शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

हमारे पुरोधा साहित्य के अनाम साधक बृजेश चंचल

हमारे पुरोधा
साहित्य के अनाम साधक बृजेश चंचल


तब मैं  अजमेर में पढ रहा था, कोटा का कवि सम्मेलन सुनने आया था पैंसठ की लड़ाई हो चुकी थी। कोटा के कवि सम्मेलन  की पूरे देश में धूम थी । यहॉं हमने बच्चन जी को सुना, नीरज जी को सुना, कैफी आजमी को सुना ही नहीं , उनका सानिध्य भी पाया था। इस अंचल के प्रसिद्ध कवि रघुराज सिंह हाड़ा को पहली बार वहीं सुना था, शायद ”कैसूला का फूल“ उनकी कविता थी। पर महत्वपूर्ण पहचान जिस कवि की मिली थी, वे बृजेश चंचल थे, वे भूख से व्याकुल बच्चे की करुण दशा की मार्मिक वेदना को शब्दायित कर रहे थे। मैंने देखा था, मैं ही नहीं सैंकड़ों लोगो की ऑंखें तरल थी। करुण रस के , वीर रस के बृजेश चंचल अद्भुद कवि थे।
वे आज कहॉं हैं, संभवतः परिवार जन को भी पता नहीं।
”लापता हुआ वह चेहरा“ हमारी क्षरित संवेदना का वे मूक गवाह बनकर रह गए। उनके भाई  प्रेमचंद कुलीन भी कहानी कार रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व उनके परिवार के एक सदस्य आकाशवाणी  मे मिले थे, उनके बारे मैं जानने का प्रयास किया था। पर उनके अज्ञातवास पर जाने के बाद से उनके बारे में कोई सूचना उनके पास नहीं थी।
मुझे याद है,  उन दिनो जब किसी पत्रिका में किसी रचना का प्रकाशन साहित्यकार के लिए महतवपूणर््ा घटना बन जाती थी, बृजेश चंचल की रचनाएॅं हर छोटी बड़ी पत्रिका में निरंतर प्रकाशित हो रहीं । वे मंच के उन दिनो सर्वाधिक लोकप्रिय कवि भी थे। एक बार मासिक पत्रिका कादंबिनी ने उनका गीत मुखपृष्ठ पर प्रकाशित किया था। तब इस नगर में उसकी बहुत चर्चा हुई थी।
दुर्भाग्य है, उनका कोई संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ। तब इस नगर में भी प्रांत की साहित्यिक गुटबंदी ने पॉंव पसारने शुरु कर दिए थे।
वे अपने समकालीन कवियों से बहुत आगे थे, पर उनकी प्रतिभा और जीवन की समस्याएॅं उन के लिए बोझा ही बन गईं।  कविता के साथ जुड़ा हुआ उनका  मन जहॉं उदात्त हो जाता था, वहॉं उनके परिवार , नौकरी बात उन्हें अचानक अप्रिय लग जाती थी।
हमारी आज भी यही आदत है हम कविताऔर कवि का मूल्यांकन भी , सोच- समझकर बाजार को देखते हुए करते हैं।
उनकी एक कविता मेरे पास है, जो संभवतः आपातकाल के आसपास लिखी गई थी।  उसके कुछ अंश मैं आपके साथ साझा करना चाहॅंगा
”स्वर्गीय शारदा पुत्रों की
जब कलमें कुर्क कराओगे।
कुछ तो बोलो,निज काल पात्र
किस अंधे से लिखवाओगे।

खुशहाली एक खिलोने सी
हर रोज तोड़ती मॅंहगाई।
मैना ने पूछा तोते से,
यह कैसी आजादी आई?

कॉंटे तो सब आजाद हुए,
फूलों पर अब तक पहरे हैं।
कुछ कहने वाले गॅूंगे हैं ,
कुछ सुनने वाले बहरे हैं।

अब पूछ रहा है लाल किला,
झंडा फहराने वालों से-
क्ब तक मेरे माथे ऊपर
ये रीते कलश चढा़ओगे?

हर बार लोरियॉं देने से
यह देश नहंी सोजाता है।
अब तो बतलाओ सही-सही
कब नए सवेरे लाओगे?

आदरणीय मित्रो, हम बृजेश चंचल की शोकसभा भी नहीं कर पाए क्या पता वे जीवित हों?  वे कहॉं हैं, न वे किसी दुर्घटना के शिकार हुए , न उनके सन्यासी होने की सूचना है। संभवतः गत पच्चीस वर्ष से वह कवि का चेहरा हमारे बीच से गुम हो गया है। इसीलिए हम उन्हें भूल गए। उनका व्यक्तित्व साक्षी है, अधिक उर्जा का वेग पात्र को तोड़ देता हे।  क्या कारण रहा ,क्या उनका शरीर दुर्बल था, जो उनकी प्रतिभा को सभॉंल नहीं पाया ,या हमारा दुराग्रह रहा जहॉ हम आज भी प्रतिभा को अवमूल्यित कर , अपात्र के महिमा मंडन में अपनी गुटीय प्रतिबद्धता को लगा देते हैं। हमने उनकी प्रतिभा को आदर नहीं दिया।
मित्रो उन्होंने बहुत अच्छा लिखा था, क्या पता आपके साथ सुरक्षित किसी पत्रिका मैं हो, भारतेन्दु समिति के संग्रहालय में हो सकता है, उनके परिवार जन ने कुछ सुरक्षित रख रखा हो, वह बाहर आए, संग्रह प्रकाशन हो, उनकी स्मृति में हमारा यही सहयोग होगा।

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

अनाम साहित्य सेवक दुर्गाशंकर त्रिवेदी

हमारे पुरोधा

अनाम साहित्य सेवक दुर्गाशंकर त्रिवेदी

आदाणीय मित्रो, , संभवतः हम सब इस अनाम साहित्य सेवक को लगभग भूल ही गए हैं। भवानीमंडी में जन्मे , त्रिवेदी जी कोटा के सोशलिस्ट समाचार कार्यालय के प्रभारी थे। सन् सत्तर के दशक में उनका कार्यालय साहित्यकारों का एक विशेष आकर्षण का केन्द्र था।  वे उस समय भारत की हर छोटी बड़ी पत्रिका में निरंतर छपते रहते थे। देश की हर पत्रिका का अंक आप उनके यहॉं प्राप्त कर सकते थे। वे स्वयं सहर्ष अन्य को पत्रिका  का पता बताते थे, छपने के लिए प्रोत्साहन देते थे। उस जमाने में कोटा में दस के आसपास साप्ताहिक और पाक्षिक पत्र निकलते थे। विशेषांकों का अपना महत्व था।आज तो देश के बड़े पत्र भी वैसे अंक नहीं निकाल सकते हैं। आज प्रांत के दोनो बड़े पत्र इंटरनेट से उतारी गई सूचनाओं के संग्रह मात्र रह गए हैं।
त्रिवेदी जी कोटा से अस्सी के आसपास जयपुर में राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट को देख रहे थे। वहॉं से वे  बाद में जयपुर के पास किसी गॉंव में निजि आवास बनाकर लेखन कार्य में संलग्न थे।
त्रिवेदीजी साहित्य के मौन साधक थे। उन्होंने बहुत लिखा , लेखन ही उनकी आजीविका का साधन रहा। अत्यंत विपन्नता में भी उनका व्यक्तित्व अपराजेय रहा। वे निरन्तर हर छोटे लेखक की मदद में रहे।
सन 1967 मे कोटा आया था। तब  कहानीकार नफीस अहमद से मेरा परिचय था, वही मुझे त्रिवेदी जी से मिलवाने लेगया था। बृजेश चंचल, शचीन्द्र उपाध्याय, प्रेम जी प्रेम, रामकुमार, उस दौर के अनेक साहित्यकार उस समय शाम के समय प्रेस में मिल जाते थे, त्रिवेदी जी सबको चाय और कचौड़ी खिलाया करते थे। पैसे की बात करते ही तुरंत कहते आज मनीआर्डर आया है, आप तो खाओ।
समय के साथ सब बदल जाता है, आज साहित्यकारों की विवशता यही है, बाजारवाद में साहित्य और साहित्यकार अपने ही घर- परिवार में अवमूल्यित हो गया है। अपने साहित्य के इतिहास के ग्रंथों की तैयारी के समय जब साहित्य की सामग्री का संग्रह कर रहा था, तब यही वाक्य प्रायः सुनने में आया, ”उनें साहित्य से हमें क्या मिला? कोई दुकान ही खोल देते तो परिवार कहॉं से कहॉं होता? साहित्यकार की  रचनाएॅं उसके सामने उसके जीवनकाल में ही उपेक्षित हो जाती हैं।
शायद गलती हमारी ही है। हम बहुत अधिक आत्ममुग्ध हो गए हैं। राजनेताओं की तरह हमारा व्यक्त्वि हो गया है। त्रिवेदी जी ने बहुत लिखा, वे अपने आलेखों का विशेषकर संस्मरणों का संग्रह निकालना चाह रहे थे। पर वह रह गया। उसका प्रकाशन किया जाना उचित है।
समाचार पत्र में एक छोटी सी खबर थी, जयपुर के समीप रेल की पटरीपार करते हुए , एक वृद्ध की मौत होगई, वह साहित्यकार दुर्गाशंकर त्रिवेदी थे। धक्का सा लगा,उनके पुत्र बालमुकुंद का फोन भी मेरे पास नहीं था, कुछ वर्षों से संबंध टूट गया था। पहले उसका भी कोटा में प्रेस था, वह बंद होगया था। परंपरा के हिसाब से वह भी उनसे दूर हो गया था।

न तो कोटा में कोई शोकसभा हुई , न मधुमती में कोई सूचना आई, किसी ने चर्चा भी नहीं की, कि कहीं ऐसा व्यक्तित्व भी हमारे बीच में था।  जिस व्यक्ति ने पूरा जीवन साहित्य सेवा में निकाल दिया, सबकी मदद भी करता रहा, उसकी याद मैं आप के साथ बॉंट रहा हूॅं। मेरी दृष्टि में साहित्यकारों की स्मृतियॉं ही हमारी पूॅंजी है, जो आगे का रास्ता हमें दिखाती हैं।

बुधवार, 4 दिसंबर 2013

हमारे पुरोधा मास्साब मदन लाल पँवार


  हमारे पुरोधा मास्साब  मदन लाल पँवार

तब मैं भाटापाड़ा कोटा  के प्राईमरी स्कूल में भरती हुआ था। मेरी बड़ी बहिन जो मुझे घर में पढ़ाती थीं, पहली बार शाला में लेगईं थीं। तीसरी कक्षा में मास्साब मदनलाल जी ने अंत्याक्षरी प्रतियोगिता आयोजित की थी। मेरी बहिन को कविताओं का बहुत शौक था , सुभद्राकुमारी चौहान की कविताएॅं उन्हें कंठस्थ थीं। मुझे भी तब राधेश्याम रामायण की चौपाइयॉं याद करवाई गईं थीं। उस प्रतियोगिता में मास्साब ने मेरा भ्ी चयन किया था। तब और आज के स्कूलों में बहुत बदलाव आगया है। आज बहुत कुछ उपलब्ध है, पर जो चाहिए था वह खोगया है। मास्साब ने हमारी तैयारी करवाई थी। हर छंद ”थ“ वर्ण पर समाप्त हो सिखाया गया था। तब की  वे पुरानी कविताएॅं वार्धक्य की इस सीमारेखा पर आज भी याद आती हैं,  पर स्वयं की रचित कविताएॅं, याद ही नहीं रहतीं।

मास्सब हमको पाटनपोल के किसी स्कूल में लेगए थे। तब पैदल ही जाना होता था। वहॉं हमारा स्कूल प्रथम आया था। पॉंचवीं के बाद मैं अलवर चला गया था। अपने बड़े भाई त्रिभुवननाथ जी के पास ही बादमें अध्ययन किया। आज  स्मृतियों सारे शिक्षक चले गए पर मास्साब आज भी याद आते हैं। शायद साहित्य के प्रति अनुराग मैंने वहीं पाया हो। वे शाला में हर शनिवार को साहित्यिक कार्यक्रम रखाकरते थे। महपुरुषों की जयन्ती मनाते थे।

बाद में जब कोटा लौटा , यहॉं से हिन्दी मैं एम.ए भी किया पर मास्साब याद नहीं आए। शायद तब मैं झालावाड़ में पद स्थापित था तब मंडाना के आसपास के किसी सरकारी कर्मचारी ने बताया था कि मदनलाल जी पंवार मंडाना के पास किसी खेत पर रहते हैं। काफी अवसाद में है। कभी- कभी कोटा जाते हैं, पर उनकी पहचान खो गई है। नशे में रहते हैं। मैं उन्हें खोजता हुआ गया, बातें की स्कूल की याद दिलाई वे पहचान गए। कवि पंवार वापिस लौट आए। उन्होंने कविताएॅं सुनाई , अपनी किताब दी। वे सन 1947 से पहले से लिख रहे थे। कोटा के सम्मानित कवि थे।
 परन्तु अचानक राजनीतिक पंडितों  के साहित्य में सक्रिय होने से तब से सही साहित्य कर्मियों की उपेक्षा प्रारम्भ होने लग गई थी।  मुझे बाद में कुछ मित्रों ने बताया था कि वे नशे में गोष्ठियों में आ जाते थे, उन्हे बाहर निकालना पड़ता था।
कहीं पढ़ा था, प्रतिभा का जब समाज सम्मान नहीं करता है, तब निराशा और अवसाद ही साहित्यकार के मित्र बन जाते है। दूसरे की हत्या से अधिक घृणित दूसरे के आत्मसम्मान को कुचलदेना अधिक दुखद है। न जाने क्यों सृजनशील व्यक्त्वि ही अधिक तकलीफ पाते हैं। उनके साहित्य के संबंध में मैंने कहीं नही पढ़ा, वे कब दुनिया से चले गए ,मुझे भी नहीं पता ,पर इतना मुझे याद है,सन 45 से पचपन के बीच वे कोटा के प्रसिद्ध रचनाकार रहे। आपकी कृति ”क्रांति किरण “ मेरे पास है। उनकी अन्य कोई कृति प्रकाशित हुई हो, यह सूचना मेरे पास नहीं है।
कवि मदन लाल पँवार की कृति ‘क्रान्ति किरण’ सन् 1953 ई. में प्रकाशित हुई थी। कृति में स्पष्टतः दो विभाजन हैं। स्वतन्त्रता से पूर्व तथा उस के पश्चात।
‘क्रान्ति’ की भूमिका में शम्भू दयाल जी सक्सेना ने लिखा है कि वे अपने समय के लोकप्रिय कवि हैं। । कवि पँवार की कविता में तत्कालीन सामाजिक दुर्दशा तथा पराधीनता से उत्पन्न ग्लानि बीज बन कर, अभिव्यक्ति पाना चाहती है। उस काल के कवियों के सामने परिवेशगत सच्चाई, स्पष्ट थी। छायावादी कवियों की तरह पलायन और कला के प्रति रुझान यहाँ परिलक्षित नहीं रहा है।

”आज बन्धन मुक्त माता हो,
 यही अभिलाषा मेरी
आज अपने ही करांे से
लूँ मिटा अस्तित्व अपना
शीश के बदलेे कहीं यदि
पा सकूँ मैं स्वत्व अपना

एक क्या शत जन्म ले कर
शीश हँस-हँस कर चढ़ाऊंॅं
निज करांे से चण्डिका का
रिक्त खप्पर भर बढ़ाऊॅं।“41
भावोद्रेेक कवि की पूँजी है। शब्द चयन तथा गति, सौन्दर्य प्रभावी है।
”हे, उड़ते विहग ज़रा उन से
कह देना, दूर विषाद हुआ
माता के बन्धन टूट गए
भारत फिर से आज़ाद हुआ।“

कवि सन् 1947 ई. की पन्द्रह अगस्त का स्वागत करते हुए गीत गा रहा है, वह उन नाम-अनाम शहीदों की स्मृति में, उन तक स्वतन्त्रता का सन्देश पहुँचा रहा है।
‘शिक्षक’, ‘युवक’, ‘किसान’ एवं ‘नरेश’ इस संग्रह की अन्य कविताऐं हैं। इस अ´चल की हिन्दी कविता को कवि पँवार का योगदान रहा है। आप की काव्य-भाषा सहज, प्रभावी है। आप ने अपनी कविताओं में परिवेशगत सच्चाईयों को यथारूप अभिव्यक्ति देने से बचते हुए, भावनाओं का अतिक्रमण करते हुए, नैतिक आग्रह को जन सामान्य के लिए सहज गम्य बनाने का प्रयास किया था। इस रूप में वे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण हैं।
कुछ मित्रों के पास और जानकारी होगी, बॉंटें , यह एक यज्ञ है, जहॉं हम हमारी उस पीढ़ी के प्रति जो साहित्य सृजन में लगी रही, पर अब वे विस्मृति के अंधकार में खोगई हैं, उस परंपरा से नई पीढ़ी को परिचित कराएॅं,।

रविवार, 24 नवंबर 2013

हमारे पुरोधा रामनाथ कमलाकर

हमारे पुरोधा   रामनाथ कमलाकर

आदरणीय मित्र-गण, आप इस लेखमाला से हृदय से जुड़ गए हैं, मेरे लिए यह उत्साह वर्द्धक है। हमारा हिन्दी साहित्य बीसवीं शताब्दी में ही प्रारम्भ हुआ, विकसित हुआ और आज हमारे ही कारण से अवसान के समीप भी आगया है। हिन्दी के समाचार पत्रों मंे अंग्रेजी लेखकों के लेखों के हिन्दी अनुवाद या इन्टरनेट से उतारी सूचनाओं का संग्रह ही अब बच गया है। अपनी भाषा में मौलिक सृजनात्मकता की पहल ही रुक सी गई है। प्रान्त में हिन्दी कविता को पहचान दिलाने वाले कवियों में सुधीन्द्र के समकालीन रामनाथ कमलाकर का योगदान महत्वपूर्ण है। सुधीन्द्र अपने समय में भारत में राष्ट्रªªीय- सांस्कृतिक काव्यधारा के महत्वपूर्ण कवि के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे। भारतेन्दु समिति संभवतः 1980 के आसपास तक सुधीन्द्र जयंती मनाती थी, पर उसके बाद से यह लेखकीय पर्व बंद हो गया है।

रामनाथ कमलाकर से मेरा पहला परिचय कोटा के कवि सम्मलन में हुआ था। तब मैं किशोरावस्था में था, जब मैंने उन्हें मंच पा देखा था, उन्हें कवि कुल किरीट के रूप में पुकारा गया था।   संभवतः सन पचपन के आसपास का समय रहा होगा। कमलाकर जी की तब पहचान स्थापित हो चुकी थी। तब कवि जगदीश चतुर्वेदी भी स्थापित कवि होचुके थे। ये दोनो ही कवि जन संपर्क विभाग में कार्य कर रहे थे।

सन 69 में मैं झालावाड़ महाविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक रहा। वही पर कमलाकर जी जन संपर्क अधिकारी थे। आपका पुत्र गोपाल शर्मा मेरा विद्यार्थी रहा, तब उनके घर कई बार जाना हुआ। जयपुर में जब शासन सचिवालय में कार्यरत था तब पुनः कमलाकरजी के सपर्क में आया, वे प्रति माह कविगोष्ठी आयोजित करते थे। उसमें उन्होंने  मुझे बुलाया था। कमलाकर जी का हालही में कुछ वर्षपूर्व देहांत हुआ है। वे रससिद्ध कवि थे। नंद जी ने  आपको अपनी आलोचना की कृतियों में याद किया है।

 हमारी नई पीढ़ी उनके साहित्यिक योगदान से अनभिज्ञ है। वे कवि परम्परा के कवि थे, रस , माधुर्य गीत की रागात्मकता को वे सहज ही व्यंजित कर जाते थे। न जाने क्यों अकादमी ने उन्हें उनके सम्मान से दूर ही रखा।


रामनाथ कमलाकर की अनवरत सृजनात्मकता पचास वर्षों से फैली हुई है। वे नन्द चतुर्वेदी के समकालीन हैं। उन की प्रारम्भिक पुस्तकों में उन का परिचय कवि कुल किरीट कमलाकर दिया हुआ है।
वे अपने ज़माने के ‘कवि सम्मेलन’ के प्रमुख कवि हुआ करते थे। नन्द चतुर्वेदी ने उन की काव्य रचना के बारे में लिखा था:-
”कमलाकर के जीवन में कवि ही की तरह अशेष प्यार की भावना और जलन एक साथ रही है। तारीफ़ यह है कि उस की जलन प्यार को कभी जला नहीं सकी, और यही कारण है कि कमलाकर के काव्य में रह-रह कर अनन्य प्रीति के विश्वासमय स्वर मुखर हुए। सभी गद्य गीतों में वह धरणी के सन्ताप का दुःख गा रहा है और पृथ्वी का आत्मा-हनन, जैसे उसे चैन नहीं लेने दे रहा है।“


‘हन्स तीर्थ’, ‘मेरे गीत: तुम्हारे चरण’, ‘दिलकश दौर’, ‘गौने की चूनर’ आप के प्रमुख प्रकाशित कविता संग्रह हैं।
‘एकोऽहम्,’ उन की पहली ‘गद्य गीत’ ड्डति है। बृज भाषा पर आप का अधिकार रहा। आप कवीन्द्र हरनाथ की परम्परा के वाहक रहे। ‘एकोऽहम’ पर उत्तर छायावाद का पूरा प्रभाव है। भाषा प्रसाद मयी, अलंकृत है। साथ ही दर्शन की पूरी भंगिमा है। तथ्यों को समेट कर अनुभव में ढालने की चेष्टा इस कृति में है। फिर भी हिन्दी भाषा की इस अंचल की ही नहीं, वरन प्रान्त की यह पहली ‘गद्य गीत’ कृति उल्लेखनीय है। अपने समय में इस कृति ने सुधी विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया था।

”ऐसे ही, सम्वेदनाओं के अनेक सन्दर्भों में रामनाथ ‘कमलाकर’ की कविताओं का रसास्वादन किया जाना चाहिए। प्रकृति की विराट प्रभुता, प्रीति का पावन आकर्षण, रहस्य-चिन्तन, वैषम्य पूर्ण जीवन की कुण्ठाऐं और कभी-कभी बीसवीं शताब्दी के कत्रिम जीवन की ग्लानि, इतना कुछ समेटता है कवि ‘कमलाकर’। एक रचना में चाँद के अपरूप सौन्दर्य का यह आत्मीयता पूर्ण वर्णन दृष्टव्य है:-

”लो प्रतीची के अधर पर झुका चन्द्रानन
छॉंह पलती तम किशोरी का जगा यौवन
सोचता क्या ओंठ पर अँगुली धरे आकाश
चाँदनी में मुस्कुराता चाँद मेरे पास।“
ओठ पर अंगुली धरे आकाश , नूतन प्रतीक योजना है,  चंद्रोदय की समीपता , सहृदय को झंकृत कर देती है।

         
”अंजलीगत समर्पण हुआ जब अहम
रह गए एक तुम ही जगत बन स्वयं
भाव घूँघट उठा साधना ने कहा
थे कभी तुम कठिन अब अनायास हो
शब्द से दूर हो अर्थ से पास हो
दूर से दूर हो पास से पास हो।“

अद्वैतानुभूति ही प्रेम का प्रसाद है, जहॉं  कोई गैर नहीं होता कोई और नहीं होता, मनुष्यत्व की सुगंध के कवि कमलाकर हैं।

कमलाकर ने अपनी इस विस्तृत काव्य-समयावधि में काव्य की सभी प्रवृत्तियों का आदर किया। समय के साथ बदलती काव्य संरचना का का सहारा भी लिया, परन्तु उन का मूल स्वर जो उदात्त मानवीय सम्पदा से सन्निाहित था, वह परिवर्तित नहीं होने दिया। गहरी वैष्णवी संस्कृति मंे उन के काव्य संस्कार प्रभावित हुए हैं, जो ‘परम हन्स’, ‘अरविन्द’ आदि अनेक सन्तों के दर्शन से स्थिर हुए, उस संस्कार धर्मिता ने उन की ‘काव्य अन्तर्वस्तु’ का निर्माण किया है।

यही कारण है कि वे निरन्तर धर्म के तथ्यात्मक रूपों की आवृति को छोड़ते हुए गहरे में आध्यात्म से जुड़ते चले गए।

गहन साांस्कृतिक चेतना और उस की अभिव्यक्ति, कमलाकर की काव्य साधना है। वे कविता की ‘अन्तर्वस्तु’ भाव लोक से लाते हैं, जो उन की अपनी ‘अनुभूत्यात्मक सम्वेदना’ है। वे आत्मानुभव को, जीवनानुभव में बदलते हुए, काव्य रूप की, उसी के अनुरूप तलाश करते हैं। उन के यहाँ रूप उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना जो ‘रूप’ उन्हों ने अनुभव किया है। आप की सहज, प्रभावी, दृश्य बिम्बों से सघन, काव्य भाषा की विशेषता का यही कारण है:-

”मत मतान्तर सभी एक मत हो गए,
स्वप्न सब जागरण में असत हो गए।
लक्ष्य पर आ मनोरथ का रथ रुक गया,
राह के संस्मरण अब विगत हो गए।“

”मौन हो गया मन
मंज़िल पर चुक गई चपलता,
शान्ति सेज सो गई मुखरता
जग जिस में प्रतिबिम्बित था
वह उलट गया दर्पण।“    ;पृ. 3. ‘गौने की चूनर’

”दूर कर नींद का आवरण
आ गया लो तुम्हारी शरण।
अब तुम्हारी ख़ुुशी में ख़ुशी,
ज़िन्दगी है तुम्हारे रहन।“

कमलाकर हिन्दी के सूफ़ी कवि थे, जो प्रेम की पीर का सत्य पा चुके थे। नई कविता के आलोचक और कवि  जग जिसमे प्रतिबिम्बित था, उलट गया वह दर्पण, कवि की आंतरिक यात्रा का मूल्यांकन नहीं कर पाए।

कवि कमलाकर साठ वर्ष से  अधिक निरन्तर सृजन रत रहे,   वे दार्शनिक तथ्यों को, सन्तों के अनुभवों को सम्वेदना के स्तर पर स्वीकार करते हैं। उन्हों ने हिन्दी में रुबाइयाँ लिखी हैं। उन का शब्द भण्डार विपुल है:-

”नभ निकंज में सन्ध्या फूली,
श्रमिक कण्ठ झरते मधु निर्झर,
गूँजे नीड़ों में आतुर स्वर,
प्रत्याशित शिशु मुख में मुख दे
तरु फुनगी पर बिहगी झूली।“ ;पृ. 152. ‘गौने की चूनर’

यहाँ जो बिम्ब विधान है, वहाँ मानवीकरण भी है, प्रतीकों का सुन्दर निर्वहन भी है। ‘लोक’, ‘श्रमिक कण्ठ से झरते मधु निर्झर’, ‘प्रत्याशित शिशु मुख में मुख दे’ के साथ ‘प्रकृति’ के ‘माँ’ रूप को प्रस्तुत कर गया है।

यह आलेख कमलाकरजी की काव्य साधना को समझने का प्रयास है।  जब जीवन में विसंगतियों को मूल्य बनाकर कविता के मूल्यांकन का प्रयास किया गया , तब कमलाकर जी की माधुर्य भावना का निरादर होना स्वाभाविक ही था। कविता मनुष्य जाति की सहृदयता की संवर्द्धन औषधि है, इस आधार पर कमलाकर जी का मूल्यांकन अपेक्षित है।


शनिवार, 23 नवंबर 2013

हमारे पुरोधा श्री नारायण वर्मा

हमारे पुरोधा श्री नारायण वर्मा

श्री नारायण वर्मा से हमारे काव्य मित्र अपरिचित ही हैं। कारण स्पष्ट रहा हे, यहॉं के साहित्यकारों में अपने समकालीन उत्कृष्ट रचनाकार की उपेक्षा स्वाभाविक वृत्ति रही है। तब मैं राजकीय महाविद्यालय में हिन्दी विभाग का छात्र था, तब आपके गीतों को पहली बार सुना था। आप राजकीय सेवा में उच्च अधिकारी रहे थे। भारतेन्दु समिति पर तब सांस्कृतिक साहित्य कर्मियों का प्रभुत्व था।  वहॉं साहित्य के प्रति अलिखित दुराग्रह था। श्री नारायण वर्मा समृद्ध गीतकार थे। राज्य सेवा का भी प्रभुत्व उनकी एक पहचान थी।

आपके दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। आप वर्षो तक साहित्य सृजन में संलग्न रहे। परन्तु साहित्यिक गुटबन्दी से बहुत दूर रहे। छावनी में जहॉं आज शोपिंग सैन्टर है , उस जमाने में आपका बड़ा भवन था।मुझे यह पता नहीं आप कब दिवंगत हुए, आपकी स्मृति में न तो कोई मोनोग्राफ आया नहीं कोई आलेख मुझे मिला। आपके दो काव्य संग्रह मुझे मिले , उन्हीं के आधार पर यह स्मृति- कथा नियोजित है, मित्रों के पास सूचना हो अवश्य बताएॅं, ठाड़ा साहब तथा हरि जी के बारे में भाई अतुल कनक ने काफी महत्वपूर्ण जानकारियॉं दी हैं, मैं उनका आभारी हूॅं।

कवि की कविता की आधार सामग्री उस का अनुभूत्यात्मक सच होता है। जहाँ वह अन्तर्मुखी होता है, वहाँ बाहर की दुनिया उस के आग्रह, उसे बाँध नहीं पाते हैं। ‘वह’, ‘स्व’ की खोज में ‘काँदे’ के छिलके उतारता-उतारता, उस परम सत्य की झलक पाने को, जिसे ‘विराट’ भी कहा जाता है, उस नन्हें शिशु की तरह उत्सुकता थामे, जो ख़ाली सीपियों में मोती तलाश करना चाहता है, सागर तट पर रेत में अपनी कोमल अँगुलियों से कुरेदता रहता है।  सच है, अन्तर्मुखता का प्रवेश द्वार यहीं प्राप्त होता है। यहाँ बहिर्मुखता का आकर्षण स्वतः छूटता चला जाता है। सांस्कृतिक काव्यधारा की यह एक प्रमुख विशेषता है।
‘मन की बातें’ आप का पहला कविता संग्रह था।


 नाथू लाल जैन ने ‘तरंगें’ 1991 ई. की भूमिका में कहा है:-
”‘तरंगें’ संग्रह के गीतों में स्वाभाविक रूप से ही अधिक प्रौढ़ता है, परिपक्वता है और आचार्य श्री शिलीमुख जी ने जिसे ‘शुद्ध हार्दिकता’ कहा, वह तो है ही, उस पर आध्यात्मिकता का वह रंग भी है, जो विप्रलम्भ के इन गीतों को भक्ति के बहुत समीप पहुँचा देता है। अब कवि के हृदय में अधिक गहरा आत्म-विश्वास है।“
और इस गहरे आत्म-विश्वास का कारण है:-
”मैं तुम्हारा नाम ले कर चल रहा हूँ
मैं तुम्हारा वेग ले कर चल रहा हूँ
राह मुझ को यों थका लेगी भला क्या?
राह को मैं साथ ले कर चल रहा हूँ
बस कि तुम अब राह से मुझ को लगा दो
तुम मुझे जीवन नया दो।“
”यहाँ अनुभूति की गहनता है, भाषा में सहजता है, कथ्य सहज स्फूर्त है, यहाँ विचार का न दबाव है, न आग्रह है, एक सहज अह-शून्यता है। सच है, जहाँ हीन भावना होती है, वहीं अहंकार होता है, वहाँ काव्य भाषा जटिल प्रतीकों तथा अभिव्यक्ति में उलझ जाती है। बलाघात वहाँ अधिक होता है। जटिलता काव्य गुण नहीं है, हाँ जटिल भावों की व्यथा भी सरल भाषा में व्यष्ति हो पाती है। यहाँ अनुभूति की सघनता तो है, पर वह स्वानुभव की तपिश में, अभिव्यक्ति तलाश कर रही है:-

”कि तुम ने यांे कृपा की कोर दे कर
बहुत झुक कर मुझे ऊँचा उठाया
कि तृण-सा रज-कणों में डूबता था
कि तुम ने फूल-सा सिर पर चढ़ाया
तुम्हारा आसरा मुझ को बड़ा है।
कि मस्तक आज चरणों में झुका है।“ ;पृ. 84.

दार्शनिक भंंिगमाऐं प्रायः ‘बुद्धि जन्य ज्ञान’ पर आधारित होती हैं। फ्ऱायड व मार्क्स के चिन्तन के आधार पर ‘इन्द्रिय जन्य ज्ञान’, काव्य वस्तु बनता है। वहाँ जीवन का यथार्थ, ‘इन्द्रिय जन्य ज्ञान’ हो जाता है। बहिर्जगत की यात्रा यहाँ चिन्तन का रस प्रदान करती है, पर जहाँ कविता, अनुभव की आँख से दुनिया देखना चाहती है, वहाँ हृदय खुलता है, यह करुणा की ज़मीन है, यहाँ प्रेम, साध्य रह जाता है।

”‘सत्य धरती, सत्य यह आकाश भी
सत्य ही सागर धरा के पास भी
एक हैं सब और सब साकार भी
दूर हैं सब और सब हैं पास भी
सत्य को देखंे भला आँखें कहाँ
सत्य ही यह सत्य का आभास है।
स्वप्न का संसार मुझ से दूर है
तथ्य जीवन का हृदय के पास है।“
श्रीनारायण वर्मा की कविता ‘साक्षित्व’ की उप सम्पदा है। आध्यात्म की दुनिया, रहस्यमयी है। वहाँ दार्शनिक की भंगिमा छूट जाती है। दर्शन का क्षेत्र, विचार का है, बुद्धि का है, विश्लेषण का है। प्रायः ‘आध्यात्मिक’ नाम पर ‘धर्म’, सम्प्रदाय की मान्यताओं, उन के चरित्र आख्यानों को सौंपा जाता है।
‘भागवत में ‘चीरहरण’ का प्रसंग आता है, जहाँ सारी अवधारणाऐं छूट जाती हैं, ‘नान कन्डीशन्ड माइन्ड’, कोई साम्प्रदायिक आग्रह नहीं रहता है। श्रीनारायण वर्मा इसी ‘अन्तर्यात्रा के पथिक हैं। ‘तुम’, इस अन्तर्मुखता का मनोहर प्रस्थान बिन्दु होता है। उस की पहचान, उस की मनोहारी कल्पना होती है, जितना उस का सान्निाध्य प्राप्त होता जाता है। उतना ही भीतर का कल्मष दूर होता है।
”यों ही तुम मेरे जीवन में अपना रंग लुटाते जाओ
और रजनियों की आभा में अपना रूप रचाते जाओ।“ ;पृ. 67.
यह ‘तुम’, ... यहाँ प्रीत का भण्डार है। यहाँ प्रेमानुभूति, अनुभूत्यात्मक जगत का सार है। यहाँं कविता जिस ‘सहज धर्म’ का वरण करती है, वह मनुष्यत्व का वाहक है। और यहाँ काव्य, जिस ‘संस्कृति’ को अपनी वाणी देता है, वह बाह्य कलेवरों को छोड़ती हुई ‘आत्मस्थ कवि की सहज स्वानुभूति’ है, जो सांस्कृतिक काव्य धारा की प्रमुख विशेषता है। छायावादी काव्य धारा का सहज विकास है।

गलती हमसे यही हुई है, कि हम परंपरा से कटते हुए , आत्म मुग्ध,  स्वयं अपनी ही सृजनशीलता को ही समर्पित होकर रह गए। हमारे आसपास कुछ अच्छा भी लिखा गया है, लिखा जा रहा है, हम उससे जुड़े , साहित्य का अवरुद्ध मार्ग गतिशील होगा , इसी आशा के साथ।

सोमवार, 18 नवंबर 2013

हमारे पुरोधा कवि और उपन्यासकार माधवसिंह दीपक

हमारे पुरोधा
कवि और उपन्यासकार माधवसिंह दीपक
मित्रों ने इस लेखमाला का स्वागत किया है, वे इसे पढ़ रहे हैं, अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं, मैं उनका हृदय से आभारी हूूॅं। मेरा इस लेखमाला लिखने के पीछे आशय यही था, साहित्य के इस महायज्ञ मंे हमारी पुरानी पीढ़ी के वे लोग जो मौन साधना रत रहे, आज वे हमारे बीच में नहीं हैं,जिनके जाने केबाद हम अपने निजी स्वार्थोेे में  उन्हें भूल ही गए। उनके शताब्दी वर्ष भी निकल गए , हम याद भी नहीं कर पाए। उनके समकालीन अकादमी के पुरोधा भी रहे। वे उनकी स्मृति में मोनोग्राफ भी नहीं निकाल पाए, उनके लेखन को मित्रों तक पहुंचाना परंपराके निर्वहन में मेरे लिए यह साहित्यिक धर्म ही है। आज तो शोक सभा भी एक खानापूरी होगई है, जो मोबाइल की बातचीत से हो जाती है। सुबह के अखबार में सूचना छप जाती है।

खैर आज मैं जिस लेखक की चर्चा कर रहा हॅं, वे जीवन मैं लेखक ही रहे। झालावाड़ जिले में जन्मे श्री माधवसिंह दीपक , उच्च प्रशासनिक सेवा में दिल्ली में रहे। वे झाालावाड़ अपनी जागीर सम्हालने आते थे। उनका परिवार झालावाड़ में ही रहा। तब मैं राजकीय महाविद्याालय में हिन्दी प्राध्यापक था।  एक दिन सुबह मेरे घर पर वे आएथे। चूड़ीदार पायजामा अैर अचकन और सुंदर टोपी यही उनकी पहचान थी। उनकी हवेली पर भी गया था। जहॉ बहुत बड़ा निजी पुस्तकालय था। वे अंग्रेजी, हिन्दी तथा कुछ अन्य विदेशी भाषाओं के विद्वान थे। ‘सात सौ गीत उनके गीतांे का वृहद संग्रह था, ’ तलवार की छाया, बोलती लहरें, कर्नाटकी ,रेत की आग आपके उपन्यास थे। झाालावाड़ के मित्रों ने उनके साहित्य  पर बाद में परिचर्चा भी आयोजित की थी।

माधव सिंह ‘दीपक’ के तीन काव्य संग्रह ‘सात सौ गीत’ 1959 ई., ‘लावण्यमयी’ 1959 ई. तथा ‘बलभद्र प्रकाश’ 1960 ई. प्रकाशित हुए थे। उन के पितामह श्री बलभद्र सिंह भी कवि थे, ‘बलभद्र प्रकाश’ खण्ड काव्य उन की ही स्मृति में लिखा गया था। ‘लावण्यमयी’ तीन सौ गीतों का संग्रह है ।

माधव सिंह ‘दीपक’ की कृति‘सात सौ गीत’, सात भागों में विभाजित काव्य संग्रह है, ‘ज्योति’, ‘पिपासा’, ‘लो हम भी हंसे’, ‘कसौटी’, ‘प्रेयसी की याद में’, ‘निर्झर’ एवं ‘मांझी’। प्रत्येक भाग में सौ-सौ गीत हैं। हर भाग के पूर्व में कवि ने संक्ष्प्ति में इन की प्रस्तुति के सन्दर्भ में अपना वक्तव्य भी दिया है।

‘माँझी’, विरह काव्य है। इसे खण्ड-काव्य भी कहा जा सकता है। छायावादी काव्य चेतना का प्रभाव ‘अमर सिंह’ व ‘माधव सिंह दीपक’ में स्पष्ट परिलक्षित होता है। कवि सुधीन्द्र की काव्य चेतना पर भी प्रभाव मिलता है। किन्तु माधव सिंह ‘दीपक’ ने छायावादी मूल्यों को अपनी तरह से ही आत्मसात किया था। अंग्रेज़ी भाषा पर उन का अधिकार था।
‘मांझी’ को कवि ने स्वयं भी खण्ड काव्य माना है। यह एक छोटा-सा विरह काव्य है। कवि ने अपने काव्य को अपने जीवन की यात्रा के रूप में सम्प्रेषित किया है, यह जीवन का आख़िरी पड़ाव है। वह भौतिक विश्व से परे, ‘उस पार’ जाने की कल्पना करता है, वहाँ उसे सुख मिलने की आशा है। केवल माँझी उस के साथ है, जो उस की नाव को खे रहा है:-
”मांझी! कुछ गाते भी जाओ।रोते हो फिर भी मुस्काकर, धीमे-धीमे स्वर में गाकर,
रह-रह कर मुझको आज, याद दिलाते भी जाओ।“ पृ330
नौका डूबने लगती है। उस पार पहुँचने की निष्फल चेष्टा में डूबता उतरता हुआ वह कहता है:-
”वह किनारा दूर ही है।
हाय मांझी! क्षुद्र मानव तो यहाँ मजबूर ही है।“ पृ. 367.

कवि के हृदय पर यही सब से बड़ा घाव है कि वह अपनी यात्रा में सफल नहीं हो सका:-
”वास्तव में मेरा जीवन भी इस संसार रूपी सागर में एक तिनके की भांति लहरों की इच्छा पर नाच रहा है।“ पृ. 326.

”सांसें लेते हैं, अब भी हम, बातें करते हैं अब भी हम
मरने से पहले आखिर इतने, सब क्यों हाय डरे बैठे हैं।“ पृ. 356.
और अन्त में:-
”कौन पहुंचा है, वहां मुझको प्रमाणों से बताए
आज अपरम्पार सागर, पर निशानों से बताए
हाय मॉंझी! क्षुद्र मानव, तो यहाँ मजबूर ही है।“

सौ गीतों में यह काव्य, बिना पूर्णता लिए अचानक समाप्त हो जाता है। जीवन की, अचानक आखिरी सांस की तरह। ये सात सौ गीत, नवयुवक की चहल क़दमी, उस के यौवन, उस के जीवन संघर्ष तथा ‘हास परिहास’ से गुज़रते हैं, जिस का समापन, जीवन की अन्तिम सान्ध्य वेला के साथ होता है:-
कवि दीपक, कवि ही थे। वे और उन की कविता एक रस हो गए थे। उन्हों ने काव्यानुभूति को जीवन में जिया। समीक्षकों ने, अचानक परिवर्तित काव्य रूपों तथा उन के प्रतिमानों के आधार पर, पूर्व की परम्परा को ही हाशिए से भी निष्कासित-सा कर दिया। सांस्कृतिक काव्य धारा के दो रूप होते हैं, पश्चिमी परिभाषा में संस्कृति बाह्य जीवन की अभिव्यक्तियों को प्रदर्शित करती है। हम वहाँ इस आधार पर समाजशास्त्रीय व्याख्या करते हैं। यह परिभाषा बहुत कुछ ‘सभ्यता’ के साथ मिलती हुई, बुद्धिजन्य ज्ञान के स्वरूपों से मिल जाती है। परन्तु भारतीय परम्परा में संस्क्ृति, अनुभव जन्य ज्ञान पर आधारित होती है। संस्कृति की ज़मीन पर ही धर्म का वृक्ष लगता है। धर्म जो परम्परा में मनुष्यत्वको सौंपता है। प्रायः सम्प्रदाय को धर्म मान कर जो व्याख्या की जाती है, उस से सारा अभिप्राय दूषित हो जाता है।
यहाँ सांस्कृतिक चेतना, समस्त अवधारणाओं से मुक्त होेते हुए अन्तर्मुखी मन की अभिव्यक्ति है। मृत्यु भयभीत नहीं कर रही है, वह भी एक पड़ाव है, भागीरथी में स्नान है, यहाँ ‘मृत्यु गन्ध’ चिकित्सालय से आती हुई दूषित समीर नहीं है, वरन पतझड़ के बाद वसन्तागमन की सूचना है। ‘माँझी’ ही साथ है, वह विवेक है, वह उर्जा है, जो जीवन को आख़िरी साँस तक चला रही है। जीवन के प्रति सकारात्मक सोच तथा उदात्त मानव के चरित्रकंन का यह सारगर्भित प्रयास है।

”बह जाने की आशंका है, लहरों में इत- उत घबराकर
सह जाने की स्पर्धा है, क्या तुममें इनसे टकराकर,
घनघोर गरजते मेघों के, आगे थोडे़ से झुक जाओ“  माँझी, पृ. 347.
कवि दीपक की अपनी काव्य भाषा है, वे सहज प्रवाही भाषा के पक्षधर हैं। संग्रह में चयन की जो कमी रही है, उस ने कृति के सम्यक मूल्यांकन से समीक्षकों को दूर ही रखा है। सुधी समीक्षकों का ध्यान माधव सिंह दीपक की ओर भी जाना अपेक्षित है।


उपन्यास कार मधावसिंह ‘दीपक’ ऐतिहासिक उपन्यास कार थे। झालावाड़ अंचल की गागरेन दुर्ग की घटनाएं ,जौहर एवं   युद्ध ने जहां कथावस्तु का निर्धारण किया हैं वहीं अपने अंचल की भाषा को एक नया विस्तार भी दिया है।‘अचल दास की खींची’ की वचनिका से कथा सूत्र प्रभावित तो है, परन्तु कल्पना के मनोहारी प्रभाव ने इतिहास को सीमित नहीं होने दिया है।

 माधव सिंह दीपक के चार उपन्यास प्रकाशित हुए हैं । ‘ बाोलती लहरें‘, तलवार की छाया, रेत की आग, कर्नाटकी प्रकाशित हुये है ।

‘‘बोलती लहरें,’ गागरौन दुर्ग पर आधारित काल्पनिक कथा है । वर्णनात्मक शिल्प है । जातिगत विद्वेष केा केन्द्र में रखकर इस समस्या के समाधानन ढूंढने का प्रयास है ।

 भाषा सहज व प्रभावी है, परन्तु किस्सागोई की शैली में कथा सामान्य पाठकको आकर्षित करने में सफल है । पात्र अनेक है, प्रमूुख पात्र ‘कमलिनी और ‘ गुलाब सिंह हैं, जिनकी प्रेमकथा को कथाकार ने विकसित  किया है ।

‘ ‘तलवार की छाया ‘, यह राजा राणा जालिम सिंह के जीवन पर आधरित, ऐतिहासिक उपन्यास है । इसमें ‘दीपक जी‘ ने कल्पना प्रसूत कथा के स्थान पर, ऐतिहासिक तथ्यों को कथा में पिरोने का प्रयास किया है। नायक ‘ प्रधान यह उपन्यास अपने वर्णनात्मक शिल्प व सहज प्रभावी भाषा के लिए लोकप्रिय रहा है । ‘ भटवाड़े ‘ के युद्ध से लेकर, पृथक झालावाड़ राज्य की स्थापना, 80 वर्ष तक फैला हुआ ‘ समय ‘ यहां उपस्थित है ।

‘रेत की आग‘,
यह भी ऐतिहासिक उपन्यास कम, तथा कल्पना पर आधारित ऐतिहासिक ‘ रस ‘ का उपन्यास है । यहॉं कथाकार ने जोधपुर और जालौर के इतिहास की घटनाओं को ‘ कथा-रूप ‘ में विकासित करने का प्रयास किया है ।

‘कर्नाटकी‘, उपन्यास भी इसी क्रम में है । यह बूंदी के राजा बुद्ध सिंह के जीवन पर आधारित है । दीपकजी ने कथा का फलक तो विस्तृत लिया है, परन्तु सीमित दायरे में समाप्त करने की विवशता में उपन्यास उतने प्रभावी नहीं रहे ।

जीवन और जगत का स्वाभाविक और मार्मिक चित्रण.... कथाकार अपनी और से ही करने में रहा ... पात्र, ‘चरित्र में नहीं ढल पाए, परिवेश, इतिहास की प्रस्तुति नहीं कर पाया, वहॉं कल्पना पर आधारित कथा,... विकसित की जाती रही । शिल्प की कसावट, सुसंगतता का अभाव इन उपन्यासों की बहुत बड़ी कमी रही है । फिर भी दीपक जी ने इस अंचल में ‘ उपन्यास कला ‘ का ‘विकास ‘ लज्जाराम मेहता के बाद किया, यह उनकी बहुत बड़ी देन है ।

कवि और उपन्यासकर दीपक जी साहित्य के मौन साधक थे। वे साहित्य की गुटबंदी से बहुत दूर थे। स्वतंत्रतापूर्व झालावाड़ साहित्य का तीर्थ था। ब्रज भाषा अकादमी के निर्माण के साथ हमने महाकवि हरनाथ को ही विस्मृत कर दिया है। उनकी काव्य परंपरा में ही श्री दीपक विकसित हुए थे।  महाकवि हरनाथ को भी हम  पूरी तरह भूल चुके हैं।

कुछ दिन पहले मित्र कहीं कह रहे थे , हमारे जाने के बाद हमारे साहित्य को और हमे ंकौन याद रखेगा , इसका उत्तर यही हैं, हम आत्ममुग्ध नहों , परंपरा के दाय को सम्हालते हुए अपनी साहित्यिक यात्रा पर चलते रहें , मार्ग अवरुद्ध न हो बस यही काम करते रहें।

शनिवार, 16 नवंबर 2013

हमारे पुरोधा कवि अमर सिंह

हमारे पुरोधा कवि अमर सिंह

राजस्थान साहित्य अकादमी ने अमरसिंह जी को सन 1990 में सम्मानित किया था,... पर वे अस्वस्थ थे,... वे जयपुर में आयोजित कार्यक्रम में नहीं जा पाए थे। उनके घर जाना हुआ था, वहां उनका कक्ष उनकी पांडुलिपियों से, पुस्तकों से भरा था,... वे उस समय ‘‘संभवामि युगे-युगे’’ नए महाकाव्य पर सृजनरत थे, वे उसके प्रकाशन के लिए चिंतित थे,... तभी उन्होंने अपनी प्रकाशित पुस्तकों की चर्चा भी की थी,।
मैं तब सवाई माधोपुर में पद स्थापित था। दुख है बाद में उनसे मिलना नहीं हो पाया। वे एडवोकेट थे। पर वे पूरी तरह साहित्य को ही समर्पित थे। कोटड़ी  में  उनका बड़ा मकान था। वे घर से भी बहुत कम बाहर आते थे। कोटा के ही रचनाकर्मी उनसे अपरिचित ही रहे हैं। तब साहित्य अकादमी द्वारा उन्हें भूल जाना स्वाभाविक ही है।
उनकी पहली कृति... ‘निःश्वास’ जो एक चौदह पृष्ठ की एक लंबी कविता है, जिसमें करुणा का मानवीकरण है, चित्रात्मक भाषा है,... परन्तु हृदय की कोमलतम अनुभूतियों का सहज स्पंदन है, आज पचास वर्ष बाद भी यह कविता अपनी प्रभावशीलता में उतनी ही महत्वपूर्ण है।
जब मैंने दुबारा आसे संपर्क करना चाहा था, तब मुझे सूचना मिली थी कि वे दुनिया मैं नहीं रहे हेैं। दुख हुआ साहित्य की दुनिया से आप अजनबी मसीहे की तरह चले गए। उनका सम्मान भी तब करना तय हुआ था, जब आप गंभीर बीमार थे। उनके मित्रों ने न तो इस बाबत किसी मोनोग्राफ जारी करने का प्रस्ताव रखा ,नहीं आपके जाने के बाद आपकी कृतियों पर हुइ्र किसी चर्चा की कोई सूचना उपलब्ध है। आपका हिन्दी काव्य के विकास में उल्लेखनीय योगदान है।
राजस्थान की हिन्दी काव्य यात्रा में सन 55 का समय बहुत महत्वपूर्ण है। स्वतंत्रता के बाद, विश्व में सोवियत संघ तथा अमरीका के बीच शीत युद्ध प्रारंभ हो चुका है। साहित्य में इसका प्रभाव पड़ा था, एक खेमा प्रगतिवाद से अपने आपको सीमित कर रहा था, दूसरा ‘संस्कृति के संकट’ के नाम पर,... नई कविता के आंदोलन से जुड़ गया था। काव्य का आलंबन, सूत्र ‘भारतीय समाज’ भारतीय जन, भारतीय मन से पृथकता पाकर, अन्तर्राष्ट्रीय मानव मुक्ति के अमरगान में खोने लगने गया था। ... तब अचानक घटना घटी परंपरागत जीवन मूल्यों से, सन्निहित, जहां व्यक्ति की मनुष्य तक की अंतर्मुखी यात्रा का अनुभूत्यात्मक सच अभिव्यक्त हो रहा था,... वह उपेक्षित हो चला। पूरी की पूरी काव्य परम्परा को ,काव्य की प्रवृतियों को हाशिये पर खिसका दिया गया था, कवि उपेक्षित हो गए,कृतियां भी उपेक्षितहोगये।
‘अमरसिंह भी ऐसे ही विरले कवि थे,... जो अपनी ‘अन्तर्मुखी काव्य संपदा से ... काव्य जगत में सन 55 के आसपास दस्तक दे चुके थे।
‘निःश्वास का प्रकाशन 1954 में हुआ था,... दिनकर जी ने इस कविता की भूमिका में कहा है-
‘‘यह ऊषा की पहली झांकी हे, इसीलिए, मिहिका का अस्तित्व अभी है। किन्तु ऊषा का प्रतिबिम्ब पड़ने के कारण यह मिहिका भी खूबसूरत और रंगीन मालूम होती है।’’
करुणा-भाव है,... करुणा मनुष्यत्व का लक्षण है,... हृदय का उद्घाटन होता है। चिकित्सीय हृदय की ‘सर्जरी’ होती है, उसकी देहिक सत्ता है। पर ‘मनुष्य के जिस अन्तर्जगत की व्याख्या हृदय रूप में होती है, वहां बुद्धि अपना दबाब खो देती है। ‘कविता वहांॅ का द्वार खोलती है,... ‘संवेदना, हृदय की पगध्वनि है, जहां प्रेम है, करुणा है,... वही सहृदयता है-
‘जब विस्तृत नभ का अंचल
नीरव गूंगा चुप रहता
किन अवसादों से भीगा
अलसित समीर वह चलता
किन भावों में डूबा सा
आता है भंद समीरण,
कलियों के स्मित आनन पर
क्यों छोड़ चला आंसू कण
पृ. 32
‘करुणा’ अमूर्त है,... उसका अहसास जिस अनुभूति से है,... वह व्यथा है,... पसीजने का भाव है,... आंसू उसकी पहचान है,... हृदय की मुक्तावस्था है,...
‘पगली सी क्यों विकल वेदना
फिरती मारी मारी सी;
कभी कणों में की तृणों में
सोती नभ में हारी सी।
भग्न हृदय के कैसे क्षण की
करुणा भरी कहानी ले;
आज चले क्यों प्रस्तर पथ पर
निर्झर मूक उलाहला ले।
पृ. 84
... रुदन,... सहज है, पीड़ा का वाहक है,... यह मौन भीतर पिघलता ‘हिमखंड का क्षरित होता प्रवाह है
... कवि करुणा’ का आदर करता है, वह इसे मनुष्य की महत्वपूर्ण देन मानता है।
‘करुणा का दे रस इसमें
जगती हंसती क्यों निष्ठुर;
सहृदय मानस में पलती
कल्याण भावना शुचितर
पृ. 106
कवि इस कृति पर ‘प्रसाद’ की भाषा तथा उनकी महत्वपूर्ण कृति ‘आंसू’ का प्रभाव कुछ आलोचकों ने तलाशा है। पर कृति का सम्यक अवलोकन,... इस सीमित दृष्टिकोण को हटाने मंे समर्थ हैं ‘शैली’ का अनुसरण होता है। पर बड़ा कवि अपनी भाषा व वस्तु को जिस संगुफन में अभिव्यक्ति देता है,... वह उसका मौलिक रूप है। अमर सिंह की बहिन की असामयिक मृत्यु से उपजा ‘विषाद’ लोक संस्कृति को समाहृत करते हुए ‘सहज उच्छवास है,... यहां निःश्वास,... दुख की इस विषम घड़ी में,... बाहर आने का पथ भी संकेतिक करता है।
‘जीवन के जीर्ण पुरातन
सब पत्र झरा हर्षाते
उत्सर्ग लिए पनपे से
नव जीवन ले मुसकाते
किरणों ने उतर क्षितिज से
कुंजों में हास बिखेरे
फिर मनोभाव से खिलकर
अलियों के लगते फेरे।
पृ. 109
यहां ‘व्यथा,... अपनी चरम सीमा में आकर,...विसर्जित हो जाती है,... यही ‘करुणा’ का सौंदर्य है, वह व्यथा में नए जीवन का संकेत देती है। गहरी रात की यातना जब टूटती है, तभी स्वतंत्रता का सूर्य जगता है,... संभवतः प्रांत की पहली ‘लंबी कविता है, यहांां एक मनोभाव, मानवीकृत होकर मूर्तता को अभिव्यंजित हुआ है।
निःश्वास 1954 में प्रकाशित हुई थी, इसके बाद ‘अग्निशिवा’ (1985) वृन्दावन शतक राधासतसई (संवत 2036), आम्रपाली (1978) प्रकाशित हुई थी। आपकी अप्रकाशित कृतियों में, सतीमोह (महाकाव्य), ‘संभवामि युगे-युगे’ कृष्ण चरित पर आधारित 900 पृष्ठों का महाकाव्य, तथा  खंड काव्य की श्रृंखला में मेवाड़ महिमा, बहादुरशाह, मधुमती, स्वर्ण पल है।
‘आम्रपाली’ को कवि ने एक भाववृत माना है। यह सोलह अध्याय में लगभग तीन सौ पृष्ठों की ‘आम्रपाली’ का जीवन चरित काव्य है। .. महाकाव्य में जहां जीवन की वृहद गाथा होती है, वहां एक ही ‘चरित्र’ की सांगोपांग काव्यात्मक अभिव्यक्ति यह कृति है। ... ‘खंड काव्य में जीवन की आंशिक अभिव्यक्ति है। अमर सिंह के काव्य संवेदना का केंद्र नारी है। ‘निःश्वास’ बहिन की मृत्यु पर’ एक लंबी शोक कविता है,... वहीं ‘आम्रपाली’,... एक गणवधू की गाथा है,... उसके मनोजगत की व्यथा को यहां आधार मिला है। ‘डॉ. प्रभाकर शास्त्री ने कृति के संदर्भ में जो कहा है, विवेचनीय है- ‘‘आम्रपाली के जीवन को रचनाकार ने एक संघर्षशील नारी की कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है। जब नारी के व्यक्तित्व की समाज की ह्रासोन्मुखी प्रवृत्तियों के समुच्चय से टकराहट होती है तो निश्चय ही यह संघर्ष की स्थिति होती है। नारी को आज भी कैसे संघर्ष का सामना करना पड़ रहा है।’’
‘‘मुझे न वैभव दास्य चाहिए
कुटिया हो जीवन का दाय
उस स्वतंत्र सुखमय जीवन की
समता कहां हुई निरुपाय।
यह धन वैभव कीट विलासी
मद मत्सर का चोर कृतान्त
तृष्णा की जर्जरता लोलुप
यह अतृप्ति भीषण विक्रान्त।
पृ. 234
.... यहां ‘आम्रपाली’ के अन्तर्द्वन्द को कवि ने वाणी दी है। उसके बचपन से युवा व फिर चिर भोग से मुक्त उसकी आकांक्षा को संवेदना दी है। .... यहां उसका बुद्ध की शरण में जाना,... मात्र आकस्मिकता नहीं थी,... उसकी संस्कारबद्धता’ उसकी मुक्तिकामीभी आकांक्षा का ही विस्तार था।
‘अग्निशिखा’,... पांचाली, द्रौपदी को केन्द्र में रखकर सृजित खंड काव्य ही है। ... वहां द्रौपदी की कथा अपने अनूठे रूप में है। परंपरागत छन्द में कवि ने स्त्री की तेजस्विता को, उसके भीतर की ज्वलंत ऊर्जा को अभिव्यक्ति दी है। ... यहां कवि की ‘स्त्री’ के प्रति संवेदना, विमर्ष से ऊपर उठकर ‘एक प्रचंड ... आंदोलन के लिए प्रेरित करती है-
‘झूठ सब आदर्शी-आख्यान
‘देव रमते नारी सम्मान
किसी पागल का झूठ प्रलाप
काटती मूल देव संतान
पृ. 84

‘‘ अधिकार न धर्म राज का है-
वे हारे जीते भले दांव
जो स्वयं स्वयं को हार चुके-
उनका अधिकार न धरे दांव?

राजसी लोभ की लिप्सा में
तुम भूल गए सब अर्थ धर्म,
तुमको न मिलेगा यश वैभव
अरे यह न वीर का कर्म, शर्म  पृ. 91

फिर द्रौपदी का ‘सभा से सवाल करना-
‘अरे कोई भी नहीं सजीव-
सभासद, सारे क्योंकर मूढ?
निरुत्तर मूक मौन पाषाण
नहीं क्यों उत्तर देते मूढ़?    पृ. 100
तब ‘द्रौपदी’ का प्रश्न,... समकालीनता की ‘नारी समस्या’ को संबोधित हो जाता है। ‘पुरुष’ की आंख, आज भी स्त्री को सम्मान की दृष्टि से नहीं देख रही है। स्त्री, अपमानित है,... बलात्कार के लिए  मात्र एक वस्तु बन गई है-
‘कोई भी नया प्रतिकार नहीं’
नारी का कुछ अधिकार नहीं’
मानव पर कुछ आभार नहीं-
कर्तव्य धर्म का भार नहीं- पृ. 103
‘कवि की भाषा’ में ओज’ है,... शब्द चयन में प्रवाह है,... पूरी कविता एक लय से गुजरती है,... ‘द्रौपदी’ मानो साकार, होकर कौरवों की सभा में सामने खड़ी हो। ‘माधव’ की सहायतामें, कवि ने जिस दृष्टि को रुपायित किया है, वहां अलौकिकता का उस रूप में निर्वहन नहीं है, जो कृति को धार्मिकता में खींचकर ले जाता है,... संस्कृति, की गत्यात्मकता,... वर्तमान को भी, परीक्षण का अवसर देती है। ... हम अतीत का मात्र ‘पुनरावलोकन’ ही नहीं करते,... ‘आज की नारी और उसकी ‘अस्मिता’ की पड़ताल भी करते हैं।
‘राधा सतसई’ अमूर्त अनुभूत्यात्मक क्षणों की मधुरम अभिव्यक्ति का प्रयास है। ... यहां नारी का उच्चतम स्पर्श,... रागात्मकता की अभिव्यंजना है। ‘‘‘राधातत्व’ ... भारतीय चिन्तन का सर्वाधिक रहस्यवादी क्षेत्र है। राधा मात्र कृष्ण की आराधिका ही नहीं है। ऐसी ही कुछ अनुभूति इस राधा तत्व की हुई जो प्रकृति में अजस्त्र अविरल चेतन मूर्त रसवत्त होकर कण अणु- अणु में कभी छलकता, कभी झरता और आनंद वर्षा करता सा प्रतीत होता है।’’ (भूमिका से)
‘‘प्राण धार निर्झर बहंे, रोम-कूप से नेह
जिनके भार प्रकाश को, सहे अलोकिक देह।43।

करुणा प्रेम अगाध रस, राग रंग अवतार
भीग रहे कण-कण हंसे; पी- पी  अमृत अपार।।46।।
866 दोहों में रचित ‘कृति’ श्री राधा के अवतरण से लेकर श्रीकृष्ण के ‘कुरुक्षेत्र गमन तथा वहां राधा के मुकुर में बिम्ब दर्शन तक की यात्रा को यहां कथानक के रूप में लिया गया है। निम्बार्क संप्रदाय की... सिद्धान्त गत व्याख्याओं का आदर करते हुए,... देवीभागवत ब्रह्म वैवर्त पुराण, गर्गमंडिता आदि से कथा सूत्र लेते हुए संभवत ‘श्रीराधा’ पर यह स्वतंत्र खंड काव्य है। ... यहां ‘राधा’ का मानवीकरण, उसकी हार्दिकता,... तथा रसात्मकता का पूर्ण निर्वहन है।
श्री अमरसिह,... ने काव्य कृतियों के माध्यम से भारतीय संस्कृति को समाहृत करते हुए,... ‘जिस स्त्री को उसकी संपूर्णता में, चित्रित किया है,... वह ‘देशज,... भारतीय नारी है,... उसकी ‘अस्मिता’ उसका गौरव,... उसका सम्मान ही इनकी कृतियों का आधार है। आज जिस ‘अपसंस्कृति के विस्तार में, प्रकाशन, सम्मान,... तथा वैश्वीकरण से प्रभावित होकर लेखनीय संवेदना विकृत होती जा रही है,... जहां नारी मात्र एक उपभोग की वस्तु बनाकर बाजारवाद की भंेट चढ़ाई जा रही है। वहां अमरसिंह की नारी,... आम्रपाली, पांचाली, राधा,... अपनी व्यापक समादृत दृष्टि में ‘नारी’ अस्मिता, उसकी गरिमा की व्यापक खोज की संभावना को व्यक्त करती है। इस दृष्टि से इन कृतियों का मूल्य है, श्री अमरसिंह स्वयं एकांत साधक थे,... उनकी कृतियां पिछली पूरी अर्ध सदी में मूल्यांकित नहीं हो पाई है,... यही दुखद है,... आलोचकों का ध्यान यहां अपेक्षित है।
































मेरी अपनी ही समस्या थी, जिससे में वर्षों से उलझता रहा था।
मैंने ही यह कभी कथा, अवधारणा दुष्कर्म है
... अवधारणा, जो मैंने उन सबके बारे में, मैं जिनसे मिला हूं, देखा है, सुना है,... सबके बारे में अपनी राय सुरक्षित रख रखी है। जब भी बाहर जाता हूं। मेरी यह आंख मेरे साथ जाती है, यह नहीं देखती है,... जो वह देखना चाहती है, जो दिख रहा है, उसके प्रति कोई आग्रह नहीं रहता है।
तो मैं हूं जो देख रहा हूं, जो अपनी स्मृतियों, अवधारणाओं, तथा निरंतर चल रही विचारणा का पुंज है,... वह पुराना भी है, और नया थी,... निरंतर बैंक के ब्याज की तरह उसमें घट-जोड़ होता रहता है। जो कल था, वह आज बदला है, पर थोड़ा सा,... कुछ नया संग्रह आ गया है।
यह जो भीतर का संग्रह है, यही तो मैं हूं।
... मेरे भीतर हजार, लोगों की हजार बातों के चित्र हैं,... हल्का सा संवेदन हुआ रील एकदम खुल जाती है। टी.वी. के चैनल की तरह,... हर क्षण बदलती रील है,... मैं ही बनाता हूं, मैं ही चलाता हूं, मैं ही देखता हूं।
... हर क्षण मैंने पाया,... मेरा धारणाएं, नई-नई होती जाती है। हर धारणा अपने आप में एक बड़ी फिल्म का बीज रखती है।
... मैं जो देख रहा हूं, सुन रहा हूं, मैं अपनी ही धारणाओं से लड़ता हूं। ... आंखं झपकाता हूं, सिर के बाल नोचता हूं,... थप्पड़ लगाता हूं,... पर जो चैनल्स खुल गया है, वह जाता ही नहीं है। जानता हूं, यह मेरा ही सोच है, इसको मैंने ही बुना है,... पर कल्पना जितना हटाओ, उतनी ही मजबूती से सामने आ जाती है।
मैं जिसे दृष्टा कहता हूं,... वह मेरा आत्म नहीं है। जिस रूप में शास्त्र ने ‘आत्म’ को कहा है। यह मेरा बाह्य मन ही है। मन ही सृष्टा है, मन ही दृष्टा है। मन अपनी ही सृष्टि को देख रहा है। भय का जाल मैंने ही बुना है, मैं ही उसमें उलझ गया हूं। तनाव और कुछ नहीं है। तनाव मकड़ी का अपने ही जाले में उलझ जाना है। तब मैं अपने आपसे लड़ने लग जाता था,... आत्महीनता, आत्म दैन्य तभी उपजता है,... जब स्मृति का बोझा हटाए नहीं हटता,... मेरा संग्रह मुझे ही हराता जाता है।
यहां जो भी देख रहा है,... वह मन ही है। हां, गहरी सजगता जब पैदा होती है, तब स्मृति का दबाव उपेक्षित हो जाता है। वास्तविक त्याग वही है। जो आपका है, आपने निर्मित किया है, उसे आप छोड़ दे। ... जो आपका ही नहीं है, उसका त्याग आप नहीं कर सकते,... आप जिसे त्याग कहते हैं, वह माना एक रूपांतरण है,... भीतर का सब यथावत बना रहता है। ऊपर-ऊपर का खोल ही बदलता है,... तथा वैराग्य इस कल्पना का जो बार-बार,... अतीत की कड़वाहट को वर्तमान में ले आती है, या जो कल का अंधेरा है,... वहा की कल्पनाओं को ताने-बानों के साथ वर्तमान में खेंच लाती है, हम कहते हैं, हम सोच रहे हैं,... यह अनावश्यक विचारणा है,... यही अभिशाप है। इसकी जन्मदात्री यही कल्पना है,... इसके प्रति आसक्ति का कम होना, इसका आदर कम होते जाना ही वैराग्य है। वैराग्य भगवा धारणा करना नहीं है। भगवा धारणा करने से कोई विरागी नहीं होता है। ... भटकाव यथावत रहता है।
... मैंने तब जाना,... मेरे भीतर जो सत्ता है,... जो मैं हूं,... वह मेरा यह बाह्य मन ही है, पर जब, मन बहुत देरत तक एक जगह रहने का अभ्यस्त होने लगता है, तब लगा जल तो वही है, पर बरसात का गंदा, मटमेला जल नहीं है, यही तो ‘कार्तिक का जल है, जहां स्वच्छता, निर्मलता, उसे अपने आप मिल गई है,... गंदलाया जल स्वतः निर्मल हो जाता है।
स्वामीजी कहा करते थे, यह सहज है, यहां करना कुछ भी नहीं है। माात्र रहना है,... तब बाह्य मन अंतर्मन में लीन हो जाता है, पहचान हैै, शांत सजगता ।
हम अपने आपको देखने में समर्थ होने लगते हैं। हम बहते नहीं है। बहाव है,... थपेड़े मारता है,... पर हम बहते हैं, तो क्षण भर बाद ही बहाव को देखकर, लौट आते हैं।
बहाव को आज तक कोई रोक नहीं पाया,... वही सनातन है, पर हां, हम बहें नहीं, यही साधना है।
शास्त्र कहता है- ‘तान तितिश्सत्व भारतः, यही सहन करना कहा जाता है।
यह मात्र कोई बौद्धिक कसरत नहीं है।
बहुत सरल प्रारंभिक बोध है।
बाहर वही घट रहा है, जो मैं हूं,... मैंने चाहा है,... मुझे आज अभी पता नहीं है, पर मैंने चाहा था, वही आया है,
तब मैं अपनी चाहना के प्रति सजग हो जाता हूं।
‘यहां मात्र एक यह अवधारणा भी नहीं है। जैसा कि उस दिन मित्र जो सत्संग से आए थे, कह रहे थे, उनसे कहा गया था,... डीप मेडीटेशन करो।’
... वे बार बार इसका अर्थ समझना चाह रहे थे। जब ध्यान कोई दूसरी चीज होती है, जो निज से पृथक है, सीखनी है, तब उलझन पैदा होती है। उसे कम और ज्यादा किस प्रकार किया जा सकता है, पर जब वह - ‘मात्र’ रहना है कि, वहां अधिक से अधिक रहा जाए,... मन जो भी क्रिया हो मन वहां अधिक से अधिक रहे, किंचित मात्र भी प्रतिकूल न जाने पाए, तब हम सजगता में प्रवेश कर जाते हैं।
जहां क्रिया नहीं होती है, वहां मन स्वाभाविक रूप से शांत होने लगता है, यह शांति किसी बाह्य अनुशासन से नहीं आती है,... सहज है, निसर्ग है, स्वाभाविक है, इसकी एक मात्र पहचान, आपकी शांत सजगता है।
आप निवृति में नहीं हैं, आप समाज को हेय बताकर, पत्नी, परिवार, नौकरी, व्यवसाय को जंजाल बताकर पलायन में नहीं है। आप कमरा बंदकर... कभी श्वास पर, तो कभी मंत्र पर, कभी रूप पर चित्त को एकाग्र करने के लिए कठोर बल का प्रयोग नहीं कर रहे हैं। ... यहां बस मन को क्रिया के साथ, चाहे वह छोटी हो या बड़ी, यह महत्वपूर्ण नहीं है, उसके साथ अधिक से अधिक रखना है।’
‘तब बाह्य मन,... अंतर्मन में लीन होने लगता है।
बाह्य मन, विचार है, विचारणा है, अवधारणा है, स्मृतियां है,... अंतर्मन,... स्मृति तो है पर वह बार -बार सतह पर आकर उत्तेजित नहीं कर रही है। विचार भी है,पर यहां विचारणा का प्रवाह नही है, एक नियंत्रण है।
जब कहा, वह सतह पर आएगी,... अन्यथा नहीं,... उस सेवक की तरह जो अनुशासित है, आदेश की प्रतीक्षा में विश्राम में है। आदेश मिलते ही तुरंत हाजिर होता है।
मन मर नहीं सकता, वह जन्म के साथ, प्राण की युति के साथ आता है।
मृत्यु इस मन का प्राण के साथ लौट जाना है...
पर मुक्ति,... एक अवधारणा भी है,... कन्सेप्ट है। जीवन की अवस्था है। जहां बाह्य मन अनुशासित है।
वहां शांति है, रस है, प्रेम है। प्रचंड शक्ति कार्य करने की है। क्योंकि ‘अंतर्मन’, शक्तिशाली है, जब वह जागृत होता है, तब हम अपनी स्वाभाविक स्थिति में आते हैं, जो हमारा साध्य है।

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

हमारे पुरोधा श्री हरि वल्लभ हरि


हमारे पुरोधा  श्री हरि वल्लभ हरि

हरि वल्लभ हरि प्रान्त में आधुनिक हिन्दी साहित्य की विकासधारा के प्रमुख स्तम्भ हैं। ”गंगाकिनारे“,(1951) आपकी कहानियों का संग्रह है जो सन पचास के आसपास प्रकाशित हुआ था। दयाकृष्ण विजय के कहानी संग्रह ”उलझन “, की आपने भूमिका लिखी थी। ”बुदबुद“ आपका काव्यसंग्रह प्रकाशित हुआ था। आप वर्षों तक भारतेन्दु समिति के अध्यक्ष भी रहे। सन पचपन के आसपास भारतेन्दु समिति के किसी कार्यक्रम में मैंने आपको देखा था। तब में छठी क्लास में पढंता था। उन दिनो साहित्यकारों का समाज में विशेश स्थान था। कोटा भी छोटा शहर था। रामपुरा बाजार ही साहित्यिक सांस्कृतिक हलचल का केन्द्र था।
सफेद खादी का कुर्ता और धोती तथा सिर पर टोपी आपकी पहचान थी। उन दिनो डॉ राम चरण महेन्द्र देश में सम्मानित हो चुके थे।

कोटा के कवि डॉ नलिन वर्मा आपके पुत्र हैं। जिनकी ग़ज़लों के दो संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी पुत्री का भी एक कहानी संग्रह कन्यादान प्रकाशित हुआ है।

इन सब बातों की   चर्चा  आपसे इसीलिए करने का मन हो रहा है कि कुछ दिन पूर्व मैंने अपने साहित्यिक मित्रों से जब आपके बारे में चर्चा की तो पाया हमारे मित्र श्री हरि के नाम से ही अपरिचित हैं। हम अपनी परंपरा को आज के मीडिया के प्रभाव में इतनी जल्दी भूलते जारहे हैं, यह चिन्तनीय है। आज रचनाकार मात्र अपने तक ही सीमित रह गया है। वह स्वयं हर जगह अपने आपको ही विज्ञापित करने के प्रयास में है। यहॉ के बड़े रचनाकार  साहित्य अकादमी के पुरोधा भी रहे। पर नजाने क्यों श्री हरि जी पर एक मोनोग्राफ भी नहीं दे पाए।  आजकल तो अकादमी की हमारे पुरोधा श्रृंखला में नए रचनाकारों  के देहावसान के बाद ही उनकी स्मृमि में तुरंत ग्रंथ भी छप जाते हैं। तब इतनी राजनीति नहीं थी। सृजनकार अपनी लेखनी से ही संतुष्ट था। इस अंचल के रचनाकारों ने हिन्दी साहित्य के विकास में गत शताब्दी में बहुत कुछ दिया है। रचनाकारों का मूल्यांकन किया जाना अपरिहार्य है।

स्वतन्त्रता पूर्व के प्रसिद्ध कवियों में हरि वल्लभ ‘हरि’ प्रमुख हैं। वे सुधीन्द्र के समकालीन थे। वर्षों तक कोटा की साहित्यिक समृद्धि के वाहक भी रहे।

छायावादी तथा उत्तर छायावादी काव्य संस्कारों से वे प्रभावित थे। सन 1983 ई. में ‘श्रीभारतेन्दु समिति’ ने उन के काव्य संग्रह ‘बुदबुद’ का प्रकाशन किया था।
कृति की भूमिका में बाल कृष्ण थोलम्बिया ने लिखा है:-
”उन में एक ओर जहाँ उन के दार्शनिक चिन्तन की छाप है, कुछ अनुत्तरित प्रश्न हैं, और संसार की असारता में भी सार है, वहीं दूसरी और यहाँ के स्पार्द्ध, ईर्ष्या, द्वेष, छल, दम्भ और अहं से विकृत जीवन ने भी उन्हें मर्माहत किया है। उन के मुख से ‘यह तो मेरा देश नहीं है’, सहसा ही नहीं निकल पड़ा है, इस की पृष्ठ भूमि में कुछ रहा है, फिर भी उन की आस्था बनी रही है, विश्वास डिगा नहीं है।“
प्रो. इन्द्र कुमार ने उन की कविताओं की समीक्षा में जिस सांकेतिकता रहस्य भावना और अनुभूत्यात्मक अभिव्यक्ति की ओर इंंिगत किया है, वह उल्लेखनीय है:-”‘हरि’ के काव्य संसार में यह छोटी-छोटी चीज़ंे ही बड़े प्रश्न पैदा करती हैं। उस में समुद्र, आकाश, वन, हिमालय, आदि कम हैं और पंछी, नीड़, तितली, बूँद, फुहार, दीप, बुद-बुद आदि प्रचुर मात्रा में हैं, और प्रत्येक अपना-अपना प्रश्न लिए हुए है:-
”बनना मिटना ही क्या जीवन?
बढ़ना ही क्या जीवन का धन?
इन बुद-बुद को देख प्रश्न
ये सहसा मन में आते ?
बुद-बुद बन-बन मिट-मिट जाते।
तथा
मिट्टी के इन लघु दीपों से
तुम को इतनी ममता क्यों है?
भरते जाते स्नेह तरल, ये होते जाते रीते
युग-युग बीते तुम को भरते, इन को पीते-पीते।
जड़ से नेह बढ़ाने को
चेतन में यह तन्मयता क्यों है?
यहाँं दार्शनिकता अध्यात्म की तरफ़ उन्मुख ही नहीं, एकाकार हो गई है, तथ्य अपने आवरण को छोड़ता हुआ, अनुभूत्यात्मक अभिव्यक्ति में है। यहाँ सम्वेदना आरोपित नहीं है, सहज स्वभाव, तथा सरल शिल्प में जैसे चुपचाप ममेतर पास आ कर बैठ गया हो। विरल अनुभूृतियाँ, सहज शिल्प में अनायास उभर आई हैं। भाषा, समास शैली में है। शब्द, अर्थ-गर्भत्व व स्वतन्त्र लय के साथ हैं। यह श्रम साध्य शिल्प हाड़ौती  अंचल के कवियों में महत्वपूर्ण है।
”शूलों की दुनिया में आ कर
क्या पाओगे पंछी गा कर?
अरे! उड़ो स्वच्छन्द जहाँ से
यहॉं महकते आये पंछी?

आप की अन्य काव्य कृतियों में ‘पृथ्वी-सूक्त का अनुवाद’ उध्ेखनीय है। आपको अधिकांश लेखन अप्रकाशित रह गया है।

सन 1951 ई. में हरि वल्लभ हरि का कथा-संग्रह ‘गंगा किनारे’ प्रकाशित हुआ था। संग्रह की भूमिका में चन्द्र प्रकाश सिंह ने लिखा था कि इन कहानियों में निरूपित समस्याऐं प्रधानतः सामाजिक हैं, व्यक्तिगत नहीं। इसी लिए इन में परिस्थितियों का रचनात्मक वर्णन ही अधिक मिलता है। व्यक्तित्वों का मनोविश्लात्मक चित्रण नहीं। भूमिका में हरि वल्लभ हरि की कथा-यात्रा का स्पष्ट परिचय मिल जाता है। हरि वध्भ हरि आदर्श वादी लेखक थे। वे लज्जा राम मेहता के कथा-साहित्य से प्रभावित थे। मुन्शी प्रेम चन्द की प्रारम्भिक कहानियों का भाषागत प्रभाव उन की कहानियों में है।

 इस कथा संग्रह में ‘उलझन’, ‘गंगा किनारे’ पहाड़ी’ ‘वीरांगना’ आदि कहानियाँ अपने समय में चर्चित रही थीं। ‘उलझन’ कहानी जो है, उस का कथान्श यह है कि दौलत राम की बहिन मैना की शादी माणिक लाल के साथ होती है। दौलत राम समाचार लाता है कि माणिक लाल ने मोहिनी नाम की अन्य स्त्री के साथ विवाह कर लिया है। माणिक लाल को क्रान्तिकारी बताया गया है। मैना को जब यह समाचार मिलता है तो वह माणिक लाल को पत्र लिखती है। मोहिनी, मैना को मिलने के लिए बुलाती है। दोनों जब मिलते हैं तो वे दौलत राम के साथ माणिक लाल से मिलने जाती है। वहाँ माणिक लाल तो नहीं मिलता है, मैना के नाम लिखा हुआ उस का पत्र मिलता है। जिस में लिखा है कि तुम ने मोहिनी को मुझ से छीन लिया है, इसलिए मैं उचित समझता हूँ कि तुम से नहीं मिलूँ। मैं यहाँ से जा रहा हूँ और मुझे ढूँढने का प्रयास मत करना। इसी के साथ उस ने मोहिनी का वह पत्र, जो उस ने माणिक लाल को लिखा था कि उसे सब बात पता लग गई है और वह सम्बन्ध विच्छेद करना चाहती है, रख देता है। दोनों पत्र पा कर मैना अपना सिर पीट लेती है और कहती है, ‘भैया घर चलो’।

दूसरी महत्व पूर्ण कहानी है, ‘गंगा किनारे’। कथान्श यह है कि कमल एक कवि है, मेधावी छात्र है। उस के माता-पिता नहीं है। कॉलेज में हुए कार्यक्रम में उसे एक लड़की मिलती है जो कि अपने आप को प्रोफ़ेसर खरे की लड़की बताती है। उसे प्रोफं़सर खरे ने गंगा की बाढ में अनाथ पाया था, उस का लालन-पालन उन्हों ने किया था। प्रोफ़ेसर साहब के कहने पर कमल को घर बुलाती है, वहीं समाचार-पत्र से पता लगता है कि गंगा में बाढ़ फिर आई हुई है। कमल कोे अपना बचपन याद आता है और वह गाँव जा कर लोगों की मदद करना चाहता है। किरण भी उस के साथ चलना चाहती है। वे दोनों भवानीपुर आ जाते है, वहाँ कमल एक बड़े नीम के पेड़ को पहचान कर अपने पुराने मकान और अपने बचपन को याद करता है। वह अपने घर के पास किसी मनमोहन पाण्डे को भी याद करता है, जो उस के पिता के मित्र थे और उन की पाँच-छः वर्ष की लड़की भी थी जो उसके साथ खेलती थी। कमल उसे अपने बचपन की बातें बतलाता है, और अपने हाथ पर लिखे हुए बचपन के नाम को बताता है। किरण उस बचपन में साथ खेली लड़की का नाम पूछती है। वह उस का नाम लीला बताता है, और तब किरण अपनी कलाई को उस के सामने रख कर पूछती है और कहती है:-

‘तुम्हारा नाम था विनय’
कमल चौंक जाता है और कहता है:-
‘कौन मेरी लीला!’
इस प्रकार से हरि वध्भ हरि की कहानियाँ भावुकता पूर्ण सामाजिक परिप्रेक्ष्य में प्रेम को व्यक्त करने की कामना लिए हुए आर्दश वादी रुज्हान से परिपक्व हैं। यह बात दूसरी है कि इस काल में भारतीय परिदृश्य पर मुन्शी प्रेम चन्द, जैनेन्द्र कुमार, शरद चन्द्र, बंकिम चन्द्र के कथा-साहित्य का व्यापक प्रभाव पड़ने लगा था। इस अंचल का कथा-साहित्य खड़े होने की कोशिश में था।

डॉ नलिन वर्मा निरन्तर अपने काव्यसंग्रहों के साथ अपनी संलग्नता को बनाए हुए है। आवश्यक है श्री हरि का अप्रकाशित साहित्य भी विशेषकर उनके निबन्ध प्रकाश में लाए जाएॅं, हम अकादमी से आग्रह करें कि उन रचनाकारों के लिए जो साहित्य सेवा में पूरी तरह समर्पित रहे, उनके सृजनात्मक योगदान को प्रकाश में लाए।

बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

हमारे पुरोधा गोविन्द गौड़

हमारे पुरोधा गोविन्द गौड़

 गोविन्द गौड़ से मेरा परिचय ज्ञान भारती के किसी कार्यक्रम में 1996 के आसपास हुआ था। मैं तब कोटा में सरकारी पद पर था। उनका हिन्दी, राजस्थानी और अंग्रेजी भाषा और साहित्य पर समान अधिकार था। उन्होंने अपना काव्य संग्रह मुझे भेंट किया था। फिर लघु कहानियों का संग्रह एक उपन्यास गद्य में आलेखों का अप्रकाशित संग्रह लेकर वे मेरे पास आए थे। अत्यधिक संवेदनशील व्यक्ति, साहित्य की दुनिया में अनफिट हो जाता है। जीवन के उतत्रार्द्ध में वे मानसिक बीमारिसों से ग्रस्त हो गए थेेेेेेेेे । कोई उनकी हत्या करना चाहता हे, यह भय उन्हें सताने लगा था। उनके ही मित्रों ने जिन पर  उन का भरोसा था, उन्होंनेे उनके साहित्य में अश्लीलता का आरोप लगााकर उन्हें अप्रसांगिक बना दिया था।  वे एक कुशल संपादक भी थे । साहित्यिक पत्रिका कदंब गंध का उन्होंने संपादन किया था। वे साहित्य को समर्पित मौन आराधक थे, जिनकी सेवाओं को लेकर, न तो उनके जीवन में , न उनके जाने के बाद  कभी किसी प्रकार की चर्चा भी नहीं हुई , यह आलेख उनकी स्मृति में समर्पित है।

गोविन्द गौड़ प्रगतिशील आग्रहों से जुड़े कवि थे,
 ‘पुरातन के प्रति मोहग्रस्तता का अभाव, आगत के प्रति सजग प्रतीक्षा’ प्रगतिशील कविता का आग्रह रहा है। यहाँ काव्य भाषा में ‘तनाव’ स्वतः परिलक्षित है। यह तनाव जहाँ ओढ़ा हुआ होता है, वहाँ भाषा अत्यधिक बोझिल व शोर ग्रस्त हो जाती है। परन्तु जहाँ कवि, ‘साधारण जन’ की व्यथा-कथा के साथ साक्षी बनता है, वहाँ:-
”अस्तु
कंधा तो तुमको देना है
कुर्सी को या अर्थी को
चुनना तो है साथी
अमन चैन या मातम-पुर्सी को।“‘पुरुषांतर’,  पृ. 10.

‘पुरुषांतर’, गोविंद गौड़ का कविता संग्रह, उन की चालीस वर्षीय काव्य-साधना का प्रतिफल है। ‘वर्ण’ व ‘वर्ग’ की असमानता तथा विरोधाभास प्रगतिशीलता में बाधक हैं। समाज की समरसता को, इस वर्ण-व्यवस्था ने, मनुष्य व मनुष्य के बीच के इस अलगाव ने, बहुत तोड़ा है:-
”मुझे तअज्जुब है
अपने तप की असफलता के बावजूद
पीपल, आम की ओर
आकृष्ट क्यों नहीं होता?
और बरगद, जामुन से मुँह क्यों मोड़ेे रहा
शायद संस्कार तोड़ सकने की
शक्ति अब इनमें नहीं रह गई है।पृ. 35.
‘संस्कार बद्धता’, प्रतिगामिता का स्वभाव है। जहाँ यह संस्कार बद्धता, क्षरित हो जाती है, वहाँ उस नाम-रूप धारी व्यक्ति का स्वाभाविक परिवर्तन प्रारम्भ हो उठता है, उस के अहंकार खोने लगते हैं। तब जो बच पाता है, वह मात्र आदमी होता है, केवल आदमी, जो इस कविता का आदर्श है:-
”जिसमें कोई रंग भेद न हो
जो सर्व धर्म समभाव हो
वही केवल आदमी है
सचमुच देव तुल्य
शफ्फाफ
शाश्वत सत्य की तरह।“ पृ. 47.

इस ‘आम आदमी’ की खोज, ‘उफान’, ‘आम आदमी’, ‘पुरुषांतर’ ‘समय पूर्व’, ‘नियति’, ‘उपालम्भ’ आदि कविताओं में है। उस की खोज ही नहीं, उस की पहचान भी कवि को है। सम्भवतः प्रगतिशील कविता के इस संग्रह में, ‘देवदार’ कविता इस मानी में अनूठी है। जहाँ बिना किसी तेज़ाबी भाषा के स्पर्श के, बिना घनघोर शब्दावली का सहारा लिए, सहज वचन-वक्रता से आदमी की पहचान को पुनः रेखांंिकत किया है।


‘असमान्तर’ 1993 ई. गोविंद गौड़ की कहानियों का संग्रह है। आप की कहानियों की विवेचना में, डॉ. शान्ति भारद्वाज ‘राकेश’ ने कृति की भूमिका में कहा है:-
”उस की दृष्टि क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं पर है। कुछ प्रसंग तो चौंकाते हैं और सरलता से पचते नहीं। लेकिन आज का व्यक्ति सोच और व्यवहार में जहाँ पहुँच गया है, उस वस्तुस्थिति का साक्षात्कार सहजता को तो खण्डित करेगा ही। गोविन्द गौड़ ने यहाँ पाठकों की प्रतिक्रिया का कम, समय के नंगे सत्य को उजागर करने पर अधिक ध्यान दिया है।“

‘असमान्तर’ की कथा की वस्तु जिस अन्तर्गत का रहस्योद्घाटन करती है, वहाँ नारी के प्रति उन का जो दृष्टिकोण है, वह विस्मयकारक है।
 यहाँ पेइंग गेस्ट कहानी में  मकान मालकिन का अपनी युवा कन्या के घर में रहते हुए अतिथि को काम पिपासा की तृप्ति से आमन्त्रण, और अतिथि का यह सोचना कि उस की पत्नी ने भी अपने घर में ‘पेइंग गेस्ट’ रखने को कहा है, उस का वापिस घर लौटना।  आंतरिकता पर घहरा आघात है,जो धक्के के साथ विवेेक को जगाता है,
 यह सोच अप्रत्याशित तो है, पर मानवीय संबंधों का जटिल चित्रण भी हैं  जगत की अपनी चाल है, यहाँ क्रियाऐं, प्रतिक्रियाऐं, लेखकीय क़लम से नहीं चलती हैं। लेखक की दृष्टि में अतिरंजना  तो है  पर अस्वाभाविक नहीं हे।  ‘भूख’ कहानी में भी यही स्थिति है।

‘हड़ताल’, ‘बाढ़’, ‘आशंका, ‘भरम’, निम्न मध्य वर्ग की पीड़ा, कुण्ठा, दरिद्रता को चित्रित करते हुए मनुष्य की प्रगाढ़, जिजीविषा के चित्रण की कथाऐं हैं। यहाँ लेखक का प्र्रगतिशील बोध सजग है। गोविन्द गौड़ की कथा-यात्रा में यह द्वन्द्व सहज परिलक्षित होता है।

वे ‘यशपाल’ के कथा साहित्य से प्रभावित हैं तथा साठोत्तरी पीढ़ी का कथा साहित्य भी तरह-तरह के आन्दोलनों से परिचालित था, वहाँ अयाचित सेक्स वर्जनाओं का चित्रण प्रगतिशीलता का आधार मान लिया गया था। बाद मंे कहानी उस अन्धकार से बाहर चली गई थी। अनावश्यक काम-स्थितियों की कथा में प्रस्तुति कथा को बोझिल ही करती है, यह वस्तु जगत का निर्मम सत्य नहीं है। वह तो ‘भरम’ कहानी में प्रतिबिम्बित है, जहाँ कथा का नायक अपनी नस बन्दी करवा कर मिली राशि पिता को सौंप देता है। पिता के पूछने पर वह लँगड़ा कर क्यों चल रहा है, उस का कथन है कि पाँव में चोट लग गई है।

अश्लीलता का आरोप लगाकर लेखक को उसके अधिकार से वंचित कर खारिज कर देना अमानवीय है। दुख तभी होता है, कृति की राहसे न गुजरकर भी हम कृतिकार को फतवे देकर ही  ही खारिज कर देते हैं।
‘असमान्तर’ की भाषा में एक ‘तल्ख़ी’ है, कड़ुवाहट है। रचनाकार ने समर्पण में कहा भी है:-
”जिन्हों ने मुझे नीमज़द कड़ुआ बनाया और नंगा सच बयान करने का साहस दिया।“
परन्तु शिल्प जहाँ सुगठित है, वहाँ बिखराव नहीं है।  कथा में एकान्विति है, भाषा में प्रभावोत्पादकता है।


‘हाशिये के लोग’2005 ई. गोविन्द गौड़ का निबन्ध संग्रह है।

शिवराम ने निबन्ध संग्रह की भूमिका में कहा है, ”गोविन्द गौड़ के लेखों का यह संग्रह पाठक को उन के चिन्तन और चिन्ताओं से रू-ब-रू कराता है। ...इन लेखों में समाज में क्षीण होती जा रही मानवता की स्थिति की गहरी पीड़ा है। समाज के व्यापारीकरण ने साहित्य, संस्ड्डति को जीवन के हाशिये पर डाल दिया है। फलस्वरूप जीवन से सुरभि, सौरभ और आनन्द खोता जा रहा है।“

लेखक ने अपने समय की बहुत-सी सामाजिक समस्याओं, साहित्यिक-सांस्कृतिक आन्दोलनों, ऐतिहासिक घटनाओं  पर बेबाक लिखा हे। उससे सहृ दय  पाठक के लिए  एक व्यापक परिदृश्य बनता है। साठोत्तरी कथा साहित्य को उस समय समझने की ललक इस कृति के आलेखों में स्पष्ट है। लेखक की भाषा सहज व प्रभावी है।

‘मैं तुम्हें खाक कर दूंगा’ ;2000 ई., यह सुरेन्द्र गोइन्दी के अंग्रेज़ी उपन्यास ‘आइ विल रुइन यू’ का हिन्दी में वह अनुवाद है, जो गोविन्द गौड़ ने किया है।

अनुवाद की भाषा इतनी सहज व स्वाभाविक है कि वह मूल कति की अपने आप में सूचना देती है। उपन्यास समकालीन यथार्थ का खुला लेखा है। जिस प्रकार तकनीकी महकमों में व्याप्त भ्रष्टाचार एक ईमानदार आदमी को बर्बादी के कगार पर ले आता है, उस की जिजीविषा व नैतिक मूल्यों के प्रति सन्लग्नता, उसे हर परिस्थिति में जो साहस देती है, उस का इस कृति में पसारा है।

हिमाचल प्रदेश यहाँ अपने ख़ूबसूरत पर्यटन सौन्दर्य के साथ है, साथ ही वहाँ प्रचालित निर्माण कार्य की व्यवस्थाएँ हैं। सेना भी है, आपातकाल भी है, जन साधारण किस प्रकार व्यवस्था की निर्ममताओं को झेलता है, उस की कटुता, विषमता यहाँ उपस्थित है।

गोविन्द गौड़ की ख़ूबसूरती वह पारदर्शी भाषा है, जहाँ वस्तुगत तेज़ाबी घुटन व पतन को उन्हों ने तलस्पर्शी छटपटाहट के साथ प्रस्तुत किया है। यह अनुवाद की भाषा नहीं है, लगता है, स्वयं अनुवादक मुख्य पात्र ‘सिंह’ की व्यथा के साथ एक रूप हो गया है, ”मैं ने तो सहज जीवनानुभावों को अभिव्यक्ति दी है। पात्र-विशेष की जीवन-यात्रा के यथार्थ, ज़माने के सत्य, उस के संघर्ष, आदर्श, दर्शन और तीव्र प्रगतिशीलता के स्पेस से इस उपन्यास की साँसों का अहसास मात्र ही मेरे लिए एक उपलब्धि होगी।“ ;लेखकीय

उपरोक्त लेखकीय संकल्प, को उपर्युक्त भाषा में ही नहीं, आत्मगत संकल्प भावना से अनुवाद किया है। यह उपन्यास  अपनी विषयवस्तु की अनूठी पहचान रखता है। यहाँ ‘भ्रष्टाचार, व्यभिचार, को परत-दर-परत अनावृत करता हुआ सामान्य मनुष्य की उद्दाम जिजीविषा के महान संकल्प को जगाता हुआ, यह उपन्यास महत्वपूर्ण है।

उपरोक्त आलेख में गोविन्द गौड़ की रचनाधर्मिता से आपका परिचय कराया है। वे आधुनिक सोच के अप्रतिम रचनाकार थे। उनकी अंत्येष्ठि के दिन तेज ओलों की बरसात के साथ उन्हें विदाई दी गई थी। लग ये ही रहा था उनकी जीवन्तता मानो जाने से मना कर रही हो।

मंगलवार, 29 अक्टूबर 2013

हमारे पुरोधाश्री जमना प्रसाद ठाड़ा राही

हमारे पुरोधाश्री जमना प्रसाद ठाड़ा राही


श्री जमना प्रसाद ठाड़ा राही प्रगतिशील कवि, नाटककार, रंगमंच के कुशल अभिनेता थे, जिनकी जन्म शताब्दी का उत्सव  प्रेस क्लब कोटा की आयोजित सभा में मनाया गया था। उनकी साहित्यिक यात्रा पर आलेख भी पढ़े गए थे। ठाड़ा साहब से मेरी मुलाकात सन 71 के आसपास हुई थी, तब मैं हिन्दी विभाग में प्राध्यापक था। जाग जाग री बस्ती आपके गीतों का संग्रह प्रकाशित हुआ। हाड़ौती में खूूॅंगाली आपकी कविताओं का संग्रह आया। इस अंचल की नाट्यधर्मिता को  आपने आगे बढ़ाया। प्रांत के हिन्दी साहित्य का विकास स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही गुटबंदी का शिकार होगया। हिन्दी साहित्य हो या राजस्थानी साहित्य का केन्द्र जो स्वतंत्रता पूर्व हाड़ौती में केन्द्रित था वह क्रमशः उदयपुर व जोघपुर में ही सीमित रह गया। हाड़ौती मे जो नेतृत्व विकसित हुआ , वह आत्ममुग्ध , स्वकेन्द्रित तथा स्वप्रचारी अधिक ही होगया। उस नेतृत्व ने अपने सभी समकालीन साहित्यकारो के साथ उपेक्षित व्यवहार ही अधिक रखा।

यह लेखमाला उन्हीं पुरोधा साहित्यकारों को समर्पित है, जिन्हें हम भूल गए हैं।  आज नए लेखकों पर मोनोग्राफ तैयार हो रहे हैं, पर जिन्होंने अपना पूरा जीवन साहित्यिक सेवा में ही दिया, उन पर आलेख तक प्रकाशित होना दुल्रभ हो गया है। हम अपनी परंपरा को जाने, प्रेम करें, इसी आषा के साथ-

जमना प्रसाद ठाड़ा ‘राही’ का काव्य संग्रह ‘जाग जाग री बस्ती’ सन 1981 ई. में प्रकाशित हुआ था। आप इस अ´चल की ‘जन वादी काव्य चेतना’ के वे प्रमुख कवि थे। रंग कर्मी ठाड़ा ‘राही’ सन 1950 ई. के आस-पास साहित्य-जगत में अपना स्थान बना चुके थे। परन्तु आप का काव्य संग्रह बहुत बाद में सेवा-निवृत्ति के बाद ही प्रकाशित हुआ। आप इस अ´चल की प्रगतिशील कविता के प्रारम्भिक कवि कहे जा सकते हैं।

”बिकी हुई कलमों से केवल जन रंजन हो सकता है
किन्तु न कोई दिशा बोध या निर्देशन हो सकता है।
जागरुक सर्जक खुद जगता, सारा देश जगाता है
अधिकारों का यह मौसम है भिक्षाओं का समय नहीं
संकल्पों का यह मौसम है, शंकाओं का समय नहीं।“
”टूट गये मस्तूल ढेर यह फटे हुए पालों का
जिसके चारों ओर घिरा है घेरा घडियालों का
खुद पतवार संभालो राही डूब रही यह किश्ती
जाग जाग री बस्ती अब तो जाग जाग री बस्ती।“

आज की समस्याओं का आकलन यह कवि पचास साल पहले भी कर रहा था। यह वह दौर था जहॉं साहित्य लोकेषणा का आधार नहीं था।

‘राही’ का यह 51 कविताओं का काव्य संग्रह अपनी विश्ेाष पहचान के साथ आया था। कवि के भीतर आवेग, वर्तमान से असन्तोष तथा जीवन यथार्थ का कटु अनुभव और उस सब के बावजूद जीवन्त रहने की अभिलाषा, उन के इन गीतों का सार तत्व है।

”ये शासकीय सम्मानित कवि हैं, हम तो फुटपाथी हैं
हमारी कलमें बड़ी तुर्श पर इनकी ठकुर-सुहाती हैं“।
यही कारण रहा कि ठाड़ा साहब अपने समय के लोकप्रिय कवि होते हुए भी तत्कालीन साहित्यिक मूल्यांकन से उपेक्षित ही रहे।

कवि ठाड़ा ‘राही’, शिक्षक रहे थे। अतः साधारण जन की पीड़ा के वे गायक बने। आम बोल-चाल की भाषा, उस में बात कहने का साहस, जो आम जन तक सीधी सम्प्रेषित हो जाए, यह  ठाड़ा ‘राही’ की कविताओं की पहचान रही है।
हाड़ौती में ‘खूँगाली’ उन का काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ था। आपका सृजन महत्वपूर्ण है।

रविवार, 27 अक्टूबर 2013

हमारे पुरोधा बालकृष्ण थोलंबिया जी

हमारे पुरोधा  बालकृष्ण थोलंबिया जी


थोलम्बिया जी हाड़ौती अंचल की साहित्यिक साधना के  शताब्दी पुरुष हुए हैं। आप बीसवीं शताब्दी  के पूर्वाद्ध में इस अंचल में हिन्दी भाषा और साहित्य के शिक्षण में प्रवृत्त हुए थे। आप अस्सी साल से अधिक  साहित्य की सेवा में रहे। छन्द पर आपका अधिकार था। जनी अपका खंड काव्य है। संत नामदेव की शिष्याओं में जनी का नाम उल्लेखनीय है। इस आलेख में थोलम्बिया की स्मृति में उनके भक्ति प्रधान इस खंड काव्य पर चर्चा की जारही है। आज की दुनिया में  जहॉं लेखन आत्ममुग्ध बनता जारहा है,  नई पीढ़ी के लिए अपनी परम्परा के दाय को स्मरण करना मित्रों को कष्ट कारी अवश्य लग सकता है। आयु के सौवर्ष पूरे कर प्रसन्नचित हमारे बीच से आप विदा हुए थे।  आपके जीवन के अंतिम वर्षों में प्रिय श्रीनंदन चतुर्वेदी जी के साथ  जब मैं आपसे मिला था, आप की नेत्रज्योति चली गई थी, पर आपकी स्मृति यथावत थी , जनी खंडकाव्य के कुछ छंद मैंने आपसे आपके घर ही सुने थे। जो आपके लिए यहॉं दिए जा रहे हैं।
बाल कृष्ण थोलम्बिया अस्सी वर्षों तक हाड़ौती के साहित्यिक रचना सन्सार में क्रियाशील रहे हैं। वे राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्य धारा के कवि हैं। वे हाड़ौती साहित्य के सन्सार में सर्वाधिक सक्रिय रहे हैं।
सरल, सहज काव्य भाषा और परिवेशगत विषय, सदा से ही कवियों का आकर्षण रहा है। बाल कृष्ण थोलम्बिया ने पुराने काव्य रूपों और नए काव्य रूप ‘मुक्त छन्द’ में भी लिखा है। आप का स्वतन्त्र काव्य ग्रन्थ ‘जनी’ प्रकाशित है। अस्सी वर्ष से अधिक समय तक काव्य सर्जना में सन्लग्न बाल कृष्ण थोलम्बिया, इस अ´चल के शताधिक आयु प्राप्त, ‘जीवन साहित्य सर्जना’ के प्रतीक हैं।
”आश्वासनों की मकड़ियाँ
इतने जाल तन देती हैं
कि मन की माखी
उलझती जाती है, उलझती जाती है
और अन्त में निढाल हो दम तोड़ बैठती है।“4 ;कोटा काव्य गन्धा, पृ. 5.
”यही है अवसाद
कि
पुरुष
अब कापुरुष हो गया है
चरित्र और नैतिकता का गढ ़हो गया है धराशायी।(कोटा काव्य गन्धा, पृ. 7.)

‘ब्रज माधुरी’, ‘मन भावनी’ ;साठ सोरठे तथा ‘जनी’ ;भक्ति काव्य, 1997 ई आप की अन्य महत्वपूर्ण प्रकाशित रचनाऐं हैं।
सन्त नामदेव के जीवन तथा उन के ‘अभंगों’ पर आपने स्वतन्त्र कार्य किया है। जो सन्त नामदेव और उन के उपदेश, ‘नामदेव निर्माल्य’ के रूप में पुस्तकाकार में प्रकाशित है।
‘जनी’ एक स्वतन्त्र लघु पुस्तिका है। एक लम्बी कविता है। ‘जनी’, एक साधारण निम्न वर्गीय महिला की प्रेममयी गाथा है, एक ग़रीब घर में काम करने वाली दासी ‘जनी’, विट्ठल के प्रेम में इतनी गहराई से डूब गई थी, कि भगवान कृष्ण की गीता में ली गई यह ‘शपथ’ सत्य रूप में प्रकाशित-सी हो गई, ”जो मुझे अनन्य भाव से मानता है, मैं उसे भजता हूंँ।“ राजस्थान की मीरा तथा महाराष्ट्र की ‘जनी’ में यही साम्य है, कि दोनों प्रभु प्रेम में आकण्ठ डूबी हुई हैं। महाभाव में है। वैषम्य बस इतना है कि एक राजरानी रही है, एक दासी, किन्तु प्रभु-प्रेम दोनों के ही जीवन का आधार रहा है।
बाल कृष्ण थोलम्बिया की अपनी अलग शैली है, जो छायावाद पूर्व में, ‘गुप्त’, ‘हरिओध’, की थी। वर्णनात्मक, प्रसादमयी भाषा, जो सीधे पाठक से सम्बोधित होती थी, उसी का विकास यहाँ मिलता है।
”मैं हीन जाति की बेटी
जिस को अछूत जन कहते
मेरी छाया से बच कर
वे दूर-दूर ही रहते।
मैं पूछ रही हूँ तुम से
क्या मुझ को अपना लोगे?
अपने कोमल हाथों से
मेरे अघ-ओघ चुनोगे?“ (पृ. 24.)तब विट्ठल का उसे उत्तर, जो जन कथा में मत है, विट्ठल स्वयं उस के साथ आ कर उस के कार्य करते थे:-
”मौन साध बैठे थे
विट्ठल अब तक, यों बोले -
जे जनी, भक्ति को तेरी,
वह कौन तराजू तोले?“ (पृ. 25.)
वह ऊखल में धान कूटती है, एक छाया-सी उस के साथ रहती है, वह क्या है? अचानक पाती है, मूसल गीला हो गया है, जैसे हाथों का कोई छाला फूट गया हो, वह जानना चाहती है, यह क्या है? तब अचानक विट्ठल की छाया का उसे अनुभव होता है:-
”विट्ठल मेरे जीवन-धन
कमला की चख के तारे
मैं समझ नहीं पाती हूँं
ये कैसे खेल तुम्हारे?
”मेरे उलझे केशों को
तू माँ बन कर सुलझाता
फिर उन को सजा-सँवर कर
वैणी-बन्धन कर जाता।“(;पृ. 34.)
तब विट्ठल का कथन है:-
”घूरे पर उपजी तुलसी
का तो तू पावन दल है
पूजन-अर्चन की गरिमा
भव भव्य भक्ति सम्बल है।“(पृ. 35.)
यहाँ से कविता, अचानक मोड़ लेती है, धर्म, सम्प्रदाय, आध्यात्म, भक्ति, अनेक रूढ शब्दों की, मानो व्याख्या-सी हो गई हो। कवि थोलम्बिया, जो ‘प्रिय हरि’ के नाम से लिख रहे थे, अचानक अन्तर्मुखता की दहलीज़ पर दस्तक देने लगते हैं।
”यदि हो न तअस्सुब मन में
मज़हब कब आड़े आता?
सम भाव समादर रखता,
सब को ही शीश नवाता।“( पृ. 38.)
तथा कवि ‘जनी’ के माध्यम से अपनी ‘दीर्घ जीवन’ की अन्तिम अभिलाषा पाठकों को सोंपता है:-
”ये गिरजा, मन्दिर, मस्जिद
तो केवल एक बहाना,
उस सर्व व्याप्त शाश्वत का
तो सब ही ठौर ठिकाना।“9 ;पृ. 40.द्ध
साहित्य की राजनीति के, इस अ´चल में पहले शिकार बाल ड्डष्ण थोलम्बिया ही बने थे। उन का लिखा हुआ जीवन के अन्तिम समय में प्रकाशित हो पाया था। न तो भारतेन्दु समिति, न ही राजस्थान साहित्य अकादमी, उन के सौ वर्षीय जीवन काल में, उन का और उन के साहित्य का मूल्याकंन कर आदर दे पाई।
हम यहॉं हमारे पुरोधा के नाम से इस लेखमाला को इसलिए दे रहे हैं कि नई पीढ़ी यह जान पाए इस संस्कृति की यात्रा में वे ही अकेले पथिक नहीं हैं।इस अंचल का दुर्भाग्य रहा है कि हिन्दी साहित्य की अविकल सेवा के बावजूद भी इस अंचल के साहित्यिक योगदान का सही मूल्यांकन नहीं हो पाया। न तो राजस्थान साहित्य अकादमी उनके जीवन काल में ”मोनोग्राफ“ निकाल पाई नहीं हमारे पुरोधा श्रृंखला में आलेख ही। हम उनकी स्मृति को बनाए रखें , यही आशा है।

रविवार, 13 अक्टूबर 2013

शिवराम

शिवराम

शिवराम का निबन्ध लेखन बहुुत कुछ अप्रकाशित है, उन की असामयिक मृत्यु ने बहुत कुछ समाज से छीन लिया, बहुत कुछ उन का राजनैतिक सक्रिय जीवन उन से छीन कर ले गया। उन का साहित्यिक अवदान उन के सामाजिक उत्तरदायित्व में बहुत अधिक है। शिवराम के निबन्धों की पाण्डुलिपि जब तैयार कर रहा था, तभी अचानक विचार कौंधा था। शायद  आचार्य ‘शुक्ल’ की विरासत ही शिवराम को मिली है। इतना उदात्त मन, वैचारिक न्याय क्षमता तथा सही को सही कहने का सामर्थ्य शिवराम की ही पूँजी है।
इस आलेख में शिवराम के निबंध और उनके नुक्कड़ नाटकों पर चर्चा की जानी प्रस्तावित है।

शिवराम की गद्य-भाषा, व्यास शैली में .समास बहुल है। वे हर वाक्य को सूक्ति परक बनाते हुए  .एक गहरी लय के साथ, आवेगात्मक भाषा में उद्दाम नदी की तेज धारा की तरह विचारों को उछालते हुए अपनी निबन्ध-यात्रा को प्रारम्भ करते हैं। कविता के बारे में आप का एक महत्वपूर्ण निबन्ध है।

”कवि  की विश्व-दृष्टि, जीवनानुभवों की समृ(ि, उस का काव्य बोध ;जीवन मूल्य और कला मूल्य दोनोंद्ध उस की काव्य भाषा , उस का परम्परा-बोध और उस का काव्य कौशल, उस की कविता की गुणवत्ता को नियमित करते हैं।“

”रचना की अन्तर्वस्तु का जन्म आभ्यंतीकृत जीवनानुभवों के आलोड़न-विलोड़न से अर्थात मन्थन से होता है। चिन्तनशीलता और कल्पनाशीलता, विवेक की अन्तर्दृष्टि इस मन्थन के उद्यम को संचालित करती है। वैयक्तिक.निवै्रयक्तिक होने., जगबीती से आपबीती और आपबीती से जगबीती के रूप में .अनुभूत होने अर्थात सामान्यीकरण होन की प्रक्रिया चलती है। इस प्रक्रिया के बिना रचना की अन्तर्वस्तु अस्तित्वमान नहीं होती। यह प्रक्रिया जितनी समृ( और परिपूर्ण होती है, उतनी ही समृ( और परिपूर्ण अस्तित्वमान होती है।“

शिवराम की गद्य भाषा, उन के निबन्ध, एक मूल्यवान निबन्ध के उत्कृष्ट रूप हैं।

‘बाज़ार का समाजीकरण’ आप का दूसरा महत्वपूर्ण निबन्ध है-

”सच पूछा जाए तो मानव-समाज की सभ्यता और संस्ड्डति के विकास का मूल आधार जरूरत की चीजों के उत्पादन और विनिमय पद्धति की विकास यात्रा ही है।“

”जब निजी हितों और सामाजिक हितों में अन्तर्विरोध उभरने लगते हैं तो व्यवस्था संक्रामक हो जाती है।“

”जिसे स्वतन्त्र बाज़ार कहा जाता है, वह वास्तव में स्वतन्त्र नहीं होता, वह निजी पूँजीपतियों के बीच उन्मुक्त प्रतिद्वन्द्वता के नियन्त्रण पर आधारित होता है।“

‘जन संस्ड्डतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति’ शिवराम का विचारात्मक आलेख है। यहाँ वे रामविलास शर्मा की महत्वपूर्ण अवधारणा ‘जातीय संस्ड्डति’ के अगले पड़ावों की चर्चा में संलग्न हैं। शिवराम जनपदीय संस्ड्डतियों की अभिरक्षा के साथ जातीय संस्ड्डति के विकास की धारा में, ट्ठासोन्मुखी वृत्तियों के उन्मूलन में देखते हैं। उन का सोच साम्राज्यवादी .विकृतियों के विरु( है।

‘नक्सलवाद के विरु( आमजन,.’ आप की वैचारिक दृष्टि का आलेख है, जो जन. की पृष्ठ-भूमि को स्पष्ट करता है।‘हमारी साहित्यिक लघु-पत्रिकाएँ’, ‘राजस्थानी रंगमंच में हाड़ौती का योगदान’, ’ आप के अन्य प्रकाशित आलेख हैं।

शिवराम के द्वारा ”अभिव्यक्ति पत्रिका के  लिए लिखे गए, संपादकियों,तथाविभिन्न लघु-पत्रिकाओं में जो निबन्ध और आलेख प्रकाशित हुए हैं, उनके संग्रहित करने का प्रयास किया जाना अपेक्षित है।

‘शिवराम से नुक्कड नाटक के प्रारंभ की सूचना मिलती है। ... यह एकांकी और नाटक के बीच के वह कड़ी है, जहां प्रेक्षागृह आम जनता के बीच आ गया है। प्रेक्षागृह के अभाव ने ‘नाद्यवस्तु’ के स्वरूप तथा अभिव्यक्ति के रूप को भी परिवर्तित कर दिया। ‘प्रेक्षागृह’,     भद्रजन’ की साहित्यिक प्रीति पर टिका था। उनकी संख्या सीमित होती चली गई। ‘रंगमंच’ मात्र महानगरों में ही सीमित हो गया, ... तथा रूप अत्यधिक कलावादी भी हो गया। ‘पाठ्य पुस्तक’ में नाटक की स्वीकृति से नाटक मात्र एक ‘काव्य रूप’ बनकर रह गया, जो एक पठनीय कृति के रूप में ही समादृत होने लगा।

‘भारतेन्दु के नाटकों में नुक्कड़ नाटक का बीज तलाशा जा सकता है। यहां रंगमंच लोक के भीतर उभरता है, ... उसके अंतर्मन में उपजे सवालों की यहां खोज है, उत्तर तलाशे जाते हैं।
‘नाटक’ के माध्यम से जनजागृति लाने का कार्य, बहुत लंबे समय से होता रहा है। परन्तु नाटक के माध्यम से ‘आधुनिक विचारधारा पर सीधा हस्तक्षेप, तथा जनसंघर्ष में आम आदमी की भूमिका पर गहराई से बातचीत ‘नुक्कड़ नाटक’ के माध्यम से अधिक विकसित हो पाई है। इसका प्रमुख श्रेय जनवादी आंदोलन को है। जहां मजदूर आंदोलन की विफलताएं, समाजवादी सोच का तिरस्कार, धर्म निरपेक्षता पर सांप्रदायिकता का ग्रहण, तथा क्रमशः पूंजीवादी बाजारवाद का बढ़ता प्रभाव, जहां चिन्तन को धार दे रहा था, वहीं लोक से सीधे जुड़ने का दबाव, नुक्कड़ नाटक के लिए अपरिहार्य जमीन तैयार कर रहा था। ‘व्यवस्था जहां निर्मम होती जा रही है, वहीं उसका सम्मोहन, ‘सच’ को वृहद झूठ में तब्दील भी करता जा रहा है। ‘सच क्या है, प्रबंधन की विकसित शैलियां सामने आने नहीं देना चाहतीं। आम आदमी के प्रति पूंजीवादी बहुउद्देश्यीय कंपनियों का बढ़ता जाल, व्यक्ति का वस्तु में होता रूपांतरण, जहां साहित्यकार की संवेदना को झकझोर रहा है, वहीं वह दूसरे से जुड़ने की आवश्यकता भी तेजी से अनुभव करने लगा है।’ नाटक के तीनों अंग, नाटककार, पात्र तथा दर्शक, यहां यह त्रिपुटी, एकाकार होकर ‘विषयवस्तु को अपनी तीव्रता में भाव जगत में स्पंदित कर जाती है।

‘शिवराम’  लगभग तीस वर्षों से नुक्कड़ नाटक से जुड़े हुए हैं। उनके प्रसिद्ध नाटक, ‘जनता पागल हो गई है, घुसपेठिए के सैकड़ों प्रदर्शन हो चुके हैं। वे लेखक है, रंगकर्मी हैं, वे नाटक के साथ यात्रा करते हैं। सन् 73 के बाद ‘आपातकाल में उनके नाटक ‘जनता पागल हो गई है’ के सैकड़ों प्रदर्शन, पूरे देशभर में हुए थे। क्या यह राजनैतिक नाटक है?प्रश्न विचारणीय है।
नाटक की विषयवस्तु राजनैतिक भी हो सकती है, नहीं भी। राजनीति कोई सीधी लकीर नहीं है, जिसकी लंबाई नापी जा सके। यह बहु विविधा यामी प्रक्रिया है, जिसमें सामाजिक सांस लेता है। व्यक्ति के जन्म के साथ वह जुड़ जाती है। गरीब का बच्चा, झुग्गी झोंपड़ी में जन्म लेता है, अमीर का नर्सिंग होम पैदा होता है। वह राजनीति का ही पोषण पाता है। फिर शुद्धकला की चर्चा करना बेमानी है। आज दर्शक के चित्त पर ‘बु(िगत दबाव का प्रभाव है। बुद्धिगत दबाव जहां उसे तर्क सौंपता है, वहीं धन की लिप्सा भी। पदार्थ गत सम्मोहन उसे मूल्यहीनता सौंपता है। संवेदना सोख लेता है। उसे विचार के आधार पर सही विचार तक लाना, तथा उसके भीतर की संवेदनाओं को जगाते हुए उसकी वृत्तियों के परिष्कार का प्रयास करना कठिनतम कर्म है। ‘नुक्कड़ नाटक, की यही जीवन्त भूमिका है।

‘यह लोक से पैदा होता है, लोक में खेला जाता है, और लोक के लिए समर्पित है। यह जीवन्त कर्म है, जो लोक के पक्ष में है। ‘अंतर्वस्तु’ पिघलते लोहे की तरह है, उसका सोच क्या होता, यह तय नहीं हो पाता .... ‘देश-काल, समाज की परिस्थितियां, ... विश्वास को अपना नया सांचा गढ़ने के लिए भी प्रेरित कर सकती है। ‘वस्तु की रूप तक की यात्रा  यहां लोचमय है, गत्यात्मक है, यही इसकी वह जीवन्तता है जो इस नाट्य रूप को विशेषता देती है।
पात्र, यहां प्रतीक है, वे विकृति के विरुद्ध, साहस को, उम्मीद को, एक प्रतिकार को वाणी देते हैं। साधारण वेशभूषा है, प्रतीक का उसी आधार पर चित्रण है, पर अनावश्यक उसका विस्तार नहीं है। ... भाषा में गत्यात्मकता है, प्रभावोत्पादकता है, संकलन त्रय है, जहां प्रभावान्विति के साथ, एक भावदशा, ... एक वैचारिक स्पष्टता, केन्द्र में रह जाती है। यह अंतर्वस्तु का वह अनुशासन है, जो नाटक के सभी तत्वों का समाहार करता हुआ, उसे सहज संवेदनशील बनाता है।

‘अंतर्वस्तु की गहनता, तथा तीव्रता, जहां यहां प्रमुखता लेती है, वहीं उसकी तरलता, उसका किसी ठोस ‘वैचारिक दबाव’ से हटकर, एक पिघलते फौलाद की शक्ल में ढल जाना, उसे आनायास वांछित रूप को प्रदान करता है।

नुक्कड़ नाटक’ की प्रस्तुति में यह खुलापन है, ...  यहां ‘नाटककार, महत्वपूर्ण तो है, नाटक उसकी व्यक्तिगत कृति है, परन्तु अभिनेता, निर्देशक, दर्शक, तीनों की उपस्थिति रंगमंच पर जिस गहनता का निर्माण करती चली जाती है, वहां नाद्य शब्द पाठ्य शब्द को बहुत पीछे छोड़ जाते हैं। नुक्कड़ नाटक मात्र रंगमंच की सार्थक उपस्थिति बन जाता है। कलावादी नाटक लेखकीय सर्जना है, उसका हस्तक्षेप ज्यादा है, पर यहां कम से कम होता चला जाता है। जहां भी खेला जाता है, वहा ”वर्तमान“ उपस्थित होकर, उसे नया ‘काव्य रूप’ देने में सफल हो जाता है।

... ‘नुक्कड़ नाटक’ में स्वतंत्रता अधिक है। यहां सभी स्वतंत्र हैं। रचनाकार के पास ‘विविध विषय है, उसके काव्य के चयन की स्वतंत्रता है, उसकी चेतना पर समकालीनता का दबाव है, एक बैचेनी है। वह जनता का पक्षधर है। वह राजनेता की तरह भाषण नहीं देता है, देता है, तो वह अलग विधा है। यहां ‘रूपक-प्रतीक, ...  दृश्य बिम्ब, दर्शक से जोड़ते हैं। ‘शिवराम के नाटक ‘जनता पागल हो गई है’ ... ‘घुसपेठिए’, सुनो भद्र जन सुनो’, में समकालीन जड़ता पर जो व्यंग्य है। वह केन्द्रीय भूमिका में है। राजनैतिक अधःपतन तथा मनुष्य का धीरे-धीरे जड़-वस्तु में ढल जाना, उपजीव्य है। परन्तु जो कहा गया है, वह अनायास है। भाषा अत्यधिक सरल व तीव्रता में है। संवाद छोटे हैं, चित्रात्मक है, व्यंग्य है। बीज तो दर्शक के भीतर है, नाद्य भाषा अनुकूल खाद पानी देती है, उसके भीतर का अनकहा व्यक्त हो जाता है।

‘नाट्यशब्द’ का चातुर्य तथा उसकी बहुआयामी भूमिका यहां प्रमुख है। नाटक की विशेषता अपनी पूर्णता में दर्शक वर्ग को अपनी सहजानुभूति प्रदान करना होता है, जहां पात्र, दर्शक, निर्देशक, रंगमंच सभी एकाकार हो जाते हैं। ‘विचार’ का भावानुभूति में ढलना तथा उसके चित पर पड़ा प्रभाव बहुत देर तक प्रभावी रहता है। यह मात्र प्रतिकार का वाहन ही नहीं है, चित की वृत्तियों को समेटता हुआ एकोन्मुखता प्रदान करने वाला नाटक भी है। यही इसकी लोकप्रिय होने की पहली शर्त है। इसकी प्रस्तुति की असाधारण तीव्रता, ...  नाटक के प्रारंभ से ही चरम के साथ प्रभावी हो जाती है। इसके शिल्प की यह विशेषता है। यहां पानी को धीरे-धीरे ताप नहीं दिया जाता। प्रारंभ ही तीव्रता के साथ, होता है, गति ही दर्शक के मन को अचानक खींच लेती है। भाषा, अभिनय, मंच सज्जा, प्रकाश योजना, एकोन्मुखता को लक्ष्य केन्द्रित करके नियोजित की जाती है।शिवराम के नुक्कड़ नाटकों की समीक्षा उपरोक्त विवेचना के आलोक में किया जाना उचित है।

‘नुक्कड़ नाटक’, वर्तमान की आवश्यकता थी। यह ‘विस्फोट’, मात्र सपाट बयानी या कथन वक्रता की नई शैली नहीं है वरन, ‘जन’, जन संकुलता और उसकी पीड़ा से सीधे जुड़ने का उपक्रम है। संवादों के माध्यम से कथा की प्रस्तुति, नाटकीयता में नहीं ढल जाती। ‘नाटकीयता, ... पृथक गुण है। जो कृति को एक नाटक बनाती है। यहां, ‘वस्तु’ रूप में जो ढलना चाहती है, उसके भीतर, ... सामने दर्शक उपस्थित रहता है, वह ‘कार्य व्यवहारों के साथ, ... जहां शब्द ‘नाट्य शब्द’ से संगुफित होकर, ... क्रियाशील बन जाता है। अभिनेयता तथा संवाद, ... इस नाटकीयता को रचते हैं। संपूर्ण परिप्रेक्ष्य इस कृकृति को दर्शक के सामने पसारा फैलाकर, उसके अंतर्तम को झकझोर देता है। यहां प्रेक्षागृह की साज सज्जा नहीं है, भाषा अपने संपूर्ण सौदर्य, आवेग, रचनात्मकता के साथ होती है। हर शब्द प्राणवान होता है।
शिवराम के नुक्कड़ नाटक ‘जनता पागल हो गई है’, ‘जमीन’, में इस ‘नाट्य रूप’ की उत्कृष्टता हम देख पाते हैं। इस कृति की भूमिका में शिवराम ने कहा है- जनता पागल हो गई है, के उत्तरार्द्ध पत्रिका में छपने के बाद से सैकड़ों प्रदर्शन हो गए हैं, साथ ही पुस्तक में छपने से पूर्व उन्होंने इस कृति में संशोधन भी किए हैं।
‘जनता पागल हो गई है’, आपातकाल के पूर्व लिखा गया पहला नुक्कड़ नाटक है। संपूर्ण व्यवस्था की अराजकता पर यह सीधा व्यंग्य है। आम जनता, शासन, कुशासन, पूंजीपति, पुलिस के गठजोड़ से पीड़ित है, पर वह चुप है। यह नाटक सीधा उसके भीतर उतरकरउसकी मूल आवाज को गहराई से कुरेदकर, उसे बोलने का सामर्थ्य देता है। परिस्थितियां आज भी उतनी ही बदशक्ल में है जितनी बीस साल पहले थी, आज आदमी और भयभीत हो गया है।
... शिवराम, जनवादी लेखक हैं, उनकी दृष्टि स्पष्ट है। जहां तक कृति का पहला भाग है, स्थितियों का सही व सत्यपरक आलेखन, उससे किसी को भी असहमत होने की गुंजाइश नहीं है। जनता व पागल, दोनों पात्र, अपनी प्रतीकात्मकता में सारे समाज की करुणा, दशा को भाषा देते हैं। ‘‘पूजीपति, पुराने सामंतवाद की अगली कड़ी है। ‘सरकार व पुलिस’ अपने पुरानेे रूप में यथावत है।
मात्र लोकतांत्रिक नया रूप ढाला है।दूसरा भाग, स्थितियों के साक्षात्कार का है, क्या स्थितियों में परिवर्तन, चुनाव से आएगा, ... समाज बदल पाएगा, ... क्या प्रतिकार ही साधन शेष रह गया है। यह नाटक और शिवराम के अन्य नाटक, एक गहरा सवाल खड़ा करते हैं। जनता का संघर्ष क्या रूमानियत है? क्या हिंसा और आत्मघात दो ही विकल्प शेष रह गए हैं? यहां आकर इन नुक्कड़ नाटकों की प्रासंगिकता महत्वपूर्ण हो जाती है।

... क्या मात्र ‘हिंसा ही अब एक मात्र विकल्प शेष रह गया है। जहां तक नागरिक का है, उसे प्रबुद्ध कर प्रतिकार की क्षमता सोंपना श्रेयस्कर है। समकालीनता का इतना सटीक व प्रभावी चित्रण दुर्लभ है। आम नागरिक रंगमंच के दूसरी तरफ भी खुद को ही पाता है। भाषा में प्रखरता, ... शब्द... जैसे उसके भीतर से ही उपजे हों , ... यहां ‘रस वाद नहीं है। परन्तु ‘नाटक’ जिस प्रभावोत्पादकता से सन्निहित हो जाता है, वह बेजोड़ है। नया नाटक शास्त्रीय परिधि का पालन नहीं करता है। वहां नाटक के नायक को फल की प्राप्ति नहीं है। यहां ‘रस’ की खोज सारगर्भित नहीं रही है। ‘वस्तु’ रहेगी, ... वही ‘रूप’ की तलाश करती है। ... कहानी उपन्यास में भी वस्तु होगी। परन्तु मात्र संवादों में वस्तु की अभिव्यक्ति से कहानी नाटक में नहीं ढल सकती। ... यहां भावात्मकता, जिसमें भाव और विचार संगुफित होकर आते हैं वह एकोन्मुख होकर, प्रभावान्विति को प्राप्त होती है।’

संग्रह के सभी नाटक सौद्देश्य है, ... जहां विचार का आरोपण है, वहां नाटकीयता निःशेष हो गई है, मात्र पार्टी का व्यक्तव्य रह गया है। यह पेचवर्क है, जिसके लिए नाटककार ने संग्रह की भूमिका में कहा है, जो बाद में जोड़ा गया है।

सरकार-‘‘लेकिन चुनाव के समय का तो ध्यान रखना चाहिए। हम चुनाव हार गये तो हमारा क्या होगा? और हम नहीं होंगे तो हमारा क्या होगा? आप क्या सोचते हैं ये विरोधी दल तुम्हारी वेतरणी पार करा देंगे और फिर कम्यूनिष्ट भी तो आ सकते हैं।
आपने कहा- निर्यात बढ़ाए बिना हम जिन्दा नहीं रह सकते और निर्यात तब तक नहीं बढ़ सकता जब तक विदेशी कम्पनियों से उच्च तकनीक न मिले।
तुम्हारी खातिर हमने विदेशी कम्पनियों के लिए देश के सभी दरवाजे खोल दिए। देश की स्वतंत्रता और सम्प्रभुता तक को दांव पर लगा दिया। देश को विदेशी कर्जों मंे डुबो दिया। और अब आप चुनाव के समय जनता को तंग कर रहे हो।’’
पृ.26
यह कथोपकथन, ... अचानक गति में शिथिलता लाता है, ... ‘कार्य-व्यवहार’ रूक सा जाता है। यह ‘सरकार’ और पूंजीपति के बीच का संवाद है। लेखक स्वयं यहां उपस्थित होकर अपनी वैचारिक दृष्टि को स्थूलता में रख रहा है। शेष नाटक की भाषा, ... अन्तर्वस्तु से एक रूप हैं छोटे संवाद है, ... जहां अत्यधिक गत्यात्मकता है।
सरकार- और देशों की जनता अपने देश के लिए सिर तक कटा देती है।
जनता- (सिर प्रस्तुत करते हुए) लीजिए सरकार! यही बात है तो यह सिर भी उतार लीजिए हुजूर...
पृ. 15
सरकार-भूखी हो?
जनता-हां!
सरकार- (सहज भाव से) तो, भूखी रहो। मगर खुश-खुश। कल के सुख के लिए आज कुर्बानी करनी होती है, जनता।
पृ. 14
जनता- (दर्शकों से)
मैंने अपना हाथ पसारा
उसने दिया चमकता नारा
देखी नहीं जिगर की चोट
देखा केवल मेरा वोट
पागल- वोट माने कुर्सी, वोट माने राज
वोट माने सत्ता, वोट माने ताज
वोट माने लूट का पट्टा, पांच बरस को औरवोट माने ठगा गया फिर, पांच बरस को और
पृ.20

नाटक का अंत विद्रोह में होता है, जनता पागल हो गयी है, ... जनता का विद्रोह हो जाता है, दुःस्वप्न तथा ‘कुकुडूं कूं, ... आपातकाल में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जो आघात लगा था, ... उस पीड़ा का अंकन करते हैं। यहां भी, ... आतंककारी अंधकारी सिंह रूपीी सामंतवाद की पराजय है, ... उसकी मृत्यु तथा उसका आतंक हिंसा से ही समाप्त होता है।
‘जमीन’ जनता की आशा व आकांक्षा का जीवंत दस्तावेज है। भू-स्वामी, उसके डकैत, उसकी सहायक पुलिस व साहूकार एक तरफ है, दूसरी ओर वे हैं जिन्हें जमीन आवंटित हुई है। ठाकुर कब्जा नहीं करने देता है। फर्जी मुकदमे चलाता है। अंत, सामूहिक संघर्ष में है, प्रतिकार जो ‘प्रतिशोधात्मक होता हुआ, ... हिंसक क्रांति में ढल जाता है।
नाट्य भाषा में तीव्र प्रवाह है, ... पूरा गांव, ... शब्दानुभव की अनुगूंज में रंगमंच पर उभर आता है। शब्द चित्रों की आवृत्तियां, ... दृश्यों में ढल जाती है, ... नाटकीयता का उत्कर्ष, संगीतात्मक संवादों में है-
‘‘जैसे हो जोतेगा
जो भी वो बोएगा
चाहे जेब में धेले न तीन
हो हो भैरूको, ... हां हां भैरू को
भैरू को मिली जमीन।
पृ. 59
एक- वो हम पर जुल्म करेंगे।
दो- थाने में बंद कर मारेंगे।
तीन- हमारे घर जला देंगे।
चार- हमारी बहू-बेटियों की आबरू उतारेंगे।
गरीबा- हाँ, यही होगा। जब तक हम डरते रहेंगे, एक दूसरे का साथ नहीं देंगे। ऐसा ही होता रहेगा। आज हमारे साथ हो रहा है तुम तमाशा देखो। कल तुम्हारे साथ होगा हम तमाशा देखेंगे।
किशन्या- हां, ऐसे ही चलता रहेगा। हमारी जिन्दगी ऐसे ही नर्क बनी रहेगी।
पृ. 68
... संभवतः दर्शक यहां, ... अपने आपको अकेला नहीं पाता है, उसके भीतर का भय, जड़ता विवेकशून्यता, ... उजाले की एक किरण के आते ही अंधकार जिस प्रकार हटने लगता है, ... धीरे-धीरे नाटक के साथ वह अपने आपको परिवर्तित पाता है। यहां रस सृष्टि नहीं है, ... नाटक अपनी भावात्मकता में, जहां विचार भीतर तेजाब की तरह है, उसे बूंद-बंूद कर उसकी चेतना को झकझोरता जाता है। यही प्रभावान्विति यहां एक चुभन की तरह व्याप्त हो जाती है। जहां अंत में किसान आंदोलन उग्र हो जाता है। हिंसक होकर, भू-स्वामी, पुलिस, सबको भगा देती है, ... भीड़ पीछा करती है, उन्हें पकड़ लाती है।
हटीला- एके भी ताकत से
निपटेंगे आफत से
जुल्मी को धूल चटाए दीन।

कोरस- भैरू को, गवई को, भौमा को, धौमा को
मुझको भी इसको भी, सबको मिली जमीन।
पृ. 72वर्तमान परिस्थितियों से यह नाटक रूबरू कराते हैं। यहां पलायन नहीं है। कलात्मक सुरक्षा नहीं है; कृति एक निरपेक्ष साहित्य रूप नहीं है। उसकी अपनी निजी स्वायत्तता नहीं है। वह प्रतिबद्ध है, वह आम जन की पीड़ा, ... उसकी व्यथा से दर्शक को रू-ब-रू कराने में समर्थ है। जीवन सत्य अपनी संपूर्ण कुरूपताओं के साथ यथार्थ की भूमि पर जीवन्त है। हां, लेखकीय दृष्टिकोण स्पष्ट है, जहां पर ‘पेचवर्क’ की तरह आता  है, वहां कृति का लालित्य कमजोर भी हो जाता है।
घुसपैठिये
‘‘घुसपैठिये’ में शिवराम के नुक्कड नाटकों का दूसरा संग्रह है। ‘‘विगत दशकों में उभरे प्रगतिशील जनवादी संस्कृति के उभार में विकसित नुक्कड-नाटक आंदोलन में शिवराम की अग्रणी भूमिका रही है। नुक्कड़-नाटक का उद्भव ही सामाजिक रूपांतरण की उत्कट चाह और प्रतिरोध के प्रखर माध्यम के तौर पर हुआ है। ये नाटक सिर्फ प्रेक्षागृह का ही अतिक्रमण नहीं करते, बल्कि दुनिया के मेहनत कशों के वैश्विक प्रतिरोध की संस्कृति निर्मित करते हैं।’’
आवरण पृष्ठ - राजाराम मादू
‘वर्तमान’ शिवराम की नाद्य चेतना का प्रबल प्रेरिक कारक है। ... वे आज दुनिया में जो भी कुछ घट रहा है, ... जो वैज्ञानिक भौतिक विकास मानवीय चेतना के दमन का आधार बना है उसे व उसके प्रभाव को गहराई से अनुभव करते हैं। उनके भीतर प्राप्त समझ का आदर है, वे एक वैकल्पिक दुनिया का रोमांटिक ख्वाब नहीं बुनते, ... एक मूटोपिया उनके पास नहीं है, ... जहां कल्पना की महीन चादर बुनी जाती हो, ... वे बस इस हताशा और कटुता के बीच ... मनुष्य की उद्दाम जिजीविषा का आदर करते हुए उसे ‘प्रतिकार से प्रतिरोध तक ले जाते हैं। गंभीर शोर उनके पास ही है, ... पर वे इस कोलाहल के पार भी झांकते हैं, ... प्रारंभ में जो एक राजनैतिक कर्मी की सक्रियता, उनके नाटकों में परिलक्षित हुई थी, ... वह धीरे-धीरे गहन व सजग होती हुई, ... स्थिरता देती हुई दिखाई पड़ती है।
इस संग्रह में, ... ”अभी लड़ाई जारी है“, ”घुसपैठिए“, ”लम्बे हाथ वाला झाडू”, ”नाद्य रक्षक“, ”हे भद्र नागरिक सुनो“, पांच नाटक संग्रहित है।
नाटक, संवाद में कही गयी गत्यात्मक कथा प्रवाह नहीं है। वह गंभीर साहित्यिक कर्म है। दृश्य, और शब्द की युति यहां दर्शक के भीतर संवेदना का जगत जगाती है। दर्शक के भीतर जो जड़ता है, वह हटती ही नहीं है, वह अपने भीतर गहन समाजिकता के बोध के प्रकाश में डूब जाता है। ‘प्रेक्षागृह’ यहां साधारणजन का ‘रहवास’ है, जहां वह है, वहां नाटक स्वयं पहुंच जाता है, ... वह प्रेक्षागृह में दर्शकों को निमंत्रित नहीं करता है।
‘‘नाटक सिर्फ मनोरंजन नहीं होता। नाटक को सिर्फ मनोरंजन में तब्दील करना उससे उसकी चेतना-निर्माण की भूमिका छीन लेना है उसे सिर्फ भड़ेैेती में बदल देना है। नाटक की हत्या का एक और तरीका ईजाद किया गया- वह यह कि उसे व्यापकता से काट दो- सीमित सुधी दर्शकों या प्रतियोगिताओं में प्रतिभागी अभिनेताओं और निर्णायकों तक सीमित कर दो; जिनके सरोकार कथानक से गौण और कलापक्ष से प्रमुख होते हैं ............... जाहिर है हमारे समय की मांग है कि नाटक नव उपनिवेशीकरण के विरूद्ध जनचेतना- निर्माण का साम्राज्यवाद से गढ़जोड़ करने वालों के छद्म को उजागर करने का, श्रम जीवी जन-गणों में नए उत्साह और साहस का संचार करने का काम करें।’’
‘‘नाटक फिर भी जारी है’’ शिवराम पृ. 7
इस संग्रह के नाटकों में, ‘लोकनाट्य की शैलियों का प्रयोग बहुलता में है। ‘अभी लड़ाई जारी है’, ”हाल्हा“ की शैली में है, करोली जिले की लोक गायकी यहां है
गवैयेः (दोहा)
दया दृष्टि करिये प्रभो, काना फूसी छोड़
नाटक करते हैं शुरू, मन के मन का जोड़।।
पृ. 11
... दर्शकों के साथ यहां सीधा संवाद उपस्थित होता है...
(धुन राधेश्याम तर्ज)
जो सफदर सुखदेव की थी, हां वो ही जंग हमारी है।
थमी नहीं ना बन्द हुई, हां अभी लड़ाई जारी है।
हां अभी लड़ाई जारी है, हां अभी लड़ाई जारी है।
... नाटक शुरू होता है, जनरल डायर का प्रवेश होता है, ... गोली चलती है, जलिया वाला बाग का दृश्य उभरता है, फिर सेठ और मुनीम आते हैं, ... देवीसिंह का हिसाब होता है, लठैत आते हैं, ... ग्रामीण शहर आता है, वहां आजादी की लड़ाई चल रही है, ... पत्नी कहती है, गांव छोड़कर चलंे, ... देवीसिंह शहर आता है, वहां आजादी की लड़ाई चल रही है, ... क्रांतिकारियों को सजा मिली है, परन्तु आजादी के साथ ही, ... सेठ और मुनीम तथा ठाकुर ही नेता बन जाते हैं।
गवैये आते है, ... इस यात्रा को समकालीनता के द्वन्द्व से जोड़ देते हैं-
‘सेठ सब आज़ाद हैं, हाकिम सभी आज़ाद हैं
सूदखोरी, लूटखोरी, सब यहां आज़ाद है।
ज्योंकी त्यो आज़ाद गुन्डे, और पुलिस आज़ाद है।
शोषण, दमन, पाखंड, छल, बल ज्यों की त्यों आज़ाद है।
पृ. 20
‘दर्शक’ नाटक में तीसरा महत्वपूर्ण तत्व है। ‘संवाद, अभिनेयता, दूसरे तत्व हैं। साधारणीकरण दर्शक का ही होता है। उसके ही अंतर्मन पर, पड़ा प्रभाव जहां उसे नाटक का पात्र तक बना जाता है। वह खुद अपने आपको नाटक का पात्र समझता ही नहीं, ... अनुभव भी करता है, ... यही इस जन-नाट्य की प्रभावी क्षमता है।
... देवीसिंह और उसकी पत्नी शहर में काम तलाश कर रहे हैं, ... यहां आकर भी उन की जन चेतना जगती है, ... अचानक नाटक में, देवीसिंह की जगह स्वयं नाटककार का हस्तक्षेप हो जाता है।
‘‘देवसिंह- निर्वैकल्पिक कुछ हल नहीं होता। हर चीज का विकल्प होता है। हर समस्या का हल और हर सवाल का जवाब। सवाल यह है कि आप विकल्प की तलाश भी करना चाहते हैं, या नहीं। इस देश में ना साधनों की कमी है ना सम्पदा की। ना प्रतिभा की कमी है ना परिश्रम की। कमी है तो आम जनता से प्रतिबद्ध हुकूमत की और इस हेतु इरादे और हौंसलों की।’
पृ. 32
... उपरोक्त संवाद, ... नाटकीयता के विरूद्ध लेखकीय हस्तक्षेप है। जो नाटकीय शब्द को अचानक गंभीर विचारणा में अतिक्रमित करने का प्रयास करता है।यह देवीसिंह के चरित्र का स्वाभाविक विकास नहीं है।यह महत्वपूर्ण सोच किसी अन्य पात्र के द्वारा कहलाया गया होता तो अधिक स्वाभाविक रहता।
 देवसिंह की क्रांतिकारिता, ... से सत्तापक्ष पीड़ित है, वह उसे पहले प्रलोभन से फिर हिंसा से काबू करना चाहता है।
‘‘पुलिस हमला करती है, देवीसिंह घायल हो जाता है, फिर वह प्रतिकार करता है
‘‘देवीसिंह- मारो! मारो हमें!  हमारा जुर्म यही है कि हम काम चाहते हैं। रोजगार चाहते हैं। इज्जत से जीने का अधिकार चाहते हैं। क्यों हमें इतनी आजादी भी नहीं कि हम अपने साथ हो रहे जुल्म के खिलाफ आवाज उठा सकंे।’’
पृ. 34
... साधारणजन की यह विवशता, ... व्यवस्था की  क्रूरता के विरूद्ध उसकी प्रतिकार भावना उजागर होती है-
गवैये आते हैं- ‘खतरे में है इस तरह आजादी और देश
रक्षा इनकी कीजिए, यही एक संदेश पृ. 34
‘नुक्कड़ नाटक’ में तेज प्रवाह है, ... बरसाती नद की तरह तीव्र गत्यत्मात्कता है। संवाद क्षिप्र है, ‘शब्द’ अपने आप में नाटकीय स्थितियों के चित्रांकन में समर्थ है। प्रेक्षागृह में दृश्यांकन की सुविधा होती है। पात्र, ... पात्रानुसार चरित्र में ढलकर आते हैं। रंग सज्जा रहती है। पर यहां पात्र, ... साधारण विन्यास के साथ आता है, शब्द ही सार्थकता में, चित्रात्मकता के साथ आते हैं। दृश्य बन्धों की अनवरत शृंखला में यह नाटक अपनी गत्यात्मकता में, सफल है।
‘घुसपैठिए, ... प्रतीकात्मक नाटक है। यहां कश्मीर में आतंकवाद की समस्या को प्रस्तुत करते हुए, ... अमरीकी संस्कृति का जो भारतीय जनमानस पर प्रभाव पड़ा है उसका मार्मिक चित्रण है। ”लम्बे हाथ वाला झाडू“ में जहां केबल संस्कृति से हमारे समाज पर जो प्रभाव पड़ रहा है, इस समस्या को यहां उठाया गया है।‘हे भद्र नागरिक, सुनो! संग्रह का श्रेष्ठ नाटक है।
नाटक में ‘लोकनाट्य की शैली का प्रयोग है। समूह में जहां आदिवासी नृत्य करते हुए संवाद शैली में, ... गायन करते है, ... वहां से यह नाटक शुरू होता है। समस्या समाज में बढ़ रही अराजकता के भीतर खड़े उस सम्भ्रांत व्यक्ति की है, जो नैतिक परंपराओं का पालन करते हुए समाज में अपनी गरिमा के साथ रहना चाहता है।
‘‘प्रारंभ होता है। एक बड़े गुन्डे के आगमन तथा उसके सहयोगियों के मंच पर आने के साथ।
... राजा, यह युवक है, जिसके अपने सपने हैं, उसका परिवार है, ... वह इन गुंडों से पीड़ित होता है, उसकी बहन बलात्कार की शिकार होकर मर जाती है, ... बाप सदमें में मर जाता है। मां पागल हो जाती है, ... राजा भी एक गुंडा बन जाता है-
यहां भद्र नागरिक कहता है-
‘‘हो राजा! हम इसीलिए हारते रहते हैं कि हम अकेले होते हैं। अपने आप में सिमटें। अपनी-अपनी खोल में कैद। लेकिन राजा आंखें खोलकर देखो। हमारे चारों ओर ऐसे ही अकेलों की भीड़ जमा है। ये सब अकेले जिस दिन आपस में मिल जाएंगे, जुल्म पर टिकी व्यवस्था डगमगाने लगेगी।’’
... बॉस, राजा को मारना चाहता है। परन्तु अब गिरोह के सभी साथी राजा के साथ हो गए हैं, ... सब बॉस पर टूट पड़ते हैं, ... राजा भद्र नागरिक को बुलाता है, ... कहां हो तुम!
कोरस होता है-
कब तक चुप रहोगे भाई?
कब तक चुप रह लोगे?
... यहां नाटक, जिस विसंगति का समाधान करता है, वह पारम्परिक एक्य पर है, जब तक समाज में व्यक्ति, ... अकेला है, उसकी ही खोल में कैद है, तभी तक वह आतंकित है, दमन झेलता है, ... परन्तु सामाजिकता, संघर्षशीलता को जन्म देती है, जो वरेण्य है।
‘अंतर्द्वन्द चित्रित करने में, भावनाओं के उतार-चढ़ाव में लेखक की सूक्ष्म दृष्टि स्पष्ट हुयी है।


शिवराम के दो नाटक संग्रह”गटक चूरमा“ तथा ”पुर्ननव“;2009द्ध आकर्षक मुद्रण के साथ आए है। ”गटक चूरमा“, के लिए विशेषण रूप में वाक्यांश ”जन नाटक संग्रह“ उदृघृत किया गया है , जबकि पुनर्नव के साथ जनप्रिय कहानियों का नाट्यरूपान्तर अंकित है। स्पष्ट है किनाट्य प्रस्तुतियों, विशेष है, में सामान्य से कुछ अलगाव रखती है, एक विशेष अभिरूचि तथा  लक्ष्य को  समर्पित हैं।

जन तथा लोक शब्दएक दूसरे के पास आते हुए भी  पृथकता रख लेते है। जन, जनवादी शब्द हर विशेष वैचारिक सम्पन्ना दृष्टि को अंकित करते है। ”लोक“ शब्द में वह समाहित है। लोक विस्तृत है। बहुआयामी है जन में जो लोक है, वह एक सीमित दायरे में ही विवेचित है।

इस कारण शिवराम के नाटक की विशेषता ही उसकी सीमा है। उनका वैचारिक आग्रह लोकोन्मुख विशेष दृष्टि के निर्वहन मं कलात्मक उदात्तता  के स्पर्श को कहीं-कहीं छेाड़ भी जाता है। यही कारण  है कि रचना अपने उत्कर्ष शिखर को पाते-पाते    विचलन और विगलनकी तरफ निकल जाती है।

”गटर चूरमा “ में चार नुक्कड़ नाटक संग्रहित है। ये सभी नाटक एक विशेष शिल्पविधि  का निर्वहन करते है। एकांरी के शिल्प विधान से नुक्कड़ नाटक का शिल्प विधान पृथकता रखता है, यहाँ मंच खुला है, एक क्षण भी पर्दा नहीं गिरता है, अंक व दृश्यों का संयोजन तीव्र गति लिए हुए है। पात्रों में चरित्र का आगमन, उन की सहज स्वाभाविक भाषा तथा आंगिक मुद्राओं कीएकान्विति से े निर्वहित हो जाता है। नैपथ्य में संगीत, ....गीत,कथानक में गति लाने में  सहायक है। एकान्विति तथा एकोन्मुखता से जहां कथन एक चुभन के साथ प्रवाह व्यूह बनाने में सफल हो जाता है, वहीं इस नाटक की सफलता है।

शिवराम के पूर्व के नाटक पूरे भारत में अत्यधिक लोकप्रिय रहे है। उन की पहचान ”जनता पागल हो गई है“ से हुई थी। आपातकाल में यह नाटक बहुचर्चित रहा है। परम्परागत नाट्य विधान से यह नुक्कड़ नाटक अपनी शिल्पविधि में स्पष्ट पार्थक्य           रखता है, नहीं यह एकांकी की रूप विधा में  है। इसे परम्परागत मंच पर भी खेला जा सकता है, तो चौराहे पर भी। शिवराम ने इस नाट्य-रूप पर दक्षता से कार्य किया है।

इस संग्रह का” हम लड़ाकियाँ“े, अपने  कथ्य, तथा प्रस्तुति में  बेहतर नाटक है। यहाँ वैचारिक शोर के स्थान पर गहन चिन्तात्मक आवेग तरलता के साथ प्रवाहित है। यहाँ लैंगिक धरातल पर मानसिक विड्डतियों का उन्मीलन एक बेहतर सहज फलक पर है।        मानसिक रूपान्तरण  ही वास्तविक परिवर्तन है। कथा का पात्र जो भू्रण हत्या लिए तत्पर है,उस के भीतर कन्या के प्रति  प्रेम यहां जिस मनोजगत में उत्पन्ना द्वन्द से  उपजा है, उस की रूपाड्डति दर्शर्क के भीतर विचार उत्पन्ना करने में समर्थ है।

”बोलो-बोलो -हल्ला बोला,“ मदारी और जम्मूरे को लेकर प्रभावी नुक्कड़ नाटक है। परम्परागत मदारी के खेल को वैचिरिक भाषा से सम्पन्ना किया गया है। मदारी के रूप में भारतीय प्रगतिशील चिन्तक, जो पूंजीवाद, सामंतवाद, बाजारवाद, प्रतिक्रियावादरूप से परिचित है, बहुत ही लम्बे संवादो के साथ मुखरित है। नाट्य भाषा का  जनोन्मुखी रूप क्या भदेस  में ही सम्भव है? यह प्रश्न यहाँ  महत्वपूर्ण भी है। उससे अधिक महत्वपूर्ण है भदेस   को न्यायोचित ठहराने का उपक्रम.... जहाँ तर्क को  ड्डतर्क के महीन धागे से नई रूपाड्डति देने का  प्रयास  है। लोक तक पहुँचने का मार्ग लोक को संस्कारित करना भी है और लोक से संस्कारित होना भी है, यह एक अनवरत प्रक्रिया है। शरीर भी अपने को बनाए रखने के लिए जो भी हेय  है, अवांछित है, उसे स्वतः बाहर फैकता रहता है। यही लोक में परिमार्जन की परम्परा है, विधि है।

शिवराम के इस,” जन नाटक“ संग्रह की अपेक्षा उनका जन प्रिय कहानियों का नाट्य रूपान्तरण उत्ड्डष्ट कृतिे है। ’ठाकुर का कुआं,’ ‘सत्याग्रह,’ ऐसा क्यों हुआ,’ मुंशी प्रेमचन्द की कहानियों का नाट्य रूपान्तरण है। जबकि ‘खोजा नसरूद्दीन बनारस  में ’की आधर कथा  रिजवान जहीर  उस्मान की कहानी है। ” क्यों? उर्फ़ वक्त की पुकार“नीरज सिंह  की कहानी है।

साम्प्रदायिकता की पहचान और परख तथा उसका जड़ीभूत व्यवस्था पर  आतंक  के  संदर्भ में इस संग्रह की खोजा नसरूद्दीन बनारस  में उत्ड्डष्ट ड्डति हैै। मूल कथा तो पढ़ी नहीं है, परन्तु यह नाटम्य रूपान्तरण  भी एक मौलिक संरचना ही है। ”नाट्य शब्द“ का यहाँ प्रयोग सुन्दर है। व्यंग्य तथा कल्पना दोनों का एकात्मक प्रयोग इस रचना की विशेषता है।

‘ठाकुर  का कुवां’ अपने समय की प्रभावशाली कहानी है। इस का रूपान्तरण  भी बेहतर है। शिवराम अपनी मौलिक ड्डति ‘गटक चूरमा’ की अपेक्षा जनप्रिय कहानियों के नाट्य रूपान्तरण्ण में अधिक सफल रहे है। यहाँ रूपान्तरण में नाटककार ने मौलिक परिवर्तन भी  कथा में किए है। इसीलिए ‘पुनर्नव’ शीर्षक सटीक है।  नाटक की क्षमता उसकी संवाद प्रस्तुतियां है। शिवराम की भाषा जहां सहज व प्रभावी है, वही वैचारिक रचना का अत्यधिक आग्रह उनकी  नाट्य भाषा  को अभिधात्मकता देता हुआ भाषा के लचीलेपन को खो देता है। पात्रानुूलल भाषा का वैचारिक प्रवाह जिस संगति की अपेक्षा रखता है, उसका निर्वहन कही-कहीं छूट भी जाता है। यह सही है , जन नाटक का उद्देश्य मनोरंजन के साथ मार्गदर्शन भी है। परन्तु मागदर्शन के साथ वैचारिक पाठ का अतिरेक कलात्मकता को कही-कही क्षति भी  पहुँचा देता है। शिवराम रचनाधर्मी प्रयोगवादी, प्रगतिवादी नाटककार है। उनकी दोनों ड्डतियां नाटक के क्षेत्र में अपनी स्थापनाओं के साथ उल्लेखनीय हैं।