हमारे पुरोधा कवि अमर सिंह
राजस्थान साहित्य अकादमी ने अमरसिंह जी को सन 1990 में सम्मानित किया था,... पर वे अस्वस्थ थे,... वे जयपुर में आयोजित कार्यक्रम में नहीं जा पाए थे। उनके घर जाना हुआ था, वहां उनका कक्ष उनकी पांडुलिपियों से, पुस्तकों से भरा था,... वे उस समय ‘‘संभवामि युगे-युगे’’ नए महाकाव्य पर सृजनरत थे, वे उसके प्रकाशन के लिए चिंतित थे,... तभी उन्होंने अपनी प्रकाशित पुस्तकों की चर्चा भी की थी,।
मैं तब सवाई माधोपुर में पद स्थापित था। दुख है बाद में उनसे मिलना नहीं हो पाया। वे एडवोकेट थे। पर वे पूरी तरह साहित्य को ही समर्पित थे। कोटड़ी में उनका बड़ा मकान था। वे घर से भी बहुत कम बाहर आते थे। कोटा के ही रचनाकर्मी उनसे अपरिचित ही रहे हैं। तब साहित्य अकादमी द्वारा उन्हें भूल जाना स्वाभाविक ही है।
उनकी पहली कृति... ‘निःश्वास’ जो एक चौदह पृष्ठ की एक लंबी कविता है, जिसमें करुणा का मानवीकरण है, चित्रात्मक भाषा है,... परन्तु हृदय की कोमलतम अनुभूतियों का सहज स्पंदन है, आज पचास वर्ष बाद भी यह कविता अपनी प्रभावशीलता में उतनी ही महत्वपूर्ण है।
जब मैंने दुबारा आसे संपर्क करना चाहा था, तब मुझे सूचना मिली थी कि वे दुनिया मैं नहीं रहे हेैं। दुख हुआ साहित्य की दुनिया से आप अजनबी मसीहे की तरह चले गए। उनका सम्मान भी तब करना तय हुआ था, जब आप गंभीर बीमार थे। उनके मित्रों ने न तो इस बाबत किसी मोनोग्राफ जारी करने का प्रस्ताव रखा ,नहीं आपके जाने के बाद आपकी कृतियों पर हुइ्र किसी चर्चा की कोई सूचना उपलब्ध है। आपका हिन्दी काव्य के विकास में उल्लेखनीय योगदान है।
राजस्थान की हिन्दी काव्य यात्रा में सन 55 का समय बहुत महत्वपूर्ण है। स्वतंत्रता के बाद, विश्व में सोवियत संघ तथा अमरीका के बीच शीत युद्ध प्रारंभ हो चुका है। साहित्य में इसका प्रभाव पड़ा था, एक खेमा प्रगतिवाद से अपने आपको सीमित कर रहा था, दूसरा ‘संस्कृति के संकट’ के नाम पर,... नई कविता के आंदोलन से जुड़ गया था। काव्य का आलंबन, सूत्र ‘भारतीय समाज’ भारतीय जन, भारतीय मन से पृथकता पाकर, अन्तर्राष्ट्रीय मानव मुक्ति के अमरगान में खोने लगने गया था। ... तब अचानक घटना घटी परंपरागत जीवन मूल्यों से, सन्निहित, जहां व्यक्ति की मनुष्य तक की अंतर्मुखी यात्रा का अनुभूत्यात्मक सच अभिव्यक्त हो रहा था,... वह उपेक्षित हो चला। पूरी की पूरी काव्य परम्परा को ,काव्य की प्रवृतियों को हाशिये पर खिसका दिया गया था, कवि उपेक्षित हो गए,कृतियां भी उपेक्षितहोगये।
‘अमरसिंह भी ऐसे ही विरले कवि थे,... जो अपनी ‘अन्तर्मुखी काव्य संपदा से ... काव्य जगत में सन 55 के आसपास दस्तक दे चुके थे।
‘निःश्वास का प्रकाशन 1954 में हुआ था,... दिनकर जी ने इस कविता की भूमिका में कहा है-
‘‘यह ऊषा की पहली झांकी हे, इसीलिए, मिहिका का अस्तित्व अभी है। किन्तु ऊषा का प्रतिबिम्ब पड़ने के कारण यह मिहिका भी खूबसूरत और रंगीन मालूम होती है।’’
करुणा-भाव है,... करुणा मनुष्यत्व का लक्षण है,... हृदय का उद्घाटन होता है। चिकित्सीय हृदय की ‘सर्जरी’ होती है, उसकी देहिक सत्ता है। पर ‘मनुष्य के जिस अन्तर्जगत की व्याख्या हृदय रूप में होती है, वहां बुद्धि अपना दबाब खो देती है। ‘कविता वहांॅ का द्वार खोलती है,... ‘संवेदना, हृदय की पगध्वनि है, जहां प्रेम है, करुणा है,... वही सहृदयता है-
‘जब विस्तृत नभ का अंचल
नीरव गूंगा चुप रहता
किन अवसादों से भीगा
अलसित समीर वह चलता
किन भावों में डूबा सा
आता है भंद समीरण,
कलियों के स्मित आनन पर
क्यों छोड़ चला आंसू कण
पृ. 32
‘करुणा’ अमूर्त है,... उसका अहसास जिस अनुभूति से है,... वह व्यथा है,... पसीजने का भाव है,... आंसू उसकी पहचान है,... हृदय की मुक्तावस्था है,...
‘पगली सी क्यों विकल वेदना
फिरती मारी मारी सी;
कभी कणों में की तृणों में
सोती नभ में हारी सी।
भग्न हृदय के कैसे क्षण की
करुणा भरी कहानी ले;
आज चले क्यों प्रस्तर पथ पर
निर्झर मूक उलाहला ले।
पृ. 84
... रुदन,... सहज है, पीड़ा का वाहक है,... यह मौन भीतर पिघलता ‘हिमखंड का क्षरित होता प्रवाह है
... कवि करुणा’ का आदर करता है, वह इसे मनुष्य की महत्वपूर्ण देन मानता है।
‘करुणा का दे रस इसमें
जगती हंसती क्यों निष्ठुर;
सहृदय मानस में पलती
कल्याण भावना शुचितर
पृ. 106
कवि इस कृति पर ‘प्रसाद’ की भाषा तथा उनकी महत्वपूर्ण कृति ‘आंसू’ का प्रभाव कुछ आलोचकों ने तलाशा है। पर कृति का सम्यक अवलोकन,... इस सीमित दृष्टिकोण को हटाने मंे समर्थ हैं ‘शैली’ का अनुसरण होता है। पर बड़ा कवि अपनी भाषा व वस्तु को जिस संगुफन में अभिव्यक्ति देता है,... वह उसका मौलिक रूप है। अमर सिंह की बहिन की असामयिक मृत्यु से उपजा ‘विषाद’ लोक संस्कृति को समाहृत करते हुए ‘सहज उच्छवास है,... यहां निःश्वास,... दुख की इस विषम घड़ी में,... बाहर आने का पथ भी संकेतिक करता है।
‘जीवन के जीर्ण पुरातन
सब पत्र झरा हर्षाते
उत्सर्ग लिए पनपे से
नव जीवन ले मुसकाते
किरणों ने उतर क्षितिज से
कुंजों में हास बिखेरे
फिर मनोभाव से खिलकर
अलियों के लगते फेरे।
पृ. 109
यहां ‘व्यथा,... अपनी चरम सीमा में आकर,...विसर्जित हो जाती है,... यही ‘करुणा’ का सौंदर्य है, वह व्यथा में नए जीवन का संकेत देती है। गहरी रात की यातना जब टूटती है, तभी स्वतंत्रता का सूर्य जगता है,... संभवतः प्रांत की पहली ‘लंबी कविता है, यहांां एक मनोभाव, मानवीकृत होकर मूर्तता को अभिव्यंजित हुआ है।
निःश्वास 1954 में प्रकाशित हुई थी, इसके बाद ‘अग्निशिवा’ (1985) वृन्दावन शतक राधासतसई (संवत 2036), आम्रपाली (1978) प्रकाशित हुई थी। आपकी अप्रकाशित कृतियों में, सतीमोह (महाकाव्य), ‘संभवामि युगे-युगे’ कृष्ण चरित पर आधारित 900 पृष्ठों का महाकाव्य, तथा खंड काव्य की श्रृंखला में मेवाड़ महिमा, बहादुरशाह, मधुमती, स्वर्ण पल है।
‘आम्रपाली’ को कवि ने एक भाववृत माना है। यह सोलह अध्याय में लगभग तीन सौ पृष्ठों की ‘आम्रपाली’ का जीवन चरित काव्य है। .. महाकाव्य में जहां जीवन की वृहद गाथा होती है, वहां एक ही ‘चरित्र’ की सांगोपांग काव्यात्मक अभिव्यक्ति यह कृति है। ... ‘खंड काव्य में जीवन की आंशिक अभिव्यक्ति है। अमर सिंह के काव्य संवेदना का केंद्र नारी है। ‘निःश्वास’ बहिन की मृत्यु पर’ एक लंबी शोक कविता है,... वहीं ‘आम्रपाली’,... एक गणवधू की गाथा है,... उसके मनोजगत की व्यथा को यहां आधार मिला है। ‘डॉ. प्रभाकर शास्त्री ने कृति के संदर्भ में जो कहा है, विवेचनीय है- ‘‘आम्रपाली के जीवन को रचनाकार ने एक संघर्षशील नारी की कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है। जब नारी के व्यक्तित्व की समाज की ह्रासोन्मुखी प्रवृत्तियों के समुच्चय से टकराहट होती है तो निश्चय ही यह संघर्ष की स्थिति होती है। नारी को आज भी कैसे संघर्ष का सामना करना पड़ रहा है।’’
‘‘मुझे न वैभव दास्य चाहिए
कुटिया हो जीवन का दाय
उस स्वतंत्र सुखमय जीवन की
समता कहां हुई निरुपाय।
यह धन वैभव कीट विलासी
मद मत्सर का चोर कृतान्त
तृष्णा की जर्जरता लोलुप
यह अतृप्ति भीषण विक्रान्त।
पृ. 234
.... यहां ‘आम्रपाली’ के अन्तर्द्वन्द को कवि ने वाणी दी है। उसके बचपन से युवा व फिर चिर भोग से मुक्त उसकी आकांक्षा को संवेदना दी है। .... यहां उसका बुद्ध की शरण में जाना,... मात्र आकस्मिकता नहीं थी,... उसकी संस्कारबद्धता’ उसकी मुक्तिकामीभी आकांक्षा का ही विस्तार था।
‘अग्निशिखा’,... पांचाली, द्रौपदी को केन्द्र में रखकर सृजित खंड काव्य ही है। ... वहां द्रौपदी की कथा अपने अनूठे रूप में है। परंपरागत छन्द में कवि ने स्त्री की तेजस्विता को, उसके भीतर की ज्वलंत ऊर्जा को अभिव्यक्ति दी है। ... यहां कवि की ‘स्त्री’ के प्रति संवेदना, विमर्ष से ऊपर उठकर ‘एक प्रचंड ... आंदोलन के लिए प्रेरित करती है-
‘झूठ सब आदर्शी-आख्यान
‘देव रमते नारी सम्मान
किसी पागल का झूठ प्रलाप
काटती मूल देव संतान
पृ. 84
‘‘ अधिकार न धर्म राज का है-
वे हारे जीते भले दांव
जो स्वयं स्वयं को हार चुके-
उनका अधिकार न धरे दांव?
राजसी लोभ की लिप्सा में
तुम भूल गए सब अर्थ धर्म,
तुमको न मिलेगा यश वैभव
अरे यह न वीर का कर्म, शर्म पृ. 91
फिर द्रौपदी का ‘सभा से सवाल करना-
‘अरे कोई भी नहीं सजीव-
सभासद, सारे क्योंकर मूढ?
निरुत्तर मूक मौन पाषाण
नहीं क्यों उत्तर देते मूढ़? पृ. 100
तब ‘द्रौपदी’ का प्रश्न,... समकालीनता की ‘नारी समस्या’ को संबोधित हो जाता है। ‘पुरुष’ की आंख, आज भी स्त्री को सम्मान की दृष्टि से नहीं देख रही है। स्त्री, अपमानित है,... बलात्कार के लिए मात्र एक वस्तु बन गई है-
‘कोई भी नया प्रतिकार नहीं’
नारी का कुछ अधिकार नहीं’
मानव पर कुछ आभार नहीं-
कर्तव्य धर्म का भार नहीं- पृ. 103
‘कवि की भाषा’ में ओज’ है,... शब्द चयन में प्रवाह है,... पूरी कविता एक लय से गुजरती है,... ‘द्रौपदी’ मानो साकार, होकर कौरवों की सभा में सामने खड़ी हो। ‘माधव’ की सहायतामें, कवि ने जिस दृष्टि को रुपायित किया है, वहां अलौकिकता का उस रूप में निर्वहन नहीं है, जो कृति को धार्मिकता में खींचकर ले जाता है,... संस्कृति, की गत्यात्मकता,... वर्तमान को भी, परीक्षण का अवसर देती है। ... हम अतीत का मात्र ‘पुनरावलोकन’ ही नहीं करते,... ‘आज की नारी और उसकी ‘अस्मिता’ की पड़ताल भी करते हैं।
‘राधा सतसई’ अमूर्त अनुभूत्यात्मक क्षणों की मधुरम अभिव्यक्ति का प्रयास है। ... यहां नारी का उच्चतम स्पर्श,... रागात्मकता की अभिव्यंजना है। ‘‘‘राधातत्व’ ... भारतीय चिन्तन का सर्वाधिक रहस्यवादी क्षेत्र है। राधा मात्र कृष्ण की आराधिका ही नहीं है। ऐसी ही कुछ अनुभूति इस राधा तत्व की हुई जो प्रकृति में अजस्त्र अविरल चेतन मूर्त रसवत्त होकर कण अणु- अणु में कभी छलकता, कभी झरता और आनंद वर्षा करता सा प्रतीत होता है।’’ (भूमिका से)
‘‘प्राण धार निर्झर बहंे, रोम-कूप से नेह
जिनके भार प्रकाश को, सहे अलोकिक देह।43।
करुणा प्रेम अगाध रस, राग रंग अवतार
भीग रहे कण-कण हंसे; पी- पी अमृत अपार।।46।।
866 दोहों में रचित ‘कृति’ श्री राधा के अवतरण से लेकर श्रीकृष्ण के ‘कुरुक्षेत्र गमन तथा वहां राधा के मुकुर में बिम्ब दर्शन तक की यात्रा को यहां कथानक के रूप में लिया गया है। निम्बार्क संप्रदाय की... सिद्धान्त गत व्याख्याओं का आदर करते हुए,... देवीभागवत ब्रह्म वैवर्त पुराण, गर्गमंडिता आदि से कथा सूत्र लेते हुए संभवत ‘श्रीराधा’ पर यह स्वतंत्र खंड काव्य है। ... यहां ‘राधा’ का मानवीकरण, उसकी हार्दिकता,... तथा रसात्मकता का पूर्ण निर्वहन है।
श्री अमरसिह,... ने काव्य कृतियों के माध्यम से भारतीय संस्कृति को समाहृत करते हुए,... ‘जिस स्त्री को उसकी संपूर्णता में, चित्रित किया है,... वह ‘देशज,... भारतीय नारी है,... उसकी ‘अस्मिता’ उसका गौरव,... उसका सम्मान ही इनकी कृतियों का आधार है। आज जिस ‘अपसंस्कृति के विस्तार में, प्रकाशन, सम्मान,... तथा वैश्वीकरण से प्रभावित होकर लेखनीय संवेदना विकृत होती जा रही है,... जहां नारी मात्र एक उपभोग की वस्तु बनाकर बाजारवाद की भंेट चढ़ाई जा रही है। वहां अमरसिंह की नारी,... आम्रपाली, पांचाली, राधा,... अपनी व्यापक समादृत दृष्टि में ‘नारी’ अस्मिता, उसकी गरिमा की व्यापक खोज की संभावना को व्यक्त करती है। इस दृष्टि से इन कृतियों का मूल्य है, श्री अमरसिंह स्वयं एकांत साधक थे,... उनकी कृतियां पिछली पूरी अर्ध सदी में मूल्यांकित नहीं हो पाई है,... यही दुखद है,... आलोचकों का ध्यान यहां अपेक्षित है।
मेरी अपनी ही समस्या थी, जिससे में वर्षों से उलझता रहा था।
मैंने ही यह कभी कथा, अवधारणा दुष्कर्म है
... अवधारणा, जो मैंने उन सबके बारे में, मैं जिनसे मिला हूं, देखा है, सुना है,... सबके बारे में अपनी राय सुरक्षित रख रखी है। जब भी बाहर जाता हूं। मेरी यह आंख मेरे साथ जाती है, यह नहीं देखती है,... जो वह देखना चाहती है, जो दिख रहा है, उसके प्रति कोई आग्रह नहीं रहता है।
तो मैं हूं जो देख रहा हूं, जो अपनी स्मृतियों, अवधारणाओं, तथा निरंतर चल रही विचारणा का पुंज है,... वह पुराना भी है, और नया थी,... निरंतर बैंक के ब्याज की तरह उसमें घट-जोड़ होता रहता है। जो कल था, वह आज बदला है, पर थोड़ा सा,... कुछ नया संग्रह आ गया है।
यह जो भीतर का संग्रह है, यही तो मैं हूं।
... मेरे भीतर हजार, लोगों की हजार बातों के चित्र हैं,... हल्का सा संवेदन हुआ रील एकदम खुल जाती है। टी.वी. के चैनल की तरह,... हर क्षण बदलती रील है,... मैं ही बनाता हूं, मैं ही चलाता हूं, मैं ही देखता हूं।
... हर क्षण मैंने पाया,... मेरा धारणाएं, नई-नई होती जाती है। हर धारणा अपने आप में एक बड़ी फिल्म का बीज रखती है।
... मैं जो देख रहा हूं, सुन रहा हूं, मैं अपनी ही धारणाओं से लड़ता हूं। ... आंखं झपकाता हूं, सिर के बाल नोचता हूं,... थप्पड़ लगाता हूं,... पर जो चैनल्स खुल गया है, वह जाता ही नहीं है। जानता हूं, यह मेरा ही सोच है, इसको मैंने ही बुना है,... पर कल्पना जितना हटाओ, उतनी ही मजबूती से सामने आ जाती है।
मैं जिसे दृष्टा कहता हूं,... वह मेरा आत्म नहीं है। जिस रूप में शास्त्र ने ‘आत्म’ को कहा है। यह मेरा बाह्य मन ही है। मन ही सृष्टा है, मन ही दृष्टा है। मन अपनी ही सृष्टि को देख रहा है। भय का जाल मैंने ही बुना है, मैं ही उसमें उलझ गया हूं। तनाव और कुछ नहीं है। तनाव मकड़ी का अपने ही जाले में उलझ जाना है। तब मैं अपने आपसे लड़ने लग जाता था,... आत्महीनता, आत्म दैन्य तभी उपजता है,... जब स्मृति का बोझा हटाए नहीं हटता,... मेरा संग्रह मुझे ही हराता जाता है।
यहां जो भी देख रहा है,... वह मन ही है। हां, गहरी सजगता जब पैदा होती है, तब स्मृति का दबाव उपेक्षित हो जाता है। वास्तविक त्याग वही है। जो आपका है, आपने निर्मित किया है, उसे आप छोड़ दे। ... जो आपका ही नहीं है, उसका त्याग आप नहीं कर सकते,... आप जिसे त्याग कहते हैं, वह माना एक रूपांतरण है,... भीतर का सब यथावत बना रहता है। ऊपर-ऊपर का खोल ही बदलता है,... तथा वैराग्य इस कल्पना का जो बार-बार,... अतीत की कड़वाहट को वर्तमान में ले आती है, या जो कल का अंधेरा है,... वहा की कल्पनाओं को ताने-बानों के साथ वर्तमान में खेंच लाती है, हम कहते हैं, हम सोच रहे हैं,... यह अनावश्यक विचारणा है,... यही अभिशाप है। इसकी जन्मदात्री यही कल्पना है,... इसके प्रति आसक्ति का कम होना, इसका आदर कम होते जाना ही वैराग्य है। वैराग्य भगवा धारणा करना नहीं है। भगवा धारणा करने से कोई विरागी नहीं होता है। ... भटकाव यथावत रहता है।
... मैंने तब जाना,... मेरे भीतर जो सत्ता है,... जो मैं हूं,... वह मेरा यह बाह्य मन ही है, पर जब, मन बहुत देरत तक एक जगह रहने का अभ्यस्त होने लगता है, तब लगा जल तो वही है, पर बरसात का गंदा, मटमेला जल नहीं है, यही तो ‘कार्तिक का जल है, जहां स्वच्छता, निर्मलता, उसे अपने आप मिल गई है,... गंदलाया जल स्वतः निर्मल हो जाता है।
स्वामीजी कहा करते थे, यह सहज है, यहां करना कुछ भी नहीं है। माात्र रहना है,... तब बाह्य मन अंतर्मन में लीन हो जाता है, पहचान हैै, शांत सजगता ।
हम अपने आपको देखने में समर्थ होने लगते हैं। हम बहते नहीं है। बहाव है,... थपेड़े मारता है,... पर हम बहते हैं, तो क्षण भर बाद ही बहाव को देखकर, लौट आते हैं।
बहाव को आज तक कोई रोक नहीं पाया,... वही सनातन है, पर हां, हम बहें नहीं, यही साधना है।
शास्त्र कहता है- ‘तान तितिश्सत्व भारतः, यही सहन करना कहा जाता है।
यह मात्र कोई बौद्धिक कसरत नहीं है।
बहुत सरल प्रारंभिक बोध है।
बाहर वही घट रहा है, जो मैं हूं,... मैंने चाहा है,... मुझे आज अभी पता नहीं है, पर मैंने चाहा था, वही आया है,
तब मैं अपनी चाहना के प्रति सजग हो जाता हूं।
‘यहां मात्र एक यह अवधारणा भी नहीं है। जैसा कि उस दिन मित्र जो सत्संग से आए थे, कह रहे थे, उनसे कहा गया था,... डीप मेडीटेशन करो।’
... वे बार बार इसका अर्थ समझना चाह रहे थे। जब ध्यान कोई दूसरी चीज होती है, जो निज से पृथक है, सीखनी है, तब उलझन पैदा होती है। उसे कम और ज्यादा किस प्रकार किया जा सकता है, पर जब वह - ‘मात्र’ रहना है कि, वहां अधिक से अधिक रहा जाए,... मन जो भी क्रिया हो मन वहां अधिक से अधिक रहे, किंचित मात्र भी प्रतिकूल न जाने पाए, तब हम सजगता में प्रवेश कर जाते हैं।
जहां क्रिया नहीं होती है, वहां मन स्वाभाविक रूप से शांत होने लगता है, यह शांति किसी बाह्य अनुशासन से नहीं आती है,... सहज है, निसर्ग है, स्वाभाविक है, इसकी एक मात्र पहचान, आपकी शांत सजगता है।
आप निवृति में नहीं हैं, आप समाज को हेय बताकर, पत्नी, परिवार, नौकरी, व्यवसाय को जंजाल बताकर पलायन में नहीं है। आप कमरा बंदकर... कभी श्वास पर, तो कभी मंत्र पर, कभी रूप पर चित्त को एकाग्र करने के लिए कठोर बल का प्रयोग नहीं कर रहे हैं। ... यहां बस मन को क्रिया के साथ, चाहे वह छोटी हो या बड़ी, यह महत्वपूर्ण नहीं है, उसके साथ अधिक से अधिक रखना है।’
‘तब बाह्य मन,... अंतर्मन में लीन होने लगता है।
बाह्य मन, विचार है, विचारणा है, अवधारणा है, स्मृतियां है,... अंतर्मन,... स्मृति तो है पर वह बार -बार सतह पर आकर उत्तेजित नहीं कर रही है। विचार भी है,पर यहां विचारणा का प्रवाह नही है, एक नियंत्रण है।
जब कहा, वह सतह पर आएगी,... अन्यथा नहीं,... उस सेवक की तरह जो अनुशासित है, आदेश की प्रतीक्षा में विश्राम में है। आदेश मिलते ही तुरंत हाजिर होता है।
मन मर नहीं सकता, वह जन्म के साथ, प्राण की युति के साथ आता है।
मृत्यु इस मन का प्राण के साथ लौट जाना है...
पर मुक्ति,... एक अवधारणा भी है,... कन्सेप्ट है। जीवन की अवस्था है। जहां बाह्य मन अनुशासित है।
वहां शांति है, रस है, प्रेम है। प्रचंड शक्ति कार्य करने की है। क्योंकि ‘अंतर्मन’, शक्तिशाली है, जब वह जागृत होता है, तब हम अपनी स्वाभाविक स्थिति में आते हैं, जो हमारा साध्य है।