हमारे पुरोधा 5
इस लेखमाला में निबन्धकार डॉ. कन्हैयालाल शर्मा के निबन्धकार रूप की चर्चा कर रहे हैं। आप षाषा वैज्ञानिक थे। पच्चीस से अधिक शोधछात्रों के आप गाइड रहे। हाड़ौती का आज जो मानकीकृत रूप है, उसके आप प्रस्तोता रहे, पर आपकी सृजनात्मकता का यह स्वरूप उपेक्षित ही रहा, प्रायः आपका परिचय एक शिक्षक तथा भाषावैज्ञानिक के रूप में ही अधिक दिया जाता रहा है।
डॉ. कन्हैया लाल शर्मा
‘
साहित्य विधाऐं’ तथा ‘द्विपथा’, आप के आलोचनात्मक निबन्ध संग्रह हैं।
‘साहित्य-विधाऐं’, पद्य-गद्य के विविध रूपों का विश्लेषण-परक अध्ययन है, जो समय-समय पर लिखे गए निबन्धों का संग्रह है। ये निबन्ध विवेचनात्मक हैं। ‘काव्य’ की विविध विधाऐं, जिन में गद्य व पद्य दोनों सन्निहित हैं, का वस्तुपरक विश्लेषणात्मक अध्ययन यहाँ है। भूमिका से
‘द्विपथा’ भी आप के समीक्षात्मक आलोचनात्मक निबन्धों का संग्रह हैं। बारह निबन्ध हिन्दी आलोचना में, गद्य की विकास यात्रा के महत्वपूर्ण मोड़ की सूचना देते हैं। गीतांजलि ;काव्यानुवाद एवं मूलद्ध एक विवेचन, ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की हिन्दी भाषा की देन, ‘हरिदास जी का काल निर्णय’, ‘नन्द पच्चीसी में सामाजिक चेतना’, आप के महत्व पूर्ण समीक्षात्मक निबन्ध हैं।
क्ृति में गीतांजलि ;काव्यानुवाद एवं मूलद्ध: एक विवेचन, के सम्बन्ध में आप ने लिखा है कि ”मूल एवं अनुवाद के सौन्दर्य पर मुग्ध हो कर मैं ने चार दशक पूर्व इस लेख की पाण्डुलिपि तैयार कर ली थी, पर उस का प्रकाशन अब हो पाया है।“
यह निबन्ध, आलोचनात्मक निबन्धों की परम्परा में होते हुए भी अपनी वस्तुपरकता, तथ्यों के संचयन, उन की विवेचनात्मकता, तथा इसी क्रम में विश्लेषणपरकता से एकान्विति का स्पर्श पा कर, उत्कृष्टता को पाता है। अनुवाद कार्य वह भी एक महान कृति का। जहाँ महा कवि रवीन्द्र नाथ की गीतांजलि हो, उस का उस के सौन्दर्य को सुरक्षित रखते हुए अपनी भाषा में, अपने छन्दों में, अनुवाद कर्म, गम्भीर गुरुतर कार्य है। सम्भवतः उस की समीक्षा, मूल कृति एवं हिन्दी में अनुवादित छन्दों को एक साथ रखते हुए सौन्दर्य की समीक्षा, गुरुतर समीक्षक कर्म है। डॉ. शर्मा ने इस निबन्ध में एक नई दृष्टि को संयोजित किया है। कृति की समीक्षा, मूल एवं अनुवादित कृति, दोनों की राह से गुज़र कर, उन्हों ने दोनों ही कृतियों के मूल सौन्दर्य को उद्घाटित करने के प्रयास को रेखांकित करते हुए की है।
‘नन्द पच्चीसी में सामाजिक चेतना’, आप का अनुसन्धानपरक आलोचनात्मक निबन्ध है। विक्रम सम्वत 1643 के कार्तिक मास की लिखी यह पाण्डुलिपि, हाड़ौती के अज्ञात कवि नन्द राम की है। अज्ञात कवि की कविता में वर्णित भारतीय जन की त्रासदी का मार्मिक उल्लेख इस निबन्ध में है। ”कवि नन्द राम ने अपने युग के ट्ठास को वाणी दी है। उस की अनगढ़ भाषा में सहजता है, सरलता है। खड़ी बोली और हाड़ौती का मिश्रित ध्वनि-रूप-संयोजन को प्रभावी बनाता है।“ पृ. 116.
‘हिन्दी की संयुक्त क्रियाऐं, हिन्दी उच्चारण, हिन्दी-वर्तनीः दिशा बोध की आशा में, ध्वनि-समीकरण’, आप की भाषा वैज्ञानिक उपलब्धियों व शोध-यात्रा के आलोचनात्मक निबन्ध हैं।
‘रंगीन चश्मा’, ‘कुटिल संग प्रीति’ आप के ललित निबन्ध हैं।
डॉ. शर्मा के अनुसार, ”ललित निबन्ध गद्य की अत्यन्त सशक्त विधा है, जिस के द्वारा रचनाकार पाठक के सामने खड़ा हो कर मित्रतापूर्वक वातावरण में निजी विचारों को बेझिझक प्रकट करता चलता है। ऐसे वातावरण में विषयान्तर होना अस्वाभाविक नहीं होता और सर्वथा निजी विचार भी अनापत्ति-प्रमाण पत्र प्राप्त होते हैं।“;मोनोग्राफ़ डॉ. कन्हैया लाल शर्मा, पृ. 10.
रंगीन चश्मा ;1967 ई. की समीक्षा में डॉ. मदन केवलिया ने लिखा है:-
”यह व्यक्ति प्रधान निबन्धों का संग्रह है, किन्तु इस में कतिपय व्यंग्य मारक हैं। ... इस ड्डति में डॉ. शर्मा का सरल, निश्छल, व्यक्तित्व भी उजागर हुआ है और उन की व्यंग्य शक्ति भी। ‘रंगीन चश्मा’, ‘कलई’ जैसे व्यंग्य प्रधान लेख प्रभविष्णु बन पड़े हैं। काले चश्मे की ओर संकेत करते हुए व्यंग्यकार लिखते हैं, ‘नवीन कवियों में से किसी को यदि बासर की सम्पत्ति उलक ज्यों न चितवत’ लिखने वाले कवि का हृदय प्राप्त हो गया, तो वह यह भी कह सकता है कि चन्द्रमा को दो-दो राहु ने ग्रस लिया है।“ राजस्थान का हिन्दी साहित्य, मदन केवलिया, पृ. 262.
‘कुटिल संग प्रीति’ की भूमिका में डॉ. विजयेन्द्र स्नातक ने कहा है:-
”वैयक्तिक अभिरुचि के साथ लेखक ने गम्भीरता के साथ व्यंग्य का गहरा पुट दिया है। यह व्यंग्य केवल विनोद की सृष्टि नहीं करता वरन मर्म के स्तर पर सोच के चमकीले स्फुलिंग भी छोड़ जाता है।“
डॉ. शर्मा ने अपने निबन्ध संग्रह की भूमिका में अपने निबन्धों को अपनी अन्तर्यात्रा माना है:-
”ललित निबन्ध गद्य की अत्यन्त सशक्त विधा है, जिस के द्वारा रचनाकार पाठक के सामने खड़ा हो कर मित्रतापूर्ण वातावरण में निजी विचारों को बेझिझक प्रकट करता चलता है। ऐसे वातावरण में विषयान्तर होना अस्वाभाविक नहीं होता और सर्वथा निजी विचार भी अनापत्ति प्रमाण-पत्र प्राप्त होते हैं। ... ललित निबन्धों में विषय-वस्तु का आश्रय ले कर मैं बोलता रहा हूॅं। मेरी यह अन्तर्यात्रा ‘कलई’ से प्रारम्भ हुई है और ‘अकेलापन’ तक पहुँची है।“
दो शब्द अपनी ओर से:-
‘कुटिल संग प्रीति’, निबन्ध में जहाँ भाषा की प्रांजलता है, वहीं विषय को उस की एकान्विति के साथ प्रस्तुति में एक प्रवाह है, जो पाठक को अपने साथ दूर तक ले जाता है। व्यवहारिकता की जहाँ जुम्बिश है वहीं वह आत्मीयता भी है, जो पाठक को अनायास उसे दूर तक सोचने के लिए प्रेरित कर जाती है।
”कुटिल में प्रेम की अपात्रता इसलिए होती है कि जिस प्रेम से नर-नारायण वश में हो जाते हैं, वह यहाँ अरण्य रोदन बन जाता है। प्रेम ईश्वरीय गुण है, पर कुटिल पर बेअसर। गुण तो गुण को ही प्रभावित करता है, पर कुटिल की तो श्रेणी ही भिन्न होती है, शुद्ध निर्गुण, गुणातीत।“पृ. 12.
”जब संसार सोता है, तो ये जागते हैं, और भविष्य के लिए ताने-बाने बुनते हैं। मन, वाणी, कर्म के ताल-मेल के चक्कर में ये कभी आते ही नहीं है। केवल अपने स्वार्थ की धुरी पर घूमते हैं। जो जितना बड़ा कुटिल, उस की प्रकृति में उतना ही अधिक असामंजस्य एक ओर से पकड़ो तो दूसरी ओर से निकल भागे और अता-पता भी न छोड़े। उन को समझ लेना निर्गुण ब्रह्म को समझ लेने से भी दुष्कर है। कदली वृक्ष के तने के समान उन की पर्तें खोलते जाइए, पर अन्त में प्राप्ति के नाम पर शून्य।“
यहाँ भाषा में सामासिकता है, काव्य भाषा की तरह यहाँ पारदर्शिता है, शब्दों में सरसता का बाहुल्य व वैचारिक गम्भीरता, शिष्ट हास्य के सहारे जिस वर्णना की प्रस्तुति करती है, वहाँ लालित्य सहज सुगन्धित हो उठता है। ”कुटिल परोपजीवी होते हैं। वे सरल जनों के आहार पर पुष्ट होते हैं। वे भर-पेट खा लेने पर भी अतृप्त ही रहते हैं“।
हम डॉ. शर्मा के इस मत से सहमत हैं कि ”ललित निबंध गद्य की अत्यन्त सशक्त विधा है जिस के द्वारा रचनाकार पाठक के सामने खड़ा हो कर मित्रता पूर्ण वातावरण में निजी विचारों को बेझिझक प्रकट करता है। ऐसे वातावरण में विषयांतर होना अस्वाभाविक नहीं होता और सर्वथा निजी विचार भी अनापत्ति प्रमाण-पत्र प्राप्त होते हैं।“भूमिका स
े
”इस परिभाषा के अनुसार ही संग्रह में हम लेखक को पाठक से वार्तालाप की शैली में विषयगत छूट लेते हुए पाते हैं। डॉ. शर्मा उस छूट में चुटकी भी लेते हैं और उसी के बहाने गहरी बात की ओर संकेत करते हुए मूल्य बोध की स्थिति में पहुँचा भी देते हैं। यह परम्परा प्रताप नारायण मिश्र से ले कर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से होते हुए डॉ. कन्हैया लाल शर्मा तक आती है। जो बात साहित्य की किसी विधा में अट नहीं पाई, वही बात निबन्ध ने सहज हो कर कही। डॉ. शर्मा इन निबन्धों में, कथ्य में गम्भीर और कहन में सहज हैं।“ पृ. 2.
निबन्ध की मूलभूत शर्त है- मौलिक चिन्तन। उधार की रोटी वह खाता नहीं है और खा ली तो उसे वह पचा नहीं पाता। संग्रह के आरम्भिक चार निबन्ध छोड़ दें, तो ‘अकेलापन’ से ले कर ‘बर्र’ शीर्षक तक के सारे निबन्ध लेखक की बहुआयामी दृष्टि और सौन्दर्य-बोध को प्रकट करते हैं। विशेष बात यह है कि लेखक का सौन्दर्य, सत्य और शिव सम्पृक्त है और उस का आदिम स्रोत संस्ड्डति सम्पन्न सनातन पुरुष और सनातन भूमि ही हो सकती है। लेखक निबन्धों के शीर्षकों के साथ न केवल न्याय करता है बल्कि उन के उच्च-विकास की समूची यात्रा को रेखांकित करते हुए मानवीय व्यवहार और विश्व कल्याण के पहलुओं पर गंभीर विवेचना की प्रस्तुति कहीं व्यंग्य मुद्र्रा में और कहीं शान्त-धीर मुद्रा में देता है। वह कुशल नाविक की तरह विषयों की लहरियों से खिलवाड़ भी करता है और कहीं गहरे जल से अपनी तरणी को निकाल ले जाने की संघर्षशीलता भी एक ज़िद की तरह साकार करता है। इसी लिए ये निबन्ध उत्तरोत्तर विषय की दृष्टि से सरल और कथन की दृष्टि से सांस्ड्डतिक चिन्तन में परिपूर्ण होते चले गए हैं। यह निबन्धकार का जीवन-जगत को देखने का गहरा दृष्टि-बोध है।
‘बर्र’, ‘रंगीन चश्मा’, ‘अकेलापन’, ‘लड़का बिकता है’ आदि-आदि निबन्ध व्यक्ति और समाज के जीवन की साधारण ज़मीन से शुरू हो कर उन सांस्ड्डतिक ऊँचाइयों पर जाते हैं, जो मनुष्य को अपेक्षित है। ‘काव्य-कला और चित्र-कला’ और ‘श्री राम का सांस्ड्डतिक अभियान’ हमारी दृष्टि में सब से सुन्दर और बहुत गहरे-गम्भीर निबन्ध हैं, जिस में लेखक की क्षमता और सीमा लेखकीय मौलिकता में झाँकती है। लोक और शास्त्र, व्यक्ति और समाज, व्यष्टि और समष्टि का अनुरंजनकारी किन्तु समृद्ध और प्रामाणिक संसार इन निबन्धों में धड़कता है। वे निबन्ध भाषा के द्वारा रेत पर बने पाँव के निशान नहीं हैं, बल्कि ये समय की शिला पर लिखे गद्य-गीत है।“ डॉ. श्री राम परिहार, आलेख संवाद, सितम्बर, 2005 ई. पृ. 29.
डॉ. शर्मा की ‘निबन्ध लेखन की यात्रा का अगला मोड़, आप के भीतर आध्यात्म के प्रति बढ़ते रुज्हान के कारण से आया है। 1भगत्पथ की बाधा और समाधान, 2 साधक और दुःख 3 संकीर्तन 4 आलोक की ओर भाग-1 5 आलोक की ओर भाग-2, आप के महत्त्व पूर्ण अन्य आलेख संग्रह हैं।
‘आलोक की ओर’, डॉ. कन्हैया लाल शर्मा के साधनात्मक जीवन की उपलब्धि है। अनुभूतियाँ, मानसिक होती हैं। अनुभव उस के पार होने की अन्तरंगता का मात्र अहसास है। वहाँ भाषा भी कथन में असमर्थ हो जाती है। परन्तु ये अनुभूतियाँ साधक पथ की कठिनाइयों के निराकरण से होने वाले सरस आत्मीय क्षण हैं, जिन्हें डॉ. शर्मा ने साधकों को, मधुर सान्निाध्य में बाँटना चाहा है, और वे इस में सफल भी रहे हैं।
‘इक्कीसवीं शताब्दी का लोकमन 2008
24 निबन्ध व आलेखों का यह संग्रह डॉ. शर्मा की विविध ज्ञानात्मक उपलब्धियों का दस्तावेज है। डॉ. शर्मा का इसके पूर्व ललित निबन्ध का संग्रह ‘रंगीन चश्मा’ आ चुका है। गद्य पर डॉ. शर्मा का अधिकार है। भाषा जहां सुगठित है, वहीं आपका भाषा वैज्ञानिक अध्ययन शब्द पर आपकी सुविचारित सोच को लालित्य भी प्रदान करता है।
‘देह स्तर पर जी रही है, युवा पीढ़ी, नगरोन्मुखी ग्रामसेवकों पर ऐसी बाढ़ एवं पर्यावरण भ्रष्टाचार की महामारी, पारिवारिक हत्याएं/ आत्महत्याएं, माता-पिता और, आज की अभिषप्त वृ(ाावस्था और संयुक्त परिवार की मृग-मरीचिका, प्रौढ़ विवाह क्यों? आपके सामाजिक समस्याओं पर केन्द्रित आलेख हैं, वहीं साधनापथ, साधक के जीवन में पारदर्शिता, साधक का आहार कैसा हो? पुरुषार्थ , आत्मविकास में बाधक वित्तेषणा, आपके साधन परक आलेख हैं।
इस लेखमाला में निबन्धकार डॉ. कन्हैयालाल शर्मा के निबन्धकार रूप की चर्चा कर रहे हैं। आप षाषा वैज्ञानिक थे। पच्चीस से अधिक शोधछात्रों के आप गाइड रहे। हाड़ौती का आज जो मानकीकृत रूप है, उसके आप प्रस्तोता रहे, पर आपकी सृजनात्मकता का यह स्वरूप उपेक्षित ही रहा, प्रायः आपका परिचय एक शिक्षक तथा भाषावैज्ञानिक के रूप में ही अधिक दिया जाता रहा है।
डॉ. कन्हैया लाल शर्मा
‘
साहित्य विधाऐं’ तथा ‘द्विपथा’, आप के आलोचनात्मक निबन्ध संग्रह हैं।
‘साहित्य-विधाऐं’, पद्य-गद्य के विविध रूपों का विश्लेषण-परक अध्ययन है, जो समय-समय पर लिखे गए निबन्धों का संग्रह है। ये निबन्ध विवेचनात्मक हैं। ‘काव्य’ की विविध विधाऐं, जिन में गद्य व पद्य दोनों सन्निहित हैं, का वस्तुपरक विश्लेषणात्मक अध्ययन यहाँ है। भूमिका से
‘द्विपथा’ भी आप के समीक्षात्मक आलोचनात्मक निबन्धों का संग्रह हैं। बारह निबन्ध हिन्दी आलोचना में, गद्य की विकास यात्रा के महत्वपूर्ण मोड़ की सूचना देते हैं। गीतांजलि ;काव्यानुवाद एवं मूलद्ध एक विवेचन, ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की हिन्दी भाषा की देन, ‘हरिदास जी का काल निर्णय’, ‘नन्द पच्चीसी में सामाजिक चेतना’, आप के महत्व पूर्ण समीक्षात्मक निबन्ध हैं।
क्ृति में गीतांजलि ;काव्यानुवाद एवं मूलद्ध: एक विवेचन, के सम्बन्ध में आप ने लिखा है कि ”मूल एवं अनुवाद के सौन्दर्य पर मुग्ध हो कर मैं ने चार दशक पूर्व इस लेख की पाण्डुलिपि तैयार कर ली थी, पर उस का प्रकाशन अब हो पाया है।“
यह निबन्ध, आलोचनात्मक निबन्धों की परम्परा में होते हुए भी अपनी वस्तुपरकता, तथ्यों के संचयन, उन की विवेचनात्मकता, तथा इसी क्रम में विश्लेषणपरकता से एकान्विति का स्पर्श पा कर, उत्कृष्टता को पाता है। अनुवाद कार्य वह भी एक महान कृति का। जहाँ महा कवि रवीन्द्र नाथ की गीतांजलि हो, उस का उस के सौन्दर्य को सुरक्षित रखते हुए अपनी भाषा में, अपने छन्दों में, अनुवाद कर्म, गम्भीर गुरुतर कार्य है। सम्भवतः उस की समीक्षा, मूल कृति एवं हिन्दी में अनुवादित छन्दों को एक साथ रखते हुए सौन्दर्य की समीक्षा, गुरुतर समीक्षक कर्म है। डॉ. शर्मा ने इस निबन्ध में एक नई दृष्टि को संयोजित किया है। कृति की समीक्षा, मूल एवं अनुवादित कृति, दोनों की राह से गुज़र कर, उन्हों ने दोनों ही कृतियों के मूल सौन्दर्य को उद्घाटित करने के प्रयास को रेखांकित करते हुए की है।
‘नन्द पच्चीसी में सामाजिक चेतना’, आप का अनुसन्धानपरक आलोचनात्मक निबन्ध है। विक्रम सम्वत 1643 के कार्तिक मास की लिखी यह पाण्डुलिपि, हाड़ौती के अज्ञात कवि नन्द राम की है। अज्ञात कवि की कविता में वर्णित भारतीय जन की त्रासदी का मार्मिक उल्लेख इस निबन्ध में है। ”कवि नन्द राम ने अपने युग के ट्ठास को वाणी दी है। उस की अनगढ़ भाषा में सहजता है, सरलता है। खड़ी बोली और हाड़ौती का मिश्रित ध्वनि-रूप-संयोजन को प्रभावी बनाता है।“ पृ. 116.
‘हिन्दी की संयुक्त क्रियाऐं, हिन्दी उच्चारण, हिन्दी-वर्तनीः दिशा बोध की आशा में, ध्वनि-समीकरण’, आप की भाषा वैज्ञानिक उपलब्धियों व शोध-यात्रा के आलोचनात्मक निबन्ध हैं।
‘रंगीन चश्मा’, ‘कुटिल संग प्रीति’ आप के ललित निबन्ध हैं।
डॉ. शर्मा के अनुसार, ”ललित निबन्ध गद्य की अत्यन्त सशक्त विधा है, जिस के द्वारा रचनाकार पाठक के सामने खड़ा हो कर मित्रतापूर्वक वातावरण में निजी विचारों को बेझिझक प्रकट करता चलता है। ऐसे वातावरण में विषयान्तर होना अस्वाभाविक नहीं होता और सर्वथा निजी विचार भी अनापत्ति-प्रमाण पत्र प्राप्त होते हैं।“;मोनोग्राफ़ डॉ. कन्हैया लाल शर्मा, पृ. 10.
रंगीन चश्मा ;1967 ई. की समीक्षा में डॉ. मदन केवलिया ने लिखा है:-
”यह व्यक्ति प्रधान निबन्धों का संग्रह है, किन्तु इस में कतिपय व्यंग्य मारक हैं। ... इस ड्डति में डॉ. शर्मा का सरल, निश्छल, व्यक्तित्व भी उजागर हुआ है और उन की व्यंग्य शक्ति भी। ‘रंगीन चश्मा’, ‘कलई’ जैसे व्यंग्य प्रधान लेख प्रभविष्णु बन पड़े हैं। काले चश्मे की ओर संकेत करते हुए व्यंग्यकार लिखते हैं, ‘नवीन कवियों में से किसी को यदि बासर की सम्पत्ति उलक ज्यों न चितवत’ लिखने वाले कवि का हृदय प्राप्त हो गया, तो वह यह भी कह सकता है कि चन्द्रमा को दो-दो राहु ने ग्रस लिया है।“ राजस्थान का हिन्दी साहित्य, मदन केवलिया, पृ. 262.
‘कुटिल संग प्रीति’ की भूमिका में डॉ. विजयेन्द्र स्नातक ने कहा है:-
”वैयक्तिक अभिरुचि के साथ लेखक ने गम्भीरता के साथ व्यंग्य का गहरा पुट दिया है। यह व्यंग्य केवल विनोद की सृष्टि नहीं करता वरन मर्म के स्तर पर सोच के चमकीले स्फुलिंग भी छोड़ जाता है।“
डॉ. शर्मा ने अपने निबन्ध संग्रह की भूमिका में अपने निबन्धों को अपनी अन्तर्यात्रा माना है:-
”ललित निबन्ध गद्य की अत्यन्त सशक्त विधा है, जिस के द्वारा रचनाकार पाठक के सामने खड़ा हो कर मित्रतापूर्ण वातावरण में निजी विचारों को बेझिझक प्रकट करता चलता है। ऐसे वातावरण में विषयान्तर होना अस्वाभाविक नहीं होता और सर्वथा निजी विचार भी अनापत्ति प्रमाण-पत्र प्राप्त होते हैं। ... ललित निबन्धों में विषय-वस्तु का आश्रय ले कर मैं बोलता रहा हूॅं। मेरी यह अन्तर्यात्रा ‘कलई’ से प्रारम्भ हुई है और ‘अकेलापन’ तक पहुँची है।“
दो शब्द अपनी ओर से:-
‘कुटिल संग प्रीति’, निबन्ध में जहाँ भाषा की प्रांजलता है, वहीं विषय को उस की एकान्विति के साथ प्रस्तुति में एक प्रवाह है, जो पाठक को अपने साथ दूर तक ले जाता है। व्यवहारिकता की जहाँ जुम्बिश है वहीं वह आत्मीयता भी है, जो पाठक को अनायास उसे दूर तक सोचने के लिए प्रेरित कर जाती है।
”कुटिल में प्रेम की अपात्रता इसलिए होती है कि जिस प्रेम से नर-नारायण वश में हो जाते हैं, वह यहाँ अरण्य रोदन बन जाता है। प्रेम ईश्वरीय गुण है, पर कुटिल पर बेअसर। गुण तो गुण को ही प्रभावित करता है, पर कुटिल की तो श्रेणी ही भिन्न होती है, शुद्ध निर्गुण, गुणातीत।“पृ. 12.
”जब संसार सोता है, तो ये जागते हैं, और भविष्य के लिए ताने-बाने बुनते हैं। मन, वाणी, कर्म के ताल-मेल के चक्कर में ये कभी आते ही नहीं है। केवल अपने स्वार्थ की धुरी पर घूमते हैं। जो जितना बड़ा कुटिल, उस की प्रकृति में उतना ही अधिक असामंजस्य एक ओर से पकड़ो तो दूसरी ओर से निकल भागे और अता-पता भी न छोड़े। उन को समझ लेना निर्गुण ब्रह्म को समझ लेने से भी दुष्कर है। कदली वृक्ष के तने के समान उन की पर्तें खोलते जाइए, पर अन्त में प्राप्ति के नाम पर शून्य।“
यहाँ भाषा में सामासिकता है, काव्य भाषा की तरह यहाँ पारदर्शिता है, शब्दों में सरसता का बाहुल्य व वैचारिक गम्भीरता, शिष्ट हास्य के सहारे जिस वर्णना की प्रस्तुति करती है, वहाँ लालित्य सहज सुगन्धित हो उठता है। ”कुटिल परोपजीवी होते हैं। वे सरल जनों के आहार पर पुष्ट होते हैं। वे भर-पेट खा लेने पर भी अतृप्त ही रहते हैं“।
हम डॉ. शर्मा के इस मत से सहमत हैं कि ”ललित निबंध गद्य की अत्यन्त सशक्त विधा है जिस के द्वारा रचनाकार पाठक के सामने खड़ा हो कर मित्रता पूर्ण वातावरण में निजी विचारों को बेझिझक प्रकट करता है। ऐसे वातावरण में विषयांतर होना अस्वाभाविक नहीं होता और सर्वथा निजी विचार भी अनापत्ति प्रमाण-पत्र प्राप्त होते हैं।“भूमिका स
े
”इस परिभाषा के अनुसार ही संग्रह में हम लेखक को पाठक से वार्तालाप की शैली में विषयगत छूट लेते हुए पाते हैं। डॉ. शर्मा उस छूट में चुटकी भी लेते हैं और उसी के बहाने गहरी बात की ओर संकेत करते हुए मूल्य बोध की स्थिति में पहुँचा भी देते हैं। यह परम्परा प्रताप नारायण मिश्र से ले कर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से होते हुए डॉ. कन्हैया लाल शर्मा तक आती है। जो बात साहित्य की किसी विधा में अट नहीं पाई, वही बात निबन्ध ने सहज हो कर कही। डॉ. शर्मा इन निबन्धों में, कथ्य में गम्भीर और कहन में सहज हैं।“ पृ. 2.
निबन्ध की मूलभूत शर्त है- मौलिक चिन्तन। उधार की रोटी वह खाता नहीं है और खा ली तो उसे वह पचा नहीं पाता। संग्रह के आरम्भिक चार निबन्ध छोड़ दें, तो ‘अकेलापन’ से ले कर ‘बर्र’ शीर्षक तक के सारे निबन्ध लेखक की बहुआयामी दृष्टि और सौन्दर्य-बोध को प्रकट करते हैं। विशेष बात यह है कि लेखक का सौन्दर्य, सत्य और शिव सम्पृक्त है और उस का आदिम स्रोत संस्ड्डति सम्पन्न सनातन पुरुष और सनातन भूमि ही हो सकती है। लेखक निबन्धों के शीर्षकों के साथ न केवल न्याय करता है बल्कि उन के उच्च-विकास की समूची यात्रा को रेखांकित करते हुए मानवीय व्यवहार और विश्व कल्याण के पहलुओं पर गंभीर विवेचना की प्रस्तुति कहीं व्यंग्य मुद्र्रा में और कहीं शान्त-धीर मुद्रा में देता है। वह कुशल नाविक की तरह विषयों की लहरियों से खिलवाड़ भी करता है और कहीं गहरे जल से अपनी तरणी को निकाल ले जाने की संघर्षशीलता भी एक ज़िद की तरह साकार करता है। इसी लिए ये निबन्ध उत्तरोत्तर विषय की दृष्टि से सरल और कथन की दृष्टि से सांस्ड्डतिक चिन्तन में परिपूर्ण होते चले गए हैं। यह निबन्धकार का जीवन-जगत को देखने का गहरा दृष्टि-बोध है।
‘बर्र’, ‘रंगीन चश्मा’, ‘अकेलापन’, ‘लड़का बिकता है’ आदि-आदि निबन्ध व्यक्ति और समाज के जीवन की साधारण ज़मीन से शुरू हो कर उन सांस्ड्डतिक ऊँचाइयों पर जाते हैं, जो मनुष्य को अपेक्षित है। ‘काव्य-कला और चित्र-कला’ और ‘श्री राम का सांस्ड्डतिक अभियान’ हमारी दृष्टि में सब से सुन्दर और बहुत गहरे-गम्भीर निबन्ध हैं, जिस में लेखक की क्षमता और सीमा लेखकीय मौलिकता में झाँकती है। लोक और शास्त्र, व्यक्ति और समाज, व्यष्टि और समष्टि का अनुरंजनकारी किन्तु समृद्ध और प्रामाणिक संसार इन निबन्धों में धड़कता है। वे निबन्ध भाषा के द्वारा रेत पर बने पाँव के निशान नहीं हैं, बल्कि ये समय की शिला पर लिखे गद्य-गीत है।“ डॉ. श्री राम परिहार, आलेख संवाद, सितम्बर, 2005 ई. पृ. 29.
डॉ. शर्मा की ‘निबन्ध लेखन की यात्रा का अगला मोड़, आप के भीतर आध्यात्म के प्रति बढ़ते रुज्हान के कारण से आया है। 1भगत्पथ की बाधा और समाधान, 2 साधक और दुःख 3 संकीर्तन 4 आलोक की ओर भाग-1 5 आलोक की ओर भाग-2, आप के महत्त्व पूर्ण अन्य आलेख संग्रह हैं।
‘आलोक की ओर’, डॉ. कन्हैया लाल शर्मा के साधनात्मक जीवन की उपलब्धि है। अनुभूतियाँ, मानसिक होती हैं। अनुभव उस के पार होने की अन्तरंगता का मात्र अहसास है। वहाँ भाषा भी कथन में असमर्थ हो जाती है। परन्तु ये अनुभूतियाँ साधक पथ की कठिनाइयों के निराकरण से होने वाले सरस आत्मीय क्षण हैं, जिन्हें डॉ. शर्मा ने साधकों को, मधुर सान्निाध्य में बाँटना चाहा है, और वे इस में सफल भी रहे हैं।
‘इक्कीसवीं शताब्दी का लोकमन 2008
24 निबन्ध व आलेखों का यह संग्रह डॉ. शर्मा की विविध ज्ञानात्मक उपलब्धियों का दस्तावेज है। डॉ. शर्मा का इसके पूर्व ललित निबन्ध का संग्रह ‘रंगीन चश्मा’ आ चुका है। गद्य पर डॉ. शर्मा का अधिकार है। भाषा जहां सुगठित है, वहीं आपका भाषा वैज्ञानिक अध्ययन शब्द पर आपकी सुविचारित सोच को लालित्य भी प्रदान करता है।
‘देह स्तर पर जी रही है, युवा पीढ़ी, नगरोन्मुखी ग्रामसेवकों पर ऐसी बाढ़ एवं पर्यावरण भ्रष्टाचार की महामारी, पारिवारिक हत्याएं/ आत्महत्याएं, माता-पिता और, आज की अभिषप्त वृ(ाावस्था और संयुक्त परिवार की मृग-मरीचिका, प्रौढ़ विवाह क्यों? आपके सामाजिक समस्याओं पर केन्द्रित आलेख हैं, वहीं साधनापथ, साधक के जीवन में पारदर्शिता, साधक का आहार कैसा हो? पुरुषार्थ , आत्मविकास में बाधक वित्तेषणा, आपके साधन परक आलेख हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें