हमारे पुरोधा बालकृष्ण थोलंबिया जी
थोलम्बिया जी हाड़ौती अंचल की साहित्यिक साधना के शताब्दी पुरुष हुए हैं। आप बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में इस अंचल में हिन्दी भाषा और साहित्य के शिक्षण में प्रवृत्त हुए थे। आप अस्सी साल से अधिक साहित्य की सेवा में रहे। छन्द पर आपका अधिकार था। जनी अपका खंड काव्य है। संत नामदेव की शिष्याओं में जनी का नाम उल्लेखनीय है। इस आलेख में थोलम्बिया की स्मृति में उनके भक्ति प्रधान इस खंड काव्य पर चर्चा की जारही है। आज की दुनिया में जहॉं लेखन आत्ममुग्ध बनता जारहा है, नई पीढ़ी के लिए अपनी परम्परा के दाय को स्मरण करना मित्रों को कष्ट कारी अवश्य लग सकता है। आयु के सौवर्ष पूरे कर प्रसन्नचित हमारे बीच से आप विदा हुए थे। आपके जीवन के अंतिम वर्षों में प्रिय श्रीनंदन चतुर्वेदी जी के साथ जब मैं आपसे मिला था, आप की नेत्रज्योति चली गई थी, पर आपकी स्मृति यथावत थी , जनी खंडकाव्य के कुछ छंद मैंने आपसे आपके घर ही सुने थे। जो आपके लिए यहॉं दिए जा रहे हैं।
बाल कृष्ण थोलम्बिया अस्सी वर्षों तक हाड़ौती के साहित्यिक रचना सन्सार में क्रियाशील रहे हैं। वे राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्य धारा के कवि हैं। वे हाड़ौती साहित्य के सन्सार में सर्वाधिक सक्रिय रहे हैं।
सरल, सहज काव्य भाषा और परिवेशगत विषय, सदा से ही कवियों का आकर्षण रहा है। बाल कृष्ण थोलम्बिया ने पुराने काव्य रूपों और नए काव्य रूप ‘मुक्त छन्द’ में भी लिखा है। आप का स्वतन्त्र काव्य ग्रन्थ ‘जनी’ प्रकाशित है। अस्सी वर्ष से अधिक समय तक काव्य सर्जना में सन्लग्न बाल कृष्ण थोलम्बिया, इस अ´चल के शताधिक आयु प्राप्त, ‘जीवन साहित्य सर्जना’ के प्रतीक हैं।
”आश्वासनों की मकड़ियाँ
इतने जाल तन देती हैं
कि मन की माखी
उलझती जाती है, उलझती जाती है
और अन्त में निढाल हो दम तोड़ बैठती है।“4 ;कोटा काव्य गन्धा, पृ. 5.
”यही है अवसाद
कि
पुरुष
अब कापुरुष हो गया है
चरित्र और नैतिकता का गढ ़हो गया है धराशायी।(कोटा काव्य गन्धा, पृ. 7.)
‘ब्रज माधुरी’, ‘मन भावनी’ ;साठ सोरठे तथा ‘जनी’ ;भक्ति काव्य, 1997 ई आप की अन्य महत्वपूर्ण प्रकाशित रचनाऐं हैं।
सन्त नामदेव के जीवन तथा उन के ‘अभंगों’ पर आपने स्वतन्त्र कार्य किया है। जो सन्त नामदेव और उन के उपदेश, ‘नामदेव निर्माल्य’ के रूप में पुस्तकाकार में प्रकाशित है।
‘जनी’ एक स्वतन्त्र लघु पुस्तिका है। एक लम्बी कविता है। ‘जनी’, एक साधारण निम्न वर्गीय महिला की प्रेममयी गाथा है, एक ग़रीब घर में काम करने वाली दासी ‘जनी’, विट्ठल के प्रेम में इतनी गहराई से डूब गई थी, कि भगवान कृष्ण की गीता में ली गई यह ‘शपथ’ सत्य रूप में प्रकाशित-सी हो गई, ”जो मुझे अनन्य भाव से मानता है, मैं उसे भजता हूंँ।“ राजस्थान की मीरा तथा महाराष्ट्र की ‘जनी’ में यही साम्य है, कि दोनों प्रभु प्रेम में आकण्ठ डूबी हुई हैं। महाभाव में है। वैषम्य बस इतना है कि एक राजरानी रही है, एक दासी, किन्तु प्रभु-प्रेम दोनों के ही जीवन का आधार रहा है।
बाल कृष्ण थोलम्बिया की अपनी अलग शैली है, जो छायावाद पूर्व में, ‘गुप्त’, ‘हरिओध’, की थी। वर्णनात्मक, प्रसादमयी भाषा, जो सीधे पाठक से सम्बोधित होती थी, उसी का विकास यहाँ मिलता है।
”मैं हीन जाति की बेटी
जिस को अछूत जन कहते
मेरी छाया से बच कर
वे दूर-दूर ही रहते।
मैं पूछ रही हूँ तुम से
क्या मुझ को अपना लोगे?
अपने कोमल हाथों से
मेरे अघ-ओघ चुनोगे?“ (पृ. 24.)तब विट्ठल का उसे उत्तर, जो जन कथा में मत है, विट्ठल स्वयं उस के साथ आ कर उस के कार्य करते थे:-
”मौन साध बैठे थे
विट्ठल अब तक, यों बोले -
जे जनी, भक्ति को तेरी,
वह कौन तराजू तोले?“ (पृ. 25.)
वह ऊखल में धान कूटती है, एक छाया-सी उस के साथ रहती है, वह क्या है? अचानक पाती है, मूसल गीला हो गया है, जैसे हाथों का कोई छाला फूट गया हो, वह जानना चाहती है, यह क्या है? तब अचानक विट्ठल की छाया का उसे अनुभव होता है:-
”विट्ठल मेरे जीवन-धन
कमला की चख के तारे
मैं समझ नहीं पाती हूँं
ये कैसे खेल तुम्हारे?
”मेरे उलझे केशों को
तू माँ बन कर सुलझाता
फिर उन को सजा-सँवर कर
वैणी-बन्धन कर जाता।“(;पृ. 34.)
तब विट्ठल का कथन है:-
”घूरे पर उपजी तुलसी
का तो तू पावन दल है
पूजन-अर्चन की गरिमा
भव भव्य भक्ति सम्बल है।“(पृ. 35.)
यहाँ से कविता, अचानक मोड़ लेती है, धर्म, सम्प्रदाय, आध्यात्म, भक्ति, अनेक रूढ शब्दों की, मानो व्याख्या-सी हो गई हो। कवि थोलम्बिया, जो ‘प्रिय हरि’ के नाम से लिख रहे थे, अचानक अन्तर्मुखता की दहलीज़ पर दस्तक देने लगते हैं।
”यदि हो न तअस्सुब मन में
मज़हब कब आड़े आता?
सम भाव समादर रखता,
सब को ही शीश नवाता।“( पृ. 38.)
तथा कवि ‘जनी’ के माध्यम से अपनी ‘दीर्घ जीवन’ की अन्तिम अभिलाषा पाठकों को सोंपता है:-
”ये गिरजा, मन्दिर, मस्जिद
तो केवल एक बहाना,
उस सर्व व्याप्त शाश्वत का
तो सब ही ठौर ठिकाना।“9 ;पृ. 40.द्ध
साहित्य की राजनीति के, इस अ´चल में पहले शिकार बाल ड्डष्ण थोलम्बिया ही बने थे। उन का लिखा हुआ जीवन के अन्तिम समय में प्रकाशित हो पाया था। न तो भारतेन्दु समिति, न ही राजस्थान साहित्य अकादमी, उन के सौ वर्षीय जीवन काल में, उन का और उन के साहित्य का मूल्याकंन कर आदर दे पाई।
हम यहॉं हमारे पुरोधा के नाम से इस लेखमाला को इसलिए दे रहे हैं कि नई पीढ़ी यह जान पाए इस संस्कृति की यात्रा में वे ही अकेले पथिक नहीं हैं।इस अंचल का दुर्भाग्य रहा है कि हिन्दी साहित्य की अविकल सेवा के बावजूद भी इस अंचल के साहित्यिक योगदान का सही मूल्यांकन नहीं हो पाया। न तो राजस्थान साहित्य अकादमी उनके जीवन काल में ”मोनोग्राफ“ निकाल पाई नहीं हमारे पुरोधा श्रृंखला में आलेख ही। हम उनकी स्मृति को बनाए रखें , यही आशा है।
थोलम्बिया जी हाड़ौती अंचल की साहित्यिक साधना के शताब्दी पुरुष हुए हैं। आप बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में इस अंचल में हिन्दी भाषा और साहित्य के शिक्षण में प्रवृत्त हुए थे। आप अस्सी साल से अधिक साहित्य की सेवा में रहे। छन्द पर आपका अधिकार था। जनी अपका खंड काव्य है। संत नामदेव की शिष्याओं में जनी का नाम उल्लेखनीय है। इस आलेख में थोलम्बिया की स्मृति में उनके भक्ति प्रधान इस खंड काव्य पर चर्चा की जारही है। आज की दुनिया में जहॉं लेखन आत्ममुग्ध बनता जारहा है, नई पीढ़ी के लिए अपनी परम्परा के दाय को स्मरण करना मित्रों को कष्ट कारी अवश्य लग सकता है। आयु के सौवर्ष पूरे कर प्रसन्नचित हमारे बीच से आप विदा हुए थे। आपके जीवन के अंतिम वर्षों में प्रिय श्रीनंदन चतुर्वेदी जी के साथ जब मैं आपसे मिला था, आप की नेत्रज्योति चली गई थी, पर आपकी स्मृति यथावत थी , जनी खंडकाव्य के कुछ छंद मैंने आपसे आपके घर ही सुने थे। जो आपके लिए यहॉं दिए जा रहे हैं।
बाल कृष्ण थोलम्बिया अस्सी वर्षों तक हाड़ौती के साहित्यिक रचना सन्सार में क्रियाशील रहे हैं। वे राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्य धारा के कवि हैं। वे हाड़ौती साहित्य के सन्सार में सर्वाधिक सक्रिय रहे हैं।
सरल, सहज काव्य भाषा और परिवेशगत विषय, सदा से ही कवियों का आकर्षण रहा है। बाल कृष्ण थोलम्बिया ने पुराने काव्य रूपों और नए काव्य रूप ‘मुक्त छन्द’ में भी लिखा है। आप का स्वतन्त्र काव्य ग्रन्थ ‘जनी’ प्रकाशित है। अस्सी वर्ष से अधिक समय तक काव्य सर्जना में सन्लग्न बाल कृष्ण थोलम्बिया, इस अ´चल के शताधिक आयु प्राप्त, ‘जीवन साहित्य सर्जना’ के प्रतीक हैं।
”आश्वासनों की मकड़ियाँ
इतने जाल तन देती हैं
कि मन की माखी
उलझती जाती है, उलझती जाती है
और अन्त में निढाल हो दम तोड़ बैठती है।“4 ;कोटा काव्य गन्धा, पृ. 5.
”यही है अवसाद
कि
पुरुष
अब कापुरुष हो गया है
चरित्र और नैतिकता का गढ ़हो गया है धराशायी।(कोटा काव्य गन्धा, पृ. 7.)
‘ब्रज माधुरी’, ‘मन भावनी’ ;साठ सोरठे तथा ‘जनी’ ;भक्ति काव्य, 1997 ई आप की अन्य महत्वपूर्ण प्रकाशित रचनाऐं हैं।
सन्त नामदेव के जीवन तथा उन के ‘अभंगों’ पर आपने स्वतन्त्र कार्य किया है। जो सन्त नामदेव और उन के उपदेश, ‘नामदेव निर्माल्य’ के रूप में पुस्तकाकार में प्रकाशित है।
‘जनी’ एक स्वतन्त्र लघु पुस्तिका है। एक लम्बी कविता है। ‘जनी’, एक साधारण निम्न वर्गीय महिला की प्रेममयी गाथा है, एक ग़रीब घर में काम करने वाली दासी ‘जनी’, विट्ठल के प्रेम में इतनी गहराई से डूब गई थी, कि भगवान कृष्ण की गीता में ली गई यह ‘शपथ’ सत्य रूप में प्रकाशित-सी हो गई, ”जो मुझे अनन्य भाव से मानता है, मैं उसे भजता हूंँ।“ राजस्थान की मीरा तथा महाराष्ट्र की ‘जनी’ में यही साम्य है, कि दोनों प्रभु प्रेम में आकण्ठ डूबी हुई हैं। महाभाव में है। वैषम्य बस इतना है कि एक राजरानी रही है, एक दासी, किन्तु प्रभु-प्रेम दोनों के ही जीवन का आधार रहा है।
बाल कृष्ण थोलम्बिया की अपनी अलग शैली है, जो छायावाद पूर्व में, ‘गुप्त’, ‘हरिओध’, की थी। वर्णनात्मक, प्रसादमयी भाषा, जो सीधे पाठक से सम्बोधित होती थी, उसी का विकास यहाँ मिलता है।
”मैं हीन जाति की बेटी
जिस को अछूत जन कहते
मेरी छाया से बच कर
वे दूर-दूर ही रहते।
मैं पूछ रही हूँ तुम से
क्या मुझ को अपना लोगे?
अपने कोमल हाथों से
मेरे अघ-ओघ चुनोगे?“ (पृ. 24.)तब विट्ठल का उसे उत्तर, जो जन कथा में मत है, विट्ठल स्वयं उस के साथ आ कर उस के कार्य करते थे:-
”मौन साध बैठे थे
विट्ठल अब तक, यों बोले -
जे जनी, भक्ति को तेरी,
वह कौन तराजू तोले?“ (पृ. 25.)
वह ऊखल में धान कूटती है, एक छाया-सी उस के साथ रहती है, वह क्या है? अचानक पाती है, मूसल गीला हो गया है, जैसे हाथों का कोई छाला फूट गया हो, वह जानना चाहती है, यह क्या है? तब अचानक विट्ठल की छाया का उसे अनुभव होता है:-
”विट्ठल मेरे जीवन-धन
कमला की चख के तारे
मैं समझ नहीं पाती हूँं
ये कैसे खेल तुम्हारे?
”मेरे उलझे केशों को
तू माँ बन कर सुलझाता
फिर उन को सजा-सँवर कर
वैणी-बन्धन कर जाता।“(;पृ. 34.)
तब विट्ठल का कथन है:-
”घूरे पर उपजी तुलसी
का तो तू पावन दल है
पूजन-अर्चन की गरिमा
भव भव्य भक्ति सम्बल है।“(पृ. 35.)
यहाँ से कविता, अचानक मोड़ लेती है, धर्म, सम्प्रदाय, आध्यात्म, भक्ति, अनेक रूढ शब्दों की, मानो व्याख्या-सी हो गई हो। कवि थोलम्बिया, जो ‘प्रिय हरि’ के नाम से लिख रहे थे, अचानक अन्तर्मुखता की दहलीज़ पर दस्तक देने लगते हैं।
”यदि हो न तअस्सुब मन में
मज़हब कब आड़े आता?
सम भाव समादर रखता,
सब को ही शीश नवाता।“( पृ. 38.)
तथा कवि ‘जनी’ के माध्यम से अपनी ‘दीर्घ जीवन’ की अन्तिम अभिलाषा पाठकों को सोंपता है:-
”ये गिरजा, मन्दिर, मस्जिद
तो केवल एक बहाना,
उस सर्व व्याप्त शाश्वत का
तो सब ही ठौर ठिकाना।“9 ;पृ. 40.द्ध
साहित्य की राजनीति के, इस अ´चल में पहले शिकार बाल ड्डष्ण थोलम्बिया ही बने थे। उन का लिखा हुआ जीवन के अन्तिम समय में प्रकाशित हो पाया था। न तो भारतेन्दु समिति, न ही राजस्थान साहित्य अकादमी, उन के सौ वर्षीय जीवन काल में, उन का और उन के साहित्य का मूल्याकंन कर आदर दे पाई।
हम यहॉं हमारे पुरोधा के नाम से इस लेखमाला को इसलिए दे रहे हैं कि नई पीढ़ी यह जान पाए इस संस्कृति की यात्रा में वे ही अकेले पथिक नहीं हैं।इस अंचल का दुर्भाग्य रहा है कि हिन्दी साहित्य की अविकल सेवा के बावजूद भी इस अंचल के साहित्यिक योगदान का सही मूल्यांकन नहीं हो पाया। न तो राजस्थान साहित्य अकादमी उनके जीवन काल में ”मोनोग्राफ“ निकाल पाई नहीं हमारे पुरोधा श्रृंखला में आलेख ही। हम उनकी स्मृति को बनाए रखें , यही आशा है।
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