गुरुवार, 3 अक्टूबर 2013

बूॅंदी नरेश कवि बुद्ध सिंह

बूॅंदी नरेश   कवि बुद्ध सिंह

हाड़ौती के काव्य- पुरोधाओं की परिधि में राजा बुद्धसिंह का नाम उल्लेखनीय है। महाकवि सूर्यमल मिश्रण के लिए बूॅदी को काव्य की उर्वर भूमि बनाए रखने में बूॅदी राजघराने का उल्लेखनीय योगदान रहा है। कालक्रम का यहॉं विशेष ध्यान नहीं है, पर प्रयास होगा , हम अपनी परपरा से जुड़ने का प्रयास भी करें।
हमारी भाषा और साहित्य का विकास एक दिन या एक शताब्दी में नहीं हुआ हैं। गत हजारसाल से हजारों सृजन कर्मी इस कार्य में लगे रहे। सबको तो याद करना कठिन है, पर अपने अंचल के दिवंगत तथा अभी भी सृजनरत साहित्यकारों को याद करना यहॉं संकल्पित है। आप सभी का सहयोग प्रार्थनीय है।

डॉ. मोतीलाल मेनारिया ने ‘नेह तरंग’ के संबंध में अपनी पुस्तक राजस्थान पिंगल साहित्य और राजस्थानी भाषा और साहित्य पहली बार सूचना दी थी। ‘‘राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला’’ ने अपने ग्रन्थांक 63 में  ‘नेह तरंग को प्रकाशित किया है। श्री रामप्रसाद दाधीच ने इसका संपादन किया है। बूंदी राजा बुद्धसिंह लोकप्रिय शासक ही नहीं, उत्कृश्ट कवि भी थे।

‘नेह तरंग’, ‘रीतिकाल में रचित रीतिबद्ध लक्षण ग्रन्थ है, इसमें वे समस्त सामान्य प्रवृत्तियां और विशेषताएं विद्यमान है जो रीतिकालीन अन्य कवियों की कृतियों में रही हो। सभी कुछ अन्य रीतिकालीन अन्य कृतियों के समान मानते हुए भी संपादक महोदय ने, इस काव्य कृति की रीतिकालीन अन्य कृतियों सेे विशेषता इसकी अभिव्यंजना शैली को बताया है’’ वह है अभिव्यंजना की मार्मिकता जो इन्होंने काव्यांग के उदाहरण में स्वरचित छन्दांे में प्रकट की है।1 डॉं. मोतीलाल मेनारिया ने ‘नेह तरंग’ के विषय में लिखा है, ‘नेह तरंग हिन्दी साहित्य की एक अनमोल निधि है- साहित्य की दृष्टि से यह एक निष्कलंक रचना है। भाषा, भाव, काव्य सौष्ठव सभी का इसमें सुंदर संयोग हुआ है। डॉ. सरनाम सिंह शर्मा ने कहा है- बुद्ध सिंह पिंगल साहित्य के उच्च कोटि के कवि आचार्य थे।

‘उनके शब्दों में ध्वन्यात्मकता है, - वे संगीतात्मकता है। नाद- सौदर्य  है।
गाजकैं सज्जल कज्जल से, धन छूटि मदज्जल से झट जागी
मोर के सोर करै चंहु ओर, सो चंचलता ज्यों चलि षाग आगी।।
कैसें करौं हौ रहौं न मिलै, बिन ए अंषिया जिन सौं अनुरागी।
तू सुनि री बलि या न भली, बली बैरनि ज्यों बारिषा रितु लागी। (400)
इनका ऋतुवर्णन, ‘पद्माकर की परंपरा में होते हुए भी, ... सेनापति के अधिक समीप है, इन्होने निरपेक्ष परंपरा का आदर किया है, ... जहां प्रकृति के चित्रण में नायक-नायिकाओं को आलंबन रूप में समादृत न करते हुए स्वतंत्र अभिव्यक्ति है-

‘फूली लता नव पल्लव की, सो जटा षुलि केसरि ज्यौं छवि छायौ।
गुंजन भौरन की चहुधां, कुसुमाद पलासन कैं नष लायौ। (416)

करत गुंज मिलि, पुंज अति, लपटें लेत सुगंध।
ठौर ठौर भौरत झपत, भौर-भौर मद अंध (415)
बसंत ऋतु का यह निरपेक्ष वर्णन है, ... नायिका भेद यहां नहीं है।

यदि अताप किरनै प्रकट, दाधे तरू सरू जात
जग देषत ज्वाला लगे, जोगी जेठ जमात।। 896

... ग्रीष्म ऋतु की वर्णना में, ... जहां दाह से, ... वृक्ष, ... जल उठे है
वहीं, जोगी और जेठ के साथ ‘जमात’ शब्द की अभिव्यक्ति भी रोचक है। इसी प्रकार ‘हेमंत ऋतु की वर्णना में कहा गया है-
‘सब जग में सब जनन को, सुखदायक सुमनंत।
तेल तूल तांबूल, तप, तापन, तपन अनंत। 423।।

यहां, साधना और काव्य दोनों एक रूप हो गए हैं। भक्ति की जहां ‘पर’ की आराधना से शुरू होती है, ... पर जब वह ’पर’ स्वयं में ढल जाता है, ... जहां दूसरा कोई रहता ही नहीं है। सर्वत्र वही है, वहीं मात्र प्रेम शेष रह जाता है और प्रेम श्री कृष्ण  का ही मानवीकरण है। विष्णु सिंह ने, ... अध्यात्म की इस अंतिम अवस्था का, जो भक्ति में, ... महारास में व्यंजित है। अनुभूत्यात्मक स्पर्श किया है।
... ‘‘नेह नदी उमगी न रही, ... स्नेह जो भावनाओं में उद्वेलित हो रहा था, ... शांत समरस हो गया है, ... सब कुछ छूट गया, ...
चीर हरण हो गया, चेतना निरावस्त्र है, ... कोई अवधारणा नहीं रही, ... न हीं कोई विचारणा शेष है।
‘फैलि गयो परिपूरन प्रेम, सु कौन, अली अपने घर आई।
... चारों ओर तू ही तू शेष रह जाता है। जब तक वह है, यह है ‘तू’ है, मैं हू, यह है। पर अचानक, यह जो संसार है, ... वह स्वतः छूट जाता है। संसार मनुष्य के भीतर है, ... वह छूट जाता है। ‘तब’ यह जाते ही, वह भी चला जाता है। शेष जो बचता है मैं, वह अचानक वह में ढल जाता है।
‘फैलि गयो परिपूरन प्रेम, मात्र प्रेम शेष रह जाता है।
प्रेम ही श्री कृष्ण है।
... यह अनुभूति, जहां, भाषा गौण है, भाषा पीछे छूट जाती है, इस ‘महामिलन’ की यह अनुभूत्यात्मक अभिव्यक्ति, रीतिकालीन काव्यधारा में अन्यत्र विरल है।
‘बुद्ध सिंह का नेह तरंग’ के अतिरिक्त अन्य कोई ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। नेह तरंग भी काव्य भाषा, पिंगल है। यहां ब्रजभाषा पर अतिरिक्त झुकाव नहीं है। अलंकारों मंे अनुप्रास तथा शब्दों में ध्वन्यात्मकता पर विशेष बल रहा है। ध्वनि, संगीतात्मकता की और काव्य को ले जाती है, ... वर्ण की आवृतियां, ... मैत्री कारक वर्णों का चयन, ... जो स्वाभाविक शब्द की ‘लय’ को उत्पन्न करने में सफल होती है, उनका इनकी कविता में प्राधान्य है।











‘बुद्ध सिंह का नेह तरंग’ के अतिरिक्त अन्य कोई ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। नेह तरंग भी काव्य भाषा, पिंगल है। यहां ब्रजभाषा पर अतिरिक्त झुकाव नहीं है। अलंकारों मंे अनुप्रास तथा शब्दों में ध्वन्यात्मकता पर विशेष बल रहा है। ध्वनि, संगीतात्मकता की और काव्य को ले जाती है, ... वर्ण की आवृतियां, ... मैत्री कारक वर्णों का चयन, ... जो स्वाभाविक शब्द की ‘लय’ को उत्पन्न करने में सफल होती है, उनका इनकी कविता में प्राधान्य है।













यहां, साधना और काव्य दोनों एक रूप हो गए हैं। भक्ति की जहां ‘पर’ की आराधना से शुरू होती है, ... पर जब वह ’पर’ स्वयं में ढल जाता है, ... जहां दूसरा कोई रहता ही नहीं है। सर्वत्र वही है, वहीं मात्र प्रेम शेष रह जाता है और प्रेम श्री कृष्ण  का ही मानवीकरण है। विष्णु सिंह ने, ... अध्यात्म की इस अंतिम अवस्था का, जो भक्ति में, ... महारास में व्यंजित है। अनुभूत्यात्मक स्पर्श किया है।
... ‘‘नेह नदी उमगी न रही, ... स्नेह जो भावनाओं में उद्वेलित हो रहा था, ... शांत समरस हो गया है, ... सब कुछ छूट गया, ...
चीर हरण हो गया, चेतना निरावस्त्र है, ... कोई अवधारणा नहीं रही, ... न हीं कोई विचारणा शेष है।
‘फैलि गयो परिपूरन प्रेम, सु कौन, अली अपने घर आई।
... चारों ओर तू ही तू शेष रह जाता है। जब तक वह है, यह है ‘तू’ है, मैं हू, यह है। पर अचानक, यह जो संसार है, ... वह स्वतः छूट जाता है। संसार मनुष्य के भीतर है, ... वह छूट जाता है। ‘तब’ यह जाते ही, वह भी चला जाता है। शेष जो बचता है मैं, वह अचानक वह में ढल जाता है।
‘फैलि गयो परिपूरन प्रेम, मात्र प्रेम शेष रह जाता है।
प्रेम ही श्री कृष्ण है।
... यह अनुभूति, जहां, भाषा गौण है, भाषा पीछे छूट जाती है, इस ‘महामिलन’ की यह अनुभूत्यात्मक अभिव्यक्ति, रीतिकालीन काव्यधारा में अन्यत्र विरल है।

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