गुरुवार, 3 अक्टूबर 2013

कवि और आलोचक प्रेमचन्द विजयवर्गीय

हमारे पुरोधा 4

इस लेखमाला के अंतर्गत हम आजकी प्रेमचन्द  डॉविजयवर्गीय  साहित्य साधना से आपका परिचय करा रहे हैं। आप कोटा निवासी थे, और वनस्थली विद्यापीठ में हिन्दी भाषा और साहित्य में विभागाघ्यक्ष भी रहे।
इस अंचल के अधिकांश साहित्यकारों की कृतियों की आपने भूमिकाएॅं लिखीं, समीक्षाएॅं लिखीं।
आपके चार काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। पारीवारिक स्नेह से परित्यक्त आप वर्षों तक झालाबाड़ रोड पर स्थित आश्रय में रहे। आपकी अंतिम शोकसभा में भी जो आश्रय में हुई थी, आश्रय के निवासी ही अधिक थे। इस अंचल में साहित्यिक विकास यात्रा के गतिशील प्रवाह में आपका योगदान महत्वपूर्ण है।

कवि  और आलोचक  प्रेमचन्द विजयवर्गीय

प्रेमचन्द विजयवर्गीय, ... गांधीवादी परंपरा में विकसित सुधी आलोचक हैं। जीवन में ‘शिवम्’ और ‘सुन्दरम’ के खोज जहां आपकी काव्य चेतना का प्रमुख आकर्षण है, वहीं समीक्षा में आपकी यह दृष्टि सहज ही परिलक्षित होती है। गांधी, नेहरू, विनोबा, आपके आदर्श रहे हैं। समन्वयवादी रूचि तथा जो ‘शुभ’ है, उसके प्रति अनायास सहज स्वीकारोक्ति आपकी समीक्षक दृष्टि का केन्द्र बिन्दु रहा है।
आपके शोध का विषय, ‘आधुनिक हिन्दी कवियों का सामाजिक दर्शन’ में आपने अपनी इसी दृष्टिकोण के आधार पर, आधुनिक काव्य धारा का विवेचन किया है। न तो मार्क्सवादीय सौंदर्य ज्ञान या सिद्धान्त शास्त्र आपके आलोचना कर्म का आधार बन पाया नहीं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचार दृष्टि आपको आकर्षित कर पायी। प्रगतिशीलता को सातव्य विकास का अनिवार्य धर्म मानते हुए भी, ... मनुष्यता तथा नैतिकता को भारतीय संदर्भों में रेखांकित कर, उसे आचरण में ढालना, ... सत्य के प्रति समर्पण आपकी समीक्षा धर्म का आदर रहा है। यही कारण रहा कि आप साहित्यिक राजनीति में उपेक्षित रहे।  चाहे मार्क्सवादी मित्र हांे, या साहित्य परिषदी सभी आपका सहयोग तो लेते रहे, पर आपसे दूरी भी बनाए रखते रहे। गुटों में बॅंटे साहित्य प्रेमियों की भावना को आहत करने का यहॉं प्रयास नहीं है। पर एक सहृदय साहित्य प्रेमी की स्मृति आप तक पहुंचाने का आग्रह अधिक है।

सैद्धान्तिक समीक्षा की दृष्टि से, आपने महादेवी वर्मा की ‘स्मृति की रेखाएं, श्री भगवती प्रसाद, वाजपेयी के उपन्यास भूदान तथा मैथिलीशरण गुप्त के ‘अजित’ हरिकृष्ण प्रेमी के ‘शपथ,’ तथा ‘ भुंजदेव मीमांसा’ का सृजन भी किया है। उपरोक्त कृतियां पाद्योपयोगी होते हुए भी एक विशेष दृष्टि की परिचायक भी है। ‘स्मृति की रेखाएं है पर जो आपकी समीक्षा पुस्तक प्रकाशित हुई थी। उसके रेखाचित्र विद्या का महत्वपूर्ण ही आलेख है। कहानी तथा संस्मरण विद्या से उसे पृथक करते हुए सैद्धांतिक विवेचना अनुपम है। ... यह सुखद ही है कि संस्मरण विद्या पर भी महत्वपूर्ण आलेख डॉ. कन्हैयालाल शर्मा के संपादन में- यादों के वातायन से जो प्रकाशित हुआ है, वे भी यहीं की पुरानी पीढ़ी के वन्देय आलोचक हैं।
डॉ. रामचरण महेन्द्र पर ‘राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित ‘मोनोग्राफ में आपने श्री महेन्द्र की नाटयकला व नाद्य समीक्षा का सुन्दर विवेचन किया है। ‘व्यवहारिक समीक्षा’, सा यह उत्कृष्ट आलेख है। मूलतः श्री विजय का समीक्षा कर्म, व्यवहारिक, समाजशास्त्रीय सीमाओं में समादृत है। दृष्टि समन्वयवादी है तथा हर प्रकार के अतिरेक के दुराग्रह से आप दूरस्थ हैं।

प्रसिद्ध नाटककार हरिकृष्ण प्रेमी के शपथ नाटक की सर्वांगीण समीक्षा है। ‘अंजित अनुशीलन’- राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त केे खंड काव्य ‘अजित’ की विवेचना है। ‘भूदान’, ... भगवती प्रसाद वाजपेयी के उपन्यास का, तथा उनके सभी उपन्यासों की संक्षिप्त व्याख्या है। ‘भुजदेव’ ‘मीमांसा’, आंेकारनाथ दिनकर के नाटक ‘भुंजदेव की समीक्षा है। ‘स्मृति की रेखाएँ: एक अध्ययन; ..  आपकी महत्वपूर्ण पुस्तक है। इसमंे रेखाचित्र, विद्या का सम्यक विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
गंूज उठी शहनाई
1862 में प्रकाशित यह काव्य संग्रह ‘श्री विजय’ का पहला काव्य संग्रह है। यह युग छायावाद का उत्तरकाल था, श्री विजय की काव्य साधना 1940 से प्रारंभ हो चुकी थी। ... परन्तु संग्रह दीर्घकालीन धैर्य व साधना के सतत प्रयास कर ही आया। डा. रामचरण .... ने संग्रह की भूमिका में कहा है-
‘‘इन कविताओं में विविधता है। इनमंे व्यक्तिगत अनुभूतियों से सामान्य सत्यों, जीवन के यथार्थ अनुभवों से व्यवहारिक आदर्श, स्व से पर की, नश्वरता से अरमत्व, निराशा से आशा, विषाद से हष्र, और स्थूल से सूक्ष्म की ओर प्रवृत्ति रही है।.... बौद्धिकता भावात्मक परिधान धारण कर अन्तर्गत हुई है, और कल्पना यथार्थ की भूमि पर खड़ी है। पर इन सभी कविताओं में एक गुण सामान्य रूप से विद्यमान है- जीवन का संस्पर्श और तीव्र अनुभूति।’’
संग्रह में सभी कुछ जो सहेजने का आग्रह रहा है। जहां रहस्यवादी रूझान है। ... आध्यात्म प्रतीकों के माध्यम से दार्शनिक सत्यों की अभिव्यंजना का प्रयास है। वहीं राष्ट्रीय भावना का, जो तत्कालीन परिप्रेक्ष्य में गांधीवादी प्रभाव था .... उसका भी व्यापक प्रभाव है।
... गेयता, संक्षिप्तता, मधुरता ..., तथा रस सिक्तता, इन गीतों का प्रमुख आकर्षण है। .... कवि, संगीतात्मकता के प्रति सहृदय है। ... अन्तर्मुखी व्यक्तित्व की सहज अभिव्यक्ति गेयता में ढल जाती है। .... वहां भाव अपनी समग्रता में अनुभूत्यात्मक यथार्थ को मानवीय संवेदना सन्निहित कर देता है।
‘‘ वह स्वप्नों का लोक मुझे है, उधर झुलाता,
यह जाग्रति का लोक मुझे है इधर बुलाता
कुछ मिट्टी की कुछ सोने की धरती आगे
कुछ जल की कुछ पाषाणों की पृथ्वी आगे!
हर दिशा आज जब यही बताती मुझको-
मैं जादू कोई देश, हर पंथ तुम्हारा ही तो है!
अनन्यता पृ. 3.
मन की दुनिया, ... जो कल गया है, ... जो कल आने को अपेक्षित है। दरवाजे पर उसकी थपथपाहट है, ... दूर काले-बादलां के पार से उसके संकेत भी आने लगे हैं-, कवि, इस वर्तमान की दहलीज पर जिस व्यथा-कथा को रेखांकित कर रहा है, ... वह अद्भुद है, ...आज विजय ही सन्यास धर्म की अवस्था में है, तब ‘तारूप्य था, ... उन दिनों में कविमन, अंतर्मुखता की जिस अवस्था को अभिव्यक्ति दे रहा है- वह सचमुच विस्मय कारक है-
बढ़ी आ रही ऐसी लहरें
छूट रही कर से पतवारें
तुमने ऐसा ज्वार उठाया, मेरी तिरती नांव में!
कैसे पहुंचू पार तुम्हारे काले कोरवों गांव में!
कैसे पहुंचू पार, पृ. 5

दूर है कितना बसेरा?
खो गया संग, ... खो गया पथ, घिर गया घन-तक अंधेरा

मिल गया होगा किसी को
प्रणय का मधुमास कोई,
मिल गया वात्सल्य ऐसे
वत्स का विश्वास कोई!
दूर खोया है कहीं पर, ... सुखद तृष्णा आावास मेरा
दूर है कितना बसेरा!
यह गीत संग्रह, ...सहज आंतरिकता का एक प्रवाह है, ... दृश्य बिम्ब, ... इंद्रिय अनुभवजन्यता, ... मानवीयकरण एवं प्रसाद मयी भाषा का, ... प्रवाह मधुरम काव्य रूप है। ... वस्तु और रूप, ... सहज संवेदित हैं, ... यह कवि कर्म की विशेषता है कि पचास वर्ष बाद भी ये गीत अपनी स्वाभाविक सरसता पाठक तक पहुंचाने में समर्थ है।

लोक सृष्टि और ‘युगवीणा’
‘युगवीणा (1978) डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय का दूसरा काव्य संग्रह है। इस संकलन में अठहत्तर कविताएं हैं। ये कविताएँ विभिन्न विषयों पर यथासमय लिखी गई है। कवि ने कुछ समसामयिक घटनाओं को केन्द्र में रखते हुए कविताएँ लिखी हैं। इसमें कई उद्बोधन गीत हैं जो युवा पीढ़ी को सम्बोधित करते हुए लिखे गये हैं। इसमें ऐसी कविताएँ हैं जिसमें स्वातंन्न्योत्तर मोहभंग दिखलाई पड़ता है। इन कविताओं की विशेषता यह है कि इनमें सर्वत्र कवि की समाजवादी सोच दिखलाई पड़ता है। इन कविताओं की विशेषता यह है कि इनमें सर्वत्र कवि की समाजवादी सोच दिखलाई पड़ती है। यहाँ कवि का मन, छायावादी रहयवादी संस्कारों से युक्त है, वह नए भारत में आ रहे बदलाव के प्रति सचेत हैं।
‘युग का दान’ कविता ‘भू-दान’ से सम्बन्धित है। भू-दान आन्दोलन विनोबा भावे द्वारा चलाया गया था। कवि का मानना है कि दान दया नहीं हैं यह मनुष्य मात्र का कर्तव्य है। जो ईश्वर द्वारा प्रदत्त वस्तुएँ हैं उन पर सबका बराबरी का हक है। किसी भी देश या संस्कृति के लिए यह उचित नहीं है कि कुछ लोगों के घर वैभव और धन-धान्य से भरे हों और कुछ लोग अनाज के दो कण पाने के लिए तरस रहे हों। कवि के शब्दों में-
‘‘पंचभूत परमेश्वर का धन,
परमेश्वर के पूत सकल जन,
एक नहीं सबकी सम्पत्ति भू,
हिलमिल बाँटे धरती का धन।’’1
(युग का दान, पृ. 7)
‘उद्बोधन’ कविता मंे डॉ. प्रंेमचन्द विजयवर्गीय की समाजवादी सोच झलकती हैं। कवि ने ‘‘भारतीयों से निवेदन किया है कि भारत की नई स्वतंत्रता के संरक्षण की आवश्यकता है। भारत की स्वतंत्रता के रक्षण के लिए कुछ रूढ़ियों तथा कुछ पूर्वाग्रहों को छोड़ना आवश्यक है। पहली आवश्यकता तो यह है कि इस देश को वैषम्य की पीड़ा से मुक्त किया जाये। देश में चारों तरफ निराशा का अंधकार फैला हुआ है। इस निराशा के मूल में जाति, धर्म, छुआ-छूत, आर्थिक विषमता इत्यादि है। जब तक ये सामाजिक बुराइयाँ समाप्त नहीं होगी राष्ट्र विकसित नहीं हो सकता। कवि तमाम प्रकार के जीर्ण-शीर्ण पुरातन भावों को समाप्त कर सत्य-दर्शन करने का आह्वान करता है-
‘‘जीर्ण-शीर्ण वे भाव पुरातन,
कर न सकें सीमित मानव-मन,
लोक दृष्टि रख निज सम्मुख,
करे सत्य-दर्शन मानव-सुख।’’2
(उद्बोधन, पृ.9)
इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें सर्वत्र एक सकारात्मक जागरण का भाव विद्यमान है, गर्व का भाव है और नव-निर्माण का भाव है। ‘नये बीज’ कविता में कवि देशवासियों से नये बीज को बोने की बात, करता है। कवि कहता है कि श्रम से हर कार्य को साधा जा सकता है। श्रम की महत्ता का दूसरा कोई विकल्प नहीं है। कोई थाल परोसकर रख दे यह अपने मन की कामना नहीं होनी चाहिए। स्वतंत्रता का अर्थ स्वावलंबन है। सफलता श्रम से ही मिलती है। नये विचारों के नये बीज हमें धरती के भीतर बोने हैं जिससे कि समय आने पर सुन्दर फल प्राप्त हो सकें। दूसरे देश के मेघ और सतरंगी इन्द्रधनुष देखकर ललचाने से विकास नहीं हो सकता-
‘‘दूर दूर के उन मेघों की ओर न देखो,
उनके सतरंगी इन्द्रधनुष की ओर न ताको,
वह सब माया है, छलना है,
अच्छा तो लगता है, वह, जो
थाल परोसा रख देता है,
पर जो रोटी मुँह में देती है,
वह सब माँ नहीं कहलाती साथी।
स्वतंत्रता तो स्वावलंबन है,
श्रम जिसमें सोना है।’’3
(नये बीज, पृ. 14)
मनुष्य का चरित्र, प्याज की तरह है, एक एक परत उतारते जाओ शेष क्या रह जाता है, इस व्यक्तित्वहीनता को व्यक्तित्व ओढ़े हुए कविता में बहुत बारीकी से कवि ने उठाया है। आज मनुष्य जिस स्थान पर जाता है उस स्थान के अनुरूप वस्त्र धारण कर लेता है, लेकिन भाव धारण नहीं कर पाता।
उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं हैं, न हीं उसके कोई मूल्य हैं। न ही, कोई आदर्श है, वह तो मात्र ‘मुखोटा’ है, जिसे वह अपनी सुविधा के अनुसार लगाता है, उतारता है।
‘‘मेरे घर अनेक सूट हैं,
जो शीशे की अलमारियों में
हैंगर पर टंगे हैं।
यह है वह सूट, जिसे मैं तब पहनता हूंँ
जब मुझे जनता की सभा में बोलना होता है
जब मुझे जनता की आजादी,
समानता और सेवा की बात कहनी होती है,
और यह वह सूट है जिसमें मैं पहनकर,
हिन्दी, राष्ट्रीयता और स्वदेशी का भाषण देता हूं।’’
(व्यक्तित्व ओढ़े हुए, पृ. 62)
जिसे आज आधुनिकता बोध कहा जाता है उसमें अतीत की तमाम अच्छी चीजों को कूड़े-करकट की चीज बताकर बहिष्कृत कर दिया है, लेकिन यह एक ऐसा कूड़ा-करकट है जिसके बिना यह देश जिन्दा नहीं रह सकता।
परन्तु आज के मनुष्य ने अपने गौरवशाली अतीत को मात्र ‘कबाड़’ मान लिया है, जो आदर्श है, वे मात्र ड्राइंगरूम की शोभा के पात्र हैं;े उपयोग के लिए नहीं। हमारा व्यवहारिक जीवन कुछ और है दिखाने को कुछ और है- यह विसंगति- आज के जीवन का यथार्थ है-
‘‘ये कथाएँ हैं पुराण की,
रामायण और महाभारत की,
ये गीता के श्लोक हैं,
ये उपदेश हैं बुद्ध के,
प्रेम और करूणा के।
... ये सब उस मन्दिर के अमूल्य अवशेष हैं,
जो अब टूट चुका है
अब ये केवल शोभा सामग्री है।
खोये हुए बचपन की तरह केवल अतीत दिख रहा है। कवि ने बहुत सुन्दर एक दृष्टांत के द्वारा अपनी बात को स्पष्ट किया है। स्वतंत्रता का आगमन हुआ है, नया सवेरा आया है, कवि ने पुराना और नया दोनों देखा है, उसके मन में आशंकाएं भी है। वह नए का स्वागत भी कर रहा है, पर सशंकित भी है-
गई बीत काली अंधेरी निशा वह,
मगर दूर अब भी बहुत है सवेरा।
बुझे जा रहे हैं ये तारे पुराने,
नई रोशनी को नया चांद लाओ
हर प्रकार की विसंगतियों के बीच भी भारतीय समाज ने मन्थर गति से ही सही कुछ प्रगति तो की ही है। जिस गति से अपेक्षा थी उस गति से नहीं, लेकिन भारतीय समाज जागा आवश्य है। इसे हम ज्ञान-विज्ञान के कारण कह सकते हैं। चाहे तो इसका श्रेय भारतीय गणतंत्र को भी दे सकते हैं। स्वतंत्रता के पहले देश में जाति-पांति, छुआछूत की जैसी विकट परिस्थितियाँ थी वैसी आज नहीं है। यह अलग बात है कि जाति नये सिरे से अपना सिर उठा रही है। आज देश का श्रमिक और कृषक जागा है। जीर्ण सभ्यताओं के बहुत से अंश आज मिटे हैं। समानतावादी समाज की दिशा में कुछ ही कदम सही देश आगे बढ़ रहा है-
‘‘ये श्रमिक हैं जागते, यह कृषक हैं जागते,
मध्यवर्ग में पले-गले असहाय जागते,
जागती धरा अमर, जागती है चेतना,
दबी हुई पिसी हुई, जागती है वेदना।’’7
‘युग वीणा’ डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय का एक प्रतिनिधि संकलन है। इस संकलन की अधिकांश कविताएँ समसामयिक विषयों को स्पर्श करती है। इन कविताओं में देश के विकास को लेकर कवि के हृदय में एक गहरी चिंता है। सर्वत्र एक आशावादी स्वर है। डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय एक वैचारिक कवि है। ....वह नए समाजवादी सोच का भी आदर कर रहा है-
यह लाल सवेरा होता है!
लो आज क्षितिज में पूरब के
यह नया होता है।
लाल सवेरा .....कवि जहां गांधीवादी सामाजिक संरचना तथा भू-दान की हृदय परिवर्तन की व्याख्या को रूपान्तिरित भी कर रहा है, वहीं वह ‘लाल सवेरा’ का स्वागत भी कर रहा है। जो गांधीवादी हैं, वह सर्वहारा वर्ग के दुखों को, उनकी आशाओं की पूर्ति के लिए नए विचारों का स्वागत भी कर रहा है।

शरद की पूनम और ‘सुधि भीगा मन’
‘सुधि भीगा मन’ (1983) डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय का तीसरा काव्य संकलन है। जो यह गीतों एवं मुक्त छंद कविताओं का संग्रह है।
‘‘प्रथम काव्य संग्रह प्रकीर्ण विषयों से सम्बन्धित था तो दूसरा राष्ट्रीय भावनाओं और विषयों सम्बन्धित। प्रस्तुत संग्रह की कविताएंँ मुख्यतः रसराज के क्षेत्र से सम्बन्धित है। यद्यपि इसकी सभी कविताओं के साथ रचना तिथि नहीं छपी है पर समग्रतः इसका रचनाकाल 1946 से 1980 तक व्याप्त है। ‘गूंज रही शहनाई’ की कविताएँ 1948 से 1961 तक के बीच की तथा ‘युगवीणा’ की कविताएँ 1964 से 1974 तक के बीच की थी। इस प्रकार इन तीनों काव्य संग्रहों की कविताएं 1946 से 1977 के बीच सृजित है। पर उनका संकलन रचना-काल के पूर्वाक्रम के आधार पर नहीं विषय-भेद के आधार पर हुआ है। इस कारण यह संग्रह प्रवृत्ति-भेद के भी द्योतक है।’’8
इस संग्रह में कुल सत्तर कविताएँ हैं। इन कविताओं के ऊपर छायावादी प्रभाव है। कवि द्वारा प्रस्तुत किए गए बिम्ब और प्रतीक भी प्रायः वे हैं। जिनका प्रयोग छायावादी कवियों ने किया है। डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय ने अपनी कविताओं का संकलन प्रवृत्तिगत आधार पर किया है। इस दृष्टि से अब तक लिखी गई समस्त शृंगारिक कविताओं को इस संग्रह मंे स्थान दिया है। इस संग्रह में बहुत सी प्रेम-कविताएँ ऐसी हैं जिनके प्रतीक जीवन में गहरे उतरे हुए हैं।
कवि ‘‘अंधेरे’’ का साक्षी है, जो उसके मन को विकीर्ण कर, ... प्रकाश के लाखों सागर, ... उस ज्योतिर्मय उजास को निगल गया है, ... कवि ‘उषा’ के माध्यम से, उस ज्योति पर्व का स्वागत कर रहा है- वैदिक सृष्टि की मनोहारी कल्पना, यहां है। महर्षि अरबिंद अतिमानस का रहस्योद्घाटन पर्व है, चेतना के पार, जो ज्योतित है, वहीं कर्तव्य है-
‘‘उतार सको तो ज्योति शिखर बन,
तुम इस मन के गहन अंधेरे में आ उतरो!
तभी मिटेंगेे, तभी छंटेंगे,
तम के ये कजरारे बादल
और शरद की पूनम मेरे
जीवन में फिर नवप्रकाश का नवजीवन का
चंदा लेकर छा जाएगी।’’9
(केसे रूकूँ, पृ. 9)
उतर छायावादी काव्य धारा सहज की ‘सांस्कृतिक’ परिधि में समाकृत होने लगी थी। इसी कारण राष्ट्रीयता के साथ उतर छायावादी काव्य संस्कार उनके यहां काव्य वस्तु है। प्रगतिवादी, प्रयोगवादी और नई कविता के अध्ययन अध्यापन के बावजूद इन दोनों के यह संस्कार उनकी सृजन चेतना का अनिवार्य अंग रहा है। उनकी कुछ कविताओं में विशेषतः मुक्त छन्द की कविताओं में नई की बानगी अवश्य दिखलायी पड़ती है।
डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय के शब्दों में ‘‘मेरा यह मानना है कि छायावाद और उसकी अभिव्यंजना शैली ने कविता के कवित्व को जो सम्पन्नता प्रदान की, उसको जो उत्कर्ष प्रदान किया वह न केवल ऐतिहासिक उपलब्धि है, वरन् वह एक स्थाई काव्य मूल्य भी है। छायावाद की काव्य शैली को वादमुक्त करके देखने पर वह विवाद की वस्तु नहीं रह जाती। क्योंकि मेरा मानना है कि कवित्व ही कविता का स्थायी धर्म है। उसकी पहचान ही उसका धर्म है। इसके अभाव में कवि का विचार एक वक्तव्य हो सकता है कविता नहीं हो सकती। कवित्व सहजता का विरोधी नहीं है उसका सहधर्मी और सहचर है। अनुभूति की सच्चाई सच्ची कविता की प्रथम आवश्यकता है। इस प्रकार की अनुभूति की सच्चाई, अभिव्यक्ति की सहजता और कवित्व ही मेरी दृष्टि में किसी कविता का स्थायी मूल्य है। फिर चाहे उसका विषय शाश्वत महत्व का हो, चाहे समसामयिक महत्व का, वह चाहे भावना प्रसूत हो, चाहे विचार प्रसूत।’’10
प्रस्तुत काव्य संग्रह की कविताओं में किसी वाद की बाध्यता नहीं, उत्तर छायावादी, उन्मुक्तता है, सहजता है, इनमें जीवन की व्यापक और अन्तर्मुखी अनुभूतियाँ है। जीवन का सहज जीवन्त भाव सत्य है। संग्रह में मुख्यतः अन्तर्मुखी व्यक्तित्व की कविताएं ही संगृहीत की गई है, जिनमें कवि की मधुर काव्य संवेदना का संसर्ग का स्पर्श है। कुछ कविताओं में रूप सौंन्दर्य और यौवन का चित्रण है। साथ ही नारी के स्वाभाविक लज्जाभाव का कवि ने अपनी उस ‘तुम’ को अनेक अनेक उपमानों के माध्यम से चित्रित किया है, जिसकी एक प्रथम पंक्ति ही इस सत्य का द्योतक है-
धूप में जो खिलखिलाती उस प्रथम बरसात-सी तुम,
‘‘सजे दीपक थाल नभ-पथ में विहँसती रात सी तुम।’’
(तुम, पृ. 5)
‘तुम, ... जो स्नेहित है, ... जो जीवन्तता का आधार है, वहां प्रणय अपनी मूर्तता को पा, धन्य हो उठता है, ... रह जाते हैं एक मधुर गंध- इस लंबी गीतिका में, ... कवि ने, हर छंद में समाहार, जिन उपमानों से किया हे, वहां प्रणय निवेदन, ... प्रेम परिवार, ... में ध्वनित हो उठता है-
‘‘किन्तु नभ की गोद में तो हो लजाती रात सी तुम!
धूप में जो खिलखिलाती उस प्रथम बरसात सी तुम,
आँसुओं में ही खिला जो, उस करुण जलजात सी तुम!
सिहर बनती, जो पुलक में, उस मलय की वात सी तुम!
गीत बन मचली प्रणय में, उस हृदय की बात सी तुम।’’
(तुम, पृ. 5)
‘तुम’, ... जो आधार है, ... वह पूर्ति का स्वर है, ... बंूद जो रिक्त है, वह पूर्णता पाकर, प्रमुदित है-
‘‘मिली तुम मिले प्राण को फिर नये स्वर!
मिली तुम मिले श्रांत खग को नये पर।’’
(गीत, पृ. 13)
कवि को ‘तुम’ में ऐसा लगा मानो वह उन्हें ज्योति की नई किरण दे गई हो और कवि के नेत्र नये स्वप्न से भर भर उठे। कवि की यह विशेषता है कि वह अपने गीत लिखने बैठता है किन्तु चित्र ‘उसके’ बन जाते हैं।
कवि उसे ही अपना भाव, अपनी कल्पना, अपना शब्द, सप्त स्वर, लय, छंद और सहज काव्य श्रंृगार सब कुछ समझता है। कवि की यह विवशता है। इसी के साथ यह विवशता इस कारण भी है कि वही उसके लिए रंग है, रूप है, रेखा की तार, लय-गति है, तूलिका है, चित्रपट है और चित्र का आधार भी है।
गीत तुम हो, गीत मैं हूँ,
गीत जग के जीव सारे।
कवि ने उसे जीवन की कविता, मूक भावना की भाषा, गहन उत्तंग कल्पना, सत्य-साधना, प्रेम, तपस्या, जीवन की पावन पूजा की भावमय प्रतिमा, अमलप्रभा का दीप लिए अंतर की सुषमा, अंधपदों के गति विलास की सजग धीरता और दृढ़ता कहा है। इसके अतिरिक्त नैराश्य पलों की श्रांतिमय मृदुलता, सेवा का वरदान, जीवन की विश्रृंखलता की एकातारिता, विषम असध ध्वनियों का साम गान, अमिट खोज की सिद्धि प्राप्ति और जीवन की प्रज्जवलित वेदी पर करुणा की उपहार का है-
‘‘तुम मेरे जीवन की कविता,
मूक भावना की भाषा;
गहन, पूत, उत्तुंग कल्पना
तृषित हृदय की अभिलाषा!

‘‘जीवन की विश्रृंखलता की,
एकतारिता, तरलवते!
विषम, असध, ध्वनियों की तुम-
सामगान, मृदु गीतमते!’’14
(नवागता)
... यहां ‘तुम’, ... जहां लौकिक स्पर्श भी रखता है, वहीं रहस्यवादी विस्मय भी है। ‘प्रसाद’ की कामायनी की ‘तुम’ जो श्रद्धा का रूप विन्यास व भाव सौंदर्य है, उस ‘तुम’ का आदर यहां मांसल सौंदर्य के भाव जगत भी उस स्नेहिल संवेदनशील आत्मा का आह्वान है, जो मनोजगत मंे सारी उपलब्धियों को गुणों को सन्निहित कर, प्रेमी ‘मन’ को पूर्णता देती है।
प्रेम की जो उदात्तता, ... वहां ‘शरीर’ का आकर्षण भी एक दिन खो जाता है, ... ‘जायसी’ प्रेम की पीर के कवि हैं, ... की विजय ने, प्रेम की इसी उदात्ता का स्पर्श किया है, ... वहां संवेदना, ... धीरे धीरे कलकल निझर करते पहाड़ी झरने के मधुर संगीत में खो जाती है। रह जाता है, एक पुलक स्पर्श-
‘‘ कहें आज कैसे विदा ले रही तुम
हमीं में मिलन बन मिली जा रही हो!
मिटा क्या सकेगा दृगों का यह पानी,
हृदय पर लिखी स्नेह-रेखा पुरानी,
धुल धुल बनेगी नयी और उज्जवल-
हमारे तुम्हारे मिलन की कहानी।’’
‘विरह’, ... और अनुभूति की तीव्रता, ... भीतर अंतस्थल मंे, वेदना का प्रवाह, ... जहां सागर की लहरं चेतना के द्वार पर दस्तक दे रही है-
‘‘प्राण को दे वेदना की बिजलियाँ
जा रही हो तुम कहाँ बरसात सी?’’
(विदा गीत, पृ0 36)
ब्रह्म प्राण में आज बिजलियां
मेरा सावन चला गया।
पृ0 37
‘हार एक प्रतीक है, ... पुष्प गुंथ जाते हैं, ... धागे से हार बन जाता है, गीता में कहा है, माला में जो सूत रूप में है, वह ‘मैं’ हूं। ‘मैं’, जो येाग है, जो आत्मा है, ... कवि ‘पुष्प हार’ जो ‘तुम’ ... बना रहा है, उसमें अपने आपको विद्या पाता है, ... वह उस हार का प्राण है, ... प्रियतमा और प्रिय का जो झुकाव है, ... वहंा विरह भी कहां है।
गीत पृ. 42
अधखुली आँखों से देखने पर एक निरीह कल्पना है-
‘‘जब तुम पलक उठाकर अधखुली आँखों से देखती हो
तो तुम्हारी चितवन में कितने मेघदूत कितने शाकुन्तलम, कितने उत्तर-रामचरित
और कितने साकेत
एक साथ खुल जाते हैं
आँसू के साथ कितनी उर्वशी
रूपक, बिम्ब, प्रतीक- कविता संग्रह में शिल्प योजना के जहां अनिवार्य अंग है। वहां कवि ने, प्रतीकों की जो प्रस्तुति की है, वह अनुपम है।
उद्धवी संदेश हूं मैं, तुम दिवस का रास हो।
दोनों ओर प्रेम पलता है... का कहानी की व्यंजना यहां प्रेम को, जिस उदात्तता का स्पर्श कवि ने यहां किया है, ... वह अनुपम है- प्रिय पात्र उंद्धवीं है, ... उद्धव प्रेम पाकर आए थे, ... ज्ञान का उपदेश देने गए थे-
... रस, और रास का यह मिलन, ... देहानुभूति से परे है। ... जहां आत्मा का अखंड अद्वैत है, ... इसी वेदन, उस आनंदानुभूति का यह काव्य रूप है।


खण्डित सूर्य का रक्त और ‘देश का दर्द
‘देश का दर्द’ (1919) डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय का चौथा काव्य संग्रह है। प्रस्तुत संग्रह में दो संग्रह है। इसमें कविताएँ ‘देश का दर्द’ एवं ‘सांध्यदीप’ शीर्षक से संकलित की गई है। ‘देश का दर्द’ शीर्षक से बावन कविताएँ हैं। तथा ‘सांध्यदीप’ में चालीस कविताएँ हैं।
इस संकलन के प्रकाशकीय वक्तव्य में बतलाया गया है कि ‘‘प्रस्तुत संकलन में डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय की नई-पुरानी कविताएँ ‘देश का दर्द’ एवं सांध्यदीप’ शीर्षक में संकलित की गई है। ‘देश का दर्द’ एवं ‘सांध्यदीप’ शीर्षक कविताओं मंे देश प्रेम, देश की स्थिति, सामाजिक बिखराव आदि विविध विषयों से सम्बद्ध रचनाएंँ संकलित हैं। सभी कविताओं में अनुभवों की सच्चाई और भावों की गहराई विद्यमान है।’’24
परन्तु यह संग्रह अपने पूर्ववर्ती संग्रहों की कविताओं से हटकर है, ... यहां एक मिला-जुला, सा सभी को समेटना का आग्रह अधिक है।
‘सांध्यदीप’ संग्रह में ‘शब्दों का उजाला’ एक कविता है। इस कविता में कवि ने कलात्मक ढंग से शब्दों की महिमा को प्रतिपादित किया है। जब चारों तरफ घोर निराशा और अंधकार हो, प्रतिकार की क्षमता समाप्त हो रही हो ऐसी स्थिति में शब्द ऊर्जा प्रदान करते हैं। शब्द वर्तमान का बोध भी कराते हैं और भविष्य के लिए सपने भी बुनते हैं। जब जब अंधकार ने संसार को जकड़ा है तब तब शब्द ने हथकड़ियाँ और बेडियाँ तोड़ी है। शब्द किसी व्यक्ति की नहीं सारे संसार की सम्पत्ति होते हैं। शब्दों के माध्यम से ही ज्ञान और विज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित होते हैं-
‘‘वे वाहक हैं ज्ञान और विज्ञान के
संस्कृति और दर्शन के।
बिना किसी वसीयतनामे के
वे हस्तांतरित होते हैं पीढ़ी-दर-पीढ़ी,
क्योंकि वे व्यष्टि की नहीं
समष्टि की सम्पत्ति होते हैं
और हर व्यवस्था में वे
सामाजिक ही बने रहते हैं।
(शब्दों का उजाला)
क्या कवि अपने युग की परिस्थितियों, महत्त्वपूर्ण विषयांे, तत्कालीन घटनाओं को छोड़कर जिन्दा रह सकता है। सृजन कर सकता है? डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय ने भी अपने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया है कि-
‘तत्कालीन उद्धेलनकारी घटनाएं लिखने के लिए विवश करती हैं। प्रारंभ से ही मानस पर पड़ने वाले दो प्रकार के निवैयक्तिक दबाव मुझे लिखने के लिए विवश करते रहे हैं। एक तो व्यक्तिगत भावानुभूतियों का दबाव दूसरा देश की उद्वेलनकारी घटनाओं और परिस्थितियों के दबाव। जैसे- सन् 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन, महात्मा गांधी की हत्या, पाकिस्तान की भारत के प्रति आक्रामक आतंकवादी गतिविधियों, समसामयिक राजनीति, विदेशी घटनाओं में चीन में तेनानमेन चौक में युवा दमन इत्यादि।’
इस काव्य संग्रह की कविताओं में समकालीनता का खाद है, घटना; काव्य की वस्तु बन, आकार भी तलाश में है। यही कारण है। कुछ कविताओं में यह दबाव अधिक नजर आ रहा है।
1980 के बाद यानी समकालीन कविता के दौर में भारत में जो महत्वपूर्ण घटनाएॅ घटित हुई है। उसमें राम-जन्म-भूमि अयोध्या का विवाद महत्वपूर्ण है।
डॉ. विजयवर्गीय ने इस घटना को राम के ‘एक और निर्वासन’ के रूप मंे देखा और काव्य रूप में प्रस्तुत किया। कवि कहता है कि राम! तुम्हारी जन्मभूमि पर तुम्हारा अधिकार नहीं। अधिकार उन लोगों का है जो तलवार के बल पर धर्म का विनाश कर सकते हैं। कथित उदारवादियों ने राम की जन्मभूमि को लेकर तरह-तरह के प्रश्न खड़े किये। कवि कहता है कि एक बार राम मन्थरा के षड़यंत्र और कैकयी के लोभ के कारण निर्वासित हुए थे अब लगता है कि राम धर्म, अनर्थ और राजनीति की दुरभिसंधि से निर्वासित हांेगे। राम को कोई ताकत से निर्वासित नहीं कर सकता। कवित के शब्दों में-
‘‘पूछना चाहता हूँ राम!
यदि तब कोई रावण
तुम्हें अयोध्या छोड़ने के लिए विवश करता
तो क्या तुम उसे छोड़ देते?
क्या तुम्हारे धनुष-बाण प्रतिरोध नहीं करते?
तो फिर आज, क्या इस निष्कासन की बेला में
तुम, तुम्हारे धनुष-बाण
क्या सोते रह जाएंगे?
बोला राम!
युग उत्तर चाहता है तुमसे।’’29
(एक और निर्वासन)
डॉ. प्रेमचन्द विजयवर्गीय के जीवन के जो कुछ लोग आदर्श रहे हैं उनमें एक विनोबा भावे भी हैं। इन्हीं के शब्दों में-
‘‘प्रत्येक प्रबुद्ध लेखक का कोई न कोई वैचारिक दृष्टिकोण होता है। मेरे विचार पर महात्मा गांधी, पं. जवाहरलाल नेहरू और आचार्य विनोबा भावे का विशेष प्रभाव रहा। मेरे वैचारिक दृष्टिकोण के स्रोत भी वही हैं। पर चूंकि मैं सन्तुलित और समन्वयवादी दृष्टि लेकर चलता हूँ इस कारण वैचारिक दुराग्रह तो बिल्कुल नहीं रखता। वैचारिक आग्रह भी मुझे सत्य और उचित लगता है।’’30
कवि कहता है कि विनोबा गीता में साक्षात भाष्य थे। उनका सारा का सारा जीवन एक निष्काम कर्मयोगी का जीवन था-
‘‘तुम्हारी आत्मा ने जीर्ण वस्त्र नहीं बदला
तुमने ही उसका वस्त्र उतारकर धर दिया,
ताकि अपने प्रभु से एकाकार होते समय
उसे उसका कुछ भी मोह न रहे।
ओ गीता के सजीव भाष्य!
तुम्हारा कर्म ही नहीं, धर्म भी
तुम्हारा जीवन ही नहीं, मरण भी
निष्काम रहा,
तुम तो गीता के भाष्य बन गए,
जिसे युग-युग तक भारत गाएगा।’’31
(विनोबा के महाप्रयाण पर)
देश का विभाजन होने के पश्चात भी समस्याएँ कम नहीं हुयी। विभाजन के बाद भी विभाजन का दर्द बना हुआ है। स्वतंत्रता के पश्चात् जहाँ प्रकाश फैलना चाहिए था वहाँ रक्त फैंल रहा है। स्वतंत्रता का आदर तथा उसी के साथ, ... जो समस्याएँ भारत विभाजन से आई, ... उस त्रासदी को कवि ने अपनी संवेदना दी है। ... यहां समकालीनता का प्रभाव, ...कवि की काव्य चेतना को समय को पार झांकने को प्रेरित कर रहा है।-
‘‘खण्डित सूर्य का रक्त
अभी न जाने कितने युगांे तक
हमारी भूमि को रक्तिम बनाता रहेगा।
उसका घाव न जाने कितनी सदियों तक
हमें दर्दाता रहेगा।
और आधी रात को इस सूरज-तले
हम न जाने कितने कल्पों तक
अंधेरा पीते रहेंगेे, पीते रहेंगे।’’32
(आधी रात का सूरज, पृ. 16)

देश की समस्याएँ बहुत हैं, दर्द बहुत हैं, चारों तरफ निराशा के बादल घिरे हुए हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इन तमाम परिस्थितियांे के बीच कवि निराश नहीं है। आशा सबसे बड़ी ताकत होती है। वही विभिन्न प्रकार के संकटों से व्यक्ति, समाज और देश को उबारती है। कवि कहता है कि-
‘‘ओ अंधेरों लौट जाओ, यह उजालों की जमी है,
हम अमा की रात में दीपक जलाना जानते हैं!
भूचाल बरपा करने वालों से न डरते हम कभी,
हम स्वयं भूकंप हैं, भूचाल लाना जानते हैं!
हम गरजते बादलों में भी सदा हंसते रहे,
बिजलियॉ चाहे गिरें, हम मुस्कराना जानते हैं।’’37
(हम जानते हैं)
‘देश का दर्द’ की कविताएँ इस समस्या के ऊपर है। देश में उठने वाली ज्वलंत समस्याओं से टकराती है।
यहां कवि, बौद्धिकता के आधार पर अपने प्रश्नों को एक नागरिक की दृष्टि से विचारता है। संकटकालीनता का दबाव स्पष्ट है, हर विषय जो समाचार पत्र, खाद-बीज के रूप में बहुत करते हैं, ... संवेदना वहां से प्रतिक्रियात्मक आधार लाती है। ... यह कवि की मूल प्रेरणा नहीं है। ... कवि मन, अंतर्मुखी है, ... वह उत्तरछायावादी संस्कारों में पल्लवित हुआ है। सांस्कृतिक राष्ट्रवादी सोच, उसे आकर्षित तो करती है, पर वह जन और जन संस्कृति अविभाज्यता को भी स्वीकारता है। जन का शुभम् व मंगल का उसका वंदेय पथ है, जो उसकी काल संवेदना को धनीभूत करता है।












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