मंगलवार, 29 अक्टूबर 2013

हमारे पुरोधाश्री जमना प्रसाद ठाड़ा राही

हमारे पुरोधाश्री जमना प्रसाद ठाड़ा राही


श्री जमना प्रसाद ठाड़ा राही प्रगतिशील कवि, नाटककार, रंगमंच के कुशल अभिनेता थे, जिनकी जन्म शताब्दी का उत्सव  प्रेस क्लब कोटा की आयोजित सभा में मनाया गया था। उनकी साहित्यिक यात्रा पर आलेख भी पढ़े गए थे। ठाड़ा साहब से मेरी मुलाकात सन 71 के आसपास हुई थी, तब मैं हिन्दी विभाग में प्राध्यापक था। जाग जाग री बस्ती आपके गीतों का संग्रह प्रकाशित हुआ। हाड़ौती में खूूॅंगाली आपकी कविताओं का संग्रह आया। इस अंचल की नाट्यधर्मिता को  आपने आगे बढ़ाया। प्रांत के हिन्दी साहित्य का विकास स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही गुटबंदी का शिकार होगया। हिन्दी साहित्य हो या राजस्थानी साहित्य का केन्द्र जो स्वतंत्रता पूर्व हाड़ौती में केन्द्रित था वह क्रमशः उदयपुर व जोघपुर में ही सीमित रह गया। हाड़ौती मे जो नेतृत्व विकसित हुआ , वह आत्ममुग्ध , स्वकेन्द्रित तथा स्वप्रचारी अधिक ही होगया। उस नेतृत्व ने अपने सभी समकालीन साहित्यकारो के साथ उपेक्षित व्यवहार ही अधिक रखा।

यह लेखमाला उन्हीं पुरोधा साहित्यकारों को समर्पित है, जिन्हें हम भूल गए हैं।  आज नए लेखकों पर मोनोग्राफ तैयार हो रहे हैं, पर जिन्होंने अपना पूरा जीवन साहित्यिक सेवा में ही दिया, उन पर आलेख तक प्रकाशित होना दुल्रभ हो गया है। हम अपनी परंपरा को जाने, प्रेम करें, इसी आषा के साथ-

जमना प्रसाद ठाड़ा ‘राही’ का काव्य संग्रह ‘जाग जाग री बस्ती’ सन 1981 ई. में प्रकाशित हुआ था। आप इस अ´चल की ‘जन वादी काव्य चेतना’ के वे प्रमुख कवि थे। रंग कर्मी ठाड़ा ‘राही’ सन 1950 ई. के आस-पास साहित्य-जगत में अपना स्थान बना चुके थे। परन्तु आप का काव्य संग्रह बहुत बाद में सेवा-निवृत्ति के बाद ही प्रकाशित हुआ। आप इस अ´चल की प्रगतिशील कविता के प्रारम्भिक कवि कहे जा सकते हैं।

”बिकी हुई कलमों से केवल जन रंजन हो सकता है
किन्तु न कोई दिशा बोध या निर्देशन हो सकता है।
जागरुक सर्जक खुद जगता, सारा देश जगाता है
अधिकारों का यह मौसम है भिक्षाओं का समय नहीं
संकल्पों का यह मौसम है, शंकाओं का समय नहीं।“
”टूट गये मस्तूल ढेर यह फटे हुए पालों का
जिसके चारों ओर घिरा है घेरा घडियालों का
खुद पतवार संभालो राही डूब रही यह किश्ती
जाग जाग री बस्ती अब तो जाग जाग री बस्ती।“

आज की समस्याओं का आकलन यह कवि पचास साल पहले भी कर रहा था। यह वह दौर था जहॉं साहित्य लोकेषणा का आधार नहीं था।

‘राही’ का यह 51 कविताओं का काव्य संग्रह अपनी विश्ेाष पहचान के साथ आया था। कवि के भीतर आवेग, वर्तमान से असन्तोष तथा जीवन यथार्थ का कटु अनुभव और उस सब के बावजूद जीवन्त रहने की अभिलाषा, उन के इन गीतों का सार तत्व है।

”ये शासकीय सम्मानित कवि हैं, हम तो फुटपाथी हैं
हमारी कलमें बड़ी तुर्श पर इनकी ठकुर-सुहाती हैं“।
यही कारण रहा कि ठाड़ा साहब अपने समय के लोकप्रिय कवि होते हुए भी तत्कालीन साहित्यिक मूल्यांकन से उपेक्षित ही रहे।

कवि ठाड़ा ‘राही’, शिक्षक रहे थे। अतः साधारण जन की पीड़ा के वे गायक बने। आम बोल-चाल की भाषा, उस में बात कहने का साहस, जो आम जन तक सीधी सम्प्रेषित हो जाए, यह  ठाड़ा ‘राही’ की कविताओं की पहचान रही है।
हाड़ौती में ‘खूँगाली’ उन का काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ था। आपका सृजन महत्वपूर्ण है।

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