, साहित्य की दुनिया में अनफिट हो जाता है। जीवन के उतत्रार्द्ध में वे मानसिक बीमारिसों से ग्रस्त हो गए थेेेेेेेेे । कोई उनकी हत्या करना चाहता हे, यह भय उन्हें सताने लगा था। उनके ही मित्रों ने जिन पर  उन का भरोसा था, उन्होंनेे उनके साहित्य में अश्लीलता का आरोप लगााकर उन्हें अप्रसांगिक बना दिया था।  वे एक कुशल संपादक भी थे । साहित्यिक पत्रिका कदंब गंध का उन्होंने संपादन किया था। वे साहित्य को समर्पित मौन आराधक थे, जिनकी सेवाओं को लेकर, न तो उनके जीवन में , न उनके जाने के बाद  कभी किसी प्रकार की चर्चा भी नहीं हुई , यह आलेख उनकी स्मृति में समर्पित है।

गोविन्द गौड़ प्रगतिशील आग्रहों से जुड़े कवि थे,
 ‘पुरातन के प्रति मोहग्रस्तता का अभाव, आगत के प्रति सजग प्रतीक्षा’ प्रगतिशील कविता का आग्रह रहा है। यहाँ काव्य भाषा में ‘तनाव’ स्वतः परिलक्षित है। यह तनाव जहाँ ओढ़ा हुआ होता है, वहाँ भाषा अत्यधिक बोझिल व शोर ग्रस्त हो जाती है। परन्तु जहाँ कवि, ‘साधारण जन’ की व्यथा-कथा के साथ साक्षी बनता है, वहाँ:-
”अस्तु
कंधा तो तुमको देना है
कुर्सी को या अर्थी को
चुनना तो है साथी
अमन चैन या मातम-पुर्सी को।“‘पुरुषांतर’,  पृ. 10.

‘पुरुषांतर’, गोविंद गौड़ का कविता संग्रह, उन की चालीस वर्षीय काव्य-साधना का प्रतिफल है। ‘वर्ण’ व ‘वर्ग’ की असमानता तथा विरोधाभास प्रगतिशीलता में बाधक हैं। समाज की समरसता को, इस वर्ण-व्यवस्था ने, मनुष्य व मनुष्य के बीच के इस अलगाव ने, बहुत तोड़ा है:-
”मुझे तअज्जुब है
अपने तप की असफलता के बावजूद
पीपल, आम की ओर
आकृष्ट क्यों नहीं होता?
और बरगद, जामुन से मुँह क्यों मोड़ेे रहा
शायद संस्कार तोड़ सकने की
शक्ति अब इनमें नहीं रह गई है।पृ. 35.
‘संस्कार बद्धता’, प्रतिगामिता का स्वभाव है। जहाँ यह संस्कार बद्धता, क्षरित हो जाती है, वहाँ उस नाम-रूप धारी व्यक्ति का स्वाभाविक परिवर्तन प्रारम्भ हो उठता है, उस के अहंकार खोने लगते हैं। तब जो बच पाता है, वह मात्र आदमी होता है, केवल आदमी, जो इस कविता का आदर्श है:-
”जिसमें कोई रंग भेद न हो
जो सर्व धर्म समभाव हो
वही केवल आदमी है
सचमुच देव तुल्य
शफ्फाफ
शाश्वत सत्य की तरह।“ पृ. 47.

इस ‘आम आदमी’ की खोज, ‘उफान’, ‘आम आदमी’, ‘पुरुषांतर’ ‘समय पूर्व’, ‘नियति’, ‘उपालम्भ’ आदि कविताओं में है। उस की खोज ही नहीं, उस की पहचान भी कवि को है। सम्भवतः प्रगतिशील कविता के इस संग्रह में, ‘देवदार’ कविता इस मानी में अनूठी है। जहाँ बिना किसी तेज़ाबी भाषा के स्पर्श के, बिना घनघोर शब्दावली का सहारा लिए, सहज वचन-वक्रता से आदमी की पहचान को पुनः रेखांंिकत किया है।


‘असमान्तर’ 1993 ई. गोविंद गौड़ की कहानियों का संग्रह है। आप की कहानियों की विवेचना में, डॉ. शान्ति भारद्वाज ‘राकेश’ ने कृति की भूमिका में कहा है:-
”उस की दृष्टि क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं पर है। कुछ प्रसंग तो चौंकाते हैं और सरलता से पचते नहीं। लेकिन आज का व्यक्ति सोच और व्यवहार में जहाँ पहुँच गया है, उस वस्तुस्थिति का साक्षात्कार सहजता को तो खण्डित करेगा ही। गोविन्द गौड़ ने यहाँ पाठकों की प्रतिक्रिया का कम, समय के नंगे सत्य को उजागर करने पर अधिक ध्यान दिया है।“

‘असमान्तर’ की कथा की वस्तु जिस अन्तर्गत का रहस्योद्घाटन करती है, वहाँ नारी के प्रति उन का जो दृष्टिकोण है, वह विस्मयकारक है।
 यहाँ पेइंग गेस्ट कहानी में  मकान मालकिन का अपनी युवा कन्या के घर में रहते हुए अतिथि को काम पिपासा की तृप्ति से आमन्त्रण, और अतिथि का यह सोचना कि उस की पत्नी ने भी अपने घर में ‘पेइंग गेस्ट’ रखने को कहा है, उस का वापिस घर लौटना।  आंतरिकता पर घहरा आघात है,जो धक्के के साथ विवेेक को जगाता है,
 यह सोच अप्रत्याशित तो है, पर मानवीय संबंधों का जटिल चित्रण भी हैं  जगत की अपनी चाल है, यहाँ क्रियाऐं, प्रतिक्रियाऐं, लेखकीय क़लम से नहीं चलती हैं। लेखक की दृष्टि में अतिरंजना  तो है  पर अस्वाभाविक नहीं हे।  ‘भूख’ कहानी में भी यही स्थिति है।

‘हड़ताल’, ‘बाढ़’, ‘आशंका, ‘भरम’, निम्न मध्य वर्ग की पीड़ा, कुण्ठा, दरिद्रता को चित्रित करते हुए मनुष्य की प्रगाढ़, जिजीविषा के चित्रण की कथाऐं हैं। यहाँ लेखक का प्र्रगतिशील बोध सजग है। गोविन्द गौड़ की कथा-यात्रा में यह द्वन्द्व सहज परिलक्षित होता है।

वे ‘यशपाल’ के कथा साहित्य से प्रभावित हैं तथा साठोत्तरी पीढ़ी का कथा साहित्य भी तरह-तरह के आन्दोलनों से परिचालित था, वहाँ अयाचित सेक्स वर्जनाओं का चित्रण प्रगतिशीलता का आधार मान लिया गया था। बाद मंे कहानी उस अन्धकार से बाहर चली गई थी। अनावश्यक काम-स्थितियों की कथा में प्रस्तुति कथा को बोझिल ही करती है, यह वस्तु जगत का निर्मम सत्य नहीं है। वह तो ‘भरम’ कहानी में प्रतिबिम्बित है, जहाँ कथा का नायक अपनी नस बन्दी करवा कर मिली राशि पिता को सौंप देता है। पिता के पूछने पर वह लँगड़ा कर क्यों चल रहा है, उस का कथन है कि पाँव में चोट लग गई है।

अश्लीलता का आरोप लगाकर लेखक को उसके अधिकार से वंचित कर खारिज कर देना अमानवीय है। दुख तभी होता है, कृति की राहसे न गुजरकर भी हम कृतिकार को फतवे देकर ही  ही खारिज कर देते हैं।
‘असमान्तर’ की भाषा में एक ‘तल्ख़ी’ है, कड़ुवाहट है। रचनाकार ने समर्पण में कहा भी है:-
”जिन्हों ने मुझे नीमज़द कड़ुआ बनाया और नंगा सच बयान करने का साहस दिया।“
परन्तु शिल्प जहाँ सुगठित है, वहाँ बिखराव नहीं है।  कथा में एकान्विति है, भाषा में प्रभावोत्पादकता है।


‘हाशिये के लोग’2005 ई. गोविन्द गौड़ का निबन्ध संग्रह है।

शिवराम ने निबन्ध संग्रह की भूमिका में कहा है, ”गोविन्द गौड़ के लेखों का यह संग्रह पाठक को उन के चिन्तन और चिन्ताओं से रू-ब-रू कराता है। ...इन लेखों में समाज में क्षीण होती जा रही मानवता की स्थिति की गहरी पीड़ा है। समाज के व्यापारीकरण ने साहित्य, संस्ड्डति को जीवन के हाशिये पर डाल दिया है। फलस्वरूप जीवन से सुरभि, सौरभ और आनन्द खोता जा रहा है।“

लेखक ने अपने समय की बहुत-सी सामाजिक समस्याओं, साहित्यिक-सांस्कृतिक आन्दोलनों, ऐतिहासिक घटनाओं  पर बेबाक लिखा हे। उससे सहृ दय  पाठक के लिए  एक व्यापक परिदृश्य बनता है। साठोत्तरी कथा साहित्य को उस समय समझने की ललक इस कृति के आलेखों में स्पष्ट है। लेखक की भाषा सहज व प्रभावी है।

‘मैं तुम्हें खाक कर दूंगा’ ;2000 ई., यह सुरेन्द्र गोइन्दी के अंग्रेज़ी उपन्यास ‘आइ विल रुइन यू’ का हिन्दी में वह अनुवाद है, जो गोविन्द गौड़ ने किया है।

अनुवाद की भाषा इतनी सहज व स्वाभाविक है कि वह मूल कति की अपने आप में सूचना देती है। उपन्यास समकालीन यथार्थ का खुला लेखा है। जिस प्रकार तकनीकी महकमों में व्याप्त भ्रष्टाचार एक ईमानदार आदमी को बर्बादी के कगार पर ले आता है, उस की जिजीविषा व नैतिक मूल्यों के प्रति सन्लग्नता, उसे हर परिस्थिति में जो साहस देती है, उस का इस कृति में पसारा है।

हिमाचल प्रदेश यहाँ अपने ख़ूबसूरत पर्यटन सौन्दर्य के साथ है, साथ ही वहाँ प्रचालित निर्माण कार्य की व्यवस्थाएँ हैं। सेना भी है, आपातकाल भी है, जन साधारण किस प्रकार व्यवस्था की निर्ममताओं को झेलता है, उस की कटुता, विषमता यहाँ उपस्थित है।

गोविन्द गौड़ की ख़ूबसूरती वह पारदर्शी भाषा है, जहाँ वस्तुगत तेज़ाबी घुटन व पतन को उन्हों ने तलस्पर्शी छटपटाहट के साथ प्रस्तुत किया है। यह अनुवाद की भाषा नहीं है, लगता है, स्वयं अनुवादक मुख्य पात्र ‘सिंह’ की व्यथा के साथ एक रूप हो गया है, ”मैं ने तो सहज जीवनानुभावों को अभिव्यक्ति दी है। पात्र-विशेष की जीवन-यात्रा के यथार्थ, ज़माने के सत्य, उस के संघर्ष, आदर्श, दर्शन और तीव्र प्रगतिशीलता के स्पेस से इस उपन्यास की साँसों का अहसास मात्र ही मेरे लिए एक उपलब्धि होगी।“ ;लेखकीय

उपरोक्त लेखकीय संकल्प, को उपर्युक्त भाषा में ही नहीं, आत्मगत संकल्प भावना से अनुवाद किया है। यह उपन्यास  अपनी विषयवस्तु की अनूठी पहचान रखता है। यहाँ ‘भ्रष्टाचार, व्यभिचार, को परत-दर-परत अनावृत करता हुआ सामान्य मनुष्य की उद्दाम जिजीविषा के महान संकल्प को जगाता हुआ, यह उपन्यास महत्वपूर्ण है।

उपरोक्त आलेख में गोविन्द गौड़ की रचनाधर्मिता से आपका परिचय कराया है। वे आधुनिक सोच के अप्रतिम रचनाकार थे। उनकी अंत्येष्ठि के दिन तेज ओलों की बरसात के साथ उन्हें विदाई दी गई थी। लग ये ही रहा था उनकी जीवन्तता मानो जाने से मना कर रही हो।

मंगलवार, 29 अक्टूबर 2013

हमारे पुरोधाश्री जमना प्रसाद ठाड़ा राही

हमारे पुरोधाश्री जमना प्रसाद ठाड़ा राही


श्री जमना प्रसाद ठाड़ा राही प्रगतिशील कवि, नाटककार, रंगमंच के कुशल अभिनेता थे, जिनकी जन्म शताब्दी का उत्सव  प्रेस क्लब कोटा की आयोजित सभा में मनाया गया था। उनकी साहित्यिक यात्रा पर आलेख भी पढ़े गए थे। ठाड़ा साहब से मेरी मुलाकात सन 71 के आसपास हुई थी, तब मैं हिन्दी विभाग में प्राध्यापक था। जाग जाग री बस्ती आपके गीतों का संग्रह प्रकाशित हुआ। हाड़ौती में खूूॅंगाली आपकी कविताओं का संग्रह आया। इस अंचल की नाट्यधर्मिता को  आपने आगे बढ़ाया। प्रांत के हिन्दी साहित्य का विकास स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही गुटबंदी का शिकार होगया। हिन्दी साहित्य हो या राजस्थानी साहित्य का केन्द्र जो स्वतंत्रता पूर्व हाड़ौती में केन्द्रित था वह क्रमशः उदयपुर व जोघपुर में ही सीमित रह गया। हाड़ौती मे जो नेतृत्व विकसित हुआ , वह आत्ममुग्ध , स्वकेन्द्रित तथा स्वप्रचारी अधिक ही होगया। उस नेतृत्व ने अपने सभी समकालीन साहित्यकारो के साथ उपेक्षित व्यवहार ही अधिक रखा।

यह लेखमाला उन्हीं पुरोधा साहित्यकारों को समर्पित है, जिन्हें हम भूल गए हैं।  आज नए लेखकों पर मोनोग्राफ तैयार हो रहे हैं, पर जिन्होंने अपना पूरा जीवन साहित्यिक सेवा में ही दिया, उन पर आलेख तक प्रकाशित होना दुल्रभ हो गया है। हम अपनी परंपरा को जाने, प्रेम करें, इसी आषा के साथ-

जमना प्रसाद ठाड़ा ‘राही’ का काव्य संग्रह ‘जाग जाग री बस्ती’ सन 1981 ई. में प्रकाशित हुआ था। आप इस अ´चल की ‘जन वादी काव्य चेतना’ के वे प्रमुख कवि थे। रंग कर्मी ठाड़ा ‘राही’ सन 1950 ई. के आस-पास साहित्य-जगत में अपना स्थान बना चुके थे। परन्तु आप का काव्य संग्रह बहुत बाद में सेवा-निवृत्ति के बाद ही प्रकाशित हुआ। आप इस अ´चल की प्रगतिशील कविता के प्रारम्भिक कवि कहे जा सकते हैं।

”बिकी हुई कलमों से केवल जन रंजन हो सकता है
किन्तु न कोई दिशा बोध या निर्देशन हो सकता है।
जागरुक सर्जक खुद जगता, सारा देश जगाता है
अधिकारों का यह मौसम है भिक्षाओं का समय नहीं
संकल्पों का यह मौसम है, शंकाओं का समय नहीं।“
”टूट गये मस्तूल ढेर यह फटे हुए पालों का
जिसके चारों ओर घिरा है घेरा घडियालों का
खुद पतवार संभालो राही डूब रही यह किश्ती
जाग जाग री बस्ती अब तो जाग जाग री बस्ती।“

आज की समस्याओं का आकलन यह कवि पचास साल पहले भी कर रहा था। यह वह दौर था जहॉं साहित्य लोकेषणा का आधार नहीं था।

‘राही’ का यह 51 कविताओं का काव्य संग्रह अपनी विश्ेाष पहचान के साथ आया था। कवि के भीतर आवेग, वर्तमान से असन्तोष तथा जीवन यथार्थ का कटु अनुभव और उस सब के बावजूद जीवन्त रहने की अभिलाषा, उन के इन गीतों का सार तत्व है।

”ये शासकीय सम्मानित कवि हैं, हम तो फुटपाथी हैं
हमारी कलमें बड़ी तुर्श पर इनकी ठकुर-सुहाती हैं“।
यही कारण रहा कि ठाड़ा साहब अपने समय के लोकप्रिय कवि होते हुए भी तत्कालीन साहित्यिक मूल्यांकन से उपेक्षित ही रहे।

कवि ठाड़ा ‘राही’, शिक्षक रहे थे। अतः साधारण जन की पीड़ा के वे गायक बने। आम बोल-चाल की भाषा, उस में बात कहने का साहस, जो आम जन तक सीधी सम्प्रेषित हो जाए, यह  ठाड़ा ‘राही’ की कविताओं की पहचान रही है।
हाड़ौती में ‘खूँगाली’ उन का काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ था। आपका सृजन महत्वपूर्ण है।

रविवार, 27 अक्टूबर 2013

हमारे पुरोधा बालकृष्ण थोलंबिया जी

हमारे पुरोधा  बालकृष्ण थोलंबिया जी


थोलम्बिया जी हाड़ौती अंचल की साहित्यिक साधना के  शताब्दी पुरुष हुए हैं। आप बीसवीं शताब्दी  के पूर्वाद्ध में इस अंचल में हिन्दी भाषा और साहित्य के शिक्षण में प्रवृत्त हुए थे। आप अस्सी साल से अधिक  साहित्य की सेवा में रहे। छन्द पर आपका अधिकार था। जनी अपका खंड काव्य है। संत नामदेव की शिष्याओं में जनी का नाम उल्लेखनीय है। इस आलेख में थोलम्बिया की स्मृति में उनके भक्ति प्रधान इस खंड काव्य पर चर्चा की जारही है। आज की दुनिया में  जहॉं लेखन आत्ममुग्ध बनता जारहा है,  नई पीढ़ी के लिए अपनी परम्परा के दाय को स्मरण करना मित्रों को कष्ट कारी अवश्य लग सकता है। आयु के सौवर्ष पूरे कर प्रसन्नचित हमारे बीच से आप विदा हुए थे।  आपके जीवन के अंतिम वर्षों में प्रिय श्रीनंदन चतुर्वेदी जी के साथ  जब मैं आपसे मिला था, आप की नेत्रज्योति चली गई थी, पर आपकी स्मृति यथावत थी , जनी खंडकाव्य के कुछ छंद मैंने आपसे आपके घर ही सुने थे। जो आपके लिए यहॉं दिए जा रहे हैं।
बाल कृष्ण थोलम्बिया अस्सी वर्षों तक हाड़ौती के साहित्यिक रचना सन्सार में क्रियाशील रहे हैं। वे राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्य धारा के कवि हैं। वे हाड़ौती साहित्य के सन्सार में सर्वाधिक सक्रिय रहे हैं।
सरल, सहज काव्य भाषा और परिवेशगत विषय, सदा से ही कवियों का आकर्षण रहा है। बाल कृष्ण थोलम्बिया ने पुराने काव्य रूपों और नए काव्य रूप ‘मुक्त छन्द’ में भी लिखा है। आप का स्वतन्त्र काव्य ग्रन्थ ‘जनी’ प्रकाशित है। अस्सी वर्ष से अधिक समय तक काव्य सर्जना में सन्लग्न बाल कृष्ण थोलम्बिया, इस अ´चल के शताधिक आयु प्राप्त, ‘जीवन साहित्य सर्जना’ के प्रतीक हैं।
”आश्वासनों की मकड़ियाँ
इतने जाल तन देती हैं
कि मन की माखी
उलझती जाती है, उलझती जाती है
और अन्त में निढाल हो दम तोड़ बैठती है।“4 ;कोटा काव्य गन्धा, पृ. 5.
”यही है अवसाद
कि
पुरुष
अब कापुरुष हो गया है
चरित्र और नैतिकता का गढ ़हो गया है धराशायी।(कोटा काव्य गन्धा, पृ. 7.)

‘ब्रज माधुरी’, ‘मन भावनी’ ;साठ सोरठे तथा ‘जनी’ ;भक्ति काव्य, 1997 ई आप की अन्य महत्वपूर्ण प्रकाशित रचनाऐं हैं।
सन्त नामदेव के जीवन तथा उन के ‘अभंगों’ पर आपने स्वतन्त्र कार्य किया है। जो सन्त नामदेव और उन के उपदेश, ‘नामदेव निर्माल्य’ के रूप में पुस्तकाकार में प्रकाशित है।
‘जनी’ एक स्वतन्त्र लघु पुस्तिका है। एक लम्बी कविता है। ‘जनी’, एक साधारण निम्न वर्गीय महिला की प्रेममयी गाथा है, एक ग़रीब घर में काम करने वाली दासी ‘जनी’, विट्ठल के प्रेम में इतनी गहराई से डूब गई थी, कि भगवान कृष्ण की गीता में ली गई यह ‘शपथ’ सत्य रूप में प्रकाशित-सी हो गई, ”जो मुझे अनन्य भाव से मानता है, मैं उसे भजता हूंँ।“ राजस्थान की मीरा तथा महाराष्ट्र की ‘जनी’ में यही साम्य है, कि दोनों प्रभु प्रेम में आकण्ठ डूबी हुई हैं। महाभाव में है। वैषम्य बस इतना है कि एक राजरानी रही है, एक दासी, किन्तु प्रभु-प्रेम दोनों के ही जीवन का आधार रहा है।
बाल कृष्ण थोलम्बिया की अपनी अलग शैली है, जो छायावाद पूर्व में, ‘गुप्त’, ‘हरिओध’, की थी। वर्णनात्मक, प्रसादमयी भाषा, जो सीधे पाठक से सम्बोधित होती थी, उसी का विकास यहाँ मिलता है।
”मैं हीन जाति की बेटी
जिस को अछूत जन कहते
मेरी छाया से बच कर
वे दूर-दूर ही रहते।
मैं पूछ रही हूँ तुम से
क्या मुझ को अपना लोगे?
अपने कोमल हाथों से
मेरे अघ-ओघ चुनोगे?“ (पृ. 24.)तब विट्ठल का उसे उत्तर, जो जन कथा में मत है, विट्ठल स्वयं उस के साथ आ कर उस के कार्य करते थे:-
”मौन साध बैठे थे
विट्ठल अब तक, यों बोले -
जे जनी, भक्ति को तेरी,
वह कौन तराजू तोले?“ (पृ. 25.)
वह ऊखल में धान कूटती है, एक छाया-सी उस के साथ रहती है, वह क्या है? अचानक पाती है, मूसल गीला हो गया है, जैसे हाथों का कोई छाला फूट गया हो, वह जानना चाहती है, यह क्या है? तब अचानक विट्ठल की छाया का उसे अनुभव होता है:-
”विट्ठल मेरे जीवन-धन
कमला की चख के तारे
मैं समझ नहीं पाती हूँं
ये कैसे खेल तुम्हारे?
”मेरे उलझे केशों को
तू माँ बन कर सुलझाता
फिर उन को सजा-सँवर कर
वैणी-बन्धन कर जाता।“(;पृ. 34.)
तब विट्ठल का कथन है:-
”घूरे पर उपजी तुलसी
का तो तू पावन दल है
पूजन-अर्चन की गरिमा
भव भव्य भक्ति सम्बल है।“(पृ. 35.)
यहाँ से कविता, अचानक मोड़ लेती है, धर्म, सम्प्रदाय, आध्यात्म, भक्ति, अनेक रूढ शब्दों की, मानो व्याख्या-सी हो गई हो। कवि थोलम्बिया, जो ‘प्रिय हरि’ के नाम से लिख रहे थे, अचानक अन्तर्मुखता की दहलीज़ पर दस्तक देने लगते हैं।
”यदि हो न तअस्सुब मन में
मज़हब कब आड़े आता?
सम भाव समादर रखता,
सब को ही शीश नवाता।“( पृ. 38.)
तथा कवि ‘जनी’ के माध्यम से अपनी ‘दीर्घ जीवन’ की अन्तिम अभिलाषा पाठकों को सोंपता है:-
”ये गिरजा, मन्दिर, मस्जिद
तो केवल एक बहाना,
उस सर्व व्याप्त शाश्वत का
तो सब ही ठौर ठिकाना।“9 ;पृ. 40.द्ध
साहित्य की राजनीति के, इस अ´चल में पहले शिकार बाल ड्डष्ण थोलम्बिया ही बने थे। उन का लिखा हुआ जीवन के अन्तिम समय में प्रकाशित हो पाया था। न तो भारतेन्दु समिति, न ही राजस्थान साहित्य अकादमी, उन के सौ वर्षीय जीवन काल में, उन का और उन के साहित्य का मूल्याकंन कर आदर दे पाई।
हम यहॉं हमारे पुरोधा के नाम से इस लेखमाला को इसलिए दे रहे हैं कि नई पीढ़ी यह जान पाए इस संस्कृति की यात्रा में वे ही अकेले पथिक नहीं हैं।इस अंचल का दुर्भाग्य रहा है कि हिन्दी साहित्य की अविकल सेवा के बावजूद भी इस अंचल के साहित्यिक योगदान का सही मूल्यांकन नहीं हो पाया। न तो राजस्थान साहित्य अकादमी उनके जीवन काल में ”मोनोग्राफ“ निकाल पाई नहीं हमारे पुरोधा श्रृंखला में आलेख ही। हम उनकी स्मृति को बनाए रखें , यही आशा है।

रविवार, 13 अक्टूबर 2013

शिवराम

शिवराम

शिवराम का निबन्ध लेखन बहुुत कुछ अप्रकाशित है, उन की असामयिक मृत्यु ने बहुत कुछ समाज से छीन लिया, बहुत कुछ उन का राजनैतिक सक्रिय जीवन उन से छीन कर ले गया। उन का साहित्यिक अवदान उन के सामाजिक उत्तरदायित्व में बहुत अधिक है। शिवराम के निबन्धों की पाण्डुलिपि जब तैयार कर रहा था, तभी अचानक विचार कौंधा था। शायद  आचार्य ‘शुक्ल’ की विरासत ही शिवराम को मिली है। इतना उदात्त मन, वैचारिक न्याय क्षमता तथा सही को सही कहने का सामर्थ्य शिवराम की ही पूँजी है।
इस आलेख में शिवराम के निबंध और उनके नुक्कड़ नाटकों पर चर्चा की जानी प्रस्तावित है।

शिवराम की गद्य-भाषा, व्यास शैली में .समास बहुल है। वे हर वाक्य को सूक्ति परक बनाते हुए  .एक गहरी लय के साथ, आवेगात्मक भाषा में उद्दाम नदी की तेज धारा की तरह विचारों को उछालते हुए अपनी निबन्ध-यात्रा को प्रारम्भ करते हैं। कविता के बारे में आप का एक महत्वपूर्ण निबन्ध है।

”कवि  की विश्व-दृष्टि, जीवनानुभवों की समृ(ि, उस का काव्य बोध ;जीवन मूल्य और कला मूल्य दोनोंद्ध उस की काव्य भाषा , उस का परम्परा-बोध और उस का काव्य कौशल, उस की कविता की गुणवत्ता को नियमित करते हैं।“

”रचना की अन्तर्वस्तु का जन्म आभ्यंतीकृत जीवनानुभवों के आलोड़न-विलोड़न से अर्थात मन्थन से होता है। चिन्तनशीलता और कल्पनाशीलता, विवेक की अन्तर्दृष्टि इस मन्थन के उद्यम को संचालित करती है। वैयक्तिक.निवै्रयक्तिक होने., जगबीती से आपबीती और आपबीती से जगबीती के रूप में .अनुभूत होने अर्थात सामान्यीकरण होन की प्रक्रिया चलती है। इस प्रक्रिया के बिना रचना की अन्तर्वस्तु अस्तित्वमान नहीं होती। यह प्रक्रिया जितनी समृ( और परिपूर्ण होती है, उतनी ही समृ( और परिपूर्ण अस्तित्वमान होती है।“

शिवराम की गद्य भाषा, उन के निबन्ध, एक मूल्यवान निबन्ध के उत्कृष्ट रूप हैं।

‘बाज़ार का समाजीकरण’ आप का दूसरा महत्वपूर्ण निबन्ध है-

”सच पूछा जाए तो मानव-समाज की सभ्यता और संस्ड्डति के विकास का मूल आधार जरूरत की चीजों के उत्पादन और विनिमय पद्धति की विकास यात्रा ही है।“

”जब निजी हितों और सामाजिक हितों में अन्तर्विरोध उभरने लगते हैं तो व्यवस्था संक्रामक हो जाती है।“

”जिसे स्वतन्त्र बाज़ार कहा जाता है, वह वास्तव में स्वतन्त्र नहीं होता, वह निजी पूँजीपतियों के बीच उन्मुक्त प्रतिद्वन्द्वता के नियन्त्रण पर आधारित होता है।“

‘जन संस्ड्डतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति’ शिवराम का विचारात्मक आलेख है। यहाँ वे रामविलास शर्मा की महत्वपूर्ण अवधारणा ‘जातीय संस्ड्डति’ के अगले पड़ावों की चर्चा में संलग्न हैं। शिवराम जनपदीय संस्ड्डतियों की अभिरक्षा के साथ जातीय संस्ड्डति के विकास की धारा में, ट्ठासोन्मुखी वृत्तियों के उन्मूलन में देखते हैं। उन का सोच साम्राज्यवादी .विकृतियों के विरु( है।

‘नक्सलवाद के विरु( आमजन,.’ आप की वैचारिक दृष्टि का आलेख है, जो जन. की पृष्ठ-भूमि को स्पष्ट करता है।‘हमारी साहित्यिक लघु-पत्रिकाएँ’, ‘राजस्थानी रंगमंच में हाड़ौती का योगदान’, ’ आप के अन्य प्रकाशित आलेख हैं।

शिवराम के द्वारा ”अभिव्यक्ति पत्रिका के  लिए लिखे गए, संपादकियों,तथाविभिन्न लघु-पत्रिकाओं में जो निबन्ध और आलेख प्रकाशित हुए हैं, उनके संग्रहित करने का प्रयास किया जाना अपेक्षित है।

‘शिवराम से नुक्कड नाटक के प्रारंभ की सूचना मिलती है। ... यह एकांकी और नाटक के बीच के वह कड़ी है, जहां प्रेक्षागृह आम जनता के बीच आ गया है। प्रेक्षागृह के अभाव ने ‘नाद्यवस्तु’ के स्वरूप तथा अभिव्यक्ति के रूप को भी परिवर्तित कर दिया। ‘प्रेक्षागृह’,     भद्रजन’ की साहित्यिक प्रीति पर टिका था। उनकी संख्या सीमित होती चली गई। ‘रंगमंच’ मात्र महानगरों में ही सीमित हो गया, ... तथा रूप अत्यधिक कलावादी भी हो गया। ‘पाठ्य पुस्तक’ में नाटक की स्वीकृति से नाटक मात्र एक ‘काव्य रूप’ बनकर रह गया, जो एक पठनीय कृति के रूप में ही समादृत होने लगा।

‘भारतेन्दु के नाटकों में नुक्कड़ नाटक का बीज तलाशा जा सकता है। यहां रंगमंच लोक के भीतर उभरता है, ... उसके अंतर्मन में उपजे सवालों की यहां खोज है, उत्तर तलाशे जाते हैं।
‘नाटक’ के माध्यम से जनजागृति लाने का कार्य, बहुत लंबे समय से होता रहा है। परन्तु नाटक के माध्यम से ‘आधुनिक विचारधारा पर सीधा हस्तक्षेप, तथा जनसंघर्ष में आम आदमी की भूमिका पर गहराई से बातचीत ‘नुक्कड़ नाटक’ के माध्यम से अधिक विकसित हो पाई है। इसका प्रमुख श्रेय जनवादी आंदोलन को है। जहां मजदूर आंदोलन की विफलताएं, समाजवादी सोच का तिरस्कार, धर्म निरपेक्षता पर सांप्रदायिकता का ग्रहण, तथा क्रमशः पूंजीवादी बाजारवाद का बढ़ता प्रभाव, जहां चिन्तन को धार दे रहा था, वहीं लोक से सीधे जुड़ने का दबाव, नुक्कड़ नाटक के लिए अपरिहार्य जमीन तैयार कर रहा था। ‘व्यवस्था जहां निर्मम होती जा रही है, वहीं उसका सम्मोहन, ‘सच’ को वृहद झूठ में तब्दील भी करता जा रहा है। ‘सच क्या है, प्रबंधन की विकसित शैलियां सामने आने नहीं देना चाहतीं। आम आदमी के प्रति पूंजीवादी बहुउद्देश्यीय कंपनियों का बढ़ता जाल, व्यक्ति का वस्तु में होता रूपांतरण, जहां साहित्यकार की संवेदना को झकझोर रहा है, वहीं वह दूसरे से जुड़ने की आवश्यकता भी तेजी से अनुभव करने लगा है।’ नाटक के तीनों अंग, नाटककार, पात्र तथा दर्शक, यहां यह त्रिपुटी, एकाकार होकर ‘विषयवस्तु को अपनी तीव्रता में भाव जगत में स्पंदित कर जाती है।

‘शिवराम’  लगभग तीस वर्षों से नुक्कड़ नाटक से जुड़े हुए हैं। उनके प्रसिद्ध नाटक, ‘जनता पागल हो गई है, घुसपेठिए के सैकड़ों प्रदर्शन हो चुके हैं। वे लेखक है, रंगकर्मी हैं, वे नाटक के साथ यात्रा करते हैं। सन् 73 के बाद ‘आपातकाल में उनके नाटक ‘जनता पागल हो गई है’ के सैकड़ों प्रदर्शन, पूरे देशभर में हुए थे। क्या यह राजनैतिक नाटक है?प्रश्न विचारणीय है।
नाटक की विषयवस्तु राजनैतिक भी हो सकती है, नहीं भी। राजनीति कोई सीधी लकीर नहीं है, जिसकी लंबाई नापी जा सके। यह बहु विविधा यामी प्रक्रिया है, जिसमें सामाजिक सांस लेता है। व्यक्ति के जन्म के साथ वह जुड़ जाती है। गरीब का बच्चा, झुग्गी झोंपड़ी में जन्म लेता है, अमीर का नर्सिंग होम पैदा होता है। वह राजनीति का ही पोषण पाता है। फिर शुद्धकला की चर्चा करना बेमानी है। आज दर्शक के चित्त पर ‘बु(िगत दबाव का प्रभाव है। बुद्धिगत दबाव जहां उसे तर्क सौंपता है, वहीं धन की लिप्सा भी। पदार्थ गत सम्मोहन उसे मूल्यहीनता सौंपता है। संवेदना सोख लेता है। उसे विचार के आधार पर सही विचार तक लाना, तथा उसके भीतर की संवेदनाओं को जगाते हुए उसकी वृत्तियों के परिष्कार का प्रयास करना कठिनतम कर्म है। ‘नुक्कड़ नाटक, की यही जीवन्त भूमिका है।

‘यह लोक से पैदा होता है, लोक में खेला जाता है, और लोक के लिए समर्पित है। यह जीवन्त कर्म है, जो लोक के पक्ष में है। ‘अंतर्वस्तु’ पिघलते लोहे की तरह है, उसका सोच क्या होता, यह तय नहीं हो पाता .... ‘देश-काल, समाज की परिस्थितियां, ... विश्वास को अपना नया सांचा गढ़ने के लिए भी प्रेरित कर सकती है। ‘वस्तु की रूप तक की यात्रा  यहां लोचमय है, गत्यात्मक है, यही इसकी वह जीवन्तता है जो इस नाट्य रूप को विशेषता देती है।
पात्र, यहां प्रतीक है, वे विकृति के विरुद्ध, साहस को, उम्मीद को, एक प्रतिकार को वाणी देते हैं। साधारण वेशभूषा है, प्रतीक का उसी आधार पर चित्रण है, पर अनावश्यक उसका विस्तार नहीं है। ... भाषा में गत्यात्मकता है, प्रभावोत्पादकता है, संकलन त्रय है, जहां प्रभावान्विति के साथ, एक भावदशा, ... एक वैचारिक स्पष्टता, केन्द्र में रह जाती है। यह अंतर्वस्तु का वह अनुशासन है, जो नाटक के सभी तत्वों का समाहार करता हुआ, उसे सहज संवेदनशील बनाता है।

‘अंतर्वस्तु की गहनता, तथा तीव्रता, जहां यहां प्रमुखता लेती है, वहीं उसकी तरलता, उसका किसी ठोस ‘वैचारिक दबाव’ से हटकर, एक पिघलते फौलाद की शक्ल में ढल जाना, उसे आनायास वांछित रूप को प्रदान करता है।

नुक्कड़ नाटक’ की प्रस्तुति में यह खुलापन है, ...  यहां ‘नाटककार, महत्वपूर्ण तो है, नाटक उसकी व्यक्तिगत कृति है, परन्तु अभिनेता, निर्देशक, दर्शक, तीनों की उपस्थिति रंगमंच पर जिस गहनता का निर्माण करती चली जाती है, वहां नाद्य शब्द पाठ्य शब्द को बहुत पीछे छोड़ जाते हैं। नुक्कड़ नाटक मात्र रंगमंच की सार्थक उपस्थिति बन जाता है। कलावादी नाटक लेखकीय सर्जना है, उसका हस्तक्षेप ज्यादा है, पर यहां कम से कम होता चला जाता है। जहां भी खेला जाता है, वहा ”वर्तमान“ उपस्थित होकर, उसे नया ‘काव्य रूप’ देने में सफल हो जाता है।

... ‘नुक्कड़ नाटक’ में स्वतंत्रता अधिक है। यहां सभी स्वतंत्र हैं। रचनाकार के पास ‘विविध विषय है, उसके काव्य के चयन की स्वतंत्रता है, उसकी चेतना पर समकालीनता का दबाव है, एक बैचेनी है। वह जनता का पक्षधर है। वह राजनेता की तरह भाषण नहीं देता है, देता है, तो वह अलग विधा है। यहां ‘रूपक-प्रतीक, ...  दृश्य बिम्ब, दर्शक से जोड़ते हैं। ‘शिवराम के नाटक ‘जनता पागल हो गई है’ ... ‘घुसपेठिए’, सुनो भद्र जन सुनो’, में समकालीन जड़ता पर जो व्यंग्य है। वह केन्द्रीय भूमिका में है। राजनैतिक अधःपतन तथा मनुष्य का धीरे-धीरे जड़-वस्तु में ढल जाना, उपजीव्य है। परन्तु जो कहा गया है, वह अनायास है। भाषा अत्यधिक सरल व तीव्रता में है। संवाद छोटे हैं, चित्रात्मक है, व्यंग्य है। बीज तो दर्शक के भीतर है, नाद्य भाषा अनुकूल खाद पानी देती है, उसके भीतर का अनकहा व्यक्त हो जाता है।

‘नाट्यशब्द’ का चातुर्य तथा उसकी बहुआयामी भूमिका यहां प्रमुख है। नाटक की विशेषता अपनी पूर्णता में दर्शक वर्ग को अपनी सहजानुभूति प्रदान करना होता है, जहां पात्र, दर्शक, निर्देशक, रंगमंच सभी एकाकार हो जाते हैं। ‘विचार’ का भावानुभूति में ढलना तथा उसके चित पर पड़ा प्रभाव बहुत देर तक प्रभावी रहता है। यह मात्र प्रतिकार का वाहन ही नहीं है, चित की वृत्तियों को समेटता हुआ एकोन्मुखता प्रदान करने वाला नाटक भी है। यही इसकी लोकप्रिय होने की पहली शर्त है। इसकी प्रस्तुति की असाधारण तीव्रता, ...  नाटक के प्रारंभ से ही चरम के साथ प्रभावी हो जाती है। इसके शिल्प की यह विशेषता है। यहां पानी को धीरे-धीरे ताप नहीं दिया जाता। प्रारंभ ही तीव्रता के साथ, होता है, गति ही दर्शक के मन को अचानक खींच लेती है। भाषा, अभिनय, मंच सज्जा, प्रकाश योजना, एकोन्मुखता को लक्ष्य केन्द्रित करके नियोजित की जाती है।शिवराम के नुक्कड़ नाटकों की समीक्षा उपरोक्त विवेचना के आलोक में किया जाना उचित है।

‘नुक्कड़ नाटक’, वर्तमान की आवश्यकता थी। यह ‘विस्फोट’, मात्र सपाट बयानी या कथन वक्रता की नई शैली नहीं है वरन, ‘जन’, जन संकुलता और उसकी पीड़ा से सीधे जुड़ने का उपक्रम है। संवादों के माध्यम से कथा की प्रस्तुति, नाटकीयता में नहीं ढल जाती। ‘नाटकीयता, ... पृथक गुण है। जो कृति को एक नाटक बनाती है। यहां, ‘वस्तु’ रूप में जो ढलना चाहती है, उसके भीतर, ... सामने दर्शक उपस्थित रहता है, वह ‘कार्य व्यवहारों के साथ, ... जहां शब्द ‘नाट्य शब्द’ से संगुफित होकर, ... क्रियाशील बन जाता है। अभिनेयता तथा संवाद, ... इस नाटकीयता को रचते हैं। संपूर्ण परिप्रेक्ष्य इस कृकृति को दर्शक के सामने पसारा फैलाकर, उसके अंतर्तम को झकझोर देता है। यहां प्रेक्षागृह की साज सज्जा नहीं है, भाषा अपने संपूर्ण सौदर्य, आवेग, रचनात्मकता के साथ होती है। हर शब्द प्राणवान होता है।
शिवराम के नुक्कड़ नाटक ‘जनता पागल हो गई है’, ‘जमीन’, में इस ‘नाट्य रूप’ की उत्कृष्टता हम देख पाते हैं। इस कृति की भूमिका में शिवराम ने कहा है- जनता पागल हो गई है, के उत्तरार्द्ध पत्रिका में छपने के बाद से सैकड़ों प्रदर्शन हो गए हैं, साथ ही पुस्तक में छपने से पूर्व उन्होंने इस कृति में संशोधन भी किए हैं।
‘जनता पागल हो गई है’, आपातकाल के पूर्व लिखा गया पहला नुक्कड़ नाटक है। संपूर्ण व्यवस्था की अराजकता पर यह सीधा व्यंग्य है। आम जनता, शासन, कुशासन, पूंजीपति, पुलिस के गठजोड़ से पीड़ित है, पर वह चुप है। यह नाटक सीधा उसके भीतर उतरकरउसकी मूल आवाज को गहराई से कुरेदकर, उसे बोलने का सामर्थ्य देता है। परिस्थितियां आज भी उतनी ही बदशक्ल में है जितनी बीस साल पहले थी, आज आदमी और भयभीत हो गया है।
... शिवराम, जनवादी लेखक हैं, उनकी दृष्टि स्पष्ट है। जहां तक कृति का पहला भाग है, स्थितियों का सही व सत्यपरक आलेखन, उससे किसी को भी असहमत होने की गुंजाइश नहीं है। जनता व पागल, दोनों पात्र, अपनी प्रतीकात्मकता में सारे समाज की करुणा, दशा को भाषा देते हैं। ‘‘पूजीपति, पुराने सामंतवाद की अगली कड़ी है। ‘सरकार व पुलिस’ अपने पुरानेे रूप में यथावत है।
मात्र लोकतांत्रिक नया रूप ढाला है।दूसरा भाग, स्थितियों के साक्षात्कार का है, क्या स्थितियों में परिवर्तन, चुनाव से आएगा, ... समाज बदल पाएगा, ... क्या प्रतिकार ही साधन शेष रह गया है। यह नाटक और शिवराम के अन्य नाटक, एक गहरा सवाल खड़ा करते हैं। जनता का संघर्ष क्या रूमानियत है? क्या हिंसा और आत्मघात दो ही विकल्प शेष रह गए हैं? यहां आकर इन नुक्कड़ नाटकों की प्रासंगिकता महत्वपूर्ण हो जाती है।

... क्या मात्र ‘हिंसा ही अब एक मात्र विकल्प शेष रह गया है। जहां तक नागरिक का है, उसे प्रबुद्ध कर प्रतिकार की क्षमता सोंपना श्रेयस्कर है। समकालीनता का इतना सटीक व प्रभावी चित्रण दुर्लभ है। आम नागरिक रंगमंच के दूसरी तरफ भी खुद को ही पाता है। भाषा में प्रखरता, ... शब्द... जैसे उसके भीतर से ही उपजे हों , ... यहां ‘रस वाद नहीं है। परन्तु ‘नाटक’ जिस प्रभावोत्पादकता से सन्निहित हो जाता है, वह बेजोड़ है। नया नाटक शास्त्रीय परिधि का पालन नहीं करता है। वहां नाटक के नायक को फल की प्राप्ति नहीं है। यहां ‘रस’ की खोज सारगर्भित नहीं रही है। ‘वस्तु’ रहेगी, ... वही ‘रूप’ की तलाश करती है। ... कहानी उपन्यास में भी वस्तु होगी। परन्तु मात्र संवादों में वस्तु की अभिव्यक्ति से कहानी नाटक में नहीं ढल सकती। ... यहां भावात्मकता, जिसमें भाव और विचार संगुफित होकर आते हैं वह एकोन्मुख होकर, प्रभावान्विति को प्राप्त होती है।’

संग्रह के सभी नाटक सौद्देश्य है, ... जहां विचार का आरोपण है, वहां नाटकीयता निःशेष हो गई है, मात्र पार्टी का व्यक्तव्य रह गया है। यह पेचवर्क है, जिसके लिए नाटककार ने संग्रह की भूमिका में कहा है, जो बाद में जोड़ा गया है।

सरकार-‘‘लेकिन चुनाव के समय का तो ध्यान रखना चाहिए। हम चुनाव हार गये तो हमारा क्या होगा? और हम नहीं होंगे तो हमारा क्या होगा? आप क्या सोचते हैं ये विरोधी दल तुम्हारी वेतरणी पार करा देंगे और फिर कम्यूनिष्ट भी तो आ सकते हैं।
आपने कहा- निर्यात बढ़ाए बिना हम जिन्दा नहीं रह सकते और निर्यात तब तक नहीं बढ़ सकता जब तक विदेशी कम्पनियों से उच्च तकनीक न मिले।
तुम्हारी खातिर हमने विदेशी कम्पनियों के लिए देश के सभी दरवाजे खोल दिए। देश की स्वतंत्रता और सम्प्रभुता तक को दांव पर लगा दिया। देश को विदेशी कर्जों मंे डुबो दिया। और अब आप चुनाव के समय जनता को तंग कर रहे हो।’’
पृ.26
यह कथोपकथन, ... अचानक गति में शिथिलता लाता है, ... ‘कार्य-व्यवहार’ रूक सा जाता है। यह ‘सरकार’ और पूंजीपति के बीच का संवाद है। लेखक स्वयं यहां उपस्थित होकर अपनी वैचारिक दृष्टि को स्थूलता में रख रहा है। शेष नाटक की भाषा, ... अन्तर्वस्तु से एक रूप हैं छोटे संवाद है, ... जहां अत्यधिक गत्यात्मकता है।
सरकार- और देशों की जनता अपने देश के लिए सिर तक कटा देती है।
जनता- (सिर प्रस्तुत करते हुए) लीजिए सरकार! यही बात है तो यह सिर भी उतार लीजिए हुजूर...
पृ. 15
सरकार-भूखी हो?
जनता-हां!
सरकार- (सहज भाव से) तो, भूखी रहो। मगर खुश-खुश। कल के सुख के लिए आज कुर्बानी करनी होती है, जनता।
पृ. 14
जनता- (दर्शकों से)
मैंने अपना हाथ पसारा
उसने दिया चमकता नारा
देखी नहीं जिगर की चोट
देखा केवल मेरा वोट
पागल- वोट माने कुर्सी, वोट माने राज
वोट माने सत्ता, वोट माने ताज
वोट माने लूट का पट्टा, पांच बरस को औरवोट माने ठगा गया फिर, पांच बरस को और
पृ.20

नाटक का अंत विद्रोह में होता है, जनता पागल हो गयी है, ... जनता का विद्रोह हो जाता है, दुःस्वप्न तथा ‘कुकुडूं कूं, ... आपातकाल में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जो आघात लगा था, ... उस पीड़ा का अंकन करते हैं। यहां भी, ... आतंककारी अंधकारी सिंह रूपीी सामंतवाद की पराजय है, ... उसकी मृत्यु तथा उसका आतंक हिंसा से ही समाप्त होता है।
‘जमीन’ जनता की आशा व आकांक्षा का जीवंत दस्तावेज है। भू-स्वामी, उसके डकैत, उसकी सहायक पुलिस व साहूकार एक तरफ है, दूसरी ओर वे हैं जिन्हें जमीन आवंटित हुई है। ठाकुर कब्जा नहीं करने देता है। फर्जी मुकदमे चलाता है। अंत, सामूहिक संघर्ष में है, प्रतिकार जो ‘प्रतिशोधात्मक होता हुआ, ... हिंसक क्रांति में ढल जाता है।
नाट्य भाषा में तीव्र प्रवाह है, ... पूरा गांव, ... शब्दानुभव की अनुगूंज में रंगमंच पर उभर आता है। शब्द चित्रों की आवृत्तियां, ... दृश्यों में ढल जाती है, ... नाटकीयता का उत्कर्ष, संगीतात्मक संवादों में है-
‘‘जैसे हो जोतेगा
जो भी वो बोएगा
चाहे जेब में धेले न तीन
हो हो भैरूको, ... हां हां भैरू को
भैरू को मिली जमीन।
पृ. 59
एक- वो हम पर जुल्म करेंगे।
दो- थाने में बंद कर मारेंगे।
तीन- हमारे घर जला देंगे।
चार- हमारी बहू-बेटियों की आबरू उतारेंगे।
गरीबा- हाँ, यही होगा। जब तक हम डरते रहेंगे, एक दूसरे का साथ नहीं देंगे। ऐसा ही होता रहेगा। आज हमारे साथ हो रहा है तुम तमाशा देखो। कल तुम्हारे साथ होगा हम तमाशा देखेंगे।
किशन्या- हां, ऐसे ही चलता रहेगा। हमारी जिन्दगी ऐसे ही नर्क बनी रहेगी।
पृ. 68
... संभवतः दर्शक यहां, ... अपने आपको अकेला नहीं पाता है, उसके भीतर का भय, जड़ता विवेकशून्यता, ... उजाले की एक किरण के आते ही अंधकार जिस प्रकार हटने लगता है, ... धीरे-धीरे नाटक के साथ वह अपने आपको परिवर्तित पाता है। यहां रस सृष्टि नहीं है, ... नाटक अपनी भावात्मकता में, जहां विचार भीतर तेजाब की तरह है, उसे बूंद-बंूद कर उसकी चेतना को झकझोरता जाता है। यही प्रभावान्विति यहां एक चुभन की तरह व्याप्त हो जाती है। जहां अंत में किसान आंदोलन उग्र हो जाता है। हिंसक होकर, भू-स्वामी, पुलिस, सबको भगा देती है, ... भीड़ पीछा करती है, उन्हें पकड़ लाती है।
हटीला- एके भी ताकत से
निपटेंगे आफत से
जुल्मी को धूल चटाए दीन।

कोरस- भैरू को, गवई को, भौमा को, धौमा को
मुझको भी इसको भी, सबको मिली जमीन।
पृ. 72वर्तमान परिस्थितियों से यह नाटक रूबरू कराते हैं। यहां पलायन नहीं है। कलात्मक सुरक्षा नहीं है; कृति एक निरपेक्ष साहित्य रूप नहीं है। उसकी अपनी निजी स्वायत्तता नहीं है। वह प्रतिबद्ध है, वह आम जन की पीड़ा, ... उसकी व्यथा से दर्शक को रू-ब-रू कराने में समर्थ है। जीवन सत्य अपनी संपूर्ण कुरूपताओं के साथ यथार्थ की भूमि पर जीवन्त है। हां, लेखकीय दृष्टिकोण स्पष्ट है, जहां पर ‘पेचवर्क’ की तरह आता  है, वहां कृति का लालित्य कमजोर भी हो जाता है।
घुसपैठिये
‘‘घुसपैठिये’ में शिवराम के नुक्कड नाटकों का दूसरा संग्रह है। ‘‘विगत दशकों में उभरे प्रगतिशील जनवादी संस्कृति के उभार में विकसित नुक्कड-नाटक आंदोलन में शिवराम की अग्रणी भूमिका रही है। नुक्कड़-नाटक का उद्भव ही सामाजिक रूपांतरण की उत्कट चाह और प्रतिरोध के प्रखर माध्यम के तौर पर हुआ है। ये नाटक सिर्फ प्रेक्षागृह का ही अतिक्रमण नहीं करते, बल्कि दुनिया के मेहनत कशों के वैश्विक प्रतिरोध की संस्कृति निर्मित करते हैं।’’
आवरण पृष्ठ - राजाराम मादू
‘वर्तमान’ शिवराम की नाद्य चेतना का प्रबल प्रेरिक कारक है। ... वे आज दुनिया में जो भी कुछ घट रहा है, ... जो वैज्ञानिक भौतिक विकास मानवीय चेतना के दमन का आधार बना है उसे व उसके प्रभाव को गहराई से अनुभव करते हैं। उनके भीतर प्राप्त समझ का आदर है, वे एक वैकल्पिक दुनिया का रोमांटिक ख्वाब नहीं बुनते, ... एक मूटोपिया उनके पास नहीं है, ... जहां कल्पना की महीन चादर बुनी जाती हो, ... वे बस इस हताशा और कटुता के बीच ... मनुष्य की उद्दाम जिजीविषा का आदर करते हुए उसे ‘प्रतिकार से प्रतिरोध तक ले जाते हैं। गंभीर शोर उनके पास ही है, ... पर वे इस कोलाहल के पार भी झांकते हैं, ... प्रारंभ में जो एक राजनैतिक कर्मी की सक्रियता, उनके नाटकों में परिलक्षित हुई थी, ... वह धीरे-धीरे गहन व सजग होती हुई, ... स्थिरता देती हुई दिखाई पड़ती है।
इस संग्रह में, ... ”अभी लड़ाई जारी है“, ”घुसपैठिए“, ”लम्बे हाथ वाला झाडू”, ”नाद्य रक्षक“, ”हे भद्र नागरिक सुनो“, पांच नाटक संग्रहित है।
नाटक, संवाद में कही गयी गत्यात्मक कथा प्रवाह नहीं है। वह गंभीर साहित्यिक कर्म है। दृश्य, और शब्द की युति यहां दर्शक के भीतर संवेदना का जगत जगाती है। दर्शक के भीतर जो जड़ता है, वह हटती ही नहीं है, वह अपने भीतर गहन समाजिकता के बोध के प्रकाश में डूब जाता है। ‘प्रेक्षागृह’ यहां साधारणजन का ‘रहवास’ है, जहां वह है, वहां नाटक स्वयं पहुंच जाता है, ... वह प्रेक्षागृह में दर्शकों को निमंत्रित नहीं करता है।
‘‘नाटक सिर्फ मनोरंजन नहीं होता। नाटक को सिर्फ मनोरंजन में तब्दील करना उससे उसकी चेतना-निर्माण की भूमिका छीन लेना है उसे सिर्फ भड़ेैेती में बदल देना है। नाटक की हत्या का एक और तरीका ईजाद किया गया- वह यह कि उसे व्यापकता से काट दो- सीमित सुधी दर्शकों या प्रतियोगिताओं में प्रतिभागी अभिनेताओं और निर्णायकों तक सीमित कर दो; जिनके सरोकार कथानक से गौण और कलापक्ष से प्रमुख होते हैं ............... जाहिर है हमारे समय की मांग है कि नाटक नव उपनिवेशीकरण के विरूद्ध जनचेतना- निर्माण का साम्राज्यवाद से गढ़जोड़ करने वालों के छद्म को उजागर करने का, श्रम जीवी जन-गणों में नए उत्साह और साहस का संचार करने का काम करें।’’
‘‘नाटक फिर भी जारी है’’ शिवराम पृ. 7
इस संग्रह के नाटकों में, ‘लोकनाट्य की शैलियों का प्रयोग बहुलता में है। ‘अभी लड़ाई जारी है’, ”हाल्हा“ की शैली में है, करोली जिले की लोक गायकी यहां है
गवैयेः (दोहा)
दया दृष्टि करिये प्रभो, काना फूसी छोड़
नाटक करते हैं शुरू, मन के मन का जोड़।।
पृ. 11
... दर्शकों के साथ यहां सीधा संवाद उपस्थित होता है...
(धुन राधेश्याम तर्ज)
जो सफदर सुखदेव की थी, हां वो ही जंग हमारी है।
थमी नहीं ना बन्द हुई, हां अभी लड़ाई जारी है।
हां अभी लड़ाई जारी है, हां अभी लड़ाई जारी है।
... नाटक शुरू होता है, जनरल डायर का प्रवेश होता है, ... गोली चलती है, जलिया वाला बाग का दृश्य उभरता है, फिर सेठ और मुनीम आते हैं, ... देवीसिंह का हिसाब होता है, लठैत आते हैं, ... ग्रामीण शहर आता है, वहां आजादी की लड़ाई चल रही है, ... पत्नी कहती है, गांव छोड़कर चलंे, ... देवीसिंह शहर आता है, वहां आजादी की लड़ाई चल रही है, ... क्रांतिकारियों को सजा मिली है, परन्तु आजादी के साथ ही, ... सेठ और मुनीम तथा ठाकुर ही नेता बन जाते हैं।
गवैये आते है, ... इस यात्रा को समकालीनता के द्वन्द्व से जोड़ देते हैं-
‘सेठ सब आज़ाद हैं, हाकिम सभी आज़ाद हैं
सूदखोरी, लूटखोरी, सब यहां आज़ाद है।
ज्योंकी त्यो आज़ाद गुन्डे, और पुलिस आज़ाद है।
शोषण, दमन, पाखंड, छल, बल ज्यों की त्यों आज़ाद है।
पृ. 20
‘दर्शक’ नाटक में तीसरा महत्वपूर्ण तत्व है। ‘संवाद, अभिनेयता, दूसरे तत्व हैं। साधारणीकरण दर्शक का ही होता है। उसके ही अंतर्मन पर, पड़ा प्रभाव जहां उसे नाटक का पात्र तक बना जाता है। वह खुद अपने आपको नाटक का पात्र समझता ही नहीं, ... अनुभव भी करता है, ... यही इस जन-नाट्य की प्रभावी क्षमता है।
... देवीसिंह और उसकी पत्नी शहर में काम तलाश कर रहे हैं, ... यहां आकर भी उन की जन चेतना जगती है, ... अचानक नाटक में, देवीसिंह की जगह स्वयं नाटककार का हस्तक्षेप हो जाता है।
‘‘देवसिंह- निर्वैकल्पिक कुछ हल नहीं होता। हर चीज का विकल्प होता है। हर समस्या का हल और हर सवाल का जवाब। सवाल यह है कि आप विकल्प की तलाश भी करना चाहते हैं, या नहीं। इस देश में ना साधनों की कमी है ना सम्पदा की। ना प्रतिभा की कमी है ना परिश्रम की। कमी है तो आम जनता से प्रतिबद्ध हुकूमत की और इस हेतु इरादे और हौंसलों की।’
पृ. 32
... उपरोक्त संवाद, ... नाटकीयता के विरूद्ध लेखकीय हस्तक्षेप है। जो नाटकीय शब्द को अचानक गंभीर विचारणा में अतिक्रमित करने का प्रयास करता है।यह देवीसिंह के चरित्र का स्वाभाविक विकास नहीं है।यह महत्वपूर्ण सोच किसी अन्य पात्र के द्वारा कहलाया गया होता तो अधिक स्वाभाविक रहता।
 देवसिंह की क्रांतिकारिता, ... से सत्तापक्ष पीड़ित है, वह उसे पहले प्रलोभन से फिर हिंसा से काबू करना चाहता है।
‘‘पुलिस हमला करती है, देवीसिंह घायल हो जाता है, फिर वह प्रतिकार करता है
‘‘देवीसिंह- मारो! मारो हमें!  हमारा जुर्म यही है कि हम काम चाहते हैं। रोजगार चाहते हैं। इज्जत से जीने का अधिकार चाहते हैं। क्यों हमें इतनी आजादी भी नहीं कि हम अपने साथ हो रहे जुल्म के खिलाफ आवाज उठा सकंे।’’
पृ. 34
... साधारणजन की यह विवशता, ... व्यवस्था की  क्रूरता के विरूद्ध उसकी प्रतिकार भावना उजागर होती है-
गवैये आते हैं- ‘खतरे में है इस तरह आजादी और देश
रक्षा इनकी कीजिए, यही एक संदेश पृ. 34
‘नुक्कड़ नाटक’ में तेज प्रवाह है, ... बरसाती नद की तरह तीव्र गत्यत्मात्कता है। संवाद क्षिप्र है, ‘शब्द’ अपने आप में नाटकीय स्थितियों के चित्रांकन में समर्थ है। प्रेक्षागृह में दृश्यांकन की सुविधा होती है। पात्र, ... पात्रानुसार चरित्र में ढलकर आते हैं। रंग सज्जा रहती है। पर यहां पात्र, ... साधारण विन्यास के साथ आता है, शब्द ही सार्थकता में, चित्रात्मकता के साथ आते हैं। दृश्य बन्धों की अनवरत शृंखला में यह नाटक अपनी गत्यात्मकता में, सफल है।
‘घुसपैठिए, ... प्रतीकात्मक नाटक है। यहां कश्मीर में आतंकवाद की समस्या को प्रस्तुत करते हुए, ... अमरीकी संस्कृति का जो भारतीय जनमानस पर प्रभाव पड़ा है उसका मार्मिक चित्रण है। ”लम्बे हाथ वाला झाडू“ में जहां केबल संस्कृति से हमारे समाज पर जो प्रभाव पड़ रहा है, इस समस्या को यहां उठाया गया है।‘हे भद्र नागरिक, सुनो! संग्रह का श्रेष्ठ नाटक है।
नाटक में ‘लोकनाट्य की शैली का प्रयोग है। समूह में जहां आदिवासी नृत्य करते हुए संवाद शैली में, ... गायन करते है, ... वहां से यह नाटक शुरू होता है। समस्या समाज में बढ़ रही अराजकता के भीतर खड़े उस सम्भ्रांत व्यक्ति की है, जो नैतिक परंपराओं का पालन करते हुए समाज में अपनी गरिमा के साथ रहना चाहता है।
‘‘प्रारंभ होता है। एक बड़े गुन्डे के आगमन तथा उसके सहयोगियों के मंच पर आने के साथ।
... राजा, यह युवक है, जिसके अपने सपने हैं, उसका परिवार है, ... वह इन गुंडों से पीड़ित होता है, उसकी बहन बलात्कार की शिकार होकर मर जाती है, ... बाप सदमें में मर जाता है। मां पागल हो जाती है, ... राजा भी एक गुंडा बन जाता है-
यहां भद्र नागरिक कहता है-
‘‘हो राजा! हम इसीलिए हारते रहते हैं कि हम अकेले होते हैं। अपने आप में सिमटें। अपनी-अपनी खोल में कैद। लेकिन राजा आंखें खोलकर देखो। हमारे चारों ओर ऐसे ही अकेलों की भीड़ जमा है। ये सब अकेले जिस दिन आपस में मिल जाएंगे, जुल्म पर टिकी व्यवस्था डगमगाने लगेगी।’’
... बॉस, राजा को मारना चाहता है। परन्तु अब गिरोह के सभी साथी राजा के साथ हो गए हैं, ... सब बॉस पर टूट पड़ते हैं, ... राजा भद्र नागरिक को बुलाता है, ... कहां हो तुम!
कोरस होता है-
कब तक चुप रहोगे भाई?
कब तक चुप रह लोगे?
... यहां नाटक, जिस विसंगति का समाधान करता है, वह पारम्परिक एक्य पर है, जब तक समाज में व्यक्ति, ... अकेला है, उसकी ही खोल में कैद है, तभी तक वह आतंकित है, दमन झेलता है, ... परन्तु सामाजिकता, संघर्षशीलता को जन्म देती है, जो वरेण्य है।
‘अंतर्द्वन्द चित्रित करने में, भावनाओं के उतार-चढ़ाव में लेखक की सूक्ष्म दृष्टि स्पष्ट हुयी है।


शिवराम के दो नाटक संग्रह”गटक चूरमा“ तथा ”पुर्ननव“;2009द्ध आकर्षक मुद्रण के साथ आए है। ”गटक चूरमा“, के लिए विशेषण रूप में वाक्यांश ”जन नाटक संग्रह“ उदृघृत किया गया है , जबकि पुनर्नव के साथ जनप्रिय कहानियों का नाट्यरूपान्तर अंकित है। स्पष्ट है किनाट्य प्रस्तुतियों, विशेष है, में सामान्य से कुछ अलगाव रखती है, एक विशेष अभिरूचि तथा  लक्ष्य को  समर्पित हैं।

जन तथा लोक शब्दएक दूसरे के पास आते हुए भी  पृथकता रख लेते है। जन, जनवादी शब्द हर विशेष वैचारिक सम्पन्ना दृष्टि को अंकित करते है। ”लोक“ शब्द में वह समाहित है। लोक विस्तृत है। बहुआयामी है जन में जो लोक है, वह एक सीमित दायरे में ही विवेचित है।

इस कारण शिवराम के नाटक की विशेषता ही उसकी सीमा है। उनका वैचारिक आग्रह लोकोन्मुख विशेष दृष्टि के निर्वहन मं कलात्मक उदात्तता  के स्पर्श को कहीं-कहीं छेाड़ भी जाता है। यही कारण  है कि रचना अपने उत्कर्ष शिखर को पाते-पाते    विचलन और विगलनकी तरफ निकल जाती है।

”गटर चूरमा “ में चार नुक्कड़ नाटक संग्रहित है। ये सभी नाटक एक विशेष शिल्पविधि  का निर्वहन करते है। एकांरी के शिल्प विधान से नुक्कड़ नाटक का शिल्प विधान पृथकता रखता है, यहाँ मंच खुला है, एक क्षण भी पर्दा नहीं गिरता है, अंक व दृश्यों का संयोजन तीव्र गति लिए हुए है। पात्रों में चरित्र का आगमन, उन की सहज स्वाभाविक भाषा तथा आंगिक मुद्राओं कीएकान्विति से े निर्वहित हो जाता है। नैपथ्य में संगीत, ....गीत,कथानक में गति लाने में  सहायक है। एकान्विति तथा एकोन्मुखता से जहां कथन एक चुभन के साथ प्रवाह व्यूह बनाने में सफल हो जाता है, वहीं इस नाटक की सफलता है।

शिवराम के पूर्व के नाटक पूरे भारत में अत्यधिक लोकप्रिय रहे है। उन की पहचान ”जनता पागल हो गई है“ से हुई थी। आपातकाल में यह नाटक बहुचर्चित रहा है। परम्परागत नाट्य विधान से यह नुक्कड़ नाटक अपनी शिल्पविधि में स्पष्ट पार्थक्य           रखता है, नहीं यह एकांकी की रूप विधा में  है। इसे परम्परागत मंच पर भी खेला जा सकता है, तो चौराहे पर भी। शिवराम ने इस नाट्य-रूप पर दक्षता से कार्य किया है।

इस संग्रह का” हम लड़ाकियाँ“े, अपने  कथ्य, तथा प्रस्तुति में  बेहतर नाटक है। यहाँ वैचारिक शोर के स्थान पर गहन चिन्तात्मक आवेग तरलता के साथ प्रवाहित है। यहाँ लैंगिक धरातल पर मानसिक विड्डतियों का उन्मीलन एक बेहतर सहज फलक पर है।        मानसिक रूपान्तरण  ही वास्तविक परिवर्तन है। कथा का पात्र जो भू्रण हत्या लिए तत्पर है,उस के भीतर कन्या के प्रति  प्रेम यहां जिस मनोजगत में उत्पन्ना द्वन्द से  उपजा है, उस की रूपाड्डति दर्शर्क के भीतर विचार उत्पन्ना करने में समर्थ है।

”बोलो-बोलो -हल्ला बोला,“ मदारी और जम्मूरे को लेकर प्रभावी नुक्कड़ नाटक है। परम्परागत मदारी के खेल को वैचिरिक भाषा से सम्पन्ना किया गया है। मदारी के रूप में भारतीय प्रगतिशील चिन्तक, जो पूंजीवाद, सामंतवाद, बाजारवाद, प्रतिक्रियावादरूप से परिचित है, बहुत ही लम्बे संवादो के साथ मुखरित है। नाट्य भाषा का  जनोन्मुखी रूप क्या भदेस  में ही सम्भव है? यह प्रश्न यहाँ  महत्वपूर्ण भी है। उससे अधिक महत्वपूर्ण है भदेस   को न्यायोचित ठहराने का उपक्रम.... जहाँ तर्क को  ड्डतर्क के महीन धागे से नई रूपाड्डति देने का  प्रयास  है। लोक तक पहुँचने का मार्ग लोक को संस्कारित करना भी है और लोक से संस्कारित होना भी है, यह एक अनवरत प्रक्रिया है। शरीर भी अपने को बनाए रखने के लिए जो भी हेय  है, अवांछित है, उसे स्वतः बाहर फैकता रहता है। यही लोक में परिमार्जन की परम्परा है, विधि है।

शिवराम के इस,” जन नाटक“ संग्रह की अपेक्षा उनका जन प्रिय कहानियों का नाट्य रूपान्तरण उत्ड्डष्ट कृतिे है। ’ठाकुर का कुआं,’ ‘सत्याग्रह,’ ऐसा क्यों हुआ,’ मुंशी प्रेमचन्द की कहानियों का नाट्य रूपान्तरण है। जबकि ‘खोजा नसरूद्दीन बनारस  में ’की आधर कथा  रिजवान जहीर  उस्मान की कहानी है। ” क्यों? उर्फ़ वक्त की पुकार“नीरज सिंह  की कहानी है।

साम्प्रदायिकता की पहचान और परख तथा उसका जड़ीभूत व्यवस्था पर  आतंक  के  संदर्भ में इस संग्रह की खोजा नसरूद्दीन बनारस  में उत्ड्डष्ट ड्डति हैै। मूल कथा तो पढ़ी नहीं है, परन्तु यह नाटम्य रूपान्तरण  भी एक मौलिक संरचना ही है। ”नाट्य शब्द“ का यहाँ प्रयोग सुन्दर है। व्यंग्य तथा कल्पना दोनों का एकात्मक प्रयोग इस रचना की विशेषता है।

‘ठाकुर  का कुवां’ अपने समय की प्रभावशाली कहानी है। इस का रूपान्तरण  भी बेहतर है। शिवराम अपनी मौलिक ड्डति ‘गटक चूरमा’ की अपेक्षा जनप्रिय कहानियों के नाट्य रूपान्तरण्ण में अधिक सफल रहे है। यहाँ रूपान्तरण में नाटककार ने मौलिक परिवर्तन भी  कथा में किए है। इसीलिए ‘पुनर्नव’ शीर्षक सटीक है।  नाटक की क्षमता उसकी संवाद प्रस्तुतियां है। शिवराम की भाषा जहां सहज व प्रभावी है, वही वैचारिक रचना का अत्यधिक आग्रह उनकी  नाट्य भाषा  को अभिधात्मकता देता हुआ भाषा के लचीलेपन को खो देता है। पात्रानुूलल भाषा का वैचारिक प्रवाह जिस संगति की अपेक्षा रखता है, उसका निर्वहन कही-कहीं छूट भी जाता है। यह सही है , जन नाटक का उद्देश्य मनोरंजन के साथ मार्गदर्शन भी है। परन्तु मागदर्शन के साथ वैचारिक पाठ का अतिरेक कलात्मकता को कही-कही क्षति भी  पहुँचा देता है। शिवराम रचनाधर्मी प्रयोगवादी, प्रगतिवादी नाटककार है। उनकी दोनों ड्डतियां नाटक के क्षेत्र में अपनी स्थापनाओं के साथ उल्लेखनीय हैं।





शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2013

डॉ. कन्हैया लाल शर्मा

हमारे पुरोधा  5
इस लेखमाला में निबन्धकार डॉ. कन्हैयालाल शर्मा के निबन्धकार रूप की चर्चा कर रहे हैं। आप षाषा वैज्ञानिक थे। पच्चीस से अधिक शोधछात्रों के आप गाइड रहे। हाड़ौती का आज जो मानकीकृत रूप है, उसके आप प्रस्तोता रहे, पर आपकी सृजनात्मकता का यह स्वरूप उपेक्षित ही रहा, प्रायः आपका परिचय एक शिक्षक तथा भाषावैज्ञानिक  के रूप में ही अधिक दिया जाता रहा है।
डॉ. कन्हैया लाल शर्मा

साहित्य विधाऐं’ तथा ‘द्विपथा’, आप के आलोचनात्मक निबन्ध संग्रह हैं।
‘साहित्य-विधाऐं’, पद्य-गद्य के विविध रूपों का विश्लेषण-परक अध्ययन है, जो समय-समय पर लिखे गए निबन्धों का संग्रह है। ये निबन्ध विवेचनात्मक हैं। ‘काव्य’ की विविध विधाऐं, जिन में गद्य व पद्य दोनों सन्निहित हैं, का वस्तुपरक विश्लेषणात्मक अध्ययन यहाँ है। भूमिका से
‘द्विपथा’ भी आप के समीक्षात्मक आलोचनात्मक निबन्धों का संग्रह हैं। बारह निबन्ध हिन्दी आलोचना में, गद्य की विकास यात्रा के महत्वपूर्ण मोड़ की सूचना देते हैं। गीतांजलि ;काव्यानुवाद एवं मूलद्ध एक विवेचन, ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की हिन्दी भाषा की देन, ‘हरिदास जी का काल निर्णय’, ‘नन्द पच्चीसी में सामाजिक चेतना’, आप के महत्व पूर्ण समीक्षात्मक निबन्ध हैं।
 क्ृति में गीतांजलि ;काव्यानुवाद एवं मूलद्ध: एक विवेचन, के सम्बन्ध में आप ने लिखा है कि ”मूल एवं अनुवाद के सौन्दर्य पर मुग्ध हो कर मैं ने चार दशक पूर्व इस लेख की पाण्डुलिपि तैयार कर ली थी, पर उस का प्रकाशन अब हो पाया है।“
यह निबन्ध, आलोचनात्मक निबन्धों की परम्परा में होते हुए भी अपनी वस्तुपरकता, तथ्यों के संचयन, उन की विवेचनात्मकता, तथा इसी क्रम में विश्लेषणपरकता से एकान्विति का स्पर्श पा कर, उत्कृष्टता को पाता है। अनुवाद कार्य वह भी एक महान कृति का। जहाँ महा कवि रवीन्द्र नाथ की गीतांजलि हो, उस का उस के सौन्दर्य को सुरक्षित रखते हुए अपनी भाषा में, अपने छन्दों में, अनुवाद कर्म, गम्भीर गुरुतर कार्य है। सम्भवतः उस की समीक्षा, मूल कृति एवं हिन्दी में अनुवादित छन्दों को एक साथ रखते हुए सौन्दर्य की समीक्षा, गुरुतर समीक्षक कर्म है। डॉ. शर्मा ने इस निबन्ध में एक नई दृष्टि को संयोजित किया है। कृति की समीक्षा, मूल एवं अनुवादित कृति, दोनों की राह से गुज़र कर, उन्हों ने दोनों ही कृतियों के मूल सौन्दर्य को उद्घाटित करने के प्रयास को रेखांकित करते हुए की है।
‘नन्द पच्चीसी में सामाजिक चेतना’, आप का अनुसन्धानपरक आलोचनात्मक निबन्ध है। विक्रम सम्वत 1643 के कार्तिक मास की लिखी यह पाण्डुलिपि, हाड़ौती के अज्ञात कवि नन्द राम की है। अज्ञात कवि की कविता में वर्णित भारतीय जन की त्रासदी का मार्मिक उल्लेख इस निबन्ध में है। ”कवि नन्द राम ने अपने युग के ट्ठास को वाणी दी है। उस की अनगढ़ भाषा में सहजता है, सरलता है। खड़ी बोली और हाड़ौती का मिश्रित ध्वनि-रूप-संयोजन को प्रभावी बनाता है।“ पृ. 116.
‘हिन्दी की संयुक्त क्रियाऐं, हिन्दी उच्चारण, हिन्दी-वर्तनीः दिशा बोध की आशा में, ध्वनि-समीकरण’, आप की भाषा वैज्ञानिक उपलब्धियों व शोध-यात्रा के आलोचनात्मक निबन्ध हैं।
‘रंगीन चश्मा’, ‘कुटिल संग प्रीति’ आप के ललित निबन्ध हैं।
डॉ. शर्मा के अनुसार, ”ललित निबन्ध गद्य की अत्यन्त सशक्त विधा है, जिस के द्वारा रचनाकार पाठक के सामने खड़ा हो कर मित्रतापूर्वक वातावरण में निजी विचारों को बेझिझक प्रकट करता चलता है। ऐसे वातावरण में विषयान्तर होना अस्वाभाविक नहीं होता और सर्वथा निजी विचार भी अनापत्ति-प्रमाण पत्र प्राप्त होते हैं।“;मोनोग्राफ़ डॉ. कन्हैया लाल शर्मा, पृ. 10.
रंगीन चश्मा ;1967 ई. की समीक्षा में डॉ. मदन केवलिया ने लिखा है:-
”यह व्यक्ति प्रधान निबन्धों का संग्रह है, किन्तु इस में कतिपय व्यंग्य मारक हैं। ... इस ड्डति में डॉ. शर्मा का सरल, निश्छल, व्यक्तित्व भी उजागर हुआ है और उन की व्यंग्य शक्ति भी। ‘रंगीन चश्मा’, ‘कलई’ जैसे व्यंग्य प्रधान लेख प्रभविष्णु बन पड़े हैं। काले चश्मे की ओर संकेत करते हुए व्यंग्यकार लिखते हैं, ‘नवीन कवियों में से किसी को यदि बासर की सम्पत्ति उलक ज्यों न चितवत’ लिखने वाले कवि का हृदय प्राप्त हो गया, तो वह यह भी कह सकता है कि चन्द्रमा को दो-दो राहु ने ग्रस लिया है।“ राजस्थान का हिन्दी साहित्य, मदन केवलिया, पृ. 262.
‘कुटिल संग प्रीति’ की भूमिका में डॉ. विजयेन्द्र स्नातक ने कहा है:-
”वैयक्तिक अभिरुचि के साथ लेखक ने गम्भीरता के साथ व्यंग्य का गहरा पुट दिया है। यह व्यंग्य केवल विनोद की सृष्टि नहीं करता वरन मर्म के स्तर पर सोच के चमकीले स्फुलिंग भी छोड़ जाता है।“
डॉ. शर्मा ने अपने निबन्ध संग्रह की भूमिका में अपने निबन्धों को अपनी अन्तर्यात्रा माना है:-
”ललित निबन्ध गद्य की अत्यन्त सशक्त विधा है, जिस के द्वारा रचनाकार पाठक के सामने खड़ा हो कर मित्रतापूर्ण वातावरण में निजी विचारों को बेझिझक प्रकट करता चलता है। ऐसे वातावरण में विषयान्तर होना अस्वाभाविक नहीं होता और सर्वथा निजी विचार भी अनापत्ति प्रमाण-पत्र प्राप्त होते हैं। ... ललित निबन्धों में विषय-वस्तु का आश्रय ले कर मैं बोलता रहा हूॅं। मेरी यह अन्तर्यात्रा ‘कलई’ से प्रारम्भ हुई है और ‘अकेलापन’ तक पहुँची है।“

दो शब्द अपनी ओर से:-
‘कुटिल संग प्रीति’, निबन्ध में जहाँ भाषा की प्रांजलता है, वहीं विषय को उस की एकान्विति के साथ प्रस्तुति में एक प्रवाह है, जो पाठक को अपने साथ दूर तक ले जाता है। व्यवहारिकता की जहाँ जुम्बिश है वहीं वह आत्मीयता भी है, जो पाठक को अनायास उसे दूर तक सोचने के लिए प्रेरित कर जाती है।

”कुटिल में प्रेम की अपात्रता इसलिए होती है कि जिस प्रेम से नर-नारायण वश में हो जाते हैं, वह यहाँ अरण्य रोदन बन जाता है। प्रेम ईश्वरीय गुण है, पर कुटिल पर बेअसर। गुण तो गुण को ही प्रभावित करता है, पर कुटिल की तो श्रेणी ही भिन्न होती है, शुद्ध निर्गुण, गुणातीत।“पृ. 12.
”जब संसार सोता है, तो ये जागते हैं, और भविष्य के लिए ताने-बाने बुनते हैं। मन, वाणी, कर्म के ताल-मेल के चक्कर में ये कभी आते ही नहीं है। केवल अपने स्वार्थ की धुरी पर घूमते हैं। जो जितना बड़ा कुटिल, उस की प्रकृति में उतना ही अधिक असामंजस्य एक ओर से पकड़ो तो दूसरी ओर से निकल भागे और अता-पता भी न छोड़े। उन को समझ लेना निर्गुण ब्रह्म को समझ लेने से भी दुष्कर है। कदली वृक्ष के तने के समान उन की पर्तें खोलते जाइए, पर अन्त में प्राप्ति के नाम पर शून्य।“

यहाँ भाषा में सामासिकता है, काव्य भाषा की तरह यहाँ पारदर्शिता है, शब्दों में सरसता का बाहुल्य व वैचारिक गम्भीरता, शिष्ट हास्य के सहारे जिस वर्णना की प्रस्तुति करती है, वहाँ लालित्य सहज सुगन्धित हो उठता है। ”कुटिल परोपजीवी होते हैं। वे सरल जनों के आहार पर पुष्ट होते हैं। वे भर-पेट खा लेने पर भी अतृप्त ही रहते हैं“।

हम डॉ. शर्मा के इस मत से सहमत हैं कि ”ललित निबंध गद्य की अत्यन्त सशक्त विधा है जिस के द्वारा रचनाकार पाठक के सामने खड़ा हो कर मित्रता पूर्ण वातावरण में निजी विचारों को बेझिझक प्रकट करता है। ऐसे वातावरण में विषयांतर होना अस्वाभाविक नहीं होता और सर्वथा निजी विचार भी अनापत्ति प्रमाण-पत्र प्राप्त होते हैं।“भूमिका स

”इस परिभाषा के अनुसार ही संग्रह में हम लेखक को पाठक से वार्तालाप की शैली में विषयगत छूट लेते हुए पाते हैं। डॉ. शर्मा उस छूट में चुटकी भी लेते हैं और उसी के बहाने गहरी बात की ओर संकेत करते हुए मूल्य बोध की स्थिति में पहुँचा भी देते हैं। यह परम्परा प्रताप नारायण मिश्र से ले कर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से होते हुए डॉ. कन्हैया लाल शर्मा तक आती है। जो बात साहित्य की किसी विधा में अट नहीं पाई, वही बात निबन्ध ने सहज हो कर कही। डॉ. शर्मा इन निबन्धों में, कथ्य में गम्भीर और कहन में सहज हैं।“ पृ. 2.



निबन्ध की मूलभूत शर्त है- मौलिक चिन्तन। उधार की रोटी वह खाता नहीं है और खा ली तो उसे वह पचा नहीं पाता। संग्रह के आरम्भिक चार निबन्ध छोड़ दें, तो ‘अकेलापन’ से ले कर ‘बर्र’ शीर्षक तक के सारे निबन्ध लेखक की बहुआयामी दृष्टि और सौन्दर्य-बोध को प्रकट करते हैं। विशेष बात यह है कि लेखक का सौन्दर्य, सत्य और शिव सम्पृक्त है और उस का आदिम स्रोत संस्ड्डति सम्पन्न सनातन पुरुष और सनातन भूमि ही हो सकती है। लेखक निबन्धों के शीर्षकों के साथ न केवल न्याय करता है बल्कि उन के उच्च-विकास की समूची यात्रा को रेखांकित करते हुए मानवीय व्यवहार और विश्व कल्याण के पहलुओं पर गंभीर विवेचना की प्रस्तुति कहीं व्यंग्य मुद्र्रा में और कहीं शान्त-धीर मुद्रा में देता है। वह कुशल नाविक की तरह विषयों की लहरियों से खिलवाड़ भी करता है और कहीं गहरे जल से अपनी तरणी को निकाल ले जाने की संघर्षशीलता भी एक ज़िद की तरह साकार करता है। इसी लिए ये निबन्ध उत्तरोत्तर विषय की दृष्टि से सरल और कथन की दृष्टि से सांस्ड्डतिक चिन्तन में परिपूर्ण होते चले गए हैं। यह निबन्धकार का जीवन-जगत को देखने का गहरा दृष्टि-बोध है।

‘बर्र’, ‘रंगीन चश्मा’, ‘अकेलापन’, ‘लड़का बिकता है’ आदि-आदि निबन्ध व्यक्ति और समाज के जीवन की साधारण ज़मीन से शुरू हो कर उन सांस्ड्डतिक ऊँचाइयों पर जाते हैं, जो मनुष्य को अपेक्षित है। ‘काव्य-कला और चित्र-कला’ और ‘श्री राम का सांस्ड्डतिक अभियान’ हमारी दृष्टि में सब से सुन्दर और बहुत गहरे-गम्भीर निबन्ध हैं, जिस में लेखक की क्षमता और सीमा लेखकीय मौलिकता में झाँकती है। लोक और शास्त्र, व्यक्ति और समाज, व्यष्टि और समष्टि का अनुरंजनकारी किन्तु समृद्ध और प्रामाणिक संसार इन निबन्धों में धड़कता है। वे निबन्ध भाषा के द्वारा रेत पर बने पाँव के निशान नहीं हैं, बल्कि ये समय की शिला पर लिखे गद्य-गीत है।“ डॉ. श्री राम परिहार, आलेख संवाद, सितम्बर, 2005 ई. पृ. 29.

डॉ. शर्मा  की ‘निबन्ध लेखन की यात्रा का अगला मोड़, आप के भीतर आध्यात्म के प्रति बढ़ते रुज्हान के कारण से आया है। 1भगत्पथ की बाधा और समाधान, 2 साधक और दुःख 3 संकीर्तन 4 आलोक की ओर भाग-1 5 आलोक की ओर भाग-2, आप के महत्त्व पूर्ण अन्य आलेख संग्रह हैं।
‘आलोक की ओर’, डॉ. कन्हैया लाल शर्मा के साधनात्मक जीवन की उपलब्धि है। अनुभूतियाँ, मानसिक होती हैं। अनुभव उस के पार होने की अन्तरंगता का मात्र अहसास है। वहाँ भाषा भी कथन में असमर्थ हो जाती है। परन्तु ये अनुभूतियाँ साधक पथ की कठिनाइयों के निराकरण से होने वाले सरस आत्मीय क्षण हैं, जिन्हें डॉ. शर्मा ने साधकों को, मधुर सान्निाध्य में बाँटना चाहा है, और वे इस में सफल भी रहे हैं।

‘इक्कीसवीं शताब्दी का लोकमन 2008

 24 निबन्ध व आलेखों का यह संग्रह डॉ. शर्मा की विविध ज्ञानात्मक उपलब्धियों का दस्तावेज है। डॉ. शर्मा का इसके पूर्व ललित निबन्ध का संग्रह ‘रंगीन चश्मा’ आ चुका है। गद्य पर डॉ. शर्मा का अधिकार है। भाषा जहां सुगठित है, वहीं आपका भाषा वैज्ञानिक अध्ययन शब्द पर आपकी सुविचारित सोच को लालित्य भी प्रदान करता है।

‘देह स्तर पर जी रही है, युवा पीढ़ी, नगरोन्मुखी ग्रामसेवकों पर ऐसी बाढ़ एवं पर्यावरण भ्रष्टाचार की महामारी, पारिवारिक हत्याएं/ आत्महत्याएं, माता-पिता और, आज की अभिषप्त वृ(ाावस्था और संयुक्त परिवार की मृग-मरीचिका, प्रौढ़ विवाह क्यों? आपके सामाजिक समस्याओं पर केन्द्रित आलेख हैं, वहीं साधनापथ, साधक के जीवन में पारदर्शिता, साधक का आहार कैसा हो? पुरुषार्थ , आत्मविकास में बाधक वित्तेषणा, आपके साधन परक आलेख हैं।



गुरुवार, 3 अक्टूबर 2013

कवि और आलोचक प्रेमचन्द विजयवर्गीय

हमारे पुरोधा 4

इस लेखमाला के अंतर्गत हम आजकी प्रेमचन्द  डॉविजयवर्गीय  साहित्य साधना से आपका परिचय करा रहे हैं। आप कोटा निवासी थे, और वनस्थली विद्यापीठ में हिन्दी भाषा और साहित्य में विभागाघ्यक्ष भी रहे।
इस अंचल के अधिकांश साहित्यकारों की कृतियों की आपने भूमिकाएॅं लिखीं, समीक्षाएॅं लिखीं।
आपके चार काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। पारीवारिक स्नेह से परित्यक्त आप वर्षों तक झालाबाड़ रोड पर स्थित आश्रय में रहे। आपकी अंतिम शोकसभा में भी जो आश्रय में हुई थी, आश्रय के निवासी ही अधिक थे। इस अंचल में साहित्यिक विकास यात्रा के गतिशील प्रवाह में आपका योगदान महत्वपूर्ण है।

कवि  और आलोचक  प्रेमचन्द विजयवर्गीय

प्रेमचन्द विजयवर्गीय, ... गांधीवादी परंपरा में विकसित सुधी आलोचक हैं। जीवन में ‘शिवम्’ और ‘सुन्दरम’ के खोज जहां आपकी काव्य चेतना का प्रमुख आकर्षण है, वहीं समीक्षा में आपकी यह दृष्टि सहज ही परिलक्षित होती है। गांधी, नेहरू, विनोबा, आपके आदर्श रहे हैं। समन्वयवादी रूचि तथा जो ‘शुभ’ है, उसके प्रति अनायास सहज स्वीकारोक्ति आपकी समीक्षक दृष्टि का केन्द्र बिन्दु रहा है।
आपके शोध का विषय, ‘आधुनिक हिन्दी कवियों का सामाजिक दर्शन’ में आपने अपनी इसी दृष्टिकोण के आधार पर, आधुनिक काव्य धारा का विवेचन किया है। न तो मार्क्सवादीय सौंदर्य ज्ञान या सिद्धान्त शास्त्र आपके आलोचना कर्म का आधार बन पाया नहीं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचार दृष्टि आपको आकर्षित कर पायी। प्रगतिशीलता को सातव्य विकास का अनिवार्य धर्म मानते हुए भी, ... मनुष्यता तथा नैतिकता को भारतीय संदर्भों में रेखांकित कर, उसे आचरण में ढालना, ... सत्य के प्रति समर्पण आपकी समीक्षा धर्म का आदर रहा है। यही कारण रहा कि आप साहित्यिक राजनीति में उपेक्षित रहे।  चाहे मार्क्सवादी मित्र हांे, या साहित्य परिषदी सभी आपका सहयोग तो लेते रहे, पर आपसे दूरी भी बनाए रखते रहे। गुटों में बॅंटे साहित्य प्रेमियों की भावना को आहत करने का यहॉं प्रयास नहीं है। पर एक सहृदय साहित्य प्रेमी की स्मृति आप तक पहुंचाने का आग्रह अधिक है।

सैद्धान्तिक समीक्षा की दृष्टि से, आपने महादेवी वर्मा की ‘स्मृति की रेखाएं, श्री भगवती प्रसाद, वाजपेयी के उपन्यास भूदान तथा मैथिलीशरण गुप्त के ‘अजित’ हरिकृष्ण प्रेमी के ‘शपथ,’ तथा ‘ भुंजदेव मीमांसा’ का सृजन भी किया है। उपरोक्त कृतियां पाद्योपयोगी होते हुए भी एक विशेष दृष्टि की परिचायक भी है। ‘स्मृति की रेखाएं है पर जो आपकी समीक्षा पुस्तक प्रकाशित हुई थी। उसके रेखाचित्र विद्या का महत्वपूर्ण ही आलेख है। कहानी तथा संस्मरण विद्या से उसे पृथक करते हुए सैद्धांतिक विवेचना अनुपम है। ... यह सुखद ही है कि संस्मरण विद्या पर भी महत्वपूर्ण आलेख डॉ. कन्हैयालाल शर्मा के संपादन में- यादों के वातायन से जो प्रकाशित हुआ है, वे भी यहीं की पुरानी पीढ़ी के वन्देय आलोचक हैं।
डॉ. रामचरण महेन्द्र पर ‘राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित ‘मोनोग्राफ में आपने श्री महेन्द्र की नाटयकला व नाद्य समीक्षा का सुन्दर विवेचन किया है। ‘व्यवहारिक समीक्षा’, सा यह उत्कृष्ट आलेख है। मूलतः श्री विजय का समीक्षा कर्म, व्यवहारिक, समाजशास्त्रीय सीमाओं में समादृत है। दृष्टि समन्वयवादी है तथा हर प्रकार के अतिरेक के दुराग्रह से आप दूरस्थ हैं।

प्रसिद्ध नाटककार हरिकृष्ण प्रेमी के शपथ नाटक की सर्वांगीण समीक्षा है। ‘अंजित अनुशीलन’- राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त केे खंड काव्य ‘अजित’ की विवेचना है। ‘भूदान’, ... भगवती प्रसाद वाजपेयी के उपन्यास का, तथा उनके सभी उपन्यासों की संक्षिप्त व्याख्या है। ‘भुजदेव’ ‘मीमांसा’, आंेकारनाथ दिनकर के नाटक ‘भुंजदेव की समीक्षा है। ‘स्मृति की रेखाएँ: एक अध्ययन; ..  आपकी महत्वपूर्ण पुस्तक है। इसमंे रेखाचित्र, विद्या का सम्यक विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
गंूज उठी शहनाई
1862 में प्रकाशित यह काव्य संग्रह ‘श्री विजय’ का पहला काव्य संग्रह है। यह युग छायावाद का उत्तरकाल था, श्री विजय की काव्य साधना 1940 से प्रारंभ हो चुकी थी। ... परन्तु संग्रह दीर्घकालीन धैर्य व साधना के सतत प्रयास कर ही आया। डा. रामचरण .... ने संग्रह की भूमिका में कहा है-
‘‘इन कविताओं में विविधता है। इनमंे व्यक्तिगत अनुभूतियों से सामान्य सत्यों, जीवन के यथार्थ अनुभवों से व्यवहारिक आदर्श, स्व से पर की, नश्वरता से अरमत्व, निराशा से आशा, विषाद से हष्र, और स्थूल से सूक्ष्म की ओर प्रवृत्ति रही है।.... बौद्धिकता भावात्मक परिधान धारण कर अन्तर्गत हुई है, और कल्पना यथार्थ की भूमि पर खड़ी है। पर इन सभी कविताओं में एक गुण सामान्य रूप से विद्यमान है- जीवन का संस्पर्श और तीव्र अनुभूति।’’
संग्रह में सभी कुछ जो सहेजने का आग्रह रहा है। जहां रहस्यवादी रूझान है। ... आध्यात्म प्रतीकों के माध्यम से दार्शनिक सत्यों की अभिव्यंजना का प्रयास है। वहीं राष्ट्रीय भावना का, जो तत्कालीन परिप्रेक्ष्य में गांधीवादी प्रभाव था .... उसका भी व्यापक प्रभाव है।
... गेयता, संक्षिप्तता, मधुरता ..., तथा रस सिक्तता, इन गीतों का प्रमुख आकर्षण है। .... कवि, संगीतात्मकता के प्रति सहृदय है। ... अन्तर्मुखी व्यक्तित्व की सहज अभिव्यक्ति गेयता में ढल जाती है। .... वहां भाव अपनी समग्रता में अनुभूत्यात्मक यथार्थ को मानवीय संवेदना सन्निहित कर देता है।
‘‘ वह स्वप्नों का लोक मुझे है, उधर झुलाता,
यह जाग्रति का लोक मुझे है इधर बुलाता
कुछ मिट्टी की कुछ सोने की धरती आगे
कुछ जल की कुछ पाषाणों की पृथ्वी आगे!
हर दिशा आज जब यही बताती मुझको-
मैं जादू कोई देश, हर पंथ तुम्हारा ही तो है!
अनन्यता पृ. 3.
मन की दुनिया, ... जो कल गया है, ... जो कल आने को अपेक्षित है। दरवाजे पर उसकी थपथपाहट है, ... दूर काले-बादलां के पार से उसके संकेत भी आने लगे हैं-, कवि, इस वर्तमान की दहलीज पर जिस व्यथा-कथा को रेखांकित कर रहा है, ... वह अद्भुद है, ...आज विजय ही सन्यास धर्म की अवस्था में है, तब ‘तारूप्य था, ... उन दिनों में कविमन, अंतर्मुखता की जिस अवस्था को अभिव्यक्ति दे रहा है- वह सचमुच विस्मय कारक है-
बढ़ी आ रही ऐसी लहरें
छूट रही कर से पतवारें
तुमने ऐसा ज्वार उठाया, मेरी तिरती नांव में!
कैसे पहुंचू पार तुम्हारे काले कोरवों गांव में!
कैसे पहुंचू पार, पृ. 5

दूर है कितना बसेरा?
खो गया संग, ... खो गया पथ, घिर गया घन-तक अंधेरा

मिल गया होगा किसी को
प्रणय का मधुमास कोई,
मिल गया वात्सल्य ऐसे
वत्स का विश्वास कोई!
दूर खोया है कहीं पर, ... सुखद तृष्णा आावास मेरा
दूर है कितना बसेरा!
यह गीत संग्रह, ...सहज आंतरिकता का एक प्रवाह है, ... दृश्य बिम्ब, ... इंद्रिय अनुभवजन्यता, ... मानवीयकरण एवं प्रसाद मयी भाषा का, ... प्रवाह मधुरम काव्य रूप है। ... वस्तु और रूप, ... सहज संवेदित हैं, ... यह कवि कर्म की विशेषता है कि पचास वर्ष बाद भी ये गीत अपनी स्वाभाविक सरसता पाठक तक पहुंचाने में समर्थ है।

लोक सृष्टि और ‘युगवीणा’
‘युगवीणा (1978) डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय का दूसरा काव्य संग्रह है। इस संकलन में अठहत्तर कविताएं हैं। ये कविताएँ विभिन्न विषयों पर यथासमय लिखी गई है। कवि ने कुछ समसामयिक घटनाओं को केन्द्र में रखते हुए कविताएँ लिखी हैं। इसमें कई उद्बोधन गीत हैं जो युवा पीढ़ी को सम्बोधित करते हुए लिखे गये हैं। इसमें ऐसी कविताएँ हैं जिसमें स्वातंन्न्योत्तर मोहभंग दिखलाई पड़ता है। इन कविताओं की विशेषता यह है कि इनमें सर्वत्र कवि की समाजवादी सोच दिखलाई पड़ता है। इन कविताओं की विशेषता यह है कि इनमें सर्वत्र कवि की समाजवादी सोच दिखलाई पड़ती है। यहाँ कवि का मन, छायावादी रहयवादी संस्कारों से युक्त है, वह नए भारत में आ रहे बदलाव के प्रति सचेत हैं।
‘युग का दान’ कविता ‘भू-दान’ से सम्बन्धित है। भू-दान आन्दोलन विनोबा भावे द्वारा चलाया गया था। कवि का मानना है कि दान दया नहीं हैं यह मनुष्य मात्र का कर्तव्य है। जो ईश्वर द्वारा प्रदत्त वस्तुएँ हैं उन पर सबका बराबरी का हक है। किसी भी देश या संस्कृति के लिए यह उचित नहीं है कि कुछ लोगों के घर वैभव और धन-धान्य से भरे हों और कुछ लोग अनाज के दो कण पाने के लिए तरस रहे हों। कवि के शब्दों में-
‘‘पंचभूत परमेश्वर का धन,
परमेश्वर के पूत सकल जन,
एक नहीं सबकी सम्पत्ति भू,
हिलमिल बाँटे धरती का धन।’’1
(युग का दान, पृ. 7)
‘उद्बोधन’ कविता मंे डॉ. प्रंेमचन्द विजयवर्गीय की समाजवादी सोच झलकती हैं। कवि ने ‘‘भारतीयों से निवेदन किया है कि भारत की नई स्वतंत्रता के संरक्षण की आवश्यकता है। भारत की स्वतंत्रता के रक्षण के लिए कुछ रूढ़ियों तथा कुछ पूर्वाग्रहों को छोड़ना आवश्यक है। पहली आवश्यकता तो यह है कि इस देश को वैषम्य की पीड़ा से मुक्त किया जाये। देश में चारों तरफ निराशा का अंधकार फैला हुआ है। इस निराशा के मूल में जाति, धर्म, छुआ-छूत, आर्थिक विषमता इत्यादि है। जब तक ये सामाजिक बुराइयाँ समाप्त नहीं होगी राष्ट्र विकसित नहीं हो सकता। कवि तमाम प्रकार के जीर्ण-शीर्ण पुरातन भावों को समाप्त कर सत्य-दर्शन करने का आह्वान करता है-
‘‘जीर्ण-शीर्ण वे भाव पुरातन,
कर न सकें सीमित मानव-मन,
लोक दृष्टि रख निज सम्मुख,
करे सत्य-दर्शन मानव-सुख।’’2
(उद्बोधन, पृ.9)
इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें सर्वत्र एक सकारात्मक जागरण का भाव विद्यमान है, गर्व का भाव है और नव-निर्माण का भाव है। ‘नये बीज’ कविता में कवि देशवासियों से नये बीज को बोने की बात, करता है। कवि कहता है कि श्रम से हर कार्य को साधा जा सकता है। श्रम की महत्ता का दूसरा कोई विकल्प नहीं है। कोई थाल परोसकर रख दे यह अपने मन की कामना नहीं होनी चाहिए। स्वतंत्रता का अर्थ स्वावलंबन है। सफलता श्रम से ही मिलती है। नये विचारों के नये बीज हमें धरती के भीतर बोने हैं जिससे कि समय आने पर सुन्दर फल प्राप्त हो सकें। दूसरे देश के मेघ और सतरंगी इन्द्रधनुष देखकर ललचाने से विकास नहीं हो सकता-
‘‘दूर दूर के उन मेघों की ओर न देखो,
उनके सतरंगी इन्द्रधनुष की ओर न ताको,
वह सब माया है, छलना है,
अच्छा तो लगता है, वह, जो
थाल परोसा रख देता है,
पर जो रोटी मुँह में देती है,
वह सब माँ नहीं कहलाती साथी।
स्वतंत्रता तो स्वावलंबन है,
श्रम जिसमें सोना है।’’3
(नये बीज, पृ. 14)
मनुष्य का चरित्र, प्याज की तरह है, एक एक परत उतारते जाओ शेष क्या रह जाता है, इस व्यक्तित्वहीनता को व्यक्तित्व ओढ़े हुए कविता में बहुत बारीकी से कवि ने उठाया है। आज मनुष्य जिस स्थान पर जाता है उस स्थान के अनुरूप वस्त्र धारण कर लेता है, लेकिन भाव धारण नहीं कर पाता।
उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं हैं, न हीं उसके कोई मूल्य हैं। न ही, कोई आदर्श है, वह तो मात्र ‘मुखोटा’ है, जिसे वह अपनी सुविधा के अनुसार लगाता है, उतारता है।
‘‘मेरे घर अनेक सूट हैं,
जो शीशे की अलमारियों में
हैंगर पर टंगे हैं।
यह है वह सूट, जिसे मैं तब पहनता हूंँ
जब मुझे जनता की सभा में बोलना होता है
जब मुझे जनता की आजादी,
समानता और सेवा की बात कहनी होती है,
और यह वह सूट है जिसमें मैं पहनकर,
हिन्दी, राष्ट्रीयता और स्वदेशी का भाषण देता हूं।’’
(व्यक्तित्व ओढ़े हुए, पृ. 62)
जिसे आज आधुनिकता बोध कहा जाता है उसमें अतीत की तमाम अच्छी चीजों को कूड़े-करकट की चीज बताकर बहिष्कृत कर दिया है, लेकिन यह एक ऐसा कूड़ा-करकट है जिसके बिना यह देश जिन्दा नहीं रह सकता।
परन्तु आज के मनुष्य ने अपने गौरवशाली अतीत को मात्र ‘कबाड़’ मान लिया है, जो आदर्श है, वे मात्र ड्राइंगरूम की शोभा के पात्र हैं;े उपयोग के लिए नहीं। हमारा व्यवहारिक जीवन कुछ और है दिखाने को कुछ और है- यह विसंगति- आज के जीवन का यथार्थ है-
‘‘ये कथाएँ हैं पुराण की,
रामायण और महाभारत की,
ये गीता के श्लोक हैं,
ये उपदेश हैं बुद्ध के,
प्रेम और करूणा के।
... ये सब उस मन्दिर के अमूल्य अवशेष हैं,
जो अब टूट चुका है
अब ये केवल शोभा सामग्री है।
खोये हुए बचपन की तरह केवल अतीत दिख रहा है। कवि ने बहुत सुन्दर एक दृष्टांत के द्वारा अपनी बात को स्पष्ट किया है। स्वतंत्रता का आगमन हुआ है, नया सवेरा आया है, कवि ने पुराना और नया दोनों देखा है, उसके मन में आशंकाएं भी है। वह नए का स्वागत भी कर रहा है, पर सशंकित भी है-
गई बीत काली अंधेरी निशा वह,
मगर दूर अब भी बहुत है सवेरा।
बुझे जा रहे हैं ये तारे पुराने,
नई रोशनी को नया चांद लाओ
हर प्रकार की विसंगतियों के बीच भी भारतीय समाज ने मन्थर गति से ही सही कुछ प्रगति तो की ही है। जिस गति से अपेक्षा थी उस गति से नहीं, लेकिन भारतीय समाज जागा आवश्य है। इसे हम ज्ञान-विज्ञान के कारण कह सकते हैं। चाहे तो इसका श्रेय भारतीय गणतंत्र को भी दे सकते हैं। स्वतंत्रता के पहले देश में जाति-पांति, छुआछूत की जैसी विकट परिस्थितियाँ थी वैसी आज नहीं है। यह अलग बात है कि जाति नये सिरे से अपना सिर उठा रही है। आज देश का श्रमिक और कृषक जागा है। जीर्ण सभ्यताओं के बहुत से अंश आज मिटे हैं। समानतावादी समाज की दिशा में कुछ ही कदम सही देश आगे बढ़ रहा है-
‘‘ये श्रमिक हैं जागते, यह कृषक हैं जागते,
मध्यवर्ग में पले-गले असहाय जागते,
जागती धरा अमर, जागती है चेतना,
दबी हुई पिसी हुई, जागती है वेदना।’’7
‘युग वीणा’ डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय का एक प्रतिनिधि संकलन है। इस संकलन की अधिकांश कविताएँ समसामयिक विषयों को स्पर्श करती है। इन कविताओं में देश के विकास को लेकर कवि के हृदय में एक गहरी चिंता है। सर्वत्र एक आशावादी स्वर है। डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय एक वैचारिक कवि है। ....वह नए समाजवादी सोच का भी आदर कर रहा है-
यह लाल सवेरा होता है!
लो आज क्षितिज में पूरब के
यह नया होता है।
लाल सवेरा .....कवि जहां गांधीवादी सामाजिक संरचना तथा भू-दान की हृदय परिवर्तन की व्याख्या को रूपान्तिरित भी कर रहा है, वहीं वह ‘लाल सवेरा’ का स्वागत भी कर रहा है। जो गांधीवादी हैं, वह सर्वहारा वर्ग के दुखों को, उनकी आशाओं की पूर्ति के लिए नए विचारों का स्वागत भी कर रहा है।

शरद की पूनम और ‘सुधि भीगा मन’
‘सुधि भीगा मन’ (1983) डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय का तीसरा काव्य संकलन है। जो यह गीतों एवं मुक्त छंद कविताओं का संग्रह है।
‘‘प्रथम काव्य संग्रह प्रकीर्ण विषयों से सम्बन्धित था तो दूसरा राष्ट्रीय भावनाओं और विषयों सम्बन्धित। प्रस्तुत संग्रह की कविताएंँ मुख्यतः रसराज के क्षेत्र से सम्बन्धित है। यद्यपि इसकी सभी कविताओं के साथ रचना तिथि नहीं छपी है पर समग्रतः इसका रचनाकाल 1946 से 1980 तक व्याप्त है। ‘गूंज रही शहनाई’ की कविताएँ 1948 से 1961 तक के बीच की तथा ‘युगवीणा’ की कविताएँ 1964 से 1974 तक के बीच की थी। इस प्रकार इन तीनों काव्य संग्रहों की कविताएं 1946 से 1977 के बीच सृजित है। पर उनका संकलन रचना-काल के पूर्वाक्रम के आधार पर नहीं विषय-भेद के आधार पर हुआ है। इस कारण यह संग्रह प्रवृत्ति-भेद के भी द्योतक है।’’8
इस संग्रह में कुल सत्तर कविताएँ हैं। इन कविताओं के ऊपर छायावादी प्रभाव है। कवि द्वारा प्रस्तुत किए गए बिम्ब और प्रतीक भी प्रायः वे हैं। जिनका प्रयोग छायावादी कवियों ने किया है। डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय ने अपनी कविताओं का संकलन प्रवृत्तिगत आधार पर किया है। इस दृष्टि से अब तक लिखी गई समस्त शृंगारिक कविताओं को इस संग्रह मंे स्थान दिया है। इस संग्रह में बहुत सी प्रेम-कविताएँ ऐसी हैं जिनके प्रतीक जीवन में गहरे उतरे हुए हैं।
कवि ‘‘अंधेरे’’ का साक्षी है, जो उसके मन को विकीर्ण कर, ... प्रकाश के लाखों सागर, ... उस ज्योतिर्मय उजास को निगल गया है, ... कवि ‘उषा’ के माध्यम से, उस ज्योति पर्व का स्वागत कर रहा है- वैदिक सृष्टि की मनोहारी कल्पना, यहां है। महर्षि अरबिंद अतिमानस का रहस्योद्घाटन पर्व है, चेतना के पार, जो ज्योतित है, वहीं कर्तव्य है-
‘‘उतार सको तो ज्योति शिखर बन,
तुम इस मन के गहन अंधेरे में आ उतरो!
तभी मिटेंगेे, तभी छंटेंगे,
तम के ये कजरारे बादल
और शरद की पूनम मेरे
जीवन में फिर नवप्रकाश का नवजीवन का
चंदा लेकर छा जाएगी।’’9
(केसे रूकूँ, पृ. 9)
उतर छायावादी काव्य धारा सहज की ‘सांस्कृतिक’ परिधि में समाकृत होने लगी थी। इसी कारण राष्ट्रीयता के साथ उतर छायावादी काव्य संस्कार उनके यहां काव्य वस्तु है। प्रगतिवादी, प्रयोगवादी और नई कविता के अध्ययन अध्यापन के बावजूद इन दोनों के यह संस्कार उनकी सृजन चेतना का अनिवार्य अंग रहा है। उनकी कुछ कविताओं में विशेषतः मुक्त छन्द की कविताओं में नई की बानगी अवश्य दिखलायी पड़ती है।
डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय के शब्दों में ‘‘मेरा यह मानना है कि छायावाद और उसकी अभिव्यंजना शैली ने कविता के कवित्व को जो सम्पन्नता प्रदान की, उसको जो उत्कर्ष प्रदान किया वह न केवल ऐतिहासिक उपलब्धि है, वरन् वह एक स्थाई काव्य मूल्य भी है। छायावाद की काव्य शैली को वादमुक्त करके देखने पर वह विवाद की वस्तु नहीं रह जाती। क्योंकि मेरा मानना है कि कवित्व ही कविता का स्थायी धर्म है। उसकी पहचान ही उसका धर्म है। इसके अभाव में कवि का विचार एक वक्तव्य हो सकता है कविता नहीं हो सकती। कवित्व सहजता का विरोधी नहीं है उसका सहधर्मी और सहचर है। अनुभूति की सच्चाई सच्ची कविता की प्रथम आवश्यकता है। इस प्रकार की अनुभूति की सच्चाई, अभिव्यक्ति की सहजता और कवित्व ही मेरी दृष्टि में किसी कविता का स्थायी मूल्य है। फिर चाहे उसका विषय शाश्वत महत्व का हो, चाहे समसामयिक महत्व का, वह चाहे भावना प्रसूत हो, चाहे विचार प्रसूत।’’10
प्रस्तुत काव्य संग्रह की कविताओं में किसी वाद की बाध्यता नहीं, उत्तर छायावादी, उन्मुक्तता है, सहजता है, इनमें जीवन की व्यापक और अन्तर्मुखी अनुभूतियाँ है। जीवन का सहज जीवन्त भाव सत्य है। संग्रह में मुख्यतः अन्तर्मुखी व्यक्तित्व की कविताएं ही संगृहीत की गई है, जिनमें कवि की मधुर काव्य संवेदना का संसर्ग का स्पर्श है। कुछ कविताओं में रूप सौंन्दर्य और यौवन का चित्रण है। साथ ही नारी के स्वाभाविक लज्जाभाव का कवि ने अपनी उस ‘तुम’ को अनेक अनेक उपमानों के माध्यम से चित्रित किया है, जिसकी एक प्रथम पंक्ति ही इस सत्य का द्योतक है-
धूप में जो खिलखिलाती उस प्रथम बरसात-सी तुम,
‘‘सजे दीपक थाल नभ-पथ में विहँसती रात सी तुम।’’
(तुम, पृ. 5)
‘तुम, ... जो स्नेहित है, ... जो जीवन्तता का आधार है, वहां प्रणय अपनी मूर्तता को पा, धन्य हो उठता है, ... रह जाते हैं एक मधुर गंध- इस लंबी गीतिका में, ... कवि ने, हर छंद में समाहार, जिन उपमानों से किया हे, वहां प्रणय निवेदन, ... प्रेम परिवार, ... में ध्वनित हो उठता है-
‘‘किन्तु नभ की गोद में तो हो लजाती रात सी तुम!
धूप में जो खिलखिलाती उस प्रथम बरसात सी तुम,
आँसुओं में ही खिला जो, उस करुण जलजात सी तुम!
सिहर बनती, जो पुलक में, उस मलय की वात सी तुम!
गीत बन मचली प्रणय में, उस हृदय की बात सी तुम।’’
(तुम, पृ. 5)
‘तुम’, ... जो आधार है, ... वह पूर्ति का स्वर है, ... बंूद जो रिक्त है, वह पूर्णता पाकर, प्रमुदित है-
‘‘मिली तुम मिले प्राण को फिर नये स्वर!
मिली तुम मिले श्रांत खग को नये पर।’’
(गीत, पृ. 13)
कवि को ‘तुम’ में ऐसा लगा मानो वह उन्हें ज्योति की नई किरण दे गई हो और कवि के नेत्र नये स्वप्न से भर भर उठे। कवि की यह विशेषता है कि वह अपने गीत लिखने बैठता है किन्तु चित्र ‘उसके’ बन जाते हैं।
कवि उसे ही अपना भाव, अपनी कल्पना, अपना शब्द, सप्त स्वर, लय, छंद और सहज काव्य श्रंृगार सब कुछ समझता है। कवि की यह विवशता है। इसी के साथ यह विवशता इस कारण भी है कि वही उसके लिए रंग है, रूप है, रेखा की तार, लय-गति है, तूलिका है, चित्रपट है और चित्र का आधार भी है।
गीत तुम हो, गीत मैं हूँ,
गीत जग के जीव सारे।
कवि ने उसे जीवन की कविता, मूक भावना की भाषा, गहन उत्तंग कल्पना, सत्य-साधना, प्रेम, तपस्या, जीवन की पावन पूजा की भावमय प्रतिमा, अमलप्रभा का दीप लिए अंतर की सुषमा, अंधपदों के गति विलास की सजग धीरता और दृढ़ता कहा है। इसके अतिरिक्त नैराश्य पलों की श्रांतिमय मृदुलता, सेवा का वरदान, जीवन की विश्रृंखलता की एकातारिता, विषम असध ध्वनियों का साम गान, अमिट खोज की सिद्धि प्राप्ति और जीवन की प्रज्जवलित वेदी पर करुणा की उपहार का है-
‘‘तुम मेरे जीवन की कविता,
मूक भावना की भाषा;
गहन, पूत, उत्तुंग कल्पना
तृषित हृदय की अभिलाषा!

‘‘जीवन की विश्रृंखलता की,
एकतारिता, तरलवते!
विषम, असध, ध्वनियों की तुम-
सामगान, मृदु गीतमते!’’14
(नवागता)
... यहां ‘तुम’, ... जहां लौकिक स्पर्श भी रखता है, वहीं रहस्यवादी विस्मय भी है। ‘प्रसाद’ की कामायनी की ‘तुम’ जो श्रद्धा का रूप विन्यास व भाव सौंदर्य है, उस ‘तुम’ का आदर यहां मांसल सौंदर्य के भाव जगत भी उस स्नेहिल संवेदनशील आत्मा का आह्वान है, जो मनोजगत मंे सारी उपलब्धियों को गुणों को सन्निहित कर, प्रेमी ‘मन’ को पूर्णता देती है।
प्रेम की जो उदात्तता, ... वहां ‘शरीर’ का आकर्षण भी एक दिन खो जाता है, ... ‘जायसी’ प्रेम की पीर के कवि हैं, ... की विजय ने, प्रेम की इसी उदात्ता का स्पर्श किया है, ... वहां संवेदना, ... धीरे धीरे कलकल निझर करते पहाड़ी झरने के मधुर संगीत में खो जाती है। रह जाता है, एक पुलक स्पर्श-
‘‘ कहें आज कैसे विदा ले रही तुम
हमीं में मिलन बन मिली जा रही हो!
मिटा क्या सकेगा दृगों का यह पानी,
हृदय पर लिखी स्नेह-रेखा पुरानी,
धुल धुल बनेगी नयी और उज्जवल-
हमारे तुम्हारे मिलन की कहानी।’’
‘विरह’, ... और अनुभूति की तीव्रता, ... भीतर अंतस्थल मंे, वेदना का प्रवाह, ... जहां सागर की लहरं चेतना के द्वार पर दस्तक दे रही है-
‘‘प्राण को दे वेदना की बिजलियाँ
जा रही हो तुम कहाँ बरसात सी?’’
(विदा गीत, पृ0 36)
ब्रह्म प्राण में आज बिजलियां
मेरा सावन चला गया।
पृ0 37
‘हार एक प्रतीक है, ... पुष्प गुंथ जाते हैं, ... धागे से हार बन जाता है, गीता में कहा है, माला में जो सूत रूप में है, वह ‘मैं’ हूं। ‘मैं’, जो येाग है, जो आत्मा है, ... कवि ‘पुष्प हार’ जो ‘तुम’ ... बना रहा है, उसमें अपने आपको विद्या पाता है, ... वह उस हार का प्राण है, ... प्रियतमा और प्रिय का जो झुकाव है, ... वहंा विरह भी कहां है।
गीत पृ. 42
अधखुली आँखों से देखने पर एक निरीह कल्पना है-
‘‘जब तुम पलक उठाकर अधखुली आँखों से देखती हो
तो तुम्हारी चितवन में कितने मेघदूत कितने शाकुन्तलम, कितने उत्तर-रामचरित
और कितने साकेत
एक साथ खुल जाते हैं
आँसू के साथ कितनी उर्वशी
रूपक, बिम्ब, प्रतीक- कविता संग्रह में शिल्प योजना के जहां अनिवार्य अंग है। वहां कवि ने, प्रतीकों की जो प्रस्तुति की है, वह अनुपम है।
उद्धवी संदेश हूं मैं, तुम दिवस का रास हो।
दोनों ओर प्रेम पलता है... का कहानी की व्यंजना यहां प्रेम को, जिस उदात्तता का स्पर्श कवि ने यहां किया है, ... वह अनुपम है- प्रिय पात्र उंद्धवीं है, ... उद्धव प्रेम पाकर आए थे, ... ज्ञान का उपदेश देने गए थे-
... रस, और रास का यह मिलन, ... देहानुभूति से परे है। ... जहां आत्मा का अखंड अद्वैत है, ... इसी वेदन, उस आनंदानुभूति का यह काव्य रूप है।


खण्डित सूर्य का रक्त और ‘देश का दर्द
‘देश का दर्द’ (1919) डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय का चौथा काव्य संग्रह है। प्रस्तुत संग्रह में दो संग्रह है। इसमें कविताएँ ‘देश का दर्द’ एवं ‘सांध्यदीप’ शीर्षक से संकलित की गई है। ‘देश का दर्द’ शीर्षक से बावन कविताएँ हैं। तथा ‘सांध्यदीप’ में चालीस कविताएँ हैं।
इस संकलन के प्रकाशकीय वक्तव्य में बतलाया गया है कि ‘‘प्रस्तुत संकलन में डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय की नई-पुरानी कविताएँ ‘देश का दर्द’ एवं सांध्यदीप’ शीर्षक में संकलित की गई है। ‘देश का दर्द’ एवं ‘सांध्यदीप’ शीर्षक कविताओं मंे देश प्रेम, देश की स्थिति, सामाजिक बिखराव आदि विविध विषयों से सम्बद्ध रचनाएंँ संकलित हैं। सभी कविताओं में अनुभवों की सच्चाई और भावों की गहराई विद्यमान है।’’24
परन्तु यह संग्रह अपने पूर्ववर्ती संग्रहों की कविताओं से हटकर है, ... यहां एक मिला-जुला, सा सभी को समेटना का आग्रह अधिक है।
‘सांध्यदीप’ संग्रह में ‘शब्दों का उजाला’ एक कविता है। इस कविता में कवि ने कलात्मक ढंग से शब्दों की महिमा को प्रतिपादित किया है। जब चारों तरफ घोर निराशा और अंधकार हो, प्रतिकार की क्षमता समाप्त हो रही हो ऐसी स्थिति में शब्द ऊर्जा प्रदान करते हैं। शब्द वर्तमान का बोध भी कराते हैं और भविष्य के लिए सपने भी बुनते हैं। जब जब अंधकार ने संसार को जकड़ा है तब तब शब्द ने हथकड़ियाँ और बेडियाँ तोड़ी है। शब्द किसी व्यक्ति की नहीं सारे संसार की सम्पत्ति होते हैं। शब्दों के माध्यम से ही ज्ञान और विज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित होते हैं-
‘‘वे वाहक हैं ज्ञान और विज्ञान के
संस्कृति और दर्शन के।
बिना किसी वसीयतनामे के
वे हस्तांतरित होते हैं पीढ़ी-दर-पीढ़ी,
क्योंकि वे व्यष्टि की नहीं
समष्टि की सम्पत्ति होते हैं
और हर व्यवस्था में वे
सामाजिक ही बने रहते हैं।
(शब्दों का उजाला)
क्या कवि अपने युग की परिस्थितियों, महत्त्वपूर्ण विषयांे, तत्कालीन घटनाओं को छोड़कर जिन्दा रह सकता है। सृजन कर सकता है? डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय ने भी अपने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया है कि-
‘तत्कालीन उद्धेलनकारी घटनाएं लिखने के लिए विवश करती हैं। प्रारंभ से ही मानस पर पड़ने वाले दो प्रकार के निवैयक्तिक दबाव मुझे लिखने के लिए विवश करते रहे हैं। एक तो व्यक्तिगत भावानुभूतियों का दबाव दूसरा देश की उद्वेलनकारी घटनाओं और परिस्थितियों के दबाव। जैसे- सन् 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन, महात्मा गांधी की हत्या, पाकिस्तान की भारत के प्रति आक्रामक आतंकवादी गतिविधियों, समसामयिक राजनीति, विदेशी घटनाओं में चीन में तेनानमेन चौक में युवा दमन इत्यादि।’
इस काव्य संग्रह की कविताओं में समकालीनता का खाद है, घटना; काव्य की वस्तु बन, आकार भी तलाश में है। यही कारण है। कुछ कविताओं में यह दबाव अधिक नजर आ रहा है।
1980 के बाद यानी समकालीन कविता के दौर में भारत में जो महत्वपूर्ण घटनाएॅ घटित हुई है। उसमें राम-जन्म-भूमि अयोध्या का विवाद महत्वपूर्ण है।
डॉ. विजयवर्गीय ने इस घटना को राम के ‘एक और निर्वासन’ के रूप मंे देखा और काव्य रूप में प्रस्तुत किया। कवि कहता है कि राम! तुम्हारी जन्मभूमि पर तुम्हारा अधिकार नहीं। अधिकार उन लोगों का है जो तलवार के बल पर धर्म का विनाश कर सकते हैं। कथित उदारवादियों ने राम की जन्मभूमि को लेकर तरह-तरह के प्रश्न खड़े किये। कवि कहता है कि एक बार राम मन्थरा के षड़यंत्र और कैकयी के लोभ के कारण निर्वासित हुए थे अब लगता है कि राम धर्म, अनर्थ और राजनीति की दुरभिसंधि से निर्वासित हांेगे। राम को कोई ताकत से निर्वासित नहीं कर सकता। कवित के शब्दों में-
‘‘पूछना चाहता हूँ राम!
यदि तब कोई रावण
तुम्हें अयोध्या छोड़ने के लिए विवश करता
तो क्या तुम उसे छोड़ देते?
क्या तुम्हारे धनुष-बाण प्रतिरोध नहीं करते?
तो फिर आज, क्या इस निष्कासन की बेला में
तुम, तुम्हारे धनुष-बाण
क्या सोते रह जाएंगे?
बोला राम!
युग उत्तर चाहता है तुमसे।’’29
(एक और निर्वासन)
डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय के जीवन के जो कुछ लोग आदर्श रहे हैं उनमें एक विनोबा भावे भी हैं। इन्हीं के शब्दों में-
‘‘प्रत्येक प्रबुद्ध लेखक का कोई न कोई वैचारिक दृष्टिकोण होता है। मेरे विचार पर महात्मा गांधी, पं. जवाहरलाल नेहरू और आचार्य विनोबा भावे का विशेष प्रभाव रहा। मेरे वैचारिक दृष्टिकोण के स्रोत भी वही हैं। पर चूंकि मैं सन्तुलित और समन्वयवादी दृष्टि लेकर चलता हूँ इस कारण वैचारिक दुराग्रह तो बिल्कुल नहीं रखता। वैचारिक आग्रह भी मुझे सत्य और उचित लगता है।’’30
कवि कहता है कि विनोबा गीता में साक्षात भाष्य थे। उनका सारा का सारा जीवन एक निष्काम कर्मयोगी का जीवन था-
‘‘तुम्हारी आत्मा ने जीर्ण वस्त्र नहीं बदला
तुमने ही उसका वस्त्र उतारकर धर दिया,
ताकि अपने प्रभु से एकाकार होते समय
उसे उसका कुछ भी मोह न रहे।
ओ गीता के सजीव भाष्य!
तुम्हारा कर्म ही नहीं, धर्म भी
तुम्हारा जीवन ही नहीं, मरण भी
निष्काम रहा,
तुम तो गीता के भाष्य बन गए,
जिसे युग-युग तक भारत गाएगा।’’31
(विनोबा के महाप्रयाण पर)
देश का विभाजन होने के पश्चात भी समस्याएँ कम नहीं हुयी। विभाजन के बाद भी विभाजन का दर्द बना हुआ है। स्वतंत्रता के पश्चात् जहाँ प्रकाश फैलना चाहिए था वहाँ रक्त फैंल रहा है। स्वतंत्रता का आदर तथा उसी के साथ, ... जो समस्याएँ भारत विभाजन से आई, ... उस त्रासदी को कवि ने अपनी संवेदना दी है। ... यहां समकालीनता का प्रभाव, ...कवि की काव्य चेतना को समय को पार झांकने को प्रेरित कर रहा है।-
‘‘खण्डित सूर्य का रक्त
अभी न जाने कितने युगांे तक
हमारी भूमि को रक्तिम बनाता रहेगा।
उसका घाव न जाने कितनी सदियों तक
हमें दर्दाता रहेगा।
और आधी रात को इस सूरज-तले
हम न जाने कितने कल्पों तक
अंधेरा पीते रहेंगेे, पीते रहेंगे।’’32
(आधी रात का सूरज, पृ. 16)

देश की समस्याएँ बहुत हैं, दर्द बहुत हैं, चारों तरफ निराशा के बादल घिरे हुए हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इन तमाम परिस्थितियांे के बीच कवि निराश नहीं है। आशा सबसे बड़ी ताकत होती है। वही विभिन्न प्रकार के संकटों से व्यक्ति, समाज और देश को उबारती है। कवि कहता है कि-
‘‘ओ अंधेरों लौट जाओ, यह उजालों की जमी है,
हम अमा की रात में दीपक जलाना जानते हैं!
भूचाल बरपा करने वालों से न डरते हम कभी,
हम स्वयं भूकंप हैं, भूचाल लाना जानते हैं!
हम गरजते बादलों में भी सदा हंसते रहे,
बिजलियॉ चाहे गिरें, हम मुस्कराना जानते हैं।’’37
(हम जानते हैं)
‘देश का दर्द’ की कविताएँ इस समस्या के ऊपर है। देश में उठने वाली ज्वलंत समस्याओं से टकराती है।
यहां कवि, बौद्धिकता के आधार पर अपने प्रश्नों को एक नागरिक की दृष्टि से विचारता है। संकटकालीनता का दबाव स्पष्ट है, हर विषय जो समाचार पत्र, खाद-बीज के रूप में बहुत करते हैं, ... संवेदना वहां से प्रतिक्रियात्मक आधार लाती है। ... यह कवि की मूल प्रेरणा नहीं है। ... कवि मन, अंतर्मुखी है, ... वह उत्तरछायावादी संस्कारों में पल्लवित हुआ है। सांस्कृतिक राष्ट्रवादी सोच, उसे आकर्षित तो करती है, पर वह जन और जन संस्कृति अविभाज्यता को भी स्वीकारता है। जन का शुभम् व मंगल का उसका वंदेय पथ है, जो उसकी काल संवेदना को धनीभूत करता है।












कवि और आलोचक प्रेमचन्द विजयवर्गीय

हमारे पुरोधा 4

इस लेखमाला के अंतर्गत हम आजकी प्रेमचन्द  डॉविजयवर्गीय  साहित्य साधना से आपका परिचय करा रहे हैं। आप कोटा निवासी थे, और वनस्थली विद्यापीठ में हिन्दी भाषा और साहित्य में विभागाघ्यक्ष भी रहे।
इस अंचल के अधिकांश साहित्यकारों की कृतियों की आपने भूमिकाएॅं लिखीं, समीक्षाएॅं लिखीं।
आपके चार काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। पारीवारिक स्नेह से परित्यक्त आप वर्षों तक झालाबाड़ रोड पर स्थित आश्रय में रहे। आपकी अंतिम शोकसभा में भी जो आश्रय में हुई थी, आश्रय के निवासी ही अधिक थे। इस अंचल में साहित्यिक विकास यात्रा के गतिशील प्रवाह में आपका योगदान महत्वपूर्ण है।

कवि  और आलोचक  प्रेमचन्द विजयवर्गीय

प्रेमचन्द विजयवर्गीय, ... गांधीवादी परंपरा में विकसित सुधी आलोचक हैं। जीवन में ‘शिवम्’ और ‘सुन्दरम’ के खोज जहां आपकी काव्य चेतना का प्रमुख आकर्षण है, वहीं समीक्षा में आपकी यह दृष्टि सहज ही परिलक्षित होती है। गांधी, नेहरू, विनोबा, आपके आदर्श रहे हैं। समन्वयवादी रूचि तथा जो ‘शुभ’ है, उसके प्रति अनायास सहज स्वीकारोक्ति आपकी समीक्षक दृष्टि का केन्द्र बिन्दु रहा है।
आपके शोध का विषय, ‘आधुनिक हिन्दी कवियों का सामाजिक दर्शन’ में आपने अपनी इसी दृष्टिकोण के आधार पर, आधुनिक काव्य धारा का विवेचन किया है। न तो मार्क्सवादीय सौंदर्य ज्ञान या सिद्धान्त शास्त्र आपके आलोचना कर्म का आधार बन पाया नहीं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचार दृष्टि आपको आकर्षित कर पायी। प्रगतिशीलता को सातव्य विकास का अनिवार्य धर्म मानते हुए भी, ... मनुष्यता तथा नैतिकता को भारतीय संदर्भों में रेखांकित कर, उसे आचरण में ढालना, ... सत्य के प्रति समर्पण आपकी समीक्षा धर्म का आदर रहा है। यही कारण रहा कि आप साहित्यिक राजनीति में उपेक्षित रहे।  चाहे मार्क्सवादी मित्र हांे, या साहित्य परिषदी सभी आपका सहयोग तो लेते रहे, पर आपसे दूरी भी बनाए रखते रहे। गुटों में बॅंटे साहित्य प्रेमियों की भावना को आहत करने का यहॉं प्रयास नहीं है। पर एक सहृदय साहित्य प्रेमी की स्मृति आप तक पहुंचाने का आग्रह अधिक है।

सैद्धान्तिक समीक्षा की दृष्टि से, आपने महादेवी वर्मा की ‘स्मृति की रेखाएं, श्री भगवती प्रसाद, वाजपेयी के उपन्यास भूदान तथा मैथिलीशरण गुप्त के ‘अजित’ हरिकृष्ण प्रेमी के ‘शपथ,’ तथा ‘ भुंजदेव मीमांसा’ का सृजन भी किया है। उपरोक्त कृतियां पाद्योपयोगी होते हुए भी एक विशेष दृष्टि की परिचायक भी है। ‘स्मृति की रेखाएं है पर जो आपकी समीक्षा पुस्तक प्रकाशित हुई थी। उसके रेखाचित्र विद्या का महत्वपूर्ण ही आलेख है। कहानी तथा संस्मरण विद्या से उसे पृथक करते हुए सैद्धांतिक विवेचना अनुपम है। ... यह सुखद ही है कि संस्मरण विद्या पर भी महत्वपूर्ण आलेख डॉ. कन्हैयालाल शर्मा के संपादन में- यादों के वातायन से जो प्रकाशित हुआ है, वे भी यहीं की पुरानी पीढ़ी के वन्देय आलोचक हैं।
डॉ. रामचरण महेन्द्र पर ‘राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित ‘मोनोग्राफ में आपने श्री महेन्द्र की नाटयकला व नाद्य समीक्षा का सुन्दर विवेचन किया है। ‘व्यवहारिक समीक्षा’, सा यह उत्कृष्ट आलेख है। मूलतः श्री विजय का समीक्षा कर्म, व्यवहारिक, समाजशास्त्रीय सीमाओं में समादृत है। दृष्टि समन्वयवादी है तथा हर प्रकार के अतिरेक के दुराग्रह से आप दूरस्थ हैं।

प्रसिद्ध नाटककार हरिकृष्ण प्रेमी के शपथ नाटक की सर्वांगीण समीक्षा है। ‘अंजित अनुशीलन’- राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त केे खंड काव्य ‘अजित’ की विवेचना है। ‘भूदान’, ... भगवती प्रसाद वाजपेयी के उपन्यास का, तथा उनके सभी उपन्यासों की संक्षिप्त व्याख्या है। ‘भुजदेव’ ‘मीमांसा’, आंेकारनाथ दिनकर के नाटक ‘भुंजदेव की समीक्षा है। ‘स्मृति की रेखाएँ: एक अध्ययन; ..  आपकी महत्वपूर्ण पुस्तक है। इसमंे रेखाचित्र, विद्या का सम्यक विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
गंूज उठी शहनाई
1862 में प्रकाशित यह काव्य संग्रह ‘श्री विजय’ का पहला काव्य संग्रह है। यह युग छायावाद का उत्तरकाल था, श्री विजय की काव्य साधना 1940 से प्रारंभ हो चुकी थी। ... परन्तु संग्रह दीर्घकालीन धैर्य व साधना के सतत प्रयास कर ही आया। डा. रामचरण .... ने संग्रह की भूमिका में कहा है-
‘‘इन कविताओं में विविधता है। इनमंे व्यक्तिगत अनुभूतियों से सामान्य सत्यों, जीवन के यथार्थ अनुभवों से व्यवहारिक आदर्श, स्व से पर की, नश्वरता से अरमत्व, निराशा से आशा, विषाद से हष्र, और स्थूल से सूक्ष्म की ओर प्रवृत्ति रही है।.... बौद्धिकता भावात्मक परिधान धारण कर अन्तर्गत हुई है, और कल्पना यथार्थ की भूमि पर खड़ी है। पर इन सभी कविताओं में एक गुण सामान्य रूप से विद्यमान है- जीवन का संस्पर्श और तीव्र अनुभूति।’’
संग्रह में सभी कुछ जो सहेजने का आग्रह रहा है। जहां रहस्यवादी रूझान है। ... आध्यात्म प्रतीकों के माध्यम से दार्शनिक सत्यों की अभिव्यंजना का प्रयास है। वहीं राष्ट्रीय भावना का, जो तत्कालीन परिप्रेक्ष्य में गांधीवादी प्रभाव था .... उसका भी व्यापक प्रभाव है।
... गेयता, संक्षिप्तता, मधुरता ..., तथा रस सिक्तता, इन गीतों का प्रमुख आकर्षण है। .... कवि, संगीतात्मकता के प्रति सहृदय है। ... अन्तर्मुखी व्यक्तित्व की सहज अभिव्यक्ति गेयता में ढल जाती है। .... वहां भाव अपनी समग्रता में अनुभूत्यात्मक यथार्थ को मानवीय संवेदना सन्निहित कर देता है।
‘‘ वह स्वप्नों का लोक मुझे है, उधर झुलाता,
यह जाग्रति का लोक मुझे है इधर बुलाता
कुछ मिट्टी की कुछ सोने की धरती आगे
कुछ जल की कुछ पाषाणों की पृथ्वी आगे!
हर दिशा आज जब यही बताती मुझको-
मैं जादू कोई देश, हर पंथ तुम्हारा ही तो है!
अनन्यता पृ. 3.
मन की दुनिया, ... जो कल गया है, ... जो कल आने को अपेक्षित है। दरवाजे पर उसकी थपथपाहट है, ... दूर काले-बादलां के पार से उसके संकेत भी आने लगे हैं-, कवि, इस वर्तमान की दहलीज पर जिस व्यथा-कथा को रेखांकित कर रहा है, ... वह अद्भुद है, ...आज विजय ही सन्यास धर्म की अवस्था में है, तब ‘तारूप्य था, ... उन दिनों में कविमन, अंतर्मुखता की जिस अवस्था को अभिव्यक्ति दे रहा है- वह सचमुच विस्मय कारक है-
बढ़ी आ रही ऐसी लहरें
छूट रही कर से पतवारें
तुमने ऐसा ज्वार उठाया, मेरी तिरती नांव में!
कैसे पहुंचू पार तुम्हारे काले कोरवों गांव में!
कैसे पहुंचू पार, पृ. 5

दूर है कितना बसेरा?
खो गया संग, ... खो गया पथ, घिर गया घन-तक अंधेरा

मिल गया होगा किसी को
प्रणय का मधुमास कोई,
मिल गया वात्सल्य ऐसे
वत्स का विश्वास कोई!
दूर खोया है कहीं पर, ... सुखद तृष्णा आावास मेरा
दूर है कितना बसेरा!
यह गीत संग्रह, ...सहज आंतरिकता का एक प्रवाह है, ... दृश्य बिम्ब, ... इंद्रिय अनुभवजन्यता, ... मानवीयकरण एवं प्रसाद मयी भाषा का, ... प्रवाह मधुरम काव्य रूप है। ... वस्तु और रूप, ... सहज संवेदित हैं, ... यह कवि कर्म की विशेषता है कि पचास वर्ष बाद भी ये गीत अपनी स्वाभाविक सरसता पाठक तक पहुंचाने में समर्थ है।

लोक सृष्टि और ‘युगवीणा’
‘युगवीणा (1978) डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय का दूसरा काव्य संग्रह है। इस संकलन में अठहत्तर कविताएं हैं। ये कविताएँ विभिन्न विषयों पर यथासमय लिखी गई है। कवि ने कुछ समसामयिक घटनाओं को केन्द्र में रखते हुए कविताएँ लिखी हैं। इसमें कई उद्बोधन गीत हैं जो युवा पीढ़ी को सम्बोधित करते हुए लिखे गये हैं। इसमें ऐसी कविताएँ हैं जिसमें स्वातंन्न्योत्तर मोहभंग दिखलाई पड़ता है। इन कविताओं की विशेषता यह है कि इनमें सर्वत्र कवि की समाजवादी सोच दिखलाई पड़ता है। इन कविताओं की विशेषता यह है कि इनमें सर्वत्र कवि की समाजवादी सोच दिखलाई पड़ती है। यहाँ कवि का मन, छायावादी रहयवादी संस्कारों से युक्त है, वह नए भारत में आ रहे बदलाव के प्रति सचेत हैं।
‘युग का दान’ कविता ‘भू-दान’ से सम्बन्धित है। भू-दान आन्दोलन विनोबा भावे द्वारा चलाया गया था। कवि का मानना है कि दान दया नहीं हैं यह मनुष्य मात्र का कर्तव्य है। जो ईश्वर द्वारा प्रदत्त वस्तुएँ हैं उन पर सबका बराबरी का हक है। किसी भी देश या संस्कृति के लिए यह उचित नहीं है कि कुछ लोगों के घर वैभव और धन-धान्य से भरे हों और कुछ लोग अनाज के दो कण पाने के लिए तरस रहे हों। कवि के शब्दों में-
‘‘पंचभूत परमेश्वर का धन,
परमेश्वर के पूत सकल जन,
एक नहीं सबकी सम्पत्ति भू,
हिलमिल बाँटे धरती का धन।’’1
(युग का दान, पृ. 7)
‘उद्बोधन’ कविता मंे डॉ. प्रंेमचन्द विजयवर्गीय की समाजवादी सोच झलकती हैं। कवि ने ‘‘भारतीयों से निवेदन किया है कि भारत की नई स्वतंत्रता के संरक्षण की आवश्यकता है। भारत की स्वतंत्रता के रक्षण के लिए कुछ रूढ़ियों तथा कुछ पूर्वाग्रहों को छोड़ना आवश्यक है। पहली आवश्यकता तो यह है कि इस देश को वैषम्य की पीड़ा से मुक्त किया जाये। देश में चारों तरफ निराशा का अंधकार फैला हुआ है। इस निराशा के मूल में जाति, धर्म, छुआ-छूत, आर्थिक विषमता इत्यादि है। जब तक ये सामाजिक बुराइयाँ समाप्त नहीं होगी राष्ट्र विकसित नहीं हो सकता। कवि तमाम प्रकार के जीर्ण-शीर्ण पुरातन भावों को समाप्त कर सत्य-दर्शन करने का आह्वान करता है-
‘‘जीर्ण-शीर्ण वे भाव पुरातन,
कर न सकें सीमित मानव-मन,
लोक दृष्टि रख निज सम्मुख,
करे सत्य-दर्शन मानव-सुख।’’2
(उद्बोधन, पृ.9)
इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें सर्वत्र एक सकारात्मक जागरण का भाव विद्यमान है, गर्व का भाव है और नव-निर्माण का भाव है। ‘नये बीज’ कविता में कवि देशवासियों से नये बीज को बोने की बात, करता है। कवि कहता है कि श्रम से हर कार्य को साधा जा सकता है। श्रम की महत्ता का दूसरा कोई विकल्प नहीं है। कोई थाल परोसकर रख दे यह अपने मन की कामना नहीं होनी चाहिए। स्वतंत्रता का अर्थ स्वावलंबन है। सफलता श्रम से ही मिलती है। नये विचारों के नये बीज हमें धरती के भीतर बोने हैं जिससे कि समय आने पर सुन्दर फल प्राप्त हो सकें। दूसरे देश के मेघ और सतरंगी इन्द्रधनुष देखकर ललचाने से विकास नहीं हो सकता-
‘‘दूर दूर के उन मेघों की ओर न देखो,
उनके सतरंगी इन्द्रधनुष की ओर न ताको,
वह सब माया है, छलना है,
अच्छा तो लगता है, वह, जो
थाल परोसा रख देता है,
पर जो रोटी मुँह में देती है,
वह सब माँ नहीं कहलाती साथी।
स्वतंत्रता तो स्वावलंबन है,
श्रम जिसमें सोना है।’’3
(नये बीज, पृ. 14)
मनुष्य का चरित्र, प्याज की तरह है, एक एक परत उतारते जाओ शेष क्या रह जाता है, इस व्यक्तित्वहीनता को व्यक्तित्व ओढ़े हुए कविता में बहुत बारीकी से कवि ने उठाया है। आज मनुष्य जिस स्थान पर जाता है उस स्थान के अनुरूप वस्त्र धारण कर लेता है, लेकिन भाव धारण नहीं कर पाता।
उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं हैं, न हीं उसके कोई मूल्य हैं। न ही, कोई आदर्श है, वह तो मात्र ‘मुखोटा’ है, जिसे वह अपनी सुविधा के अनुसार लगाता है, उतारता है।
‘‘मेरे घर अनेक सूट हैं,
जो शीशे की अलमारियों में
हैंगर पर टंगे हैं।
यह है वह सूट, जिसे मैं तब पहनता हूंँ
जब मुझे जनता की सभा में बोलना होता है
जब मुझे जनता की आजादी,
समानता और सेवा की बात कहनी होती है,
और यह वह सूट है जिसमें मैं पहनकर,
हिन्दी, राष्ट्रीयता और स्वदेशी का भाषण देता हूं।’’
(व्यक्तित्व ओढ़े हुए, पृ. 62)
जिसे आज आधुनिकता बोध कहा जाता है उसमें अतीत की तमाम अच्छी चीजों को कूड़े-करकट की चीज बताकर बहिष्कृत कर दिया है, लेकिन यह एक ऐसा कूड़ा-करकट है जिसके बिना यह देश जिन्दा नहीं रह सकता।
परन्तु आज के मनुष्य ने अपने गौरवशाली अतीत को मात्र ‘कबाड़’ मान लिया है, जो आदर्श है, वे मात्र ड्राइंगरूम की शोभा के पात्र हैं;े उपयोग के लिए नहीं। हमारा व्यवहारिक जीवन कुछ और है दिखाने को कुछ और है- यह विसंगति- आज के जीवन का यथार्थ है-
‘‘ये कथाएँ हैं पुराण की,
रामायण और महाभारत की,
ये गीता के श्लोक हैं,
ये उपदेश हैं बुद्ध के,
प्रेम और करूणा के।
... ये सब उस मन्दिर के अमूल्य अवशेष हैं,
जो अब टूट चुका है
अब ये केवल शोभा सामग्री है।
खोये हुए बचपन की तरह केवल अतीत दिख रहा है। कवि ने बहुत सुन्दर एक दृष्टांत के द्वारा अपनी बात को स्पष्ट किया है। स्वतंत्रता का आगमन हुआ है, नया सवेरा आया है, कवि ने पुराना और नया दोनों देखा है, उसके मन में आशंकाएं भी है। वह नए का स्वागत भी कर रहा है, पर सशंकित भी है-
गई बीत काली अंधेरी निशा वह,
मगर दूर अब भी बहुत है सवेरा।
बुझे जा रहे हैं ये तारे पुराने,
नई रोशनी को नया चांद लाओ
हर प्रकार की विसंगतियों के बीच भी भारतीय समाज ने मन्थर गति से ही सही कुछ प्रगति तो की ही है। जिस गति से अपेक्षा थी उस गति से नहीं, लेकिन भारतीय समाज जागा आवश्य है। इसे हम ज्ञान-विज्ञान के कारण कह सकते हैं। चाहे तो इसका श्रेय भारतीय गणतंत्र को भी दे सकते हैं। स्वतंत्रता के पहले देश में जाति-पांति, छुआछूत की जैसी विकट परिस्थितियाँ थी वैसी आज नहीं है। यह अलग बात है कि जाति नये सिरे से अपना सिर उठा रही है। आज देश का श्रमिक और कृषक जागा है। जीर्ण सभ्यताओं के बहुत से अंश आज मिटे हैं। समानतावादी समाज की दिशा में कुछ ही कदम सही देश आगे बढ़ रहा है-
‘‘ये श्रमिक हैं जागते, यह कृषक हैं जागते,
मध्यवर्ग में पले-गले असहाय जागते,
जागती धरा अमर, जागती है चेतना,
दबी हुई पिसी हुई, जागती है वेदना।’’7
‘युग वीणा’ डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय का एक प्रतिनिधि संकलन है। इस संकलन की अधिकांश कविताएँ समसामयिक विषयों को स्पर्श करती है। इन कविताओं में देश के विकास को लेकर कवि के हृदय में एक गहरी चिंता है। सर्वत्र एक आशावादी स्वर है। डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय एक वैचारिक कवि है। ....वह नए समाजवादी सोच का भी आदर कर रहा है-
यह लाल सवेरा होता है!
लो आज क्षितिज में पूरब के
यह नया होता है।
लाल सवेरा .....कवि जहां गांधीवादी सामाजिक संरचना तथा भू-दान की हृदय परिवर्तन की व्याख्या को रूपान्तिरित भी कर रहा है, वहीं वह ‘लाल सवेरा’ का स्वागत भी कर रहा है। जो गांधीवादी हैं, वह सर्वहारा वर्ग के दुखों को, उनकी आशाओं की पूर्ति के लिए नए विचारों का स्वागत भी कर रहा है।

शरद की पूनम और ‘सुधि भीगा मन’
‘सुधि भीगा मन’ (1983) डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय का तीसरा काव्य संकलन है। जो यह गीतों एवं मुक्त छंद कविताओं का संग्रह है।
‘‘प्रथम काव्य संग्रह प्रकीर्ण विषयों से सम्बन्धित था तो दूसरा राष्ट्रीय भावनाओं और विषयों सम्बन्धित। प्रस्तुत संग्रह की कविताएंँ मुख्यतः रसराज के क्षेत्र से सम्बन्धित है। यद्यपि इसकी सभी कविताओं के साथ रचना तिथि नहीं छपी है पर समग्रतः इसका रचनाकाल 1946 से 1980 तक व्याप्त है। ‘गूंज रही शहनाई’ की कविताएँ 1948 से 1961 तक के बीच की तथा ‘युगवीणा’ की कविताएँ 1964 से 1974 तक के बीच की थी। इस प्रकार इन तीनों काव्य संग्रहों की कविताएं 1946 से 1977 के बीच सृजित है। पर उनका संकलन रचना-काल के पूर्वाक्रम के आधार पर नहीं विषय-भेद के आधार पर हुआ है। इस कारण यह संग्रह प्रवृत्ति-भेद के भी द्योतक है।’’8
इस संग्रह में कुल सत्तर कविताएँ हैं। इन कविताओं के ऊपर छायावादी प्रभाव है। कवि द्वारा प्रस्तुत किए गए बिम्ब और प्रतीक भी प्रायः वे हैं। जिनका प्रयोग छायावादी कवियों ने किया है। डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय ने अपनी कविताओं का संकलन प्रवृत्तिगत आधार पर किया है। इस दृष्टि से अब तक लिखी गई समस्त शृंगारिक कविताओं को इस संग्रह मंे स्थान दिया है। इस संग्रह में बहुत सी प्रेम-कविताएँ ऐसी हैं जिनके प्रतीक जीवन में गहरे उतरे हुए हैं।
कवि ‘‘अंधेरे’’ का साक्षी है, जो उसके मन को विकीर्ण कर, ... प्रकाश के लाखों सागर, ... उस ज्योतिर्मय उजास को निगल गया है, ... कवि ‘उषा’ के माध्यम से, उस ज्योति पर्व का स्वागत कर रहा है- वैदिक सृष्टि की मनोहारी कल्पना, यहां है। महर्षि अरबिंद अतिमानस का रहस्योद्घाटन पर्व है, चेतना के पार, जो ज्योतित है, वहीं कर्तव्य है-
‘‘उतार सको तो ज्योति शिखर बन,
तुम इस मन के गहन अंधेरे में आ उतरो!
तभी मिटेंगेे, तभी छंटेंगे,
तम के ये कजरारे बादल
और शरद की पूनम मेरे
जीवन में फिर नवप्रकाश का नवजीवन का
चंदा लेकर छा जाएगी।’’9
(केसे रूकूँ, पृ. 9)
उतर छायावादी काव्य धारा सहज की ‘सांस्कृतिक’ परिधि में समाकृत होने लगी थी। इसी कारण राष्ट्रीयता के साथ उतर छायावादी काव्य संस्कार उनके यहां काव्य वस्तु है। प्रगतिवादी, प्रयोगवादी और नई कविता के अध्ययन अध्यापन के बावजूद इन दोनों के यह संस्कार उनकी सृजन चेतना का अनिवार्य अंग रहा है। उनकी कुछ कविताओं में विशेषतः मुक्त छन्द की कविताओं में नई की बानगी अवश्य दिखलायी पड़ती है।
डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय के शब्दों में ‘‘मेरा यह मानना है कि छायावाद और उसकी अभिव्यंजना शैली ने कविता के कवित्व को जो सम्पन्नता प्रदान की, उसको जो उत्कर्ष प्रदान किया वह न केवल ऐतिहासिक उपलब्धि है, वरन् वह एक स्थाई काव्य मूल्य भी है। छायावाद की काव्य शैली को वादमुक्त करके देखने पर वह विवाद की वस्तु नहीं रह जाती। क्योंकि मेरा मानना है कि कवित्व ही कविता का स्थायी धर्म है। उसकी पहचान ही उसका धर्म है। इसके अभाव में कवि का विचार एक वक्तव्य हो सकता है कविता नहीं हो सकती। कवित्व सहजता का विरोधी नहीं है उसका सहधर्मी और सहचर है। अनुभूति की सच्चाई सच्ची कविता की प्रथम आवश्यकता है। इस प्रकार की अनुभूति की सच्चाई, अभिव्यक्ति की सहजता और कवित्व ही मेरी दृष्टि में किसी कविता का स्थायी मूल्य है। फिर चाहे उसका विषय शाश्वत महत्व का हो, चाहे समसामयिक महत्व का, वह चाहे भावना प्रसूत हो, चाहे विचार प्रसूत।’’10
प्रस्तुत काव्य संग्रह की कविताओं में किसी वाद की बाध्यता नहीं, उत्तर छायावादी, उन्मुक्तता है, सहजता है, इनमें जीवन की व्यापक और अन्तर्मुखी अनुभूतियाँ है। जीवन का सहज जीवन्त भाव सत्य है। संग्रह में मुख्यतः अन्तर्मुखी व्यक्तित्व की कविताएं ही संगृहीत की गई है, जिनमें कवि की मधुर काव्य संवेदना का संसर्ग का स्पर्श है। कुछ कविताओं में रूप सौंन्दर्य और यौवन का चित्रण है। साथ ही नारी के स्वाभाविक लज्जाभाव का कवि ने अपनी उस ‘तुम’ को अनेक अनेक उपमानों के माध्यम से चित्रित किया है, जिसकी एक प्रथम पंक्ति ही इस सत्य का द्योतक है-
धूप में जो खिलखिलाती उस प्रथम बरसात-सी तुम,
‘‘सजे दीपक थाल नभ-पथ में विहँसती रात सी तुम।’’
(तुम, पृ. 5)
‘तुम, ... जो स्नेहित है, ... जो जीवन्तता का आधार है, वहां प्रणय अपनी मूर्तता को पा, धन्य हो उठता है, ... रह जाते हैं एक मधुर गंध- इस लंबी गीतिका में, ... कवि ने, हर छंद में समाहार, जिन उपमानों से किया हे, वहां प्रणय निवेदन, ... प्रेम परिवार, ... में ध्वनित हो उठता है-
‘‘किन्तु नभ की गोद में तो हो लजाती रात सी तुम!
धूप में जो खिलखिलाती उस प्रथम बरसात सी तुम,
आँसुओं में ही खिला जो, उस करुण जलजात सी तुम!
सिहर बनती, जो पुलक में, उस मलय की वात सी तुम!
गीत बन मचली प्रणय में, उस हृदय की बात सी तुम।’’
(तुम, पृ. 5)
‘तुम’, ... जो आधार है, ... वह पूर्ति का स्वर है, ... बंूद जो रिक्त है, वह पूर्णता पाकर, प्रमुदित है-
‘‘मिली तुम मिले प्राण को फिर नये स्वर!
मिली तुम मिले श्रांत खग को नये पर।’’
(गीत, पृ. 13)
कवि को ‘तुम’ में ऐसा लगा मानो वह उन्हें ज्योति की नई किरण दे गई हो और कवि के नेत्र नये स्वप्न से भर भर उठे। कवि की यह विशेषता है कि वह अपने गीत लिखने बैठता है किन्तु चित्र ‘उसके’ बन जाते हैं।
कवि उसे ही अपना भाव, अपनी कल्पना, अपना शब्द, सप्त स्वर, लय, छंद और सहज काव्य श्रंृगार सब कुछ समझता है। कवि की यह विवशता है। इसी के साथ यह विवशता इस कारण भी है कि वही उसके लिए रंग है, रूप है, रेखा की तार, लय-गति है, तूलिका है, चित्रपट है और चित्र का आधार भी है।
गीत तुम हो, गीत मैं हूँ,
गीत जग के जीव सारे।
कवि ने उसे जीवन की कविता, मूक भावना की भाषा, गहन उत्तंग कल्पना, सत्य-साधना, प्रेम, तपस्या, जीवन की पावन पूजा की भावमय प्रतिमा, अमलप्रभा का दीप लिए अंतर की सुषमा, अंधपदों के गति विलास की सजग धीरता और दृढ़ता कहा है। इसके अतिरिक्त नैराश्य पलों की श्रांतिमय मृदुलता, सेवा का वरदान, जीवन की विश्रृंखलता की एकातारिता, विषम असध ध्वनियों का साम गान, अमिट खोज की सिद्धि प्राप्ति और जीवन की प्रज्जवलित वेदी पर करुणा की उपहार का है-
‘‘तुम मेरे जीवन की कविता,
मूक भावना की भाषा;
गहन, पूत, उत्तुंग कल्पना
तृषित हृदय की अभिलाषा!

‘‘जीवन की विश्रृंखलता की,
एकतारिता, तरलवते!
विषम, असध, ध्वनियों की तुम-
सामगान, मृदु गीतमते!’’14
(नवागता)
... यहां ‘तुम’, ... जहां लौकिक स्पर्श भी रखता है, वहीं रहस्यवादी विस्मय भी है। ‘प्रसाद’ की कामायनी की ‘तुम’ जो श्रद्धा का रूप विन्यास व भाव सौंदर्य है, उस ‘तुम’ का आदर यहां मांसल सौंदर्य के भाव जगत भी उस स्नेहिल संवेदनशील आत्मा का आह्वान है, जो मनोजगत मंे सारी उपलब्धियों को गुणों को सन्निहित कर, प्रेमी ‘मन’ को पूर्णता देती है।
प्रेम की जो उदात्तता, ... वहां ‘शरीर’ का आकर्षण भी एक दिन खो जाता है, ... ‘जायसी’ प्रेम की पीर के कवि हैं, ... की विजय ने, प्रेम की इसी उदात्ता का स्पर्श किया है, ... वहां संवेदना, ... धीरे धीरे कलकल निझर करते पहाड़ी झरने के मधुर संगीत में खो जाती है। रह जाता है, एक पुलक स्पर्श-
‘‘ कहें आज कैसे विदा ले रही तुम
हमीं में मिलन बन मिली जा रही हो!
मिटा क्या सकेगा दृगों का यह पानी,
हृदय पर लिखी स्नेह-रेखा पुरानी,
धुल धुल बनेगी नयी और उज्जवल-
हमारे तुम्हारे मिलन की कहानी।’’
‘विरह’, ... और अनुभूति की तीव्रता, ... भीतर अंतस्थल मंे, वेदना का प्रवाह, ... जहां सागर की लहरं चेतना के द्वार पर दस्तक दे रही है-
‘‘प्राण को दे वेदना की बिजलियाँ
जा रही हो तुम कहाँ बरसात सी?’’
(विदा गीत, पृ0 36)
ब्रह्म प्राण में आज बिजलियां
मेरा सावन चला गया।
पृ0 37
‘हार एक प्रतीक है, ... पुष्प गुंथ जाते हैं, ... धागे से हार बन जाता है, गीता में कहा है, माला में जो सूत रूप में है, वह ‘मैं’ हूं। ‘मैं’, जो येाग है, जो आत्मा है, ... कवि ‘पुष्प हार’ जो ‘तुम’ ... बना रहा है, उसमें अपने आपको विद्या पाता है, ... वह उस हार का प्राण है, ... प्रियतमा और प्रिय का जो झुकाव है, ... वहंा विरह भी कहां है।
गीत पृ. 42
अधखुली आँखों से देखने पर एक निरीह कल्पना है-
‘‘जब तुम पलक उठाकर अधखुली आँखों से देखती हो
तो तुम्हारी चितवन में कितने मेघदूत कितने शाकुन्तलम, कितने उत्तर-रामचरित
और कितने साकेत
एक साथ खुल जाते हैं
आँसू के साथ कितनी उर्वशी
रूपक, बिम्ब, प्रतीक- कविता संग्रह में शिल्प योजना के जहां अनिवार्य अंग है। वहां कवि ने, प्रतीकों की जो प्रस्तुति की है, वह अनुपम है।
उद्धवी संदेश हूं मैं, तुम दिवस का रास हो।
दोनों ओर प्रेम पलता है... का कहानी की व्यंजना यहां प्रेम को, जिस उदात्तता का स्पर्श कवि ने यहां किया है, ... वह अनुपम है- प्रिय पात्र उंद्धवीं है, ... उद्धव प्रेम पाकर आए थे, ... ज्ञान का उपदेश देने गए थे-
... रस, और रास का यह मिलन, ... देहानुभूति से परे है। ... जहां आत्मा का अखंड अद्वैत है, ... इसी वेदन, उस आनंदानुभूति का यह काव्य रूप है।


खण्डित सूर्य का रक्त और ‘देश का दर्द
‘देश का दर्द’ (1919) डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय का चौथा काव्य संग्रह है। प्रस्तुत संग्रह में दो संग्रह है। इसमें कविताएँ ‘देश का दर्द’ एवं ‘सांध्यदीप’ शीर्षक से संकलित की गई है। ‘देश का दर्द’ शीर्षक से बावन कविताएँ हैं। तथा ‘सांध्यदीप’ में चालीस कविताएँ हैं।
इस संकलन के प्रकाशकीय वक्तव्य में बतलाया गया है कि ‘‘प्रस्तुत संकलन में डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय की नई-पुरानी कविताएँ ‘देश का दर्द’ एवं सांध्यदीप’ शीर्षक में संकलित की गई है। ‘देश का दर्द’ एवं ‘सांध्यदीप’ शीर्षक कविताओं मंे देश प्रेम, देश की स्थिति, सामाजिक बिखराव आदि विविध विषयों से सम्बद्ध रचनाएंँ संकलित हैं। सभी कविताओं में अनुभवों की सच्चाई और भावों की गहराई विद्यमान है।’’24
परन्तु यह संग्रह अपने पूर्ववर्ती संग्रहों की कविताओं से हटकर है, ... यहां एक मिला-जुला, सा सभी को समेटना का आग्रह अधिक है।
‘सांध्यदीप’ संग्रह में ‘शब्दों का उजाला’ एक कविता है। इस कविता में कवि ने कलात्मक ढंग से शब्दों की महिमा को प्रतिपादित किया है। जब चारों तरफ घोर निराशा और अंधकार हो, प्रतिकार की क्षमता समाप्त हो रही हो ऐसी स्थिति में शब्द ऊर्जा प्रदान करते हैं। शब्द वर्तमान का बोध भी कराते हैं और भविष्य के लिए सपने भी बुनते हैं। जब जब अंधकार ने संसार को जकड़ा है तब तब शब्द ने हथकड़ियाँ और बेडियाँ तोड़ी है। शब्द किसी व्यक्ति की नहीं सारे संसार की सम्पत्ति होते हैं। शब्दों के माध्यम से ही ज्ञान और विज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित होते हैं-
‘‘वे वाहक हैं ज्ञान और विज्ञान के
संस्कृति और दर्शन के।
बिना किसी वसीयतनामे के
वे हस्तांतरित होते हैं पीढ़ी-दर-पीढ़ी,
क्योंकि वे व्यष्टि की नहीं
समष्टि की सम्पत्ति होते हैं
और हर व्यवस्था में वे
सामाजिक ही बने रहते हैं।
(शब्दों का उजाला)
क्या कवि अपने युग की परिस्थितियों, महत्त्वपूर्ण विषयांे, तत्कालीन घटनाओं को छोड़कर जिन्दा रह सकता है। सृजन कर सकता है? डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय ने भी अपने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया है कि-
‘तत्कालीन उद्धेलनकारी घटनाएं लिखने के लिए विवश करती हैं। प्रारंभ से ही मानस पर पड़ने वाले दो प्रकार के निवैयक्तिक दबाव मुझे लिखने के लिए विवश करते रहे हैं। एक तो व्यक्तिगत भावानुभूतियों का दबाव दूसरा देश की उद्वेलनकारी घटनाओं और परिस्थितियों के दबाव। जैसे- सन् 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन, महात्मा गांधी की हत्या, पाकिस्तान की भारत के प्रति आक्रामक आतंकवादी गतिविधियों, समसामयिक राजनीति, विदेशी घटनाओं में चीन में तेनानमेन चौक में युवा दमन इत्यादि।’
इस काव्य संग्रह की कविताओं में समकालीनता का खाद है, घटना; काव्य की वस्तु बन, आकार भी तलाश में है। यही कारण है। कुछ कविताओं में यह दबाव अधिक नजर आ रहा है।
1980 के बाद यानी समकालीन कविता के दौर में भारत में जो महत्वपूर्ण घटनाएॅ घटित हुई है। उसमें राम-जन्म-भूमि अयोध्या का विवाद महत्वपूर्ण है।
डॉ. विजयवर्गीय ने इस घटना को राम के ‘एक और निर्वासन’ के रूप मंे देखा और काव्य रूप में प्रस्तुत किया। कवि कहता है कि राम! तुम्हारी जन्मभूमि पर तुम्हारा अधिकार नहीं। अधिकार उन लोगों का है जो तलवार के बल पर धर्म का विनाश कर सकते हैं। कथित उदारवादियों ने राम की जन्मभूमि को लेकर तरह-तरह के प्रश्न खड़े किये। कवि कहता है कि एक बार राम मन्थरा के षड़यंत्र और कैकयी के लोभ के कारण निर्वासित हुए थे अब लगता है कि राम धर्म, अनर्थ और राजनीति की दुरभिसंधि से निर्वासित हांेगे। राम को कोई ताकत से निर्वासित नहीं कर सकता। कवित के शब्दों में-
‘‘पूछना चाहता हूँ राम!
यदि तब कोई रावण
तुम्हें अयोध्या छोड़ने के लिए विवश करता
तो क्या तुम उसे छोड़ देते?
क्या तुम्हारे धनुष-बाण प्रतिरोध नहीं करते?
तो फिर आज, क्या इस निष्कासन की बेला में
तुम, तुम्हारे धनुष-बाण
क्या सोते रह जाएंगे?
बोला राम!
युग उत्तर चाहता है तुमसे।’’29
(एक और निर्वासन)
डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय के जीवन के जो कुछ लोग आदर्श रहे हैं उनमें एक विनोबा भावे भी हैं। इन्हीं के शब्दों में-
‘‘प्रत्येक प्रबुद्ध लेखक का कोई न कोई वैचारिक दृष्टिकोण होता है। मेरे विचार पर महात्मा गांधी, पं. जवाहरलाल नेहरू और आचार्य विनोबा भावे का विशेष प्रभाव रहा। मेरे वैचारिक दृष्टिकोण के स्रोत भी वही हैं। पर चूंकि मैं सन्तुलित और समन्वयवादी दृष्टि लेकर चलता हूँ इस कारण वैचारिक दुराग्रह तो बिल्कुल नहीं रखता। वैचारिक आग्रह भी मुझे सत्य और उचित लगता है।’’30
कवि कहता है कि विनोबा गीता में साक्षात भाष्य थे। उनका सारा का सारा जीवन एक निष्काम कर्मयोगी का जीवन था-
‘‘तुम्हारी आत्मा ने जीर्ण वस्त्र नहीं बदला
तुमने ही उसका वस्त्र उतारकर धर दिया,
ताकि अपने प्रभु से एकाकार होते समय
उसे उसका कुछ भी मोह न रहे।
ओ गीता के सजीव भाष्य!
तुम्हारा कर्म ही नहीं, धर्म भी
तुम्हारा जीवन ही नहीं, मरण भी
निष्काम रहा,
तुम तो गीता के भाष्य बन गए,
जिसे युग-युग तक भारत गाएगा।’’31
(विनोबा के महाप्रयाण पर)
देश का विभाजन होने के पश्चात भी समस्याएँ कम नहीं हुयी। विभाजन के बाद भी विभाजन का दर्द बना हुआ है। स्वतंत्रता के पश्चात् जहाँ प्रकाश फैलना चाहिए था वहाँ रक्त फैंल रहा है। स्वतंत्रता का आदर तथा उसी के साथ, ... जो समस्याएँ भारत विभाजन से आई, ... उस त्रासदी को कवि ने अपनी संवेदना दी है। ... यहां समकालीनता का प्रभाव, ...कवि की काव्य चेतना को समय को पार झांकने को प्रेरित कर रहा है।-
‘‘खण्डित सूर्य का रक्त
अभी न जाने कितने युगांे तक
हमारी भूमि को रक्तिम बनाता रहेगा।
उसका घाव न जाने कितनी सदियों तक
हमें दर्दाता रहेगा।
और आधी रात को इस सूरज-तले
हम न जाने कितने कल्पों तक
अंधेरा पीते रहेंगेे, पीते रहेंगे।’’32
(आधी रात का सूरज, पृ. 16)

देश की समस्याएँ बहुत हैं, दर्द बहुत हैं, चारों तरफ निराशा के बादल घिरे हुए हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इन तमाम परिस्थितियांे के बीच कवि निराश नहीं है। आशा सबसे बड़ी ताकत होती है। वही विभिन्न प्रकार के संकटों से व्यक्ति, समाज और देश को उबारती है। कवि कहता है कि-
‘‘ओ अंधेरों लौट जाओ, यह उजालों की जमी है,
हम अमा की रात में दीपक जलाना जानते हैं!
भूचाल बरपा करने वालों से न डरते हम कभी,
हम स्वयं भूकंप हैं, भूचाल लाना जानते हैं!
हम गरजते बादलों में भी सदा हंसते रहे,
बिजलियॉ चाहे गिरें, हम मुस्कराना जानते हैं।’’37
(हम जानते हैं)
‘देश का दर्द’ की कविताएँ इस समस्या के ऊपर है। देश में उठने वाली ज्वलंत समस्याओं से टकराती है।
यहां कवि, बौद्धिकता के आधार पर अपने प्रश्नों को एक नागरिक की दृष्टि से विचारता है। संकटकालीनता का दबाव स्पष्ट है, हर विषय जो समाचार पत्र, खाद-बीज के रूप में बहुत करते हैं, ... संवेदना वहां से प्रतिक्रियात्मक आधार लाती है। ... यह कवि की मूल प्रेरणा नहीं है। ... कवि मन, अंतर्मुखी है, ... वह उत्तरछायावादी संस्कारों में पल्लवित हुआ है। सांस्कृतिक राष्ट्रवादी सोच, उसे आकर्षित तो करती है, पर वह जन और जन संस्कृति अविभाज्यता को भी स्वीकारता है। जन का शुभम् व मंगल का उसका वंदेय पथ है, जो उसकी काल संवेदना को धनीभूत करता है।